सतत ध्यान में कैसे रहें?  

सतत ध्यान में कैसे रहें?   

भारत में प्राचीनकाल से ही अध्यात्म, भगवान्, भक्ति, ध्यान, सेवा, सत्संग इन विषयों पर पर्याप्त चर्चा होती रही है। लोगों में इन पर उत्सुकता, जिज्ञासा, श्रद्धा आज फिर से बढऩे लगी है। क्योंकि धन, वैभव, सुख-सुविधा, ऐश्वर्य की वृद्धि के साथ-साथ चिंता, असंतोष, व्यग्रता, भय भी उतनी ही मात्रा में बढ़ रहे हैं। इनसे बचने के लिए और इन विकारों का प्रभाव अपने पर न आने देने के लिए समझदार और चिंतनशील व्यक्तियों में अध्यात्म के प्रति रुचि जागरित हो रही है।
   जब व्यक्ति इस पवित्र, पूर्ण, प्रशान्त मार्ग पर चलने का संकल्प, विचार, इच्छा करता है, तब उसका ध्यान सर्वप्रथम 'ध्यान’ पर जाता है। हमें लगता है कि हमें ध्यान करना चाहिए। किंतु उसकी मार्मिक, सुचारु प्रक्रिया के पता न होने से हम इधर-उधर भटकते हैं। कई बार अनिष्ट और गलत मार्ग पर भी बढ़ जाते हैं और पाखंडी लागों द्वारा बताई गई ध्यान की गलत और अप्रामाणिक विधियों को करते हुए अपना मानसिक सन्तुलन और शारीरिक सन्तुलन स्वास्थ्य खो बैठते हैं। तो हम इस विषय पर प्रकाश डालते हुए कुछ चर्चा करते हैं।
हम अपने दैनिक व्यवहार में इस ध्यान शब्द का प्रयोग अनेक बार करते हैं। जैसे कि कोई विशेष कार्य भूल जाने पर हम कहते हैं मुझे 'ध्यान’ नहीं रहा, माता अपने पुत्र को कहकर बाहर भेजती है कि बेटा अपना 'ध्यान’ रखना, शिक्षक विद्यार्थी को कहता है कि यहाँ बोर्ड पर 'ध्यान’ रखो इत्यादि बहुत सारे उदाहरण हो सकते हैं।
यहाँ विचारणीय है कि इस 'ध्यान’ शब्द का अर्थ क्या है? पहले उदाहरण में ध्यान का अर्थ 'स्मरण’ है, दूसरे में 'खयाल रखना’ और तीसरे में 'मन को टिकाना’ है। अब जब हम भगवान् का ध्यान करना चाहते हैं तो उसमें भी तो हम ध्यान में इन्हीं अर्थों का प्रयोग करेंगे। हम भगवान् का स्मरण करेंगे। अर्थात् हम अपने विचारों के माध्यम से उसे याद करेंगे कि हे प्रभु! तेरी इतनी कृपा है मुझ पर कि मुझे मनुष्य का जन्म दिया क्योंकि इसी देह में मैं तुझे जान सकता हूँ, तुझे पा सकता हूँ, तेरी महिमा, उपकार, प्रेम, करुणा, वात्सल्य, सहाय को समझ सकता हूँ तथा हे मेरे पिता! तुझसे ही मेरा अस्तित्व है, तूने ही यह धरती, आकाश, वायु, जल, अग्रि बनाये हैं।
हे ईश्वर! तेरे दिये हुए ज्ञान, बुद्धि, बल, पराक्रम और उत्साह से मैं अपना कार्य कर पाता हूँ। लोगों की सेवा कर पाता हूँ। मुझमें आपके प्रति श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, समर्पण ऐसे ही बना रहे, ऐसी मेरी इच्छा पूर्ण करो। इस प्रकार हम अपने शब्दों के माध्यम से उस परम शक्ति जो कि कण-कण में व्याप्त है, जो अभी भी इस सूरज-चांद-तारों को जलाये हुए है, को स्मरण करें। अब ध्यान शब्द के दूसरे अर्थ पर विचार करते हैं, वह है खयाल करना अर्थात् अपने को शारीरिक, मानसिक कष्टों से बचाना, जो कि हम व्यवहार में प्रयोग करते हैं। जब हम अध्यात्म के पथ पर चलते हैं तो हम अपना खयाल रखना वास्तविक रूप से प्रारंभ कर देते हैं। वह इस प्रकार कि हम वह कोई कार्य नहीं करेंगे जिससे कि हमको दु:ख हो। उदाहरण के रूप में क्रोध को ले सकते हैं। जब हम क्रोध करते हैं तो हमको सुख तो नहीं होता। हमारे मस्तिष्क के तन्तु गरम होने लगते हैं। उसमें अत्यधिक कम्पन होने लगता है। ब्लड प्रेशर बढऩे लगता है, सांसे फूलने लगती हैं इस प्रकार यह हमारा अनुभूत सत्य है कि हमें आनन्द तो नहीं आता। फिर हम क्रोध करते क्यों हैं? इसलिए कि हम अपना खयाल नहीं रखना चाहते। कैसी भी परिस्थिति हो पहले हम शांत रहकर अपना खयाल रखें फिर दूसरों का। ऐसे और भी बिन्दु हैं जैसे ईष्र्या करना, द्वेष करना, लड़ाई-झगड़ा करना, आलस्य करना। इन सब विकारों से हमको ग्लानि होती है तो हम अपना ख्याल नहीं रख रहे।
शारीरिक रूप से भी हम अपने शरीर को योग प्राणायाम, आसन, व्यायाम आदि के द्वारा स्वस्थ रखें और शारीरिक दु:खों से बचकर अपना खयाल रखें।
तीसरे अर्थ में ध्यान है मन को किसी एक विषय पर टिकाना या लगाना। अब प्रश्न होगा कि ध्यान कहाँ पर लगायें। हम जिस समय जो कार्य कर रहे हैं, उस समय हमारा मन वहीं टिका रहे। अर्थात् हम जहाँ पर हैं, जो कार्य कर रहे हैं, हमारा मन वहीं लगा रहे। जैसे हम जब पढ़ाई करते हैं, तब मन सिर्फ पढ़ाई में रहना चाहिए न कि भोजन के स्वाद, समय या मात्रा पर। प्रभु को स्मरण कर रहे हैं तब हमारा मन प्रभु में ही टिका रहे, हमें सांसारिक वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, कामकाज याद न आयें। जब हम अपने परिजनों से, मित्रों से, सुहृतों से बात कर रहे हैं या उनके साथ हैं तो पूर्ण रूप से वहीं रहें। हमारे मन में इधर-उधर के विचार न आये। हमारा मन वहीं लगा रहे। इसके लिए हमें अपने अभ्यासों को ठीक करना होगा।
जापान के प्रसिद्ध फकीर बोकोजू से किसी ने पूछा कि 'बोध को प्राप्त करने के बाद आप क्या करते हैं? कब ध्यान करते हैं? इस बारे में कुछ बताइए।’
बोकोजू ने कहा- 'जब नींद आती है तो सो जाता हूँ। जब भूख लगती है तो खा लेता हूँ। जब प्यास लगती है तो पानी पी लेता हूँ। बोध के बाद से अब यही करता हूँ।’
प्रश्नकर्ता ने कहा- 'फिर ध्यान कब करते हो? आपने जो कहा यह तो कोई बड़ी बात नहीं। सभी भूख लगने पर खाते हैं। सभी नींद आने पर सोते हैं? सभी प्यास लगने पर पानी पीते हैं। तो आपकी विशेषता क्या हुई? ध्यान कब करते हो?
बोकोजू ने कहा- 'इस दुनिया में कितने लोग हैं जो खाते समय सिर्फ  खाते हैं, विचारशून्य हो कर खाते हैं, जब  भूख लगे, तब खाते हैं? जब सोते हैं तो सिर्फ  सोते हैं? जब प्यास लगती है तब सिर्फ  पीते हैं?
फकीर का कहने का तात्पर्य यही है कि हम वर्तमान में रहें। जो व्यक्ति अक्सर अपने कार्यों को टालने का अभ्यास बना लेते हैं, उनके सामने करणीय कार्यों की बाढ़ सी आ जाती है। किसी भी कार्य को करते समय शेष सभी कार्य बीच-बीच में याद आते रहते हैं और वह भूत और भविष्य में ही उलझा रहता है। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि बैठकर आँखें बन्द कर मन को एकाग्र करना ही केवल ध्यान नहीं है। हम किसी भी कार्य को करते समय ध्यान ही कर रहे होते हैं, यदि हम सावधानी पूर्वक एकाग्रता से करते हैं। कार्य के समय यदि हमारा मन चञ्चल है तो बैठकर ध्यान करना भी मुश्किल है, इसके विपरीत यदि कार्य में हम पूरी तरह से समाहित हो जाते हैं और एकाग्र होकर कार्य करते हैं, तो वही एकाग्रता हमें ध्यान की गहराईयों तक जाने में भी सहायता करती है। इस प्रकार ध्यान का समग्र रूप से अभ्यास करते रहने पर हमारे मन में प्रसन्नता, दिव्यता, शांति अपने आप आने लगती है और यही हम सबको चाहिए।

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