जीवन की उत्पत्ति जाति-विद्वेष: सभ्यताएँ

जीवन की उत्पत्ति जाति-विद्वेष: सभ्यताएँ

डॉ. चंद्र बहादुर थापा  
वित्त एवं विधि सलाहकार- भारतीय शिक्षा बोर्ड 
एवं विधि परामर्शदाता पतंजलि समूह

6) आर्मीनियन की सभ्यता
वर्तमान तुर्की का कुछ भू-भाग, सीरिया, लेबनान, ईरान, इराक, अजऱबैजान और वर्तमान आर्मीनिया के भू-भाग सम्मिलित आर्मीनियन सभ्यता, प्राचीन सभ्यताओं से एक है। आर्मीनिया का अर्मेनियाई भाषा में नाम हयस्तान है जिसका अर्थ हायक की जमीन है। हायक नोह के पर-परपोते का नाम था। इस्लाम, ईसाई और यहूदी मान्यताओं के अनुसार पौराणिक महाप्रलय की बाढ़ से बचाने वाले नोआ (अरबी में नूह, हिन्दू मत्स्यावतार जैसे) का नाव यरावन की पहाडिय़ों के पास आकर रूक गया था। अर्मेनियाई मूल के लोग अपने को नोआ (इस्लाम ईसाईयत और यहूदियों में पूज्य) के परपोते के पोते हायक का वंशज मानते हैं। कांस्य युग में  हिट्टी तथा मितन्नी जैसे साम्राज्यों की भूमि रहा है। लौह काल में अरामे के उरातु साम्राज्य ने सभी शक्तियों को एक किया और उसी के नाम पर इस क्षेत्र का नाम अर्मेनिया पड़ा। कुछ ईसाईयों की मान्यता है कि नोआ (इस्लाम में नूह) और उसका परिवार यहीं आकर बस गया था। सेमेटिक जाति के लोग इस सभ्यता के निवासी थे। अरमाइन लिपि के जनक भी इसी जाति के लोग थे। अर्मेनियाई मूल की लिपि आरामाईक एक समय (ईसा पूर्व 300) भारत से लेकर भूमध्य सागर के बीच प्रयुक्त होती थी। आर्मेनिया के राजा ने चौथी शताब्दी में ही ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया था। इस प्रकार आर्मेनिया राज्य ईसाई धर्म ग्रहण करने वाला प्रथम राज्य है। देश में आर्मेनियाई एपोस्टलिक चर्च सबसे बड़ा धर्म है।पूर्वी रोमन साम्राज्य और फ़ारस तथा अरब दोनों क्षेत्रों के बीच अवस्थित होने के कारण मध्य काल से यह विदेशी प्रभाव और युद्ध की भूमि रहा है जहाँ इस्लाम और ईसाइयत के कई आरंभिक युद्ध लड़े गए थे। इसके अलावा यहाँ कैथोलिक ईसाईयों, मुसलमानों और अन्य संप्रदायों का छोटा समुदाय है। ज़ेनोब ग्लैक (आर्मीनिया के पेट्रन संत ग्रेगरी द इल्युमिनेटर के पहले शिष्यों में से एक) अनुसार, लगभग 349 ईसा पूर्व में आर्मीनिया में कम से कम 7 हिंदू शहर स्थापित किए गए थे। नखरार की संस्था हिंदू राजाओं द्वारा पहले भी स्थापित की गई थी। ज़ेनोब ने लिखा है कि कॉलोनी की स्थापना उज्जैन के दो भारतीय राजकुमारों ने की थी जिन्होंने आर्मीनिया में शरण ली थी। वे और उनके वंशज श्री गणेश की पूजा करते थे और उन्होंने आर्मीनिया के एक बड़े हिस्से पर राज किया। इन हिंदू राजाओं का शासन आर्मीनिया में सन् 301 ईस्वी तक चला और वहाँ हिंदू शहर फले-फूले, जब वहाँ में ईसाई धर्म की शुरुआत हुई। संत करपेट मठ खंडहर (अब तुर्की में) की जगह पर पहले हिंदू मंदिर हुआ करते थे। साहित्यिक साक्ष्य 149 ईसा पूर्व के शुरुआती दिनों में आर्मीनिया में भारतीय बस्तियों के अस्तित्व को इंगित करते हैं। अर्थात आर्मेनियन भी ईसाई और बाद में मुस्लिम बनने से पहले सनातनी पूर्वजों के संतति थे।
7) बेबीलोन की सभ्यता
बेबीलोनिया, मध्य-दक्षिणी मेसोपोटामिया (वर्तमान इराक और सीरिया और ईरान के कुछ हिस्से) के बेबीलोन शहर में और दजला फऱात नदी की घाटियों में विकसित एक अत्यंत प्राचीन अक्कादियन-भाषी राज्य और सांस्कृतिक क्षेत्र था। यह लगभग  1894 ईसा पूर्व एक अक्कादियन आबादी वाले लेकिन एमोराइट शासित राज्य के रूप में उभरा। अरब के रेगिस्तान के घुमक्कड़ लोगों ने सुमेर राज्य पर अपना अधिकार कर बेबीलोन शहर को अपनी राजधानी बना लिया। इसी कारण इस सभ्यता को बेबिलोनिया की सभ्यता कहा गया। 1792 ईसा पूर्व से 1750 ईसा पूर्व तक हम्मूराबी बेबीलोन का शासक रहा। बेबीलोनिया की सभ्यता के निर्माता सेमेटिक (Semetic) जाति के बेबीलो लोग थे, जो सुमेरिया के आस-पास के प्रदेशों में खानाबदोश के समान जीवन व्यतीत करते थे। मेसोपोटामिया की उपजाऊ भूमि से आकर्षित होकर वे धीरे-धीरे इस घाटी में आकर बसने लगे। 2750 ईसा पूर्व में इस जाति के पहले कबीले ने सुमेरिया के निवासियों से लडक़र कुछ प्रदेश प्राप्त कर लिये और आपकड़ (Akkad) का राज्य स्थापित कर लिया। धीरे-धीरे इस कबीले ने उन्नति की और 2500 ईसा पूर्व के लगभग आपकादियन ‘शासक’ ‘सारगन महान’ (Sargon the Great) ने सारे मेसोपोटामिया पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। इसी शासक ने बेबीलोन या बाबुल नगर की नींव डाली। इस नगर के नाम पर भी यह सभ्यता बेबीलोनिया की सभ्यता कहलाई। इसके दो सौ वर्षों के बाद आक्काडियन साम्राज्य का पतन होने लगा और सेमेटिक जाति के अन्य कवीले मेसोपोटामिया में आने लगे। 2300 ईसा पूर्व के लगभग ‘एलोमाइट’ कबीले ने दक्षिण के कुछ नगरों पर अधिकार कर लिया। इसके बाद 2200 ईसा पूर्व में ‘अमोराइट’ (Amorite) कवीले ने मेसोपोटामिया पर आक्रमण कर दिया और आक्कादियन व एलोमाइट कबीलों को पराजित करके मेसोपोटामिया के एक बढ़े भाग पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। इन कबीले का सबसे अधिक शक्तिशाली शासक हेम्मुराबी (Hammurabi) था जिसने 1792 से 1750 ईसा पूर्व तक मेसोपोटामिया पर शासन किया। यह शासक एक महान विजेता, महान प्रशासक, राजनीतिज्ञ तथा कानून निर्माता था। इसके शासन काल में स्थापत्य कला का भारी विकास हुआ और कानून के क्षेत्र में क्रांतिकारी सुधार हुये। हेम्मूराबी की मृत्यु के बाद,1570 ईसा पूर्व से 1154 ईसा पूर्व तक पश्चिम से हिटाहर (Hitities) जाति ने और पूर्व से साइट (Kassites) जाति ने आक्रमण करके बेबोलोनिया के साम्राज्य को नष्ट-भ्रष्ट  कर दिया। बाद में बेबीलोनिया पर असीरिया व मिश्र का अधिकार हो गया। इसके बाद 1121 ईसा पूर्व से 562 ईसा पूर्व के बीच राजा नेवूकदरेजार (Nebuchadrezzar)-I से लेकर राजा नेवूकदरेजार (Nebuchadrezzar)- II तक, ने बेबीलोनिया के प्राचीन गौरव को फिर से स्थापित करने का प्रयत्न किया और झूलते हुए बाग (Hanging gardens) बनवाये। इस शासक की मृत्यु के बाद ईरानियों ने बेबीलोनिया पर अपना अधिकार जमा लिया। 3000 ईसा पूर्व से लेकर हम्मुराबी के शासनकाल तक, दक्षिणी मेसोपोटामिया का प्रमुख सांस्कृतिक और धार्मिक केंद्र निप्पुर का प्राचीन शहर था, जहां भगवान एनिल सर्वोच्च थे। हम्मुराबी ने इस प्रभुत्व को बेबीलोन में स्थानांतरित कर दिया, जिससे मर्दुक को दक्षिणी मेसोपोटामिया के पंथ में सर्वोच्च बना दिया गया (भगवान अशूर अथवा ईशर, उत्तरी मेसोपोटामिया असीरिया में लंबे समय तक प्रमुख देवता बने रहे)। बेबीलोन शहर एक ‘पवित्र शहर’ के रूप में जाना जाने लगा, जहाँ दक्षिणी मेसोपोटामिया के किसी भी वैध शासक को ताज पहनाया जाता था, और इन धार्मिक कारणों से यह शहर असीरिया द्वारा भी पूजनीय था। हित्तियों ने, बेबीलोन को लूटते समय, एसागिल मंदिर से देवताओं मर्दुक और उनकी पत्नी ज़ारपनिटु की मूर्तियों को हटा दिया और वे उन्हें अपने राज्य में ले गए। करैनदाश ने उरुक में एक बेस-रिलीफ मंदिर का निर्माण किया और कुरीगाल्ज़ु (1415-1390 ईसा पूर्व) ने बेबीलोन से प्रशासनिक शासन स्थानांतरित करते हुए, अपने नाम पर एक नई राजधानी दुर-कुरीगाल्ज़ु का निर्माण किया। ये दोनों राजा सीलैंड राजवंश के विरुद्ध असफल संघर्ष करते रहे। करैनदाश ने अश्शूर के राजा अशूर-बेल-निशेशु और मिस्र के फिरौन थुटमोस -III के साथ राजनयिक संबंधों को भी मजबूत किया और एलाम के साथ बेबीलोन की सीमाओं की रक्षा की। सिकंदर ने यूनानियों के लिए 333 ईसा पूर्व में बेबीलोन पर विजय प्राप्त की और 323 ईसा पूर्व में उसकी मृत्यु हो गई। बेबीलोनिया और असीरिया तब ग्रीक सेल्यूसिड साम्राज्य का हिस्सा बन गए । 150 ईसा पूर्व में पार्थियन राजा मिथ्रिडेट्स ने इस क्षेत्र को जीतकर पार्थियन साम्राज्य में शामिल कर लिया और यह क्षेत्र यूनानियों और पार्थियनों के बीच युद्ध का मैदान बन गया। गणित की बेबीलोनियाई प्रणाली सेक्सजेसिमल या आधार 60 अंक प्रणाली थी। इससे हम आधुनिक समय में एक मिनट में 60 सेकंड, एक घंटे में 60 मिनट और एक वृत्त में 360 (60म6) डिग्री का उपयोग प्राप्त करते हैं। बेबीलोनवासी दो कारणों से गणित में बड़ी प्रगति करने में सक्षम थे। सबसे पहले, संख्या 60 में कई भाजक (2, 3, 4, 5, 6, 10, 12, 15, 20 और 30) हैं, जिससे गणना आसान हो जाती है। इसके अतिरिक्त, मिस्रियों और रोमनों के विपरीत, बेबीलोनियों के पास एक वास्तविक स्थान-मूल्य प्रणाली थी, जहां बाएं कॉलम में लिखे गए अंक बड़े मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते थे (हमारे आधार-दस प्रणाली के समान : 734=7X100+3 X 10+4 X 1)। बेबीलोनियों की गणितीय उपलब्धियों में दो के वर्गमूल को सात स्थानों तक सही ढंग से निर्धारित करना शामिल था (YBC 7289)। उन्होंने पाइथागोरस से भी पहले पाइथागोरस प्रमेय का ज्ञान प्रदर्शित किया था ।
8) सिंधु घाटी की सभ्यता
उत्तर में ‘मांडा’ (जम्मू कश्मीर) तक, दक्षिण में ‘दैमाबाद’ (महाराष्ट्र) तक, पूर्व में ‘आलमगीरपुर’ (उत्तरप्रदेश) तक और पश्चिम में ‘सुत्कागेंडोर’ (पाकिस्तान) तक फैली हुई यह सभ्यता सौराष्ट्र, राजस्थान, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश इत्यादि क्षेत्रों में भी विस्तृत थी। सिन्धु घाटी सभ्यता (3300-1300 ई.पू), विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में से एक, दक्षिण एशिया मे सिंधु नदी और प्राचीन सरस्वती नदी क्षेत्र मे विस्तृत है, और हड़प्पा सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है। इस का प्रारंभिक विकास 7500-3300 ई.पू के बीच, सिन्धु और घघ्घर/हकड़ा (प्राचीन सरस्वती नदी के किनारे हुआ, जिसके हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा और राखीगढ़ी प्रमुख केन्द्र थे। भिरड़ाणा को सिन्धु घाटी सभ्यता का अब तक का खोजा गया सबसे प्राचीन नगर माना गया है, जो लगभग 7500 से 6500 ई.पू. के बीच बसा था। सिन्धु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र में आने वाले हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से इस सभ्यता के प्रमाण मिलने के कारण विद्वानों ने इसे सिन्धु घाटी की सभ्यता का नाम दिया, परन्तु बाद में रोपड़, लोथल, कालीबंगा, बनावली, रंगपुर आदि क्षेत्रों में भी इस सभ्यता के अवशेष मिले जो सिन्धु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र से बाहर थे। केन्द्र-स्थल पंजाब तथा सिन्ध बने, इस सभ्यता का क्षेत्र संसार की सभी प्राचीन सभ्यताओं के क्षेत्र से अनेक गुना बड़ा और विशाल था, शनै: शनै: इसका विस्तार दक्षिण और पूर्व की दिशा में हुआ। इस प्रकार हड़प्पा संस्कृति के अन्तर्गत पंजाब, सिन्ध और बलूचिस्तान के भाग ही नहीं, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सीमान्त भाग, अर्थात उत्तर में माण्डा में चेनाब नदी के तट से लेकर दक्षिण में दैमाबाद (महाराष्ट्र) तक और पश्चिम में बलूचिस्तान के मकरान समुद्र तट के सुत्कागेनडोर, पाक के सिंध प्रांत से लेकर उत्तर पूर्व में आलमगिरपुर में हिरण्‍‍य, मेरठ और कुरुक्षेत्र तक था। प्रारम्भिक विस्तार में सम्पूर्ण क्षेत्र त्रिभुजाकार (उत्तर में जम्मू के माण्डा से लेकर दक्षिण में गुजरात के भोगत्रार तक और पश्चिम में अफगानिस्तान के सुत्कागेनडोर से पूर्व में उत्तर प्रदेश के मेरठ तक) और क्षेत्रफल 20,00,000 वर्ग किलोमीटर था, अर्थात आधुनिक अथवा प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया से भी बड़ा था। अब तक भारतीय उपमहाद्वीप में इस संस्कृति के कुल 1500 स्थलों का पता चल चुका है। इनमें से कुछ आरम्भिक अवस्था के हैं तो कुछ परिपक्व अवस्था के और कुछ उत्तरवर्ती अवस्था के। हड़प्पा में पकी मिट्टी की स्त्री मूर्तियां भारी संख्या में मिली हैं। एक मूर्ति में स्त्री के गर्भ से निकलता एक पौधा दिखाया गया है। विद्वानों के मत में यह पृथ्वी देवी की प्रतिमा है और इसका निकट सम्बन्ध पौधों के जन्म और वृद्धि से रहा होगा। इसलिए मालूम होता है कि यहाँ के लोग धरती को उर्वरता की देवी समझते थे और इसकी पूजा उसी तरह करते थे (जिस तरह मिस्र के लोग नील नदी की देवी आइसिस् की)। लेकिन प्राचीन मिस्र की तरह यहाँ का समाज भी मातृ प्रधान था कि नहीं यह कहना मुश्किल है। कुछ वैदिक सूत्रों में पृथ्वी माता की स्तुति है, धोलावीरा के दुर्ग में एक कुआँ मिला है इसमें नीचे की तरफ जाती सीढिय़ाँ है और उसमें एक खिडक़ी थी जहाँ दीपक जलाने के सबूत मिलते हैं। उस कुएँ में सरस्वती नदी का पानी आता था, तो शायद सिन्धु घाटी के लोग उस कुएँ के जरिये सरस्वती की पूजा करते थे। सिन्धु घाटी सभ्यता के नगरों में एक सील पाया जाता है जिसमें एक योगी का चित्र है 3 या 4 मुख वाला, कई विद्वान मानते हैं कि यह योगी शिव हैं। मेवाड़ जो कभी सिन्धु घाटी सभ्यता की सीमा में था वहाँ आज भी 4 मुख वाले शिव के अवतार एकलिंगनाथ जी की पूजा होती है। सिंधु घाटी सभ्यता के लोग अपने शवों को जलाया करते थे, मोहन जोदड़ो और हड़प्पा जैसे नगरों की आबादी करीब 50 हज़ार थी पर फिर भी वहाँ से केवल 100 के आसपास ही कब्रें मिली हैं जो इस बात की और इशारा करता है वे शव जलाते थे। लोथल, कालीबंगा आदि जगहों पर हवन कुण्ड मिले हैं जो कि उनके वैदिक होने का प्रमाण है। यहाँ स्वास्तिक के चित्र भी मिले हैं। कुछ विद्वान मानते हैं कि हिन्दू धर्म द्रविड़ों का मूल धर्म था और शिव द्रविड़ों के देवता थे जिन्हें आर्यों ने अपना लिया। कुछ जैन और बौद्ध विद्वान यह भी मानते हैं कि सिन्धु घाटी सभ्यता जैन या बौद्ध धर्म के थे। प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया में पुरातत्वविदों को कई मन्दिरों के अवशेष मिले हैं पर सिन्धु घाटी में आज तक कोई मन्दिर नहीं मिला। इतिहासकार मानते हैं कि सिंधु घाटी के लोग अपने घरो में, खेतों में या नदी किनारे पूजा किया करते थे, जैसे आज हिन्दू गंगा में नहाने जाते हैं वैसे ही सैन्धव लोग यहाँ नहाकर पवित्र हुआ करते थे। प्राचीन मेसोपोटामिया की तरह यहाँ के लोगों ने भी लेखन कला का आविष्कार किया था। हड़प्पाई लिपि का पहला नमूना 1853 ई. में मिला था और 1923 में पूरी लिपि प्रकाश में आई परन्तु अब तक पढ़ी नहीं जा सकी है। लिपि का ज्ञान हो जाने के कारण निजी सम्पत्ति का लेखा-जोखा आसान हो गया। व्यापार के लिए उन्हें माप तौल की आवश्यकता हुई और उन्होनें इसका प्रयोग भी किया। बाट के तरह की कई वस्तुएँ मिली हैं। उनसे पता चलता है कि तौल में 16 या उसके आवर्तकों (जैसे- 16, 32, 48, 64, 160, 320, 640, 1280 इत्यादि) का उपयोग होता था। दिलचस्प बात ये है कि आधुनिक काल तक भारत में 1 रुपया 16 आने का होता था। 1 किलो में 4 पाव होते थे और हर पाव में 4 कनवां यानि एक किलो में कुल 16 कनवाँ। अधिकांश विद्वानो के मतानुसार इस सभ्यता का अंत बाढ़ के प्रकोप से हुआ। चूँकि सिंधु घाटी सभ्यता नदियों के किनारे-किनारे विकसित हूई, इसलिए बाढ़ आना स्वाभाविक था, अत: यह तर्क सर्वमान्य हैं। परन्तु कुछ विद्वान मानते हैं कि केवल बाढ़ के कारण इतनी विशाल सभ्यता समाप्त नहीं हो सकती। इसलिए बाढ़ के अलावा भिन्न-भिन्न कारणों का समर्थन भिन्न-भिन्न विद्वान करते हैं जैसे- आग लग जाना, महामारी, बाहरी आक्रमण आदि।  

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