दंत, मुख, नासा व वक्ष सम्बन्धी रोग निवारक आयुर्वेदिक घटक अकरकरा
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आयुर्वेद मनीषी
आचार्य बालकृष्ण जी महाराज
अकरकरा का पौधा मूल-रूप से अरब का निवासी कहा जाता है इसलिए इसको मोरक्को अकरकरा कहा जाता है। यह भारत के कुछ हिस्सों में भी पाया जाता है। वर्षाऋतु की प्रथम फुहार पड़ते ही इसके छोटे-छोटे पौधे निकलना शुरू हो जाते हैं। इसकी जड़ का स्वाद चरपरा होता है तथा इसको चबाने से गर्मी महसूस होती है व जिह्वा जलने लगती है। आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव में अरब से आयातित औषधि अधिक वीर्यवान् मानी जाती है। आयुर्वेद में इसका प्रयोग लगभग 400 वर्षों से किया जा रहा है। यद्यपि चरक, सुश्रुत आदि प्राचीन ग्रन्थों में इसका उल्लेख प्राप्त नहीं होता है, तथापि यह नहीं माना जा सकता कि यह बूटी भारतवर्ष में पहले नहीं होती थी। भारतवर्ष में पायी जाने वाली यह औषधि प्राय: तीन प्रकार की होती है। 1. Anacyclus pyrethrum (Linn.) Lag. 2. Spilanthes acmella var. oleracea C.B. Clarke, Syn-Acmella oleracea (Linn.) R.K. Jansen 3. Spilanthes acmella var. calva (DC.) C.B. Clarke, Syn- Acmella paniculata (Wall. ex DC.) R.K. Jansen (दीर्घवृन्त करकरा) मुख्यतया आयुर्वेदीय औषधि में Anacyclus pyrethrum (Linn.) का प्रयोग किया जाता है इसके अतिरिक्त अकरकरा की दो अन्य प्रजातियाँ प्राप्त होती हैं, जिनका प्रयोग चिकित्सा के लिए किया जाता है। अकरकरा में उत्तेजक गुण काफी प्रमाण में होने से आयुर्वेद में इसे कामोत्तेजक औषधियों में प्रधानता दी गई है। इसे समान गुण वाली अन्य औषधियों के साथ मिलाकर प्रयोग करने से यह वीर्यवर्धक, कामोत्तेजक एवं स्तम्भक होती है। कफ तथा शीत प्रकृति वाले व्यक्तियों को अकरकरा के प्रयोग से विशेष लाभ होता है।
बाह्यस्वरूप
आकारकरभ: इसके छोटे-छोटे क्षुप वर्षा ऋतु के आरम्भ काल में ही उत्पन्न हो जाते हैं। शाखाएं, पत्र और पुष्प सफेद बाबूना के समान होते हैं किन्तु इनके डण्ठल कुछ पोले होते हैं। तना और शाखाएं रोएंदार होती हैं। ये शाखाएं एक तने या डाली में से निकल कर कई भागों में विभक्त हो जाती हैं। इसकी जड़ में एक प्रकार की सुगन्ध होती है। इसकी जड़ मोटी तथा वजनदार होती है। मूल छाल मोटी, भूरी तथा झुर्रीदार होती है। अन्य वनस्पतियों का गुण-धर्म तो एक वर्ष में नष्ट हो जाता है, परन्तु इस असली अकरकरा मूल का गुण-धर्म 7 वर्षो तक प्राय: जैसे का तैसा रहता है। इसको मुख में चबा लेने से अन्य कटु, तिक्त रस वाली औषधियों का स्वाद मालूम नहीं होता। महाराष्ट्र में इसकी डंडी का अचार और शाक बनाकर खाया जाता है।
भारतीय अकरकरा: यह 30-60 सेमी ऊँचा, वर्षायु, शाकीय पौधा है। इसका काण्ड सीधा अथवा आरोही, अत्यधिक पुष्ट एवं मांसल, रोमश, आधार उच्चाग्र भूशायी रोमश होता है। इसके पत्र साधारणत: विपरीत, अण्डाकार-भालाकार, त्रिकोणाकार-अण्डाकार होते हैं। इसके पुष्प पीले अथवा रक्ताभ भूरे वर्ण के, अण्डाकार अथवा दीर्घायत अंतस्थ पुष्पगुच्छों में होते हैं। इसके फल चपटे, पृष्ठ भाग पर सम्पीडित, अधोमुख अण्डाकार से त्रिकोणीय, कृष्ण वर्ण के होते हैं। अकरकरा की उपरोक्त उल्लिखित प्रजातियों के अतिरिक्त Acmella paniculata (Wall. ex DC.) R.K. Jansen नामक एक प्रजाति और पाई जाती है, जिसका प्रयोग चिकित्सा के लिए किया जाता है; परन्तु यह अल्प गुण युक्त होती हैं।
दीर्घवृन्त अकरकरा: यह शाखाप्रशाखायुक्त, चिकना, सीधा अथवा आरोही लगभग 30 सेमी लम्बा शाकीय पौधा होता है। इसके पत्ते वृंतयुक्त, अण्डाकार या भालाकार 2-4 सेमी लम्बे, 1-2.5 सेमी चौड़े तथा शीर्ष पर नुकीले होते हैं। इसके पुष्प दीर्घवृन्त युक्त पीतवर्ण के होते हैं। इसके पुष्पों का प्रयोग चिकित्सा के लिए किया जाता है। इसके फूलों की मिलावट अकरकरा के पुष्पों में की जाती है तथा कई स्थान पर अकरकरा के स्थान पर इसका प्रयोग किया जाता है। इसके पुष्पों का क्वाथ बनाकर गरारा करने से दंतशूल तथा कण्ठशूल का शमन होता है। इसके पुष्पों का चूर्ण बनाकर दाँतों पर रगडऩे से दंतशूल का शमन होता है।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
आकारकरभ
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यह बलकारक, कटु, लालास्रावजनक, प्रदाहकारक, नाड़ी को बल देने वाला, कामोद्दीपक, वेदनास्थापक होता है तथा प्रतिश्याय और शोथ को नष्ट करता है।
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इसका मूल हृदयोत्तेजक, रक्तिमाकारक तथा बलकारक होता है।
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यह सूक्ष्मजीवाणुरोधी एवं कीटनाशक, कृमिदंत, दंतशूल, ग्रसनीशोथ, तुण्डीकेरी शोथ, पक्षाघात, अर्धांगघात, जीर्ण नेत्ररोग, शिर:शूल, अपस्मार, विसूचिका, आमवात तथा टाइफस (ञ्ज4श्चद्धह्वह्य) ज्वरनाशक होता है।
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इसके बीज में अल्प गर्भस्रावक प्रभाव दृष्टिगत होता है।
भारतीय अकरकरा
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यह रस में कटु, उष्ण, रूक्ष तथा वातपित्तकारक होती है।
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यह लालास्राववर्धक, उत्तेजक, दीपन, कफनि:सारक, स्वेदक, पाचक, उदरशूल तथा ज्वरनाशक होती है।
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इसका पुष्प कटु, तापजनक, कफनि: सारक, वेदनाहर, स्वेदजनन एवं ज्वरहर होता है।
औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि
शिरो रोग
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मस्तक पीड़ा (शिर:शूल)- अकरकरा की जड़ या फूल को पीसकर, हल्का गर्म करके ललाट (मस्तक) पर लेप करने से मस्तक की पीड़ा का शमन होता है।
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अकरकरा के फूल को दाँतों के बीच में रखकर चबाने से जुकाम के कारण होने वाला सिर दर्द मिटता है। इसको चबाने से दाढ़ की पीड़ा मिट जाती है। एक बार के प्रयोग के लिए एक फूल या थोड़ा कम पर्याप्त है।
नेत्र रोग
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जीर्ण चक्षुरोग-अकरकरा मूल स्वरस की 2-4 बूंद नाक में डालने से पुराने नेत्ररोग तथा सिर के दर्द में लाभ होता है।
नासा रोग
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पीनस-अकरकरा स्वरस की 2-4 बूंद नाक में डालने से पीनस तथा जुकाम, आधासीसी व अन्य ऊध्र्वजत्रुगत रोगों में लाभ होता है। यह तीक्ष्ण है, बच्चों व सुकुमार लोगों को थोड़ा पानी मिलाकर इसका प्रयोग करना चाहिए। अकरकरा स्वरस के लिए ताजी जड़ का प्रयोग करें इससे जीर्ण प्रतिश्याय में भी अत्यन्त लाभ होता है।
मुख रोग
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दंतशूल-अकरकरा मूल या फूल और उसका दसवाँ भाग कपूर लेकर थोड़ा सा सेंधानमक मिलाकर, पीसकर मंजन करने से सब प्रकार की दंत पीड़ा मिटती है।
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मुख दुर्गन्ध-अकरकरा, माजुफल, नागरमोथा, भुनी हुई फिटकरी, काली मिर्च, सेंधानमक सबको बराबर मिलाकर बारीक पीस लें। इस मिश्रण से प्रतिदिन मंजन करने से दाँत और मसूड़ों के सब विकार दूर होकर मुख की दुर्गन्ध मिट जाती है।
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दंतशूल-अकरकरा के पुष्पों को चबाने से दाँत के दर्द में लाभ होता है व मुख की दुर्गन्ध मिटती है।
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अकरकरा के पुष्पों का प्रयोग हनुशोथ व दाँत में कीड़ा लगने या दाँतों की पीड़ा, मसूड़ों की सूजन आदि में भी अत्यन्त लाभकारी है।
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अकरकरा मूल या फूल, हल्दी तथा सेंधा नमक को पीसकर कर उसमें थोड़ा सरसों का तेल मिलाकर दाँतों पर मलने से दाँत के दर्द का शमन होता है, साथ ही मुख दुर्गन्ध व मसूड़ों की समस्या भी दूर होती है। यह एक चमत्कारिक प्रयोग है।
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अकरकरा की मूल को चबाने से तथा काढ़े का कवल एवं गण्डूष धारण करने से दाँत में कीड़ा लगने, दाँत के दर्द तथा वातजन्य मुख रोगों में लाभ प्राप्त होता है।
कण्ठ रोग
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कण्ठ्य-अकरकरा चूर्ण को 250-500 मिग्रा की मात्र में सेवन करने से बच्चों और गायकों का कण्ठ स्वर सुरीला हो जाता है। अकरकरा मूल या अकरकरा फूल को मुंह में रखकर चूस भी सकते हैं यह कण्ठ के लिए बहुत लाभकारी है।
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तालु, दाँत और गले के रोगों में अकरकरा के काढ़े से कुल्ला करने पर बहुत लाभ होता है।
वक्ष रोग
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हिचकी-हिचकी आने पर आधा से एक ग्राम अकरकरा मूल चूर्ण को शहद के साथ चटाएं। हिचकी पर यह चमत्कारिक असर दिखाता है।
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श्वास-अकरकरा के कपड़छन चूर्ण को सूंघने से श्वासावरोध दूर होकर श्वास में लाभ होता है।
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खाँसी-अकरकरा (2 ग्राम) एवं सोंठ (1 ग्राम) का काढ़ा बनाकर 10-20 मिली मात्रा में सुबह-शाम पीने से पुरानी खाँसी मिटती है।
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अकरकरा चूर्ण को 1-2 ग्राम की मात्रा में सेवन करने से कफज विकारों में लाभ होता है।
हृदय रोग
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दो भाग अर्जुन की छाल और एक भाग अकरकरा मूल चूर्ण, दोनों को मिलाकर, पीसकर दिन में दो बार आधा-आधा चम्मच की मात्रा में खाने से घबराहट, हृदय की धड़कन, पीड़ा, कम्पन और कमजोरी में लाभ होता है।
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कुलंजन, सोंठ और अकरकरा की 2-5 ग्राम मात्रा को 100 मिली पानी में उबालें, जब चतुर्थांश काढ़ा शेष रह जाए तब पीएं, इस काढ़े को नियमित रूप से पिलाने से अनेक तरह के हृदय रोग, घबराहट, नाड़ीक्षीणता, हृदय कार्य शिथिलता आदि में अत्यन्त लाभ होता है।
उदर रोग
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उदर रोग-अकरकरा मूल चूर्ण और छोटी पिप्पली चूर्ण को समभाग लेकर उसमें थोड़ी भुनी हुई सौंफ मिलाकर आधा चम्मच सुबह शाम भोजनोपरांत खाने से उदररोगों में लाभ होता है।
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मंदाग्नि (अफारा)-शुंठी चूर्ण और अकरकरा दोनों को 1-1 ग्राम की मात्रा में लेकर सेवन करने से मंदाग्नि और अफारा में लाभ होता है।
प्रजननसंस्थान रोग
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मासिक धर्म-अकरकरा मूल का काढ़ा बनाकर 10 मिली काढ़े में चुटकी भर हींग डालकर कुछ माह सुबह-शाम पीने से मासिक धर्म ठीक होता है। इससे मासिक धर्म के दिनों में होने वाली पीड़ा भी ठीक होती है।
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इन्द्रिय शिथिलता-20 ग्राम अकरकरा मूल को लेकर उसका चतुर्थांश क्वाथ बना लें, अब इस क्वाथ के साथ 10 ग्राम अकरकरा मूल को पीसकर पुरुष जननेन्द्रिय (शिश्न) पर लेप करने से, इन्द्रिय शैथिल्य का शमन होता है। लेप कुछ घण्टों तक लगा रहने दें, लेप लगाते समय शिश्न के ऊपरी भाग (मणी) को छोड़कर लगाएं।
अस्थिसंधि रोग
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गृध्रसी-अकरकरा के मूल चूर्ण को अखरोट के तेल में मिलाकर मालिश करने से गृध्रसी में लाभ होता है।
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वातरोग-अकरकरा के मूल कल्क तथा काढ़े का लेप, सेंकाई, धावन आदि रूपों में बाह्य-प्रयोग करने से आमवात (एक प्रकार का गठिया), लकवा तथा नसों की कमजोरी में लाभ होता है।
त्वचा रोग
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पामा-भारतीय अकरकरा के 5 से 7 ग्राम पञ्चांग का क्वाथ बनाकर प्रयोग करने से खुजली तथा छाजन में लाभ होता है।
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व्रण-अकरकरा के मूलार्क को घावों में या मूल को पाउडर कर घाव के ऊपर लगाने से घाव जल्दी भरता है व संक्रमण होने की सम्भावना भी नहीं रहती है।
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कण्डू-अकरकरा के ताजे पत्र व फूल को पीसकर लगाने से दाद, खाज, खुजली में लाभ होता है।
मानस रोग
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अपस्मार-अकरकरा के फूल या जड़ को सिरके में पीसकर मधु मिलाकर 5-10 मिली की मात्रा में चाटने से मिर्गी का वेग रुकता है।
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ब्राह्मी के साथ अकरकरा की जड़ का काढ़ा बनाकर पिलाने से मिर्गी में लाभ होता है। मिर्गी में मोरक्को वाली अकरकरा ज्यादा कार्य करती है।
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मंदबुद्धि-अकरकरा मूल और ब्राह्मी को समान मात्रा में लेकर चूर्ण बनाएं, इसको आधा चम्मच या लगभग 1-2 ग्राम लेकर शहद के साथ मिलाकर नियमित सेवन करने से बुद्धि तीव्र होती है।
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हकलाना-2 भाग अकरकरा मूल चूर्ण, 1 भाग काली मिर्च व 3 भाग बहेड़ा का छिलका लेकर पीसकर रखें, उसे 1-2 ग्राम की मात्रा में दिन में दो से तीन बार शहद के साथ बच्चों को चटाने से टॉन्सिल में लाभ होता है। जिह्वा पर मलने से जीभ का सूखापन और जड़ता दूर होकर हकलाना या तोतलापन कम होता है। 4-6 हफ्ते या कुछ माह तक प्रयोग करें।
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पक्षाघात-अकरकरा मूल को बारीक पीसकर महुए के तेल या न मिलने पर तिल के तेल में मिलाकर प्रतिदिन मालिश करने से लकवा में लाभ होता है।
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अकरकरा मूल चूर्ण (आधा या एक ग्राम) को मधु के साथ प्रात: सायं चाटने से लकवा में लाभ होता है।
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अर्दित-उशवे के साथ अकरकरा का 10-20 मिली क्वाथ करके पिलाने से अर्दित में लाभ होता है।
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अकरकरा चूर्ण और राई के चूर्ण को बारीक पीसकर, मिलाकर प्रतिदिन मालिश करने से अर्धांगवात में लाभ होता है। यदि शरीर शुष्कता ज्यादा हो या बाल झड़ते हों, तब थोड़ा राई का तेल भी मिलाकर मालिश करें। यह अनुभूत व अत्यन्त लाभकारी प्रयोग है।
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अकरकरा मूल को धीरे-धीरे चबाना अर्दित में लाभप्रद है, 1 से 2 ग्राम सूक्ष्म चूर्ण को शहद में मिलाकर या गर्म पानी से सुबह-शाम लेने से अर्दित में लाभ होता है।
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अपस्मार-अकरकरा के मूल चूर्ण को प्रतिदिन दो बार मधु के साथ सेवन करने से मिर्गी में लाभ होता है।
सर्वशरीर रोग
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ज्वर-अकरकरा की जड़ के चूर्ण को जैतून के तेल में पकाकर मालिश करने से पसीना आकर बुखार उतर जाता है। आवश्यकता के अनुसार यह प्रयोग कई दिन तक किया जा सकता है।
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अकरकरा के 500 मिग्रा चूर्ण में 4-6 बूंद चिरायता अर्क मिलाकर सेवन करने से बुखार में अत्यन्त लाभ होता है।
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1 ग्राम अकरकरा मूल, 5 ग्राम गिलोय तथा 3-5 पत्र तुलसी को मिलाकर काढ़ा बनाकर दिन में 2-3 बार देने से जीर्ण ज्वर, बार-बार होने वाला बुखार व सर्दी लगकर आने वाले बुखार में अत्यन्त लाभ होता है।
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1 ग्राम अकरकरा चूर्ण को 2-3 नग लौंग के साथ सेवन करने से शरीर की शून्यता और इसकी मूल का 10-20 मिली काढ़ा पीने से आलस्य मिटता है।
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अकरकरा से निर्मित ज्वरघ्नी गुटिका का सेवन करने से ज्वर में लाभ होता है।
रसायन वाजीकरण
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वाजीकरण- अश्वगंधा, सफेद मूसली तथा अकरकरा मूल को समान भाग लेकर महीन पीसें। नित्य प्रात: व सायंकाल एक-एक चम्मच एक कप दूध के साथ लेने से इसका प्रभाव वाजीकर होता है। 1 ग्राम आकारकरभादि चूर्ण में मधु मिलाकर सेवन करने से यह शुक्र स्तम्भन करता है।
विशेष: आयुर्वेद में सामान्यत: मोरक्को अकरकरा की जड़ व भारतीय अकरकरा के फूल को औषधीय रूप में प्रयोग किया जाता है। सामान्यत: दोनों के बहुत से गुण-धर्म समान माने गए हैं; परन्तु स्नायुगत व यौनगत रोग में अकरकरा मूल ज्यादा उपयुक्त होती है।
प्रशस्त (उत्तम) अकरकरा के लक्षण - प्रशस्त अकरकरा भारी (वजनदार) और तोडऩे पर भीतर से सफेद होती है। यह स्वाद में अत्यन्त तीक्ष्ण होती है। इसको चबाने से मुख और जीभ में बहुत तेज और एक विचित्र ढंग की सनसनाहट होने लगती है तथा मुंह से लार निकलने लग जाती है। कुछ काल के बाद सनसनाहट बंद हो जाती है तथा मुंह स्वस्थ और साफ हो जाता है। जो अकरकरा वजन में हल्की, तोडऩे पर अन्दर कुछ पीला या भूरापन लिए होती है तथा इसकी झनझनाहट कम और थोड़ी-देर तक होती है, वह अकरकरा औषधि कार्य हेतु अप्रशस्त होती है।
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