पूर्ण पुरुषार्थ-पूर्ण संतुष्टि

पूर्ण पुरुषार्थ-पूर्ण संतुष्टि

डॉ. साध्वी देवप्रिया, प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्षा-दर्शन विभाग

पतंजलि विश्वविद्यालय, हरिद्वार

   हमारे जीवन के दो पहलू हैं। एक बाह्य और दूसरा आन्तरिक। पहला है दृश्य दूसरा है द्रष्टा। इसे ही शास्त्र की भाषा में- प्रेय और श्रेय, भोग-अपवर्ग, अभ्युदय-निश्रेयस: कहा गया है। बाह्य व्यक्तित्व के फिर दो भाग हैं- व्यक्तिगत दूसरा सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर। कुछ व्यक्तित्व तो धरती पर सबकी समस्याओं का समाधान बनकर आते हैं। लेकिन हम यदि ऐसा न कर सकें तो कम से कम स्वयं किसी के लिए समस्या न बनें, समस्या-अर्थात् शारीरिक या मानसिक रूप से हमारे व्यक्तिगत अस्तित्व के साथ-साथ पारिवारिक, सामाजिक व राष्ट्रीय स्तर का व्यक्तित्व भी हमारे साथ जुड़ा हुआ है। अत: हमें उभयत: निरोग  होने की अवश्यकता है। हम स्वयं भी शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ बनें तथा अपने परिवार, गांव, जिला, समाज व राष्ट्र को भी शारीरिक व मानसिक रूप से निरोग बनायें। क्योंकि ये सब किसी न किसी रूप में हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं। हमें स्वस्थ व उच्चादर्शों से युक्त समाज बनाना चाहिये, परिवर्तन कोई बलवान, शक्तिमान अधिकारी ही कर सकता है। अत: हमें योग के अनुष्ठान से पहले स्वयं को शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक व आत्मिक दृष्टि से बलवान व शक्तिमान बनाना होगा।
    शक्ति भी दो प्रकार की होती है, आन्तरिक और बाह्य। जिस प्रकार बिना नींव का मकान खोखला होता है-उसी प्रकार, आन्तरिक उन्नति के बिना, बाह्य भौतिक शक्ति ज्यादा प्रभावशाली नहीं होती, और कई बार तो उल्टा विनाश का कारण भी बन जाती है। दोनों ही प्रकार की शक्तियों का आधार है योग।
      कोई व्यक्ति पूछ सकता कि हम तो योग कर लेंगे, पर दूसरों को कैसे सिखायें, वो तो सीखने को तैयार ही नहीं। इसका उत्तर यह है कि अपनी बात दूसरे से मनवाने के लिए सर्वप्रथम हमारी वाणी सशक्तव सत्य युक्त होनी चाहिए। हमारी प्रस्तुति का तरीका भी अत्यन्त प्रभावशाली व आकर्षक होना चाहिए। इस विद्या में निपुण व्यक्तिआजकल टी.वी. और अखबार के माध्यम से झूठे विज्ञापन करके भोग को आकर्षक बनाने में लगे हैं, जब वे असत्य को, भोग को आकर्षक बना सकते हैं तो हम सत्य को, योग को आकर्षक क्यों नहीं बना सकते। आवाज कारतूस चलाने पर भी उतनी ही होती है और गोली चलाने पर भी, पर फर्क इतना है कि कारतूस मार नहीं करती और गोली मार करती है। नैतिक आचरण से युक्त वाणी ही दूसरों पर प्रभाव डालती है। सरकारें कभी भी बड़ा परिवर्तन नहीं ला पायेंगी, बड़ा परिवर्तन तो हमेशा एक जागा हुआ योगी ही कर सकता है। संसार का अन्धकार तो केवल सूर्य ही मिटा सकता है। इसका जीता जागता उदाहरण श्रद्धेय स्वामी जी महाराज हैं, केवल निजी व्यक्तित्व को सुधारने मात्र से हमारी सब समस्याओं का समाधान नहीं हो पायेगा। इसीलिए महर्षिगण कहते हैं-
स्रण्वन्तो विश्वमार्यम्- महर्षि दयानन्द,           
सेल्फ  रियलाइजेशन से कलक्टिव रियलाइजेशन- श्री अरविन्द
स्वस्थ, स्वच्छ, समृद्ध व संस्कारवान भारत-श्रद्धेय स्वामी रामदेव जी महाराज
    अत: अभ्युदय: के लिए हमें उपरोक्त परिवर्तन योग के माध्यम से करना ही पड़ेगा और इस सब परिवर्तन का मूल है योग का अनुष्ठान। यह तो हुई बाह्य विकास या परिवर्तन की बात। अब आन्तरिक परिवर्तन व नि:श्रेयस की उपलब्धि कैसे हो? इस पर विचार करते हैं, योग दर्शन में लिखा है - भोगापवर्गार्थं दृश्यम्- यह दृश्य भोग और अपवर्ग के लिए है। दृश्य माने शरीर, इन्द्रिय, समस्त भौतिक जगत, मन, प्राण, बुद्धि। इस दृश्य से भोग तो प्राप्त होते हैं यह तो समझ में आ गया अर्थात् जैसे कि हम सबके पास आँख है यह भोग और अपवर्ग दोनों दिलाती है। संसार में जिसके भी पास आँख है वह रूप को देखता ही है। उसमें से सुन्दर रूप को अपने पास सुरक्षित रख लेता है संस्कार के रूप में और असुन्दर को छोड़ देता है, यही भोग है, कान अच्छे शब्दों का अर्थात् मधुर शब्द, सम्मानजनक शब्द, प्रशंसा जनक शब्दों को चुनकर उन्हें संस्कार रूप में एकत्रित कर लेता है- बुरे शब्दों को छोड़ना चाहता है पर कभी-कभी द्वेष संस्कार के रूप में उन्हें भी एकत्रित कर लेता है, इसी प्रकार आज तक हमने सभी इन्द्रियों के विषयों को प्राप्त किया है।
      यह भोग, शरीर, इन्द्रिय या संसार से मिलता है यह तो समझ में आ गया, पर इसी आँख, कान, शरीर, इन्द्रियों से अपवर्ग कैसे मिलता है यह समझ में नहीं आता? यह काम गुरु करता है। श्रद्धेय स्वामी जी महाराज बताते हैं कि जहाँ भी दृष्टि जाये वहीं भगवान् को देखो। प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति के साथ ब्रह्मसम्बन्ध, प्रत्येक वस्तु व प्राणि मात्र के प्रति दिव्यदृष्टि अर्थात् ब्रह्मभावपूर्ण दृष्टि, जो फूल, फल, पशु, पक्षी, पर्वत, नदी, पुरुष, स्त्री, बच्चा, बुजुर्ग आदि अति सुन्दर दिखें वहाँ तक भगवान् की विशेष कृति, विशेष अनुकम्पा के रूप में उसे देखें। भगवान् का दर्शन करने के बाद भोगने का भाव, समर्पण के भाव में बदल जाता है। हम उसकी हिफाजत करना चाहते हैं, उसे सुख व सुरक्षा देना चाहते हैं, उसके प्रति हमारी प्रेम, श्रद्धा, निष्ठा, भक्ति व सेवा की भावना बन जाती है, यही आँख के द्वारा अपवर्ग की प्राप्ति है। पर ऐसी पावन दृष्टि बने कैसे? तो उत्तर है योग से।
    योग का मतलब है यम, नियम, आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि इन आठ योगाङ्गों का अनुष्ठान। इनमें से भी प्राणायाम का महत्व सर्वाधिक है, क्योंकि यह बाह्य और अन्तरङ्ग योग के बीच सेतु का काम करता है। हमारी सभी इन्द्रियाँ प्राण के माध्यम से ही स्व-स्व विषयों में संचालित होती हैं। इसलिए प्राण ही मूल है। प्राण यदि अशुद्ध होगा तो इन्द्रियाँ भी अशुद्ध हो जायेगी और प्राण यदि शुद्ध हुआ तो सब इन्द्रियों के व्यापार शुद्ध हो जायेंगे, क्योंकि ''अशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्याते:’’ अशुद्धि का क्षय होने से ज्ञान का प्रकाश होता है, और यह ज्ञान का प्रकाश तब तक बढ़ता ही रहता है जब तक अविप्लव अर्थात् सुस्थिर विवेक ख्याति प्राप्त न हो जाये। ज्ञानी व्यक्ति विषयों में परवश हुआ-हुआ बह नहीं जायेगा, क्योंकि उसका ज्ञान उसके परिणाम को उसके सामने रख देता है। जिस विवेक के प्रकाश से और यहाँ इस प्रसंग में चक्षु इन्द्रिय की शुद्धि से भोग और अपवर्ग दोनों मिलते हैं, उसी प्रकार समस्त इन्द्रियों के विषय व संसार के विषयों के बारे में समझ लेना चाहिए।
    यहाँ किसी का प्रश्न हो सकता है जिसने ऐसा किया क्या ऐसा कोई व्यक्ति धरती पर देखने को मिल सकता है? और उसकी पहचान कैसे करें? ऐसे व्यक्ति की पहचान यह है कि वह पूर्ण पुरुषार्थी, पूर्ण तृप्त, पूर्ण सन्तुष्ट, पूर्ण प्रसन्न, आप्तकाम, निष्काम और अकाम होता है, क्योंकि जब हर पल उस सर्वोच्च सत्ता के साथ, ब्रह्मसत्ता या भागवत सत्ता के साथ उसके अन्दर, उस आनन्द स्वरूप में पूर्ण सजगता व सहजता पूर्वक निवास कर रहा है तब उससे बढ़कर और क्या कामना हो सकती है, जिसको पाने के लिए उसमें अतृप्ति दिखे? अर्थात् कुछ भी तो नहीं। सामान्य रूप से पहचान करना चाहें, तो ऐसा व्यक्ति जो गम्भीर होते हुए भी हर समय प्रसन्न चित्त रहता है सबको प्रेम, खुशी व आनन्द देता है। जिसके पास से उठने को मन नहीं करता है, बस समझ लेना उसी ने उसको पाया है। जो बात-बात में दूसरों को जलाता है, उनको दोषी, पापी होने का अहसास कराता रहता है, जिसके पास जाने को मन नहीं करता, पास चले भी जायें तो भागने को मन करता है, समझ लेना वह बेचारा अभी अपवर्ग से दूर है।

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