नेत्र, मूत्रकृच्छ्र तथा त्वचा रोगों में लाभकारी 'ककड़ी’
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आचार्य बालकृष्ण
वैज्ञानिक नाम : Cucumis melo var.utilissimus Duthie & Fuller.
कुलनाम : Cucurbitaceae
अंग्रेजी नाम : Snake cucumber
संस्कृत : एर्वारु, कर्कटी, बहुकाण्ड, बृहत्फल;
हिन्दी : ककड़ी;
उर्दू : ककरी;
गुजराती : कांकड़ी;
कन्नड़ : सौते;
तेलुग : दोसकाया, खर्बुजा दोसा;
तमिल : वेल्लुरिक्कै;
बंगाली : काकुर;
मराठी : ककड़ी;
मलयालम : कक्करीका;
अरबी : किस्साकदम, कसद;
फारसी : ख्यार जॉब, ख्यार दराल, खीयाजर्द;
भारतीय आयुर्वेद में औषधि वह जो रोगी में सतत् आरोग्य का विश्वास पैदा कर उसे रोग से निजात दिलाये। चूंकि शरीर का सीधा संबंध प्रकृति से है, अत: रोग भी प्रकृतिगत असंतुलन से ही पैदा होते हैं। ऐसे में औषधि प्रकृतिस्थ तत्वों से युक्त होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त यदि दवा के नाम पर किन्हीं रासायनिक तत्वों का प्रयोग शरीर पर करते हैं, तो तत्काल न सही, कभी न कभी तो वह शरीर के साथ विद्रोही तेवर दिखायेगा ही। अक्षय आरोग्य के लिए आवश्यक है कि शारीरिक, मानसिक रोग में प्रकृति के बीच से ही औषधि की खोज करें।
औषधि के नाम पर परमात्मा के इस शरीर रूपी मंदिर के साथ हो रहे अत्याचार को समाप्त करने के लिए ही वनौषधियों पर पतंजलि आयुर्वेद द्वारा गहन अनुसंधान के पश्चात् रोग की प्रकृति के अनुसार उनके अनुपान का निर्धारण भी किया गया। उन्हीं निष्कर्षों के अनुरूप 'वनौषधियों में स्वास्थ्य’ श्रृंखला प्रस्तुत है। परिजन इन प्रयोगों को 'आयुर्वेद जड़ी-बूटी रहस्य’ पुस्तक में विस्तार से पढ़ सकते हैं, जिसे अपनाकर हर कोई अक्षुण्य आरोग्य का स्वामी बन सकता है। इस अंक में प्रस्तुत है वनौषधि 'ककड़ी’...
सुश्रुत संहिता में मूत्र रोगों के निवारणार्थ ककड़ी का प्रयोग बताया गया है। भारत में मुख्यत: उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार तथा पंजाब आदि प्रान्तों में नदियों के किनारे इसकी खेती की जाती है। शीत प्रधान गुण होने से ककड़ी का सेवन अत्यधिक मात्रा में नहीं करना चाहिए।
औषधीय प्रयोग-विधि:
नेत्र रोग:
1. नेत्रशूल-ककड़ी के ताजे फलों के टुकड़ों को नेत्र पर रखने से नेत्र शूल का शमन होता है।
वृक्क वस्ति रोग:
1. मूत्रविकार-2-3 ग्राम ककड़ी के बीजों को पीसकर, जल में घोलकर, नमक-रहित या हल्का नमक मिलाकर सेवन करने से मूत्रकृच्छ्र (दर्द सहित मूत्र त्याग) में लाभदायक होता है।
2. मूत्रकृच्छ्र-ककड़ी, खीरा तथा कुसुम्भ के बीजों को पीसकर 2 ग्राम चूर्ण में 1 ग्राम वासा पत्र कल्क तथा 5 मिली द्राक्षा-स्वरस मिलाकर अथवा शीतकषाय (हिम) बनाकर पीने से सभी प्रकार के मूत्रकृच्छ्रों में लाभ होता है।
3. 2-5 ग्राम ककड़ी-बीज चूर्ण में मुलेठी तथा देवदारु का सार भाग मिलाकर, चावल के धोवन के अनुपान के साथ सेवन करने से पैत्तिक मूत्रकृ च्छ्र में लाभ मिलता हैै।
4. मूत्रदोष-ककड़ी के 5-10 ग्राम कल्क, स्वरस (5-10 मिली) अथवा बीज चूर्ण (5-10 ग्राम) को प्रात:काल दूध के साथ पीने से मूत्रदोषों में लाभ होता है।
5. मूत्रघात- ककड़ी बीज, मुलेठी तथा दारुहल्दी की छाल को पीसकर उसका कल्क बना लें, 5-10 ग्राम कल्क को चावल के धोवन के साथ पीने से पित्तज मूत्रघात (मूत्र न बनना) में लाभ होता है।
6. समभाग नरसल, पाषाणभेद, दर्भ, ईख, खीरा, ककड़ी बीज तथा विजयसार के चूर्ण में आठ गुना दूध तथा बत्तीस गुना जल मिलाकर, दूध शेष रहने तक पकायें, फिर दूध में चौथाई भाग घी मिलाकर पीने से मूत्रघात (मूत्र न बनना) शीघ्र ठीक होता है।
7. पथरी- ककड़ी के 5 ग्राम बीजों को पीसें उसमें 10 ग्राम मिश्री मिलाकर 50 मिली जल में घोलकर पिलाने से पथरी में अत्यन्त लाभ मिलता है।
8. मूत्रदाह- ककड़ी के 5 ग्राम बीजों को जल के साथ पीसकर उसमें 65 मिग्रा यवक्षार मिलाकर पिलाने से मूत्र की जलन मिटती है।
9. त्रिफला, ककड़ी (खीरा) के बीज तथा सैंधवनमक को समान मात्रा में लेकर चूर्ण बना लें (1-2 ग्राम चूर्ण को) गर्म जल के साथ पिलाने से मूत्रकृच्छ्र ठीक होता है।
प्रजननसंस्थान रोग:
1. गर्भिणी शूल- 5 ग्राम कर्कटी मूल को 100 मिली दुग्ध में पका-छानकर पीने से गर्भिणी स्त्री के शूल का शमन होता है।
त्वचा रोग:
1. विपादिका- पोई-शाक, सरसों, नीम, केला, कर्कारु तथा ककड़ी के क्षार जल में तिल के तेल को पका कर, उसमें सेंधानमक डालकर मालिश करें, पैरों का फटना शीघ्र ठीक हो जाता है।
2. युवान पिड़िका-ककड़ी फल स्वरस को मुंह पर लगाने से कील, मुहासे आदि दूर होते हैं।
3. ककड़ी को पीस कर चेहरे पर लगाने से चेहरे का रंग निखरता है।
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