भारतीय शिक्षा बोर्ड द्वारा भारतीय मानस (बौद्धिक चेतना) तैयार करने व दिव्य विश्व नागरिक निर्माण की 'डिवाईन ब्रेन प्रोग्रामिंग'
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राकेश जी मुख्य केन्द्रीय प्रभारी, भारत स्वाभिमान
सुनियोजित षड्यन्त्र के तहत विदेशी शासकों ने भारतीयों की बौद्धिक चेतना व पूरे भारतीय समाज के अवचेतन में हीनता, दीनता के भाव भरने के लिये लॉर्ड मैकाले ने 1835 में अंग्रेजी शिक्षा प्रारम्भ की जिसका मुख्य उद्देश्य उन्हीं के शब्दों में ‘‘ऐसे लोगों को तैयार करना जो केवल रक्त और अंग से भारतीय होंगे किन्तु रूचि, विचार, आचार व ज्ञान की दृष्टि से अंग्रेज होंगे और जो हम शासकों व हमारे करोड़ों प्रजाजनों के बीच दुभाषियों का काम करेंगे।’’ लॉर्ड मैकाले ने यह घोषणा करने के बाद बड़े गर्व पूर्वक अपने पिता को पत्र लिखा- ‘‘मुझे पक्का विश्वास है कि यदि शिक्षा की हमारी योजना को आगे बढ़ाया गया तो 30 वर्ष बाद बंगाल के संभ्रांत वर्गों में एक भी मूर्तिपूजक शेष नहीं रहेगा। यह परिणाम बिना किसी धर्मांतरण के, बिना उसकी धार्मिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप किए ही निकल सकेगा।
विलियम विल्वर फोर्स से लेकर अनेकों अंग्रेजों ने 1780 से इंग्लैण्ड में सुनियोजित आन्दोलन शुरू किए कि ब्रिटेन की साम्राज्य स्थापना का मुख्य उद्देश्य केवल धन कमाना नहीं बल्कि इसाई धर्म का प्रचार होना चाहिए। लॉर्ड मैकाले से लेकर अनेक अंग्रेज अधिकारी यह मानते थे कि जब तक हम भारत का ईसाईकरण नहीं कर लेते तब तक हम भारत में स्थायी रूप से नहीं रह पायेंगे और हिन्दुओं को ईसाई बनाने का एक ही तरीका है कि उनकी स्वदेशी शिक्षा प्रणाली के स्थान पर उनको अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली का गुलाम बनाया जाये।
मैकाले की विदेशी शिक्षा प्रणाली के कारण भारत की 200 करोड़ वर्ष पुरानी आध्यात्मिक संस्कृति पर यूरोप व पश्चिम की भोगवादी व भौतिकतावादी अपसंस्कृति के 200 वर्षोंने गहरा आघात पहुँचाया है। |
किसी भी देश का न्याय, राजस्व, शासन प्रणाली एवं अर्थ रचना से शिक्षा प्रणाली से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है, शिक्षा प्रणाली बदलने से इन सबके अन्दर बदलाव आता है। अंग्रेज यह मानते थे कि ‘‘शिक्षा प्रणाली ही केवल एक ऐसा सांचा है जिसका कार्य वैसा मनुष्य बनाना है, जैसा आप चाहते हो’’ शिक्षा प्रणाली के सम्बन्ध में चयन करने से पहले हमें यह तय करना होगा, हम कैसा मनुष्य बनाना चाहते हैं उसकी जीवन शैली, पारिवारिक, सामाजिक परिवेश, राष्ट्र की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक रचना कैसी होगी।
लॉर्ड मैकाले की इस विदेशी शिक्षा प्रणाली के कारण भारत की 200 करोड़ वर्ष पुरानी आध्यात्मिक संस्कृति पर यूरोप व पश्चिम की भोगवादी व भौतिकतावादी अपसंस्कृति के 200 वर्षोंने गहरा आघात पहुँचाया है। वैदिक संस्कृति सभ्यता व ऋषि संस्कृति वाले भारत के अधिकांश आधुनिक युवाओं के माइण्ड सेट अर्थात ब्रेन की प्रोग्रामिंग को गलत करके माइण्ड सेट में परिवर्तन कर दिया है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली द्वारा सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक सोच में पश्चिम के आदर्शोंसिद्धान्तों व विचारधारा का महिमा मण्डन किया जा रहा है। लॉर्ड मैकाले की कुटिलतापूर्ण आधुनिक शिक्षा व्यवस्था से भारत को अंग्रेजों ने केवल राजनैतिक ही नहीं बल्कि सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक व सांस्कृतिक रूप से भी गुलामी की जंजीरों में जकड़ा तथा उसी मूल्यहीन अंग्रेजी शिक्षा के कारण 1947 में राजनैतिक आजादी तो मिली पर आज भी देश सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक व आर्थिक रूप से वैचारिक गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ है। क्योंकि लॉर्ड मैकाले की शिक्षा व्यवस्था ने हमारे भारत के युवाओं की या यूं कहें कि सम्पूर्ण भारत की ब्रेन की प्रोग्रामिंग (विचार, मंथन व चिंतन) इस प्रकार से बना दी है कि वह बचपन से ही त्याग के स्थान पर भोगवादी संस्कृति, संयम के स्थान पर उच्च-शृंखलता व असंयम को अपना आदर्श मानने लगे हैं, लॉर्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति के कारण नई पीड़ी की ब्रेन की प्रोग्रामिंग में भोगवाद का महिमा मण्डन, पश्चिम का महिमा मण्डन, भारत की महानता का अनादर, नास्तिकता, झूठी धर्मनिरपेक्षता, अवैज्ञानिक विकासवाद, अप्राकृतिक यौन सम्बन्धों का महिमा मण्डन, प्रचार माध्यमों यथा-टीवी, सिनेमा, इन्टरनेट सोशल मीडिया, साहित्य के माध्यम से षड्यन्त्रपूर्वक सुनियोजित वातावरण बनाकर आधुनिक युवाओं के मन में स्कूलों व कॉलेजों में ही यह भोगवादी व भौतिकतावादी भाव को कूट-कूटकर भर दिया जाता है, कि ‘‘खूब खाओ, खूब कमाओ व भोगो, वर्तमान आधुनिक शिक्षा में जब 3-4 वर्ष से कच्ची मिट्टी के समान-खाली स्लेट जैसा मस्तिष्क लेकर बच्चा प्ले स्कूल (प्रथम कक्षा) के माध्यम से जैसे ही प्रवेश करता है उसके अवचेतन मस्तिष्क में शब्दों, प्रसंगों, पाठ्यक्रम के द्वारा उसका ब्रेनवॉश करके वाणी, व्यवहार, आचरण व विचार से उसे ‘‘योगी से भोगी व रोगी’’तथा एक उपभोक्ता के रूप में बना दिया जाता है। जिससे उसके अवचेतन मन की प्रोग्रामिंग में सत्य, अस्तेय, अहिंसा, तप, त्याग, सेवा, योग, अध्यात्म, प्रेम, करुणा, पुरुषार्थ, पवित्रता, सात्विकता, ब्रह्मचर्य, संतोष, शान्ति के स्थान पर झूठ, लालच, हिंसा, प्रमाद, अब्रह्मचर्य, दुराचार, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, नशा, वासना, मांसाहार, अश्लीलता, अनैतिकता, नास्तिकता इत्यादि भोगवाद ही उसको जीवन का आदर्श व लक्ष्य बन जाता है।
शिक्षा व्यवस्था का वैचारिक प्रभाव
यदि हम ब्रेन की प्रोग्रामिंग की बात करें तो पूरे विश्व को आतंकवाद से त्रस्त करने वाला ओसामा बिन लादेन भी आधुनिक शिक्षा की उच्चतम डिग्री सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद भी वह मानवता के एक विनाश का बड़ा कारण बना, इसी प्रकार संसद भवन पर हमला करने वाला मोहम्मद अफजल भी एक विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षित प्रोफेसर के रूप में काम करता था, लेकिन उसकी भी बचपन से गलत शिक्षा या ब्रेन की प्रोग्रामिंग ऐसी हुई कि उसने भारत के लोकतन्त्र के मंदिर पर हमला करने का पाप किया।
यदि हम इसके मूल कारणों की खोज करें तो पायेंगे कि ओसामा बिन लादेन ने जो बचपन में पढ़ाई की, उसके कच्चे मस्तिष्क (अवचेतन मन) में कट्टरवादी विचारधारा, घृणा, नफरत, व धर्मान्धता की ऐसी वैचारिक प्रोग्रामिंग हुई कि वह मानव के रूप में जन्म लेकर भी दानव बन गया।
आधुनिक शिक्षा केवल अक्षर ज्ञान देती है जबकि भारतीय वैदिक ज्ञान परम्परा अथवा ऋषि परम्परा की शिक्षा का उद्देश्य मानव को साधारण से असाधारण, पुरुष को महापुरुष बनाना है। मनुष्य के संस्कार का परिष्कार कर महामानव, अतिमानव, अतिमानस तक परिष्कार करते हुए उसको ऋषिसत्ता व ऋषियों का सच्चा उत्तराधिकारी बनाना है। इसको यदि महर्षि दयानन्द के शब्दों में कहें तो ‘‘ऋषि सत्ता का अवतरण मनुष्य में घटित करना ही विद्या व शिक्षा का उद्देश्य है।’’इसी तरह महान मनीषी अंग्रेजी शासन के विरुद्ध शासन करने वाले महर्षि अरविन्द जी कहते हैं कि मनुष्य लोक जीवन जीते हुए भी प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली व योग से अपनी चेतना को अतिमानस (सुपर माइन्ड/सुपर कॉन्सियसनेस) तक विकसित कर, अपने व्यक्तित्व को अतिमानव (सुपरमैन) की सुपर चेतन अवस्था तक ले जाकर अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त कर सकता है। महर्षि अरविन्द के शैक्षिक दर्शन में अतिमानस में चेतना का उच्चतम स्तर है और अतिमानस की स्थिति तक शनै:-शनै: पहुंचना ही शिक्षा का कार्य है। महर्षि अरविन्द वर्तमान शिक्षा पद्धति से पूरी तरह से असंतुष्ट थे। वे कहते थे, ‘‘कि मात्र सूचनात्मक ज्ञान, कुशाग्र बुद्धि का आधार नहीं हो सकता’’, (Information cannot be the Foundation of Intelligence) महर्षि अरविन्द शिक्षा की प्राचीन भारतीय गुरुकुलीय परम्परा के पक्षधर थे, जिसमें गुरु शिष्य का मित्र पथ-प्रदर्शक तथा सहायक होता है। जिसके तहत गुरु अपने व्यक्तिगत जीवन आदर्श द्वारा विद्यार्थियों को नैतिक विकास हेतु उत्प्रेरित करे।
अंग्रेजों से पूर्व प्राचीन भारत के शिक्षा-साक्षरता व गुरुकुलों की व्यवस्था का तथ्यपूर्ण विवरण
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में 20 अक्टूबर, 1931 को लन्दन की एक सभा में जब गांधी जी ने भारत के ब्रिटिश शासन पर यह आरोप लगाया कि ‘‘ब्रिटिश राज की आंधी ने भारतीय शिक्षा के उस मनोहारी वृक्ष को ध्वस्त कर दिया और ब्रिटेन की 100 वर्ष के शासन के बाद भारतीय पहले से अधिक निरक्षर हो गये हैं।’’तो पूरे ब्रिटेन में सनसनी फैल गयी, कई अंग्रेजों ने गांधी जी के कथन का विरोध किया तो गांधी जी ने पुराने साक्ष्यों व आंकड़ों से उनका तथ्य व तर्क पूर्ण उत्तर दिया।
उन्होंने अंग्रेजों के विभिन्न प्रतिनिधियों की सर्वेक्षण दस्तावेजों के आधार पर यह सिद्ध किया कि 1823 में अकेले मद्रास प्रेसीडेन्सी में कुल आबादी- 1 करोड़, 28 लाख, 50 हजार थी और 12,498 गुरुकुल/पाठशालायें थी, जिसमें 1 लाख 88 हजार 650 विद्यार्थी पढ़ते थे, यदि हम उस समय के इंग्लैण्ड और भारत की शिक्षा की स्थिति का आंकलन करें तो पाते हैं कि भारत में शिक्षा स्थिति तत्कालीन इंग्लैण्ड से 3 गुना अधिक थी, वहीं दूसरी ओर उसी समय की इंग्लैण्ड की आबादी भी 95 लाख 53 हजार थी, दोनों की जनसंख्या में कोई बड़ा अन्तर नहीं था, परन्तु इंग्लैण्ड में पढऩे वाले छात्रों की संख्या मात्र 75 हजार थी, जिसमें से भी अधिकतर छात्र केवल रविवार को 2 से 3 घंटे के लिए मात्र बाइबिल पढऩे के लिए स्कूल में जाते थे। इससे सिद्ध होता है कि अंग्रेजों के इंग्लैण्ड से 18वीं सदी में भी जब भयंकर विदेशी आक्रमणों, ब्रिटिश राज्य द्वारा सुनियोजित तरीके से भारत में शिक्षा ही व्यवस्था ध्वस्त करने की कोशिशों के बाद भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में भी इंग्लैण्ड से भारत ३ गुना अधिक शिक्षित, साक्षर व विद्यावान था।
प्राचीन भारत में शिक्षा के विश्वस्तरीय केन्द्र
विश्व का पहला विश्वविद्यालय तक्षशिला आज से लगभग 2800 वर्ष पूर्व स्थापित हुआ। चौथी शताब्दी ई. पूर्व नालंदा विश्वविद्यालय स्थापित हुआ इसके साथ ही प्राचीन भारत में विक्रमशिला विश्वविद्यालय, वल्लभी विश्वविद्यालय, उदांतपुरी विश्वविद्यालय, सोमपुरा विश्वविद्यालय, पुष्पगिरी विश्वविद्यालय आदि शिक्षा के विश्वस्तरीय केन्द्रों के खण्डहर भारत में विश्व में सर्वाधिक उन्नत शिक्षा के प्रमाण हैं।
लार्ड मैकाले की विदेशी शिक्षा व्यवस्था के विरुद्ध परिवर्तन के आंदोलन का प्रारंभ
18वीं सदी में ही अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के दुष्परिणाम सामने आने लगे तथा तत्कालीन रवीन्द्रनाथ ठाकुर जी के पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर, योगी अरविन्द के नाना राजनारायण घोष, बंकिम चन्द्र चटर्जी, महर्षि दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, लाला राजपत राय, लोकमान्य तिलक, विपिन चन्द्र पाल, लाला हरदयाल, भगिनी निवेदिता, एनी बेसेन्ट, रविन्द्रनाथ ठाकुर, श्री अरविंद, स्वामी श्रद्धानंद, महात्मा गांधी आदि प्रबुद्ध मनीषियों ने इस विदेशी प्रणाली को प्रारम्भ से ही भारत के लिए विनाशकारी एवं अनुपयुक्त घोषित कर दिया था। इस शिक्षा व्यवस्था के पाश्चात्य दुष्प्रभाव एवं विनाशकारी परिणामों को भांपकर तथा भविष्य में होने वाले भयंकर विनाशकारी परिणामों का अनुभव करके 1839 से ही सर्वप्रथम तत्वबोधिनी सभा के माध्यम से कविवर रविन्द्रनाथ टैगोर के पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर जी ने 1845 में नि:शुल्क विद्यालय की स्थापना करके राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन में पहली आहुति डाली। उसके बाद योगी श्री अरविन्द के नाना श्री राजनारायण जी ने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के बाद अंग्रेजी भाषा व शिक्षा व्यवस्था के दुष्परिणामों की समीक्षा की तथा ‘‘सोसायटी फॉर द प्रोमोशन ऑफ नेशनल फीलिंग अमंग दि एजुकेटेड नेटिव्य ऑफ बंगाल (शिक्षित बंगालियों में राष्ट्रीय भावना संचारिणी संस्था)’’ के माध्यम से राष्ट्रीय पुर्नजागरण का पहला प्रयास प्रारम्भ किया। 1848 में देशवासियों के बौद्धिक व नैतिक विकास के लिए निरक्षरता को दूर करने के उद्देश्य से ‘‘स्टूडेंट्स लिटरेरी ऐंड सांटिफिक सोसाइटी’’ व दक्कन एजुकेशन सोसाइटी’ की स्थापना की गई। इस राष्ट्रीय चेतना की इस धारा को जी.वी. जोशी, महादेव गोविंद रानाडे, वासुदेव बलवंत फडक़े, विष्णु शास्त्री चिपलूणकर, बाल गंगाधर तिलक और गोपाल गणेश आगरकर (1856-1894) निरन्तर आगे बढ़ाते रहे।
1872 में बंकिम चन्द्र चटर्जी
बंकिमचन्द्र चटर्जी के संपादकत्व में ‘बंगदर्शन’नामक पत्रिका प्रारम्भ हुई, जिसने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त बंगाली समाज पर पाश्चात्य प्रभावों के विरुद्ध बौद्धिक अभियान छेड़ दिया। 1874 में महर्षि स्वामी दयानन्द जी के गुरुकुलीय शिक्षा के प्रयास- स्वामी जी ने अपने प्रथम भारत-भ्रमण के दौरान ही प्राचीन शिक्षा-प्रणाली को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता अनुभव की। सन् 1874 में आर्य समाज की स्थापना के पूर्व ही उन्होंने उत्तर प्रदेश में कासगंज, जलेसर, फर्रुखाबाद, मिर्जापुर तथा काशी में संस्कृत की वेद-पाठशालाओं की स्थापना करवा दी।
वर्ष 1893 में स्वामी विवेकानन्द
जी मानते थे कि ‘‘शिक्षा विविध जानकारियों का ढेर नहीं है, जो तुम्हारे मस्तिष्क में उन्हें ठूस दिया गया है जो आत्मसात् हुए बिना वहां आजन्म पड़ा रहकर गड़बड़ मचाया करता है। हमें उन विचारों की अनुभूति कर लेने की आवश्यकता है, जो जीवन-निर्माण,‘मनुष्य-निर्माण’तथा चरित्र-निर्माण में सहायक हों। उन्होंने पाश्चात्य सभ्यता के गढ़ अमेरिका के शिकागो सम्मेलन में पश्चिम की औद्यागिक सभ्यता एवं आधुनिक ज्ञान-संपदा पर भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता की पताका फहरा दी। अपने देश में पाश्चात्य ज्ञान एवं शिक्षा-प्रणाली के दोषों की ओर भी उन्होंने देशवासियों को ध्यान आकर्षित किया। स्वामी विवेकानन्द ने अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति के मोह-जाल से मुक्त होकर राष्ट्रीय शिक्षा-पद्धति की खोज की आवश्यकता पर बल दिया। उनके शिक्षा सम्बन्धी विचारों से अनुप्राणित होकर रामकृष्ण मिशन के सभी संन्यासियों ने, विशेषकर स्वामी जी की विदेशी शिष्या भगिनी निवेदिता ने राष्ट्रीय शिक्षा की दिशा में अनेकों प्रयोग प्रारंभ किए। 1905 में बंग-भंग में जब हजारों छात्र पढ़ाई छोडक़र आन्दोलन में कूद पड़े तो अंग्रेजों का तुगलकी फरमान जारी हुआ जिसमें आंदोलन में भाग लेने वाले छात्रों के कॉलेजों से निष्कासन के आदेश प्रधानाचार्योंको दे दिए गए। इस आदेश ने आंदोलन की आग में पानी के बजाय घी का काम किया।
1905 में रविन्द्रनाथ ठाकुर
की अध्यक्षता में प्रमुख नागरिकों की एक बैठक में वैकल्पिक शिक्षा पर विचार किया गया। उसी वर्ष रंगपुर नामक कस्बे में 300 छात्रों को लेकर रंगपुर राष्ट्रीय विद्यालय शुरू भी हो गया, बंगाल में राष्ट्रभक्तों ने एक शिक्षा सम्मेलन बुलाया गया, जिसमें एक ‘राष्ट्रीय शिक्षा परिषद्’गठित करने का निर्णय लिया गया।
इसके साथ गुरुदेव रविन्द्रनाथ जी की शिक्षा की संकल्पना- गुरुदेव ने मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने का प्रबल समर्थन किया है। अपने शिक्षा-आदर्शो को व्यावहारिक रूप देने के लिए रवींद्रनाथ ने चार शिक्षा संस्थाओं का निर्माण किया। सन् 1901 में उन्होंने ‘शांति निकेतन’विद्यालय आरंभ किया। दूसरी संस्था ‘श्री निकेतन’, जिसे तीसरी संस्था ‘शिक्षा-सत्र’तथा बाद में इन सब संस्थाओं को मिलाकर ‘विश्व भारती’की स्थापना की। 1906 में श्री अरविन्द जी के प्रयासों से 92 सदस्यों की जातीय (राष्ट्रीय) शिक्षा परिषद् का गठन किया गया और कलकत्ता में राष्ट्रीय महाविद्यालय तथा बंगाल नेशनल कॉलेज एवं स्कूल का विधिवत् उद्घाटन किया।
लोकमान्य तिलक एवं लाला लाजपत राय के शिक्षा के प्रयास- लोकमान्य की प्रेरणा से महाराष्ट्र में अमरावती व पूना आदि नगरों में ‘‘राष्ट्रीय विद्यालय’’स्थापित हुए। लाला लाजपतराय की प्रेरणा से लाहौर भी राष्ट्रीय शिक्षा का केन्द्र बन गया। इसके साथ ही स्वदेशी आन्दोलन के प्रवर्तक लाल, बाल, पाल की त्रिमूर्ति में से एक विपिनचंद पाल- के नेतृत्व में ‘‘नेशनल कांउसिल ऑफ एजुकेशन ऑफ बंगाल’’(बंगाल की राष्ट्रीय शिक्षा परिषद) के माध्यम से राष्ट्रीय विद्यालय (नेशनल कॉलेज) स्थापित करने की योजना बनाई, रंगपुर दिनाजपुर में, एक ढाका में, दो कोमिल्ला जिले में, एक जलपाईगुड़ी में तथा अंग्रेजों के गढ़ एक स्कूल और एक कॉलेज कलकत्ता में स्थापित किये तथा वैकल्पिक प्रयास प्रारम्भ किये।
परन्तु 1908 में यह आन्दोलन भी श्री अरविन्द जी, लोकमान्य तिलक, विपिन चन्द्र पाल के कारावास व लाला लाजपत राय जी देश में निकाले के बाद जिस बंग-भंग बहिष्कार ने स्वदेशी आंदोलन को जन्म दिया था, वह दुर्भाग्य से ब्रिटिश सरकार की दमन व प्रलोभन की दोहरी नीति के फलस्वरूप शिथिल पडक़र असफल हो गया।
1883-दयानन्द एंग्लो वैदिक संस्था द्वारा शैक्षिक आन्दोलन
1883 को लाहौर की एक सार्वजनिक सभा में महर्षि के स्मारक के रूप में लाला लाजपत राय, महात्मा हंसराज, महात्मा मुंशीराम, लाला रैलाराम व पण्डित गुरुदत्त जी द्वारा ‘‘दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज के माध्यम से संस्कृत और हिंदी की शिक्षा के साथ वह अंग्रेजी शिक्षा के दुष्प्रभाव को खत्म’’करने के उद्देश्य को लेकर ‘‘एंग्लो-वैदिक स्कूल तथा कॉलेज’’की स्थापना का निर्णय लिया गया तथा देश भर में डी.ए.वी. के विद्यालयों के माध्यम से शिक्षा के प्रचार-प्रसार का कार्य प्रारम्भ किया।
गुरुकुल कांगड़ी के रूप में स्वामी श्रद्धानन्द जी का शैक्षिक गुरुकुलीय प्रयोग
सन् 1894 के अंत में महात्मा मुंशीराम एवं उनके साथियों ने DAVU सोसाइटी से अलग होकर संस्कृत, वेद शिक्षा, आर्ष ग्रन्थों व भारतीय ऋषि परम्परा पर आधारित गुरुकुलीय शिक्षा को वरीयता देने के लिए 1902 में हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की। उसके बाद गुरुकुल कांगड़ी प्रेरणा से मुलतान 1909, कुरुक्षेत्र 1911, गुरुकुल इंद्रप्रस्थ 1912, भटिंडा (रोहतक), भैंसवाल, सौराष्ट्र (गुजरात) आदि में गुरुकुलों की स्थापना की गई। 1920 में गांधी जी ने नेतृत्व में ‘असहयोग आंदोलन’के दौर में महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस सरकारी शिक्षा संस्थाओं के बहिष्कार और राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना की अपील की। महाराष्ट्र के लगभग सभी जनपदों में राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाएँ स्थापित की गई। तथा एक ‘‘राष्ट्रीय विश्वविद्यालय’’के रूप में 1921 को ‘‘तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ’’के स्थापना हुई। बिहार में बिहार विद्यापीठ, उत्तर प्रदेश में काशी विद्यापीठ और गुजरात में गुजरात विद्यापीठ की स्थापना हो गई। राष्ट्रीय शिक्षा का स्वरूप के विषय में महात्मा गांधी जी मानते थे कि -‘‘स्वराज्य आज मिले या कल, परंतु राष्ट्रीय शिक्षा के बिना वह टिक न सकेगा।’’
1916 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय
उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग वाराणसी में संस्कृत एवं संस्कृति, धर्म तथा नीति के महान् प्रणेता महामना मदन मोहन मालवीय जी ने सन् 1916 में विश्वविद्यालय की स्थापना की जिसका उद्देश्य ‘स्वराष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति’राष्ट्र की महान् राजनीतिक, आध्यात्मिक तथा भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति तथा देश को राष्ट्रीय नेतृत्व प्रदान निर्माण की योजना बतलाया।
1921 में काशी विद्यापीठ की स्थापना
बाबू शिव प्रसाद गुप्त व प्रसिद्ध विद्वान बाबू भगवान दास जी ने महात्मा गांधी, पण्डित मोती लाल नेहरू, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, सेठ जमनालाल बजाज के सहयोग व प्रेरणा से 1921 में काशी विद्यापीठ की स्थापना की। काशी विद्यापीठ ने आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण योगदान दिया। विद्यापीठ पर प्रतिबन्ध लगे, अंग्रेजों के दमन की शिकार हुई, यह महान संकल्प भी समय के साथ सरकारीकरण के कारण मात्र एक सामान्य विद्यालय बनकर रह गया। 1952 पांडिचेरी में श्री माँ का शैक्षिक प्रयोग- श्री अरविन्द के सिद्धान्त है कि किसी ‘‘विषय की शिक्षा नहीं दी सकती, बालक स्वयं शिक्षा प्राप्त करता है’’के आधार पर श्री अरविन्द्र अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के माध्यम से सर्वांगपूर्ण शिक्षा का लक्ष्य लेकर बिना परीक्षा व बिना किसी निर्धारित पाठ्यक्रम के मानवता के रूपान्तरण के शैक्षणिक प्रयोग प्रारम्भ किए गए।
बुनियादी शिक्षा के माध्यम से गांधी जी के शैक्षिक प्रयोग
गांधी जी मानते थे, ‘स विद्या या विमुक्तये’गांधी जी ने वर्धा, पश्चिमी चम्पारण, साबरमती आश्रम, दिल्ली आदि अनेकों स्थान पर विद्यालय खोलकर शिक्षा के अलग-अलग प्रयोग किये तथा ‘बेसिक शिक्षा’अथवा ‘आधारभूत शिक्षा’या ‘बुनियादी शिक्षा’बुनियादी तालीम’या ‘नई तालीम’के सिद्धान्त पर प्रयोग किये। महात्मा गांधी के बाद उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी विनोबा भावे ने इन प्रयोगों को आगे बढ़ाया, परन्तु बुनियादी शिक्षा का यह प्रयोग भी आजादी के बाद अंग्रेजों के मानसपुत्रों ने महात्मा गांधी के विचारों की निर्दयता से हत्या की और यह प्रयोग भी सफल नहीं हो पाया।
शैक्षणिक आन्दोलनों के परिणाम
आजादी से पहले व आजादी के बाद हमारे शान्ति धर्मा व क्रान्ति धर्मा महापुरुषों ने शिक्षा पर सर्वाधिक बल दिया व विनाशकारी विदेशी शिक्षा को बदलने के लिए, मैकाले की शिक्षा व्यवस्था से मुक्ति पाने के नारे बहुत लगे, बहुत से प्रयास हुए पर आज तक हमारे पूर्वज ऋषियों व क्रान्तिकारियों के सपनों का भारत बनाने वाली शिक्षा व्यवस्था नहीं स्थापित हो पायी। परन्तु जिस मूल भावना को लेकर इन शैक्षणिक आन्दोलनों का जन्म हुआ था, वह अब सरकारी अनुदान, कार्य-विस्तार और वर्तमान भारत के सामाजिक, आर्थिक एवं नैतिक वातवरण के थेपड़ों में दब गई या लुप्तप्राय हो गई है। यह सब आन्दोलन भी पाठ्यक्रम, शिक्षण-पद्धति गुरु-शिष्य संबंध, शैक्षिक वातावरण, शिक्षक व छात्रों के वाणी, व्यवहार, चरित्र व आचरण के स्तर पर सामान्य विद्यालय या विश्वविद्यालय बन गये हैं।
भारतीय शिक्षा बोर्ड के माध्यम से पतंजलि द्वारा शिक्षा क्रान्ति का संकल्प
शहीदों व क्रान्तिकारियों के सपने सम्पूर्ण आजादी को साकार करने के लिए अब वर्तमान युग में महर्षि पतंजलि व चरक-सुश्रुत व धनवन्तरि के मानस पुत्र योगऋषि श्रद्धेय स्वामी जी महाराज एवं आयुर्वेद शिरोमणि श्रद्धेय आचार्य बालकृष्ण जी महाराज ने सर्वप्रथम योगक्रान्ति, द्वितीय आयुर्वेद व स्वदेशी क्रान्ति, तृतीय भ्रष्टाचार मुक्त भारत निर्माण हेतु सत्ता परिवर्तन की क्रान्ति के बाद अब शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्ति का संकल्प लिया है। जिसमें अब भारतीय शिक्षा बोर्ड के माध्यम से प्रत्येक बालक को अलौकिक दिव्य विश्व नागरिक बनाकर राष्ट्रीय चरित्र निर्माण द्वारा भारत को विश्वगुरु बनाने विराट संकल्प साकार होगा।
संदर्भ-साभार
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दधर्मपाल : द ब्यूटीफुल ट्री, दिल्ली, 1983, भूमिका।
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डब्ल्यू, कैनेथरिचमांड : एजुकेशन इन इंग्लैण्ड, पेलिकन बुक्स, लंदन, 1945
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श्री अरविन्द जन्मशती ग्रंथमाला।
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प्रो. देवेन्द्र स्वरूप- राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलनों का इतिहास, प्रतिभा प्रतिष्ठान, नई दिल्ली।
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