भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका के संबंधों का स्वरूप
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प्रो कुसुमलता केडिया
भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका के वर्तमान और भावी संबंधों को लेकर तरह-तरह के अनुमान लगाये जा रहे हैं। भारत में ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक है जो संयुक्त राज्य अमेरिका को अपना स्वाभाविक मित्र मानते हैं। भारत के अनेक प्रतिभाशाली युवक और युवतियाँ संयुक्त राज्य अमेरिका में उच्च और निर्णायक पदों पर हैं। अत: उनके कारण आत्मीयता का यह भाव और गहरा हो जाता है। दूसरी ओर कम्युनिस्टों और कम्युनिस्ट झुकाव वाले कांग्रेसियों ने भारत में संयुक्त राज्य अमेरिका के विरूद्ध स्थायी जहर फ़ैला रखा है। उनकी हर बात में अमेरिका के प्रति विद्वेष निहित होता है। जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय देशों में ही उनके बच्चे पढ़ते हैं और उन देशों के कम्युनिस्ट नेताओं और बौद्धिकों से ही भारत के कम्युनिस्ट तथा कांग्रेसीजन प्रभावित और संचालित होते हैं। परंतु मीडिया में वे स्वयं को अमेरिका विरोधी ही दिखाते हैं। इस दोहरेपन से वे भारतीय लोकमानस में लगातार भ्रम और भ्रांतियों का प्रसार करते हैं। इसलिये यह आवश्यक है कि भारत और अमेरिका के संबंधों को सत्य के प्रकाश में सम्यक रूप से समझा जाये।
नई बसाहटें
वस्तुत: जिसे आज अमेरिका कहा जाता है उसका पुराना नाम इन दिनों प्रचलन में नहीं है। यह नया नाम कोलंबस के बाद से किया गया और यूरोप से गये लोगों के फ़ैलाव के साथ बलपूर्वक यही नाम प्रचलन में आया। परंतु तथ्य यह है कि यूरोप के भिन्न-भिन्न देशों से गये हुये भिन्न-भिन्न समुदायों के लोगों के द्वारा इस विशाल अमेरिकी क्षेत्र में जो उपनिवेश बनाये गये, आज उनके बारे में ही संसार में अधिक चर्चा है। यूरोप के वे लोग जो अमेरिकी महाद्वीप में गये, वे ऐसे लोग थे जिन्हें यूरोप के उनके अपने लोग आवारा, निठल्ला और बेरोजगार ही मानते तथा कहते थे। मार्कोपोलो जब चीन और भारत की यात्रा करके वापस लौटा, तबसे यूरोप के बाहर विशाल समृद्धि होने की कहानियाँ यूरोप में फ़ैलने लगीं और उससे दुस्साहसी लोग अपने यहाँ के अत्याचारों से बचने के लिये दूर-दूर जाकर धन लूटकर लाने की योजना बनाने लगे। ऐसे ही लोगों की बसाहट संयुक्त राज्य अमेरिका भी है, कनाडा और आस्ट्रेलिया भी। इन लोगों ने अमेरिका के स्थानीय लोगों को पहले तो इंडियन कहा क्योंकि उन्होंने इंडिया का नाम तो सुन रखा था परंतु वह सचमुच कहाँ है, यह पता नहीं था। 15वीं शताब्दी ईस्वी तक यूरोपीय ईसाइयों को विश्व के भूगोल तथा मानचित्रों का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं था। अत: वे जहाँ पहुँचते और समृद्धि देखते, उसे ही इंडी या इंडिया कहने लगते। बाद में जब भारतीय व्यापारियों की सहायता से वास्कोडिगामा भारत पहुँचा, तब उसे असली इंडिया का पता चला और तब अमेरिका के लोगों को रेडइंडियन कहा जाने लगा।
भूमि और सम्पत्ति का अपहरण
यूरोपीय लोगों ने स्थानीय मूलनिवासियों की भूमि और सम्पत्ति छीनने के लिये हत्या, लूट, डकैती, छिनैती आदि काम किये और उसे रेलिजन का आवरण दे दिया। परंतु फिऱ भी प्रारंभ में इन यूरोपियों की बसाहटें बिखरी हुई ही थीं। धीरे-धीरे वे कुछ क्षेत्रों में सघन रूप से बसने में सफ़ल हुये। इनमें से ही एक क्षेत्र वर्तमान संयुक्त राज्य अमेरिका है।
वस्तुत: क्रिस्टाफ़ेर कोलंबस एक स्पेनिश था और उसने वर्तमान न्यूमैक्सिको और कैलिफ़ोर्निया नामक क्षेत्रों में मारकाट की और वहाँ स्पेन के कैथोलिक ईसाई लुटेरों और डकैतों को बसाया। इसके बाद मिसीसिपी नदी के तट पर तथा मैक्सिको की खाड़ी से जुड़े क्षेत्र में फ्रेंच ईसाइयों ने मारकाट कर बस्तियाँ बनायी। वर्तमान वर्जीनिया क्षेत्र में तथा प्लाइमाउथ क्षेत्र में ब्रिटिश ईसाइयों ने स्थानीय लोगों को मारकाट कर अपना इलाका बनाया। स्थानीय अमेरिकी लोगों से इनके युद्ध हुये तथा छल प्रपंच और बर्बरता के द्वारा इन्होंने उनको मारा और यूरोप के अपने-अपने इलाकों से ये ईसाई लोग जुड़े रहे। इन लोगों ने अफ्रीकी लोगों को जबरन गुलाम बनाकर बांधकर लाकर पूर्वी समुद्र तट पर बड़ी संख्या में बसाया और उन गुलामों से क्रूरता और बर्बरतापूर्वक काम लेते रहे। जो विश्व मानवता का अत्यंत लज्जापूर्ण इतिहास है। जिन देशी अमेरिकनों ने बलपूर्वक ईसाई बनाने का यूरोपीय ईसाइयों का दबाव स्वीकार कर लिया उन्हें भी उन्होंने बीहड़ और निर्जन इलाकों में घेरा बनाकर एक निर्दिष्ट क्षेत्र में बसने को विवश कर दिया।
50 वर्षों में ढाई करोड़ यूरोपीय लोग अमेरिका पहुँचे
1865 से 1917 ईस्वी तक यूरोप से लगभग ढाई करोड़ लोग आकर अमेरिका में बसे। जिनमें पूर्वी तट पर यहूदियों, आयरिश लोगों और इतालवी लोगों ने स्थानीय लोगों को भगाकर अपनी बस्तियाँ बना लीं और मध्य पश्चिमी क्षेत्र में जर्मन तथा अन्य केन्द्रीय यूरोपीय देशों के लोग इसी प्रकार बसे। कनाडा से लगभग 10 लाख फ्रेंच आकर न्यू इंग्लैंड नामक अमेरिकी शहर बनाकर बसे और अफ्रीकी अमेरिकन भी इसी अवधि में दक्षिण से उत्तर की ओर आये। 1867 ईस्वी में अमेरिकी प्रशासकों ने अलास्का क्षेत्र को रूस से खरीदा।
देशी लोगों का संहार और ब्रिटेन से युद्ध
13 ब्रिटिश उपनिवेशों ने मिलकर स्थानीय स्वशासन की घोषणा की और देशी अमेरिकन लोगों का संहार शुरू कर दिया। तब तक ब्रिटेन के शासकों को इन उपनिवेशों के प्रसार की सूचना मिली और वे इन्हें अपने नियंत्रण में रखने को विकल हो गये। जिन दस्युदलों ने ये उपनिवेश बनाये थे, वे मांग करने लगे कि हमें ब्रिटिश प्रशासन में भी सहभागिता मिले तभी हम अपने द्वारा वसूले गये राजस्व और छीने गये धन का एक हिस्सा ब्रिटेन को देंगे। ब्रिटिश शासन इसके लिये तैयार नहीं हुआ और 1765 से 1776 तक इंग्लैंड के शासन से अमेरिकी अंग्रेजों की लड़ाई चली। अंत में अमेरिकी अंग्रेजों ने 4 जुलाई 1776 को इंग्लैंड से नाता तोडक़र एक स्वतंत्र नेशन स्टेट बनाने की घोषणा की। जार्ज वाशिंगटन, बेन्जामिन फ्रेंकलिन, हैमिल्टन, थॉमस जफ़ेर्सन, थॉमस पेन आदि अमेरिकी नेशन स्टेट के निर्माता कहलाये। तब भी अंग्रेजों ने अपने इन पुराने लोगों से युद्ध जारी रखा और 1783 में जाकर ही यूरोपीय लोगों ने संयुक्त राज्य अमेरिका के नेशन स्टेट को मान्यता दी। इस प्रकार यह 250 वर्ष से भी कम पुराना नेशन स्टेट है। जबकि वस्तुत: 1917 ईस्वी तक यह नेशन स्टेट बार-बार पुनर्गठित होता रहा है और इस अर्थ में यह 108 वर्षों से ही एक व्यवस्थित नेशन स्टेट है। जो गृहयुद्ध से पूरी तरह मुक्त है। उसके पहले वहाँ निरंतर गृह युद्ध की दशा रही।
आर्थिक प्रगति का रहस्य
गुलाम बनाये गये लोगों से बलपूर्वक और बहुत ही कम दामों पर मजदूरी कराई गई और उससे ही संयुक्त राज्य अमेरिका की आर्थिक प्रगति हुई। इस प्रक्रिया में कतिपय महत्वपूर्ण औद्योगिक घराने उभरे जिन्होंने व्यापार पर एकाधिकार के लिये अनेक ट्रस्ट बनाये और अपने पक्ष में बहुत से कानून बनाये। परंतु इस प्रक्रिया में मलिन बस्तियाँ और आर्थिक विषमतायें भी तेजी से बढ़ी जिससे कि कम्युनिस्ट प्रभाव वाले बहुत से श्रमिक संघ खड़े हुये। उनके दबाव से अनेक सुधार हुये। इस प्रक्रिया से 1917 के बाद अमेरिका एक आर्थिक शक्ति दिखने लगा। प्रथम महायुद्ध के समय जर्मनी से इंग्लैंड और फ्रांस की पराजय रोकने में भारतीय सैनिकों और अमेरिकी सहयोग, दोनों की भूमिका थी।
पहली बार स्त्रियों को मताधिकार
1920 ईस्वी में पहली बार संयुक्त राज्य अमेरिका में स्त्रियों को मताधिकार दिया गया। इसी बीच संचार माध्यमों का भी विकास हुआ। यूरोप में जो प्रथम महायुद्ध के बाद भीषण मंदी आई, उससे अमेरिका को बचाने में राष्ट्रपति फें्रकलिन रूजवेल्ट की निर्णायक भूमिका रही। उन्होंने अनेक आंतरिक सुझाव अपने यहाँ लागू किये।
नीतिगत किलता
द्वितीय महायुद्ध में संयुक्त राज्य अमेरिका तटस्थ ही था। इंग्लैंड और फ्रांस के दबाव से युद्ध सामग्री की पूर्ति अवश्य करता रहा परंतु जापान द्वारा पर्ल हार्बर पर आक्रमण के कारण उसे इस महायुद्ध में सक्रिय होना पड़ा। पहला अणुबम अमेरिका ने बनाया और जापान के हिरोशिमा तथा नागासाकी में उसके द्वारा भयंकर संहार किया। इसके कारण द्वितीय महायुद्ध में मित्र शक्तियों की विजय संभव हुई।
द्वितीय महायुद्ध के बाद जिस सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी को इंग्लैंड और अमेरिका ने युद्ध में सहयोग के बदले बहुत बड़े इलाके पर कब्जा करने दिया था, वही सोवियत संघ शीघ्र ही अमेरिका का प्रतिस्पर्धी हो गया। दोनों ही खेमों के मध्य शीतयुद्ध चलता रहा और दोनों विश्व में अपनी-अपनी शक्ति बढ़ाने का प्रयास करते रहे। इसमें अमेरिका सोवियत संघ से आगे निकल गया। परंतु विश्व में अपना प्रभाव बनाये रखने के लिये तथा विश्व के सभी देशों में अपने नियंत्रण वाला शासन स्थापित करने की आकांक्षा में अमेरिका ने अनेक युद्ध किये और इससे उसे भारी क्षति भी उठानी पड़ी। वियतनाम तथा इराक में उसका हस्तक्षेप उसकी अर्थव्यवस्था के लिये भार साबित हुआ। जिन उग्रवादी इस्लामी शक्तियों को उसने सोवियत संघ को घेरने और बांधने के लिये प्रोत्साहित किया था, उनके ही एक अलकायदा नाम के एक गुट ने 2001 ईस्वी के 11 सितंबर को संयुक्त राज्य अमेरिका के ऊपर आतंकवादी आक्रमण कर दिया। जिसका बहुत ही दूरगामी प्रभाव पड़ा। ये अमेरिकी नीति की किलता के उदाहरण हैं।
भारत से सीखने योग्य मूल्य
इस प्रकार हम देखते हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका यूरोप से गये ईसाई लोगों के द्वारा आपसी मारकाट और मूल निवासियों के नृशंस संहार के बाद बहुत ही विषम परिस्थिति में क्रमश: विकसित हुआ एक नेशन स्टेट है। उतने बड़े क्षेत्र में ऐसे भयंकर जनसंहार और सम्पत्ति की लूट तथा भूमि पर बलपूर्ण अधिकार के बाद भी संसाधनों से सम्पन्न यह नया राष्ट्र न तो अपने नागरिकों के बीच सुख, शान्ति और सामंजस्य के सूत्र सुदृढ़ कर पाया है और न ही विश्व में शांति तथा सौमनस्य का प्रसार कर सका है। इसका कारण यह है कि अपनी शक्ति से कई गुना अधिक फ़ैलने और प्रभुत्व पाने की लालसा तथा लोभ की वृत्तियों ने अमरीकी शासकों के चित्त को निरंतर विकल कर रखा है। अत: ऐसे में अमरीकी शासन के प्रबुद्धजन चाहें तो सनातन धर्म के अनुयायी भारत देश से बहुत कुछ सीख सकते हैं। इसमें मुख्य है- आत्ममर्यादा, आत्मसंयम, मैत्रीभाव, सच्ची वीरता और उदात्त भाव।
वस्तुत: अमेरिका एक नवविकसित नेशन स्टेट है, इसके उसे कुछ लाभ भी हैं। अपने मूल स्थान यूरोप के प्रति ममता और विद्रोह- दोनों की प्रवृत्तियों का एक गहरा अन्तद्र्वंद्व उसमें है। परन्तु साथ ही नया सीखने की ललक भी है। यही कारण है कि भारत तथा अफ्रीकी देशों से वहाँ के प्रबुद्ध लोगों ने बहुत कुछ सीखा है और सीखने की लालसा रखते हैं। इतना खुलापन उनमें है। परन्तु भारत की दृष्टि से मुख्य समस्या यह है कि पहले तो यहाँ ईसाई इंग्लैण्ड के प्रति भक्तिभाव रखने वाले समूह को ही सत्ता का हस्तांतरण हुआ और उन्होंने भारत की कोई भी विशेषता विश्व में प्रचारित नहीं की। उल्टे, राजनैतिक स्तर पर पूर्ण किल हुये लोगों को ही भारत का प्रतिनिधि बताया। जो लोग ग्रामस्वराज, गौरक्षा, स्वदेशी, स्वभाषा और सनातन धर्म के प्रतिनिधित्व का दावा कर रहे थे और भारत के विभाजन की संभावना को अपने जीते जी असंभव बता रहे थे, उन्हीं लोगों ने सोवियत संघ और इग्ंलैण्ड की नकल वाला एक केन्द्रीयकृत तथा समाज-निरपेक्ष एवं धर्मनिरपेक्ष राज्य की रचना के सामने हार मान ली। अत: राजनैतिक दृष्टि से वे पूर्ण किल सिद्ध हुये। ऐसे लोगों का ही नाम भारतीय मनीषा के एकमात्र प्रतिनिधि की तरह प्रचारित किया गया। इसके साथ ही एकमात्र नाम तथागत बुद्ध का लिया जाता रहा, वह भी उनके शून्यवाद और निर्वाणवाद के साथ। जिनका कोई भी राजनैतिक चिंतन कभी रहा ही नहीं।
भारत का सत्य विश्व के समक्ष रखना सबके लिये कल्याणकारी
इस प्रकार इन लोगों ने भारत की दो विशेषतायें विश्व में प्रचारित कीं - राजनीति के विषय में शून्यता और उदासीनता या अज्ञान तथा राजनैतिक किलता में गौरव की अनुभूति। राजनीतिप्रधान राज्य की रचना के साथ भारत की इन विशेषताओं को विश्व में प्रस्तुत करने पर स्वाभाविक ही विश्व की दृष्टि में भारत नितांत निरीह और अनाकर्षक राज्य हो गया। यह तो सौभाग्य है कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने राजनैतिक दक्षता का एक प्रतिमान उपस्थित कर विश्व में भारत के प्रति आकर्षण जगाया है। परंतु कांग्रेस द्वारा प्रचारित दो नामों को ही उनके द्वारा भी प्रस्तुत किये जाने पर उस भारत का मूल महत्व संयुक्त राज्य अमेरिका सहित विश्व के देशों में, विशेषकर यूरोप के देशों में सामने नहीं आ पाता। मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम, योगेश्वर श्रीकृष्ण, महावीर अर्जुन, भीम और युधिष्ठिर से लेकर सम्राट विक्रमादित्य, सातवाहन, चोल, चालुक्य और यादवों के यशस्वी नरेशों तथा महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज तथा बाजीराव पेशवा जैसे अद्वितीय सम्राटों ने किस प्रकार हजारों ही नहीं, लाखों वर्षों से भारत जैसे विराट राष्ट्र और वैविध्य से भरपूर समाज को समरस, एक और अखंड रखा है, यह विश्व को बताने पर समस्त विश्व उनसे प्रेरणा लेगा। भारत का यही योगदान संयुक्त राज्य अमेरिका सहित सम्पूर्ण विश्व को हो सकता है। सभी इकाइयों की विशेषता को सुरक्षित रखते हुये उनके मध्य न्यायपूर्ण संबंधों को गतिशील रखने का भारत का इतिहास सभी के लिये प्रेरक है। अद्भुत वीरता होते हुये भी संयम और मर्यादा का परिचय देना तथा चक्रवर्ती सम्राटों द्वारा समस्त अधीनस्थ राजाओं को सनातन धर्म की मर्यादा में भरपूर स्वायत्ता और स्वतंत्रता देना एक ऐसा अनुकरणीय ‘मॉडल’ है, जो अपनी शक्ति से बहुत अधिक फ़ैलने की एकाधिकारवादी लालसाओं वाले समुदायों के लिये सीखने योग्य है। क्योंकि वही एक टिकाऊ ‘मॉडल’ है। हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री भारत के इस वास्तविक स्वरूप को अमेरिका के सामने रख सकें और योग तथा आयुर्वेद के ज्ञान से भरपूर संयमित, अनुशासित और समृद्ध जीवन के सूत्र प्रस्तुत कर सकें तो इससे भारत-अमेरिकी मैत्री चिरकाल के लिये सुदृढ़ और टिकाऊ होगी तथा विश्व के लिये भी वह किसी भय का कारण नहीं बनेगी। भय तो केवल दुष्टों, राक्षसों और आतताइयों को ही होना चाहिये। शेष सभी समाज और राज्य अपनी स्वायत्ता के साथ एक शन्तिपूर्ण और सामंजस्य से भरपूर विश्व में अपनी-अपनी मर्यादा में सुखपूर्वक रहने के सूत्र पा सकेंगे।
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