नए अध्यात्मिक भारत के शिल्पकार ‘परम पूज्य स्वामी जी महाराज’
On
वंदना बरनवाल
महिला पतंजलि योग समिति - उ.प्र.(मध्य)
किसी भी राष्ट्र के विकास में उस राष्ट्र की संस्कृति एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और भारत जैसे देश में तो हम भारतीय संस्कृति और इसके विरासत की जीवंत पद्धतियों की एक अद्भुत संपदा के धरोहर हैं। एक ऐसा देश जहाँ पर अठारह सौ से भी अधिक प्रकार की बोलियाँ बोली जाती हों, आधिकारिक तौर पर बाईस प्रकार की भाषाओं को मान्यता प्रदान की गई हो। विविध धर्मों, कलाओं, वास्तुशिल्पं, साहित्य समेत नृत्य एवं संगीत की अलग-अलग शैलियों के साथ ही जीवन शैली की रंग-बिरंगी पद्धतियों और प्रतिमानों के साथ जो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का प्रतिनिधित्व करता हो और साथ ही तमाम अनेकताओं के बीच एकता की अचूक तस्वीर भी प्रस्तुत करता हो, निश्चित रूप से ऐसी अद्भुत संस्कृति पूरी दुनियां में कहीं और देखने को मिल ही नहीं सकती है। भारत की ऐसी अमूर्त सांस्कृतिक विरासत इसकी पांच हजार से भी अधिक पुरानी संस्कृति एवं सभ्यता से आरंभ होती है जो कि आज भी विश्वभर में सर्वत्र अनुपम है। समय काल के साथ ना जाने कितने देशों की संस्कृतियाँ और सभ्यता नष्ट होती चली गयी परन्तु भारतीय संस्कृति प्राचीनतम समय से लेकर आज भी विद्यमान है। ये अलग बात है कि अलग-अलग समय काल में इसने बहुत से उतार चढ़ाव देखे, कभी मुगलों का आक्रमण तो कभी अंग्रेजों की गुलामी का दौर उसके बावजूद इन सबके अनेकों ऋषियों-मुनियों, महात्माओं, गुरुओं के प्रभावों से भारतीय संस्कृति कभी भी क्षीण नहीं पड़ी, बल्कि इसका लगातार संवर्धन ही होता रहा।
कैसे और क्यों पड़ी भारत स्वाभिमान की नींव
आज़ादी के पांच दशक बीत रहे थे फिर भी भारत की चुनौतियाँ कम होने का नाम नहीं ले रही थीं। कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों और राजनीतिज्ञों द्वारा देश को ऐसे भ्रम और झूठ में रखा जा रहा था जैसे भारत जैसा दीन-हीन देश दूसरा कोई नहीं, जानबूझकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर भारत को लेकर कई भ्रम फैलाये जा चुके थे जबकि वास्तविकता से दूर-दूर तक उनका कोई सम्बन्ध नहीं था। कभी भ्रम यह फैलाया गया कि भारत एक गरीब देश है जबकि तमाम विदेशी आक्रान्ताओं के लूट-खसोट के पश्चात तब भी और आज भी वास्तविकता यही है कि भारत दुनियां के सबसे ताकतवर एवं अमीर देशों में से एक है। इसी प्रकार यह भ्रम फैलाया गया था कि भारत के ज्यादातर लोग बेईमान हैं और भारत से भ्रष्टाचार कभी मिट नहीं सकता। इसी प्रकार यह भी भ्रम फैलाया गया था कि विदेशी पूंजी निवेश के बिना ना तो देश का विकास संभव है और ना ही देश में रोजगार के अवसर उपलब्ध हो सकेंगे। यही नहीं विदेशी वस्तुओं का गुणगान होता रहा और स्वदेशी वस्तुओं का तिरस्कार। इससे भी बुरी स्थिति थी चिकित्सा व्यवस्था की, आयुर्वेद को नीम हकीम की श्रेणी में डाल दिया गया था और आम आदमी अंग्रेजी दवा की दुकानों पर स्वास्थ्य ढूंढता फिर रहा था। पूरी की पूरी चिकित्सा व्यवस्था स्वास्थ्य के नाम पर आम लोगों को लूट रही थी और लोग खामोशी से लुट रहे थे। इसी प्रकार शिक्षा और खेती के क्षेत्र में भी देश का बुरा हाल था। शिक्षा के नाम पर अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था और कृषि के नाम पर रासायनिक खेती देश के विकास में बाधक बनते जा रहे थे। इन सबके साथ राजनीतिक संरक्षण में भ्रष्टाचार और कालेधन का साम्राज्य बढ़ता ही चला जा रहा था और इन सबका मिश्रित प्रभाव लोगों में निराशा का भाव पनपा रहा था। ऐसे में योग सेवा करते करते परम पूज्य स्वामी जी महाराज ने 5 जनवरी, 1995 को भारत स्वाभिमान के बीज को रोपा क्योंकि उस दौरान व्यक्तिवादी सोच के कारण लोग अपने स्वास्थ्य के प्रति तो जागरूक हो रहे थे जबकि इनके पहले आवश्यकता थी यम और नियम का पालन करने और कराने की।
बहुत कुछ बदलता चला गया इन सत्ताईस वर्षों में
भारत स्वाभिमान स्थापना के पश्चात बहुत से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष परिवर्तन के हम सभी साक्षी बनते रहे हैं। ये परिवर्तन राष्ट्रीय ही नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी हुए हैं। इस दौरान सत्ता परिवर्तन के साथ ही राजनीति की दशा और दिशा में भी आया अभूतपूर्व परिवर्तन जग जाहिर है। इसके अतिरिक्त अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर योग दिवस मनाने की घोषणा भी एक बड़ी और महत्वपूर्ण उपलब्धि रही। 21 जून, 2015, यही वो दिन है जब सारी दुनियां को उस ज्ञान को आत्मसात करने का मौका मिला जिसके लिए वो सदियों से लालायित थी। परम श्रद्धेय गुरुवर की दिन रात की मेहनत और प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की पहल पर इस दिवस को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में पहचान मिली। हजारों-हजारों साल की जो हमारी सांस्कृतिक धरोहर थी उसका डंका एक साथ विश्व के 192 देशों में बज उठा और भारत की इस प्राचीन विरासत ने एक बार फिर से भारत के मस्तक को गौरवान्वित करते हुए ऊँचा कर दिया। आज सारी दुनियां भारत के इस अनमोल ज्ञान को पाकर गौरव कर रही है और इस सुखद आभास को जीने वाला हर व्यक्ति हृदय से परम पूज्य स्वामी जी महाराज को कोटि-कोटि नमन कर रहा है। इन वर्षों में और भी बहुत परिवर्तन हुए पर उनका जिक्र बहुत ज्यादा नहीं हुआ। जैसे कि यूनेस्को द्वारा योग को अमूर्त सांस्कृतिक विरासत में शामिल किया जाना। यूनेस्को ने दुनियां भर की कुछ खास अमूर्त सांस्कृतिक विरासतों की बेहतर सुरक्षा और उनके महत्व के बारे में दुनियां को जागरुक करने के लिए 2008 में अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की सूची बनाई थी। दुनियांभर से आए प्रपोजल्स को लेकर यूनेस्को की समिति उनके प्रोजेक्ट्स और प्रोग्राम्स की समीक्षा के बाद इस सूची में शामिल करने पर फैसला करती है, तब से लेकर अब तक इस सूची में 14 अमूर्त सांस्कृतिक विरासत तत्व शामिल हुए जिसमें सबसे पहले वर्ष 2008 में वैदिक जप की परंपरा को इसमें स्थान मिला और वर्ष 2016 में योग को शामिल किया गया। दरअसल अमूर्त संस्कृति किसी समुदाय, राष्ट्र आदि की वह निधि है जो सदियों से उस समुदाय या राष्ट्र के अवचेतन को अभिभूत करते हुए निरंतर समृद्ध होती रहती है। यह समाज की मानसिक चेतना का प्रतिबिंब है, जो कला, क्रिया या किसी अन्य रूप में अभिव्यक्त होती है। यूनेस्को ने भी योग को इसी अभिव्यक्ति का एक रूप माना क्योंकि पूज्य स्वामी जी के प्रयासों से इन वर्षों में यह पुनर्स्थापित हो चुका है कि योग दर्शन के साथ जीवन पद्धति भी है जो कि विभिन्न शारीरिक क्रियाओं द्वारा व्यक्ति की भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करती है।
आयुर्वेद की श्रेष्ठता भी हुई पुनर्स्थापित
भारत का इतिहास उथल-पुथल से परिपूर्ण रहा है। बौद्ध, मुगल, अंग्रेज आदि दौर का प्रत्यक्ष या परोक्ष असर भारतीय चिकित्सा पद्धति पर भी पड़ा। तभी कभी सिर का प्रत्यारोपण कर सकने में सक्षम आयुर्वेद, सर्जरी पर तंज सुनने को विवश हो जाती है, जबकि आचार्य सुश्रुत ने वर्षों पहले ही अष्टांग आयुर्वेद में शल्य को प्रथम अंग के रूप में वर्णित कर इसकी प्रधानता सिद्ध करते हुए उपयोगिता बता दी थी। शाश्वत सत्य यह है कि दुनियां को शल्य चिकित्सा का ककहरा आयुर्वेद ने ही दिया परन्तु फिर भी अंग्रेजी चिकित्सा व्यवस्था ने इसकी श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं किया बल्कि हमेशा इसकी खिल्ली ही उड़ाई। भारत स्वाभिमान की स्थापना के पूर्व इस चिकित्सा पद्धति को व्यापक विस्तार नहीं मिल सका था जबकि आयुर्वेद के करीब दो हजार वर्ष बाद प्रचलन में आई एलोपैथी प्रयोग और अनुसंधान के दम पर दंभ में थी। परम पूज्य स्वामी जी महाराज एवं श्रद्धेय आचार्यश्री के दिशा निर्देशन में इस दौरान आयुर्वेद ने भी लम्बी छलांग लगाईं और परिणाम स्वरुप आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति का प्रसार हर वर्ग में खूब हुआ। खासतौर पर उस वर्ग ने भी इस पर भरोसा किया जो इसे केवल जड़ी-बूटी के इस्तेमाल से किया जाने वाला देसी इलाज भर समझता था। आज लोगों को एलोपैथ से ज्यादा आयुर्वेद पर विश्वास है और इसका श्रेय भी पतंजलि योगपीठ को ही जाता है। आज लोग यह समझ चुके हैं कि आयुर्वेद एक प्रकृति आधारित चिकित्सा पद्धति है जिसमें शारीरिक संरचनाओं और ब्रह्मांड के तत्वों के समन्वय के सिद्धांत पर इलाज का प्रावधान है। भारत स्वाभिमान की स्थापना के साथ ही धीर-धीरे आयुर्वेद भी अपनी खूबियों के कारण सबसे ज्यादा पसंद किया जाने वाला और सबसे ज्यादा भरोसेमंद चिकित्सा पद्धति के रूप में पुनर्स्थापित हो चुका है।
योग बना स्वास्थ्य का संविधान
जब भारत स्वाभिमान की स्थापना हुई थी तो एक बार को लोगों को ऐसा लगा था कि परम पूज्य स्वामी जी महाराज की लड़ाई सत्ता परिवर्तन की है किन्तु जैसे जैसे समय बीतता गया ऐसे लोग यह समझ पाए कि यह सत्ता नहीं बल्कि व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई है स्वामी जी ने तो बस स्वस्थ भारत और समृद्ध भारत का एक सपना देखा जिसे पूरा करने के लिए उन्होंने करो योग रहो निरोग का नारा दिया और उसे पूर्ण करने के लिए एक बेहतरीन शिल्पी की तरह उन्होंने योग की कला को योग शिविरों के माध्यम से जन जन तक पहुँचाना शुरू किया। सांसों को कलात्मक ढंग से लेने और छोडऩे तथा शरीर के अंगों को विशेष तरीके से मोडऩे से लोगों को शारीरिक स्वास्थ्य तो मिलने लगा था परन्तु परिवार, समाज और देश के आरोग्य के लिए इसमें बहुत कुछ और भी जोड़ा जाना आवश्यक था। इसी को केंद्र में रखते हुए स्वामी जी ने लोगों के समक्ष भारत स्वाभिमान की स्थापना कर योग का विराट स्वरुप प्रस्तुत किया। यद्यपि आज युगों पुरानी भारतीय संस्कृति के समक्ष सत्ताइस वर्षों की अवधि बहुत कम लगती है पर इस अवधि में उन्होंने योग को स्वास्थ्य के संविधान के तौर पर प्रतिस्थापित कर दिया। 5 जनवरी, 1995 भारत स्वाभिमान का स्थापना दिवस ही नहीं एक आंदोलन की शुरुआत थी, भारत को स्वस्थ एवं स्वाभिमानी बनाने की जो आज देश को आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाने की ओर बढ़ चली है। इन वर्षों में भारत स्वाभिमान देश के लिए कुछ करने की चाह रखने वाले लोगों का एक प्रमुख संगठन बन चुका है जो अपनी स्थापना के बाद से लगातार राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। परम पूज्य स्वामी जी महाराज एवं श्रद्धेय आचार्यश्री के दिव्य आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन के फलस्वरूप तथा मुख्य केन्द्रीय प्रभारी श्रद्धेया साध्वी देवप्रिया जी, आदरणीय डॉ जयदीप आर्य जी तथा आदरणीय राकेश कुमार जी के कुशल नेतृत्व में महिला पतंजलि योग समिति, पतंजलि योग समिति, भारत स्वाभिमान, युवा भारत, किसान सेवा समिति, सोशल मीडिया और हाम्रो स्वाभिमान के अंतर्गत लाखों योग शिक्षक- शिक्षिकाओं और संगठन निष्ठ कार्यकर्ताओं ने करो योग रहो निरोग को अपना प्रतिज्ञा वाक्य बनाते हुए देश के हर वर्ग के चरित्र को एक स्वरूप देकर उनका जीवन परिवर्तित कर डाला। योग की कक्षाओं के साथ ही विषमुक्त खेती, जल संरक्षण से लेकर पर्यावरण संरक्षण, स्वच्छता अभियान समेत प्राकृतिक चिकित्सा और स्वदेशी अभियान चलाकर विभिन्न महत्वपूर्ण मुद्दों पर जनता के बीच जागरूकता फैलाने में प्रशंसनीय और उल्लेखनीय योगदान दिया। सुबह के पांच बजते ही घरों की छतों, पार्कों आदि से ओम के उच्चारण के साथ ही प्राणायाम और आसन के अभ्यास करते लोग दिखलाई पडऩे लगे और योग की इस चेतना ने लोगों के जीवन में सकारात्मकता ला दिया। योग के नियमित अभ्यास से हर वर्ग संस्कारित हुआ तो योग शिविरों के माध्यम से अनेकों अंजान लोग आपस में मिले और एक दूसरे को जान सके जिससे उनके भीतर की सामाजिक सुरक्षा भी प्रबल हुई। टेलीविज़न और योग की नियमित नि:शुल्क कक्षाओं के माध्यम से लोगों तक परम पूज्य स्वामी जी महाराज के विचार पहुँचने लगे जिससे लोगों को एक चिंतन मिला और फिर छोटी-छोटी गतिविधियाँ महत्वपूर्ण व्यवस्था परिवर्तन लाने में सहायक सिद्ध होने लगीं। आज लोगों के लिए योग स्वास्थ्य का एक संविधान बन चुका है जिसके नियमित अभ्यास से शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय हर प्रकार की व्याधियां दूर हो रही हैं।
वेद और उपनिषद पुन: हुए प्रासंगिक
हमने अनेकों जगह पढ़ा और दुनियां भी मानती है कि वेद ज्ञान की प्रथम पुस्तक है परन्तु ब्रिटिश शासनकाल के प्रभाव में हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसी बन गई कि हमारे पाठ्यक्रमों में वेद का कोई आधार नहीं है, विशेष तौर से शिक्षा के क्षेत्र में इनका अध्ययन चुनिन्दा स्थानों पर ही होता रहा है। जैसे कि वेदों का अध्ययन वेद की पाठशालाओं में और उपनिषदों का अध्ययन धार्मिक संस्थाओं में होता है। इसी प्रकार हर सन्यासी सम्प्रदायों के लिए उपनिषदों का अध्ययन अनिवार्य होता है तो विश्वविद्यालयों के विभागों में भी वेद और उपनिषदों का अध्ययन किया जाता रहा है, पर इस रूप में वेदों और उपनिषदों का अध्ययन करते हुए वर्षों बीत गए पर परिणाम अपर्याप्त रहा। भारत स्वाभिमान की स्थापना के बाद से वैदिक बोर्ड का गठन होना। नयी शिक्षा नीति का बनना भी इन सत्ताईस वर्षों की साधना की ही देन है। इसके साथ ही परम पूज्य स्वामी जी महाराज ने अपने व्याख्यानों के माध्यम से वेदों और उपनिषदों को एक बार पुन: प्रासंगिक बना डाला। हमारे शास्त्र ग्रंथों में जो कुछ लिखा है उसे आज के सन्दर्भ में सरल और रोचक तरीके से लागू करना भी दिलचस्प था, उदाहरण के लिए हमने यज्ञ एवं हवन आदि को मात्र धार्मिक अनुष्ठान तक सीमित कर दिया था जबकि पर्यावरण का प्रदूषण वैश्विक समस्या बन चुकी थी। इसका निराकरण करने के लिए दुनियांभर में जो उपाय बताये जाते रहे वो उपाय बिलकुल भी कारगर सिद्ध नहीं हुए क्योंकि उन उपायों से पर्यावरण नहीं सुधरा। वेदों में पंच महाभूतों को देवता कहा गया है, जब हम प्रदूषण की बात करते हैं तो जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, भूमि प्रदूषण आदि की बात ही तो करते है। इस प्रदूषण के साथ मन, बुद्धि, अहंकार भी जुड़े हुए हैं क्योंकि प्रदूषण केवल जल, वायु या भूमि के कारण नहीं होता बल्कि मनुष्य के मन में जो स्वार्थ है, लोभ है, मनुष्य का जो अहंकार है उसके कारण से भी तो पर्यावरण की समस्या पैदा हो रही है, जबकि वेदों में अग्नि देवता, वायु देवता, पृथ्वी देवता, जल देवता कहा गया है और उनकी स्तुति की गई है। उपनिषदों में बताया गया है कि इन सबके प्रति हमारी कृतज्ञता होनी चाहिए, हमें इन सबका रक्षण करना चाहिए और इनकी पवित्रता का ध्यान रखते हुए इनकी रक्षा करनी चाहिए, चूँकि ये सभी देवता हैं इसलिए इनको प्रसन्न रखने के लिए इनको यज्ञों का भाग देना चाहिए। स्वामी जी ने वेदों और उपनिषदों के इस ज्ञान को बड़े ही आसान तरीके से लोगों तक पहुँचाया और उनके आह्वान पर आज अनेकों घरों में प्रतिदिन ना सही तो साप्ताहिक हवन एवं यज्ञ शुरू हो चुके हैं जो लोगों के स्वास्थ्य के साथ ही पर्यावरण के स्वास्थ्य को भी सुधारने में मददगार साबित हो रहे हैं।
आत्महीनता से आत्म गौरव तक
आत्महीनता अर्थात अपनी योग्यताओं, अपनी विशेषताओं, अपने ज्ञान के प्रति अविश्वास रखना और स्वयं को दूसरों की तुलना में कमतर मानना है। भारत स्वाभिमान स्थापना से पूर्व वास्तविकता से परे आत्महीनता एक ऐसा मानसिक रोग था जिसने आम भारतीयों के जीवन की भावी संभावनाओं को ही क्षीण कर दिया था, उस दौर में अपना श्रेष्ठ भी हमें बकवास लगता था और दूसरों का बकवास भी हमको श्रेष्ठ लगता था। भाषा से लेकर खानपान, शिक्षा से लेकर चिकित्सा तक हर क्षेत्र में हम स्वयं को पिछड़ा हुआ मानकर चलते थे, कोई टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलता हुआ दिख जाये तो उसके सम्मुख मातृभाषा में वार्तालाप करने वाले को हीनता की नजरों से देखना आम बात थी। हमारी सोच में इस बात को स्थापित कर दिया गया था कि पिछले सैकड़ों सालों से हम अशिक्षित एवं गरीब थे और अंग्रेंजों ने हमे शिक्षा, विज्ञान और उद्योग आदि देकर हमें सभ्य बनाया। बीते सत्ताईस वर्षों में सबसे बड़ा जो परिवर्तन देखने को मिला वो यही है कि आत्महीनता में जी रहा एक आम भारतीय आज आत्म गौरव के साथ जीना सीख गया है, उसे अपनी बोली से लेकर अपनी पोशाक अपने खानपान और अपने रीति-रिवाजों पर आज गर्व महसूस होता है। वो पेड़-पौधों से लेकर, पत्थर, नदी, भूमि और गौ माता किसी की भी पूजा करने में संकोच नहीं करता क्योंकि आज उसको इन सबके पीछे के वैज्ञानिक तथ्यों के बारे में पता है। ऐसे में पूर्व की तरह आज नए भारत के पास एक बार फिर दुनियां को देने के लिए बहुत कुछ है और इसका श्रेय भी भारत स्वाभिमान की निष्काम सेवा और साधना को ही जाता है।
श्रम से भरपूर है भारतीयता का उर्वर काल
भारत की सनातन ज्ञान परंपरा और संस्कृति का नुकसान कभी कोई राजसत्ता नहीं कर सकी ना तो पुर्तगाली, ना ही मुगल और ना ही अंग्रेज। अलबत्ता इस देश की समस्या आत्म विस्मृति की अवश्य रही है। भारत स्वाभिमान की स्थापना के माध्यम से परम पूज्य स्वामी जी महाराज ने देश को इसी विस्मृति से बाहर निकालने का सफल प्रयास किया है। इस प्रयास को लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए उन्होंने योग को ही हमेशा आधार बनाया क्योंकि उन्हें यह पता है कि नियमित योगाभ्यास से हमारे साधन शुद्ध बने रहेंगे और यदि साधन शुद्ध होंगे तो परिणाम भी शुद्ध मिलेगा और यदि साधन ही अशुद्ध होंगे तो चाहे जितना भी प्रयत्न किया जाये, परिणाम कभी भी शुद्ध नहीं मिल सकता। स्वामी जी ने इसीलिए योग के अनुसंधान को नियमित रूप से तप के समान किया और करवाया जिसका परिणाम आज पूरी दुनियां देख रही है। निश्चय ही यह काल भारतीय संस्कृति और भारतीयता का उर्वर काल के रूप में जाना जायेगा, इसीलिए आज अच्छा लगता है जब हम इस योगमय भारत के शिल्पी की अद्भुत कला को निहारते हैं। योग से स्वस्थ और समृद्ध हो रहे शिल्पकार की कला को बखानते हैं, पर क्या कभी हम और आप ये सोचते हैं कि इस योगयुक्त भारतीय शिल्प के पीछे परम पूज्य स्वामी जी महाराज जैसे शिल्पकार का कितना संघर्ष, कितना श्रम, कितना समर्पण और कितनी परिकल्पना निहित है, शायद हाँ या शायद नहीं भी। परंतु सच तो यह है कि एक बेहतरीन शिल्प तभी तैयार होता है जब कोई शिल्पकार अपने शिल्प में खुद को समाहित कर देता है, अपनी एक एक साँस का उपयोग कर अपना जी जान लगा देता है। स्वस्थ भारत समृद्ध भारत के लिए जनजागरण करते समय वे अपनी सुध-बुध को खो बैठते हैं और उन्हें अपने शिल्प के अलावा कुछ भी नजर नहीं आता। हर दिन श्रेष्ठ से श्रेष्ठ और फिर उससे भी श्रेष्ठ शिल्प का निर्माण करने की धुन में उन्होंने दिन के चौबीस घंटों में हर दिन अठारह से बीस घंटों तक कार्य किया और परिणाम स्वरूप आज एक सौ चालीस करोड़ भारतीय कोरोना जैसी घातक चुनौती को भी केवल अपनी सांसों को लेने एवं छोडऩे की कला और कुछ जड़ी-बूटियों के इस्तेमाल से मात दे डाले। यही नहीं यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि, योग के आठ अंग मनुष्य में आत्म संयम के गुणों को विकसित कर देते हैं जो कोरोना तो क्या किसी भी प्रकार की बीमारी या बुराई से लडऩे में सक्षम है।
अपनाना होगा कर्मफल का सिद्धांत
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है ‘योग: कर्मसु कौशलम्’ अर्थात कर्मों में कुशल हो जाना ही योग है। श्रीमद्भगवद्गीता की पृष्ठभूमि महाभारत का युद्ध है, जिस प्रकार एक सामान्य मनुष्य अपने जीवन की समस्याओं में उलझकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है और जीवन की समस्याओं से लडऩे की बजाय उससे भागने का मन बना लेता है उसी प्रकार अर्जुन जो महाभारत के महानायक थे, अपने सामने आने वाली समस्याओं से भयभीत होकर जीवन और क्षत्रिय धर्म से निराश हो गए थे। अर्जुन की तरह ही हम भी कभी-कभी अनिश्चय की स्थिति में या तो हताश हो जाते हैं और या फिर अपनी समस्याओं से विचलित होकर भाग खड़े होते हैं। ऐसे में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के संशय को देख उन्हें अपना विराट रूप दिखलाया और बतलाया कि ये सब तो तय है। इस पर अर्जुन ने कहा कि जब यह तय है तो फिर युद्ध क्यों करना। तब श्रीकृष्ण ने कहा तय तो है किन्तु मिलेगा कर्म के सिद्धांत के अनुसार ही और मैं भगवान होकर भी इस नियम को नहीं तोड़ सकता। आज परम पूज्य गुरुवर के दिव्य और अथक परिश्रम से इन सत्ताईस वर्षों में भारत का विराट स्वरुप पूरी दुनियां को दिखलाई पड़ रहा है और विजय हम सबकी प्रतीक्षा में है। हमें बस अपने कर्म के सिद्धांत पर चलते जाना है। भारत स्वाभिमान के स्थापना के इन सत्ताईस वर्षों में योग के माध्यम से परम श्रद्धेय गुरुवर ने अपने इसी विराट स्वरुप के साथ भारत समेत अनेकों देश के लोगों में स्वस्थ जीवन की रोशनी फैला चुके हैं। अब जब वर्ष 2022 की इस 5 जनवरी को देश के इस ओजस्वी और तेजस्वी सन्यासी की कीर्तिगाथा में एक और सुनहरा वर्ष जुड़ रहा है तो आइये हम अपने गुरु के बताये रास्ते पर चलकर ना सिर्फ खुद का जीवन सार्थक करें बल्कि देश के करोड़ों लोगों को योग, आयुर्वेद और स्वदेशी का संकल्प दिलाकर नए अध्यात्मिक भारत के शिल्पकार की रचना में मददगार भी बनें।
लेखक
Latest News
01 Oct 2024 17:59:47
ओ३म 1. सनातन की शक्ति - वेद धर्म, ऋषिधर्म, योग धर्म या यूं कहें कि सनातन धर्म के शाश्वत, वैज्ञानिक,...