पतंजलि के शुद्ध आहार में छिपा है आरोग्य का मूल आधार

पतंजलि के शुद्ध आहार में छिपा है आरोग्य का मूल आधार

डॉ. नागेन्द्र कुमारनीरज

निर्देशक - योगग्राम

सम्यक आहार-विहार जीवन शैली, सम्यक निद्रा, विश्राम यथायोग्य सम्यक कर्म में प्रवृत्त रहने वाला व्यक्ति दु:, रोग शोक से सदा मुक्त, निरोगी एवं योगी होता है...
... अर्थात् बहुत कम सदा संतुलित सजग जीवन जीने वाला होता है। मन सदा वश में होता है। हमारे उपनिषद, वेद, उपवेद, वेदान्त, ब्रह्मण, तथा आरण्यकसभी शास्त्रों में आहार के संबंध में विस्तृत चर्चा की गई है।
   हिन्दुस्तान में जितने भी विशुद्ध निसर्गोपचार योग, आयुर्वेद के केन्द्र है वहाँ आहार पर विशेष महत्व दिया जाता है, क्योंकि आयुर्वेद का मूल आधार आहार ही है। आयुर्वेद आयु तथा आरोग्य का सकारात्मक विज्ञान है जबकि एलोपैथी सिर्फ और सिर्फ विभिन्न प्रकार के रोग एवं बीमारियों का विज्ञान है। एलोपैथी का शाब्दिक अर्थ ग्रीक शब्द "Allos" जिसका अर्थ Opposite and Pathos से मिलकर बना है। जैसे कब्ज़ हुआ, उसका विरोधी लेक्मेटिव दिया जाता है। जिसके दुष्परिणाम से लोग स्थायी रूप से कब्ज़ से ग्रस्त हो जाते हैं। यानि एलोपैथी उपचार उग्रवादी उपचार है, जबकि आयुर्वेद, योग एवं निसर्गोपचार शरीर, मन एवं चेतना के स्वास्थ्य का सकारात्मक विधायक विज्ञान है। इनसे रोग लक्षणों का दमन नहीं बल्कि शमन किया जाता है। इसलिए कहा गया है- स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणम आतुरस्य विकारप्रशमनं इति। योगनिसर्गोपचार आयुर्वेदस्य मूल प्रयोजनम।अर्थात् व्यक्ति के स्वास्थ्य का संरक्षण तथा संवर्धन करते हुए रोग के मूल कारण दोष एव हि सर्वेषां रोगाणामेक कारणं (वागभट्ट) दोषों का प्रशमन करना यानि वात, पित्त, कफ का शमन कर संतुलन करना ही आयुर्वेद, योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा का मुख्य लक्ष्य है।
स्वास्थ्य की रक्षा एवं विकार से प्रशमित करने में आयुर्वेद का मूलमंत्र है यद्य पथयम किम औषधया: यदि पथ्यं किम औषधै:’ अर्थात् आहार सही है तो दवा की क्या आवश्यकता है, यदि आहार सही नहीं है तो दवा की क्या आवश्यकता है। अत्यंत मननीय एवं चिन्तनीय स्वास्थ्य सूत्र है।
पथ्ये सति गदार्तस्य किम् औषध निसेवणम्।
पथ्ये असति गदा तस्य किम औषध निसेवणम्।।
आयुर्वेद में आहार का विशेष महत्त्व दिया गया है अनेक मंत्र में आहार काश्रेष्ठतम एवं सर्वेव्यत्तिम औषधबताया गया है-
आहारसमं किंचित भेषज्यमुपलभ्यते
आहार से बढक़र बेहतरीन अन्य किसी प्रकार की औषधि नहीं है। इसलिए कहा गया है -
बिनापि भेषजैव्याधि पथ्यादेव निवत्र्तते।
तु पथ्यविहिनस्य भेषजानां शतैरपि।।
बिना सम्यक एवं संतुलित आहार के किसी प्रकार की दवा भी प्रभावशाली नहीं होती है। औषधि तभी ज्यादा कारगर एवं उपयोगी होती है जब आपका आहार सही एवं संतुलित है। भगवान् श्री कृष्ण ने महान् वैज्ञानिक, धार्मिक ग्रन्थ गीता में स्पष्ट रूप से बताया है कि-
युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्न अबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।
अर्थात् सम्यक आहार-विहार जीवन शैली, सम्यक निद्रा, विश्राम यथायोग्य सम्यक कर्म में प्रवृत्त रहने वाला व्यक्ति दु:, रोग शोक से सदा मुक्त, निरोगी एवं योगी होता है। सम्यक अर्थात् बहुत कम सदा संतुलित सजग जीवन जीने वाला होता है। मन सदा वश में होता है। हमारे उपनिषद, वेद, उपवेद, वेदान्त, ब्रह्मण, तथा आरण्यकसभी शास्त्रों में आहार के सम्बंध में विस्तृत चर्चा की गई है। छान्दोग्योपनिषद का यह मंत्र
आहार शुद्धौ सत्वाशुद्धि: सत्व शुद्धौ।
ध्रुवा स्मृति:, स्मृतिलब्धे सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्षा:।।
अर्थात् आहार के पवित्र होने से हमारा अस्तित्व जीवन, मौजूदगी सत्व की शुद्धि हो जाती है। हमारा अन्त: करण पवित्र हो जाता है, अन्त:करण पवित्र होने से बुद्धि भी शान्त, निर्मल,एवं निश्छल हो जाती है छल, कपट, पाखण्ड मिट जाता हैं। बुद्धि के शान्त निर्मल होने से संशय रहित सभी प्रकार के मानसिक ग्रन्थियों (complexes) से मुक्त होकर अन्त:करण दिव्य शान्ति एवं अपने स्वरूप में स्थित हो जाती है। आहार का अत्यंत सुन्दर एवं वैज्ञानिक विवेचन छान्दोग्योपनिषद में 6.5.1 से लेकर 6:5:3 3 तक किया गया है।
अन्नाशितं त्रेदा विधीयते तस्य : स्थविष्टो धातुस्तत्पुरीषं भवति।
यो मध्यमस्तन्मांसं यो अन्तिमस्तन्मन:।।
अर्थात् खाया हुआ अन्न तीन प्रकार का हो जाता है, उसका अत्यन्त स्थूल मात्र मल होता है। जो माध्यम भाग मांस हो जाता है, जो अत्यन्त सूक्ष्म होता है मन हो जाता है।
तेजोऽशितं श्रेधा विधीयते तस्य : स्थविष्टो धातुस्तदस्थि भवति यो मध्यम: मज्जा योऽणिष्ठ: सा वाक्।।
अर्थात् खाया हुआ घृतादि तेज का स्थूलतम भाग हड्डी हो जाता है। मध्यम भाग मज्जा बन जाता है तथा सूक्ष्मतम भाग वाक् (वाणी) बन जाता है। वाक् महर्षि अम्भहूरिन की पुत्री कश्यप ऋषि की पत्नी तथ ऋग्वेद की 8 श्लोक, 10 मण्डल, 10 अनुवाक्, 125 सुक्त देवी सुक्तम ऋग्वेदोक्तमा की रचयिता है। भाषा, वाणी, स्वर वक्तृता उच्चारण की देवी है।आप: पीता स्त्रेधा विधीयन्ते तासां : स्थविष्ठो धातुस्तन्मूत्रं भवति यो मध्यमस्तल्लोहित योऽणिष्क: प्राण:अर्थात् पीये हुए जल का स्थूलतम भाग मूत्र, मध्य भाग रक्त तथा सूक्ष्मतम भाग प्राण हो जाता है इसलिए मन, अन्नमय, प्राणमय, जलमय तथा वाक् तेजोमय है।
आयुर्वैघृतम इत्यादिवत् अर्थात् घृत आयु है क्योंकि वह आयुवृद्धि करताकठोपनिषदहै। श्रम करने के बाद ही घी खाने से आयु बढ़ती है बिना श्रम एवं मेहनत के घी खाने से हृदय एवं रक्तवाहिनियों के रोग होते हैं तथा हार्ट अटैक होता है।
आहार से आरोग्य प्राप्ति के एक नहीं असंख्य मंत्र आयुर्वेद में सन्निहित है। मितभोजनम् स्वास्थ्यम, येन आहारविहारेन रोगाणाम् उद्भवा भवेत, जीर्णे भोजनं मात्रेय: लघनं परमौषधम अर्थात् पूर्व भोजन के पचने पर दूसरा अन्य भोजन करें। अजीर्ण यानि भोजन नहीं पचने पर उपवास परम औषधि है।
जीर्णे हितं मितं आद्यात अजीर्णे भोजनं विषं, दुखम तथैव पापम् अतिभोजनम् रोगमूलम, अतिभोजनम्, अजीर्णे भोजनम् रोगमूलम, मितं भोजनम् स्वास्थ्यम् अत्यशनम् अध्यशनम् दु:खं रोगमूलम्, अत्यशनम्, अध्यशनम्, समशनम्, अहितअशनम् सन्त्याज्यम।
एक दिलचस्प घटना के अनुसार एक बार चरक ने कबूतर का भेष धारणकर अपने शिष्य वैद्यों की परीक्षा लेने के लिए अलग-अलग आश्रमों में कोऽरूक-कोऽरूक की आवाज लगाई। उनका कोई भी शिष्य इस परीक्षा में सफल नहीं हुआ, इसका जबाव सिर्फ वाग्भट्ट ने दिया - हित भूक मित भूक ऋतु भूक यानि स्वास्थ्य के लिए जो लोग हितकारी परीमित मात्रा में तथा अपनी प्रकृति एवं मौसम और वातावरण के अनुसार भोजन करते हैं। ऐसा करने से कोई भी रोगी नहीं होता है। सभी निरोगी रहते हैं।
भोजन का अत्यन्त गहरी वैज्ञानिक विवेचन गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने किया है-
आयु: सत्त्व बल आरोग्य सुख प्रीति विवर्धना।
रस्या, स्निग्धा स्थिरा हृद्या आहारा सात्विक प्रिया।।
वह आहार जो आयु अस्तित्त्व अक्षुण आरोग्य बल, सुख इम्युनिटी, सहिष्णुता एवं प्रिती बढ़ाने वाला रस से परिपूर्ण स्निग्ध चिकना एवं हृदय को निरोग रखने वाला हो, इस दृष्टि से सब्जियां, अंकुरित अनाज, भांति-भांति प्रकार के ताजे फल, ताजी हरी सब्जियां , दूध, दही, छाछ, घी इत्यादि हैं। इस प्रकार का आहार व्यक्ति की आयु, उत्साह, अस्तित्व बल आरोग्य सुख एवं प्रेम बढ़ाने वाला होता हैं, इस प्रकार के आहार लेने वालों में निम्न सद्गुणों की वृद्धि होती है। वे सत्यभाषण, सत्कर्म करते हैं। कामना त्याग, अन्त:करण से राग एवं द्वेष रहित कर्म, प्राणियों पर दया करना, सांसारिक विषयों के प्रति लोभ एवं लालच रहित, संतोषी जीवन, अन्त:करण की कोमलता, तेज, क्षमा, धैर्य, शरीर की शुद्धि, वैर भाव रहित मैत्री भाव तथा अहिंसक आदि दैवी सम्पदा से परिपूर्ण वाले व्यक्ति इस प्रकार के आहार पसन्द करते है।
सात्विक लोगों के भोजन का ही प्रभाव होता है कि सात्विक प्रवृत्ति के लोग सभी प्राणियों में परमात्मा का भाव एवं दर्शन महसूस करते है। अभिमान एवं अहंकार से मुक्त सतत अपने कर्म में रत रहने वाले होते है। हालांकि सतकर्म का फल अत्यन्त मीठा होता है।
जो व्यक्ति घमण्डी, अहंकारी, अभिमानी, क्रोध करने वाले, वज्र हृदय वाले, अविवेकी, आसुरी गुणों से परिपूर्ण व्यक्ति राजसी आहार पसन्द करते है जिसका वर्णन भगवान् श्री कृष्ण ने इस प्रकार कहा है।
कटु अम्ल लवण अति उष्ण तीक्ष्ण रूक्ष विदाहिन:
आहारा राजसस्य इष्टा: दु: शोक आमय प्रदा:।।
अति कड़वे, खट्टे अति नमकीन, अति गरम, अति तीखे, अति रूखे और अति दाह जलन पैदा करने वाले आहार राजस प्रवृति वाले लोगों को पसन्द होते हैं, जो दु:, शोक एवं रोगों के सिवा कुछ नहीं देता है। इसी प्रकार के आहार खाने वाले घमण्डी, धन एवं मान मद से युक्त होकर केवल नाम मात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड एवं नाम मात्र के तुच्छ दान द्वारा प्रसिद्धि प्राप्त करते है।
राजसी भोजन का ही परिणाम होता है कि ऐसे लोग परम आसक्ति से युक्त, बिना श्रम कर्मफल को इच्छा रखने वाले, दूसरों के कष्ट देने के स्वभाव वाले अशुद्धचारी और हर्ष शोक से लिप्त होते है। ऐसे लोग धर्म एवं धर्म कत्र्तव्य एंव अकर्तव्य के यथार्थ अर्थ को नहीं जानते जो सदैव अनर्थ एवं अराजकता में लगे रहते है। ऐसे लोग भोग को ही अपना धर्म मानते है। प्रवृत्ति एवं निवृत्ति से अन्जान अपवित्र, नीच आचरण, मूढ़ प्रञ्च से इनका जीवन चलता है। ऐसे लोग मन्द बुद्धि वाले दम्भ, मद, अज्ञानी, पापाचारी, क्रूर तथा किसी नया धर्म होते हैं। काम, क्रोध, लोभ, ईष्या, द्वेष, हिंसा से युक्त तामसी प्रवृत्ति के लोगों का प्रिय भोजन है जिसका वर्णन भगवान् श्री कृष्ण ने कहा है-
यातयामं गतरसं पुतिपर्युषितं यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्।।
अर्थात् बिना पका हुआ अधपका रस, रहित, दुर्गंधयुक्त, बासी उच्छिष्ठ जूठा तथा जो अपवित्र भी है ऐसा भोजन तामस प्रवृत्ति को लोगों को प्रिय होता है, ऐसे लोग चरम आसक्त, कर्म के परिणाम से अन्जान, सतत् हानि, हिंसा एवं कुकर्म में लगे रहते हैं। सामर्थ्य को विचार कर शिक्षा से रहित, धूर्त, तमोगुणी, दीर्घ सूत्री अधर्म को धर्म, आलसी, प्रमाद, निद्रा, भय, चिन्ता, दु: को हमेशा गले लगाकर उन्मुक्त जीवन व्यभिचारी जीवन को अपना स्वभाव मानना, तामस प्रवृत्ति वालों का गुण है और इस भोजन का दुष्प्रभाव से ही ऐसा होता है।
उपर्युक्त आहार के विवेचना के अनुसार पतंजलि योगपीठ द्वारा संचालित योगग्राम एवं समस्त भारत में नव संचालित, पतंजलि वेलनेस सेन्टर में अहिंसक सात्विक स्वास्थ्यप्रद, नव जीवन दायिनी आरोग्य विज्ञान सम्मत आहार की व्यवस्था की गयी है। इस प्रकार के आहार इन केन्द्रों में इनडोर भर्ती स्वास्थ्य साधकों को प्रदान किया जाता है। इन आहारों के सुप्रभाव एवं सुपरिणाम स्वरूप साधकों के शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक स्वास्थ्य की समृद्धि एवं साध्य-असाध्य दु:साध्य रोगों से मुक्ति के क्षेत्र में भी नई दिशा एवं दृष्टि प्रदान कर रही है। इसका सारा श्रेय पतंजलि योगपीठ के संरक्षक, मार्गदर्शक, योग वैज्ञानिक स्वामी रामदेव जी महाराज एवं आयुर्वेद के महान मनीषी आचार्य बालकृष्ण जी महारा तथा दोनों महान् विभूतियों के निर्देशन में कार्यरत् 1500 वैज्ञानिक एवं हजारों दक्ष स्वास्थ्य सेवक समर्पित चिकित्सकों के श्रम साधना को जाता है।
यही कारण है कि पतंजलि योगपीठ स्वास्थ्य, शिक्षा, आयुर्वेद, प्राकृतिक योग, यज्ञ, एक्यूप्रेशर, एक्यूप्रेशर चिकित्सा के क्षेत्र में पूरे विश्व केा एक नया मनोबल, उत्साह, प्रेरणा एवं ऊर्जा प्रदान कर रहा है। राष्ट्रीय ही हीं बल्कि अन्र्तराष्ट्रीय स्वास्थ्य की दृष्टि से पतंजलि योगपीठ बहुआयामी नवीन मनुष्य एवं मनुष्यता का नव सृजन कर नूतन जगत का निर्माण कर रहा है, जहाँ राग, द्वेष रहित मैत्री भावना से संयुक्त रोगों से मुक्त मनुष्यता की रचना हो रही है।
 

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