मुख, उदर व त्वचा रोग निवारक आयुर्वेदिक घटक खदिर
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आयुर्वेद मनीषी
आचार्य बालकृष्ण जी महाराज
वैदिक साहित्य में खदिर का प्रयोग धार्मिक कार्यों के साथ ही औषधि रूप में भी वर्णित है। इसे अत्यन्त मजबूत वृक्ष व इसका काण्ड अस्थि के समान कठोर और दृढ़ बताया गया है। समिधा एवं पूजा कर्मार्थ इसके काष्ठ का प्रयोग किया जाता है। कुष्ठ एवं विषरोग चिकित्सा में भी इसका वर्णन मिलता है। संहिताग्रंथों में कुष्ठघ्न एवं दन्त-धावनार्थ इसकी शाखा का प्रयोग वर्णित होता। चरक संहिता के कुष्ठघ्न, उदर्दप्रशमन महाकषाय में खदिर का वर्णन प्राप्त होता है। निघण्टुओं में खदिर की कई प्रजातियों का वर्णन प्राप्त होता है। आयुर्वेदीय संहिताओं में खदिर तथा कदर भेद से दो प्रजातियों का, धन्वन्तरी निघण्टु में भी संहिताओं की तरह ही दो प्रजातियों का वर्णन प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त भाव प्रकाश निघण्टु खदिर, कदर तथा विट् कदर के नाम से तीन प्रजातियों का तथा राजनिघण्टु में इन तीन के अतिरिक्त सोमवल्क व ताम्रकंटक नाम से पाँच प्रजातियों का उल्लेख प्राप्त होता है। भारत में यह 1500 मी. की ऊँचाई तक पंजाब, उत्तर-पश्चिम हिमालय, मध्य भारत, बिहार, महाराष्ट्र, राजस्थान, कोंकण, असम, उड़ीसा, दक्षिण भारत एवं पश्चिम बंगाल में पाया जाता है।
बाह्यस्वरूप
खदिर का वृक्ष 9-12 मी. तक ऊँचा, बहुवर्षायु, झाड़ीदार, मध्यम प्रमाण का, कांटेदार, पर्णपाती होता है। इसका काण्ड बाहर से गहरे धूसर-भूरे वर्ण का तथा अन्दर से भूरे व लाल वर्ण का होता है। छाल 12 मिमी मोटी तथा लम्बे संकुचित शल्कों में होती है। इसकी शाखाएँ पतली, चमकीली, भूरे-काले अथवा बैंगनी वर्ण की, अंकुशाकार, छोटे कंटकों से युक्त होती हैं। इसके कंटक चमकीले, भूरे या काले वर्ण के तथा टेढ़े होते हैं। इसके संयुक्त पत्र 10-15 सेमी लम्बे, 4-5, बृहत्, स्पष्ट ग्रन्थियों से युक्त, रोमश तथा वृन्त पर कांटे युक्त होते हैं। इसके पुष्प छोटे, श्वेताभ, वृन्तहीन, हल्के पीले वर्ण के, बेलनाकार, 5-10 सेमी लम्बी मज्जरियों में होते हैं। इसकी फली 5-7.5 सेमी लम्बी, 1-1.6 सेमी. चौड़ी, रोमश, चपटी, पतली, धूसर, चमकीली, अग्र भाग पर नुकीली होती है। प्रत्येक फली में 3-10 की संख्या में बीज होते हैं। कुछ पुराने वृक्षों के काष्ठ के अन्दर दरारों में रवेंदार या चूर्ण रूप में कृष्णाभ श्वेत पदार्थ पाया जाता है। इसे खदिर सार कहते है। खदिर की शाखाओं तथा छाल को उबालकर कत्था निकाला जाता है। इसका पुष्पकाल जून से अगस्त तक एवं फलकाल दिसम्बर से फरवरी तक होता है।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
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खदिर तिक्त, कषाय, शीत, लघु, रूक्ष, कफपित्तशामक, कुष्ठघ्न, दीपन, पाचन, बलकारक, ग्राही, दन्त्य, उदर्दप्रशमन, कुष्ठघ्न, कफमेदोविशोषक, दंतदाढ्र्यकर तथा दंतधावन में हितकर होता है। यह कास, अरुचि, मेद, कृमि, प्रमेह, ज्वर, श्वित्र, शोथ, पाण्डु, कुष्ठ, कण्डू, रक्तविकार, शोफ, व्रण, आमवात, विष, विसर्प, उन्माद, कण्ठरोग, अरोचक, अठारह प्रकार के कुष्ठ, स्थौल्य, अर्श तथा मुखदोष नाशक होता है।
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रक्त खदिर कटु, कषाय, तिक्त, ग्राही, आमवात, वातरक्त, व्रण, भूतबाधा तथा ज्वरनाशक होता है।
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खदिर सार तिक्त, कटु, उष्ण, रुचिवर्धक, जठराग्निदीपक, बलकारक, विशद्, मुखरोग, व्रण, कण्ठरोग, वातविकार, कफविकार तथा रक्तविकार शामक होता है।
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खदिर निर्यास मधुर, बलकारक तथा शुक्रविवर्धक होता है।
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खदिर का बाह्य काष्ठ तिक्त, स्तम्भक, शीतल, शोधक, कृमिरोधी, पूयरोधी, शोथरोधी, प्रवाहिकारोधी तथा ज्वररोधी होता है।
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खदिर से प्राप्त ईथाइल एसीटेट सार में यकृत् संरक्षक प्रभाव दृष्टिगत होता है।
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खदिर का जलीय एवं ऐथेनॉल सार ईश्चेरिशिया कोलाई (श्वह्यष्द्धद्गह्म्द्बष्द्धद्बड्ड ष्शद्यद्ब) के प्रति निरोधात्मक क्रियाशीलता प्रदर्शित करता है।
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खदिर का जलीय सार अल्प रक्तदाबकारक क्रियाशीलता प्रदर्शित करता है।
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खदिर का ईथाइल एसीटेट सार सार्थक ज्वरघ्न, अतिसाररोधी, अल्परक्तशर्करा कारक एवं यकृत्रक्षात्मक गुण प्रदर्शित करता है।
औषधीय प्रयोग
शिरो रोग
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अरुंषिका (रूसी)- खदिर छाल, नीम और जामुन की छाल अथवा कुटज छाल तथा सैंधव नमक को गोमूत्र में पीसकर लेप करने से अरुंषिका (रूसी) रोग में लाभ होता है।
मुख रोग
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मुखरोग-खदिर आदि द्रव्यों से निर्मित खदिरादि गुटिका को चूसने से तथा खदिरादि तैल का प्रयोग करने से सभी प्रकार के मुखरोगों में लाभ होता है तथा दाँतों को दीर्घकाल तक स्थिरता प्रदान करता है।
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खदिर सार को मुख में रखकर चूसने से छाले आदि मुख के रोग मिटते हैं।
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मसूड़ों से होने वाला रक्तस्राव-खदिर छाल का क्वाथ बनाकर गरारा करने से मसूड़ों से होने वाला रक्तस्राव रुक जाता है।
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मसूड़ों के रोग-खदिर छाल को चूसने से मसूड़ों के रोग मिटते हैं।
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मुखपाक-त्रिफला तथा खदिर छाल का क्वाथ बनाकर गरारा करने से मुखपाक मिटता है।
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दंतरोग-खदिर छाल तथा बादाम के छिलकों को जलाकर उसकी भस्म बनाकर मंजन करने से दांत के रोग मिटते हैं।
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खदिरक्वाथ का कवल (गरारा) तथा गण्डूष धारण करने से समस्त दंतरोगों में लाभ होता है।
कण्ठ रोग
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स्वरभेद-खदिरसार अथवा खदिर चूर्ण को तेल से सिक्त कर मुख में धारण करने से स्वरभेद (गले की खराश) में लाभ होता है।
वक्ष रोग
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कास-500 मिग्रा से 1 ग्राम तक खदिर सार का सेवन दही के साथ करने से वातज कास (खांसी) में लाभ होता है।
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कास-श्वास-खदिर काष्ठ को जलाकर, जल में बुझाकर, जल को शीघ्रता से ढककर, जल को धूम से सुवासित कर पीने से कास में लाभ होता है।
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खांसी-500 मिग्रा खदिर सार में 500 मिग्रा हल्दी तथा 500 मिग्रा मिश्री मिलाकर खाने से खांसी में लाभ होता है।
उदर रोग
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अतिसार-2-4 ग्राम खदिर त्वक् चूर्ण में 500 मिग्रा दालचीनी तथा 65 मिग्रा अ$फीम मिलाकर प्रयोग करने से अतिसार रुक जाते हैं।
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आधा से एक ग्राम खदिर सार का सेवन करने से अतिसार बंद हो जाते हैं।
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1 ग्राम खदिर सार में 1 ग्राम बेल गिरी का चूर्ण मिलाकर खिलाने से अतिसार मिटता है।
गुदा रोग
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भगन्दर-50 मिली खदिर तथा त्रिफला के क्वाथ में 6 ग्राम घृत तथा 3 ग्राम वायविडंग चूर्ण मिलाकर पीने से भगन्दर रोग में लाभ होता है।
वृक्कवस्ति रोग
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क्षौद्रमेह-खदिर तथा सुपारी से निर्मित क्वाथ का 20-30 मिली मात्रा में सेवन करने से क्षौद्रमेह में लाभ होता है।
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शनैर्मेह-10-30 मिली खदिरक्वाथ का सेवन करने से शनैर्मेह में लाभ होता है।
प्रजननसंस्थान रोग
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सूजाक-500 मिग्रा खदिर पुष्प चूर्ण तथा 125 मिग्रा जीरक को मिलाकर शर्करा युक्त दुग्ध के साथ सेवन करने से पूयमेह में लाभ होता है।
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प्रदर-खदिर छाल का क्वाथ बनाकर योनि को धोने से श्वेतप्रदर तथा रक्तप्रदर में लाभ होता है।
अस्थिसंधि रोग
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आमवात-1-3 ग्राम खदिर मूल चूर्ण का सेवन करने से आमवात में लाभ होता है।
शाखा रोग
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श्लीपद-प्रतिदिन प्रात: काल गोमूत्र के साथ खदिर, विजयसार एवं शाल के सार भाग में मधु मिलाकर पीने से श्लीपद (हाथी पाँव) नष्ट होता है।
त्वचा रोग
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कुष्ठ-कुष्ठ रोगी के आहार, पान, सेचन, लेप आदि बाह्याभ्यंतर प्रयोगों के लिए खदिर का प्रयोग श्रेष्ठ है।
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खदिर मूल को जलाने पर नीचे गिरते हुए रस को घड़े में एकत्र करके उसमें मात्रानुसार मधु, घृत एवं आँवला स्वरस मिलाकर पीने से कुष्ठ का शमन तथा रसायन गुण की प्राप्ति होती है।
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खदिर कल्क एवं क्वाथ से घृत को पाक कर सेवन करने से रक्त तथा पित्त प्रधान कुष्ठ में लाभ होता है।
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3 दिनों तक 50 ग्राम खदिर सार चूर्ण को भोजन के साथ प्रयोग कर, खदिर के क्वाथ का पान तथा खदिर के चूर्ण अथवा क्वाथ से उद्वर्तन, स्नान आदि करके फिर पंद्रह दिन से छ: मास तक खदिर युक्त भोजन तथा पान करने से कुष्ठ में लाभ होता है।
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सर्वप्रकार के कुष्ठों में खदिर तथा विजयसार का सर्वविध प्रयोग श्रेष्ठ है।
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खदिर आदि द्रव्यों से निर्मित खदिरारिष्ट का (20-30 मिली) सेवन करने से महाकुष्ठ, हृद्रोग, खून की कमी, अर्बुद, गुल्म, गांठ, पेट के कीड़े, कास, श्वास तथा प्लीहा वृद्धि का शमन होता है।
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श्वित्र-खदिरसार अथवा खदिरोदक का अकेले या विभिन्न कुष्ठ नाशक घृत, तैल आदि योगों के साथ सेवन करने से श्वित्र रोग (सफेद कुष्ठ) में लाभ होता है।
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खदिर छाल, आंवला तथा बावची का क्वाथ बनाकर 10-30 मिली मात्रा में पिलाने से श्वित्र में लाभ होता है।
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मसूरिका-खदिर एवं विजयसार से भावित, गर्म करके शीतल किया हुआ जल पीने से तथा स्नान आदि के लिए खदिर एवं श्लेष्मातक से सिद्ध जल का प्रयोग करने से शीतला में लाभ होता है।
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खदिर, त्रिफला, नीम, परवल, गुडूची तथा वासा आदि द्रव्यों से निर्मित खदिराष्टक क्वाथ के (20-30 मिली) सेवन से रोमांतिका, शीतला, कुष्ठ, विसर्प, फोड़े तथा खुजली आदि रोगों में अतिशय लाभ होता है।
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10-30 मिली खदिरादि क्वाथ के सेवन से मसूरिका, कुष्ठ, विसर्प, कण्डू आदि रोगों का शमन होता है।
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विस्फोट-खदिर त्वक् एवं कुटज बीज से निर्मित क्वाथ से व्रण का प्रक्षालन करने से व्रण का शोधन तथा रोपण होता है।
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व्रणशोधन-खदिर क्वाथ से घाव को धोने से व्रण का शोधन होता है।
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पामा-खदिर त्वक् क्वाथ से पामा एवं अन्य त्वक् विकारों को धोने से लाभ होता है।
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चर्मरोग-खदिर छाल का क्वाथ बनाकर चर्मरोगों को धोने से लाभ होता है।
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खदिर छाल के चूर्ण में घी मिलाकर त्वचा पर लगाने से गर्मी से होने वाले फोड़े तथा फुन्सी मिटते हैं।
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खदिर छाल का क्वाथ बनाकर उसे पानी में मिलाकर उस पानी से स्नान करने से त्वचा के रोग मिटते हैं।
सर्वशरीर रोग
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रक्तपित्त-खदिर, प्रियंगु, रक्त काँचनार तथा सेमल पुष्प चूर्ण (2-4 ग्राम) को मधु के साथ चाटने से रक्तपित्त में लाभ होता है।
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खदिर, जामुन, अर्जुन, रक्त काँचनार, शिरीष, लोध्र, विजयसार, सेमल तथा सहिजन पुष्प चूर्ण (2-4 ग्राम) का सेवन करने से रक्तपित्त में अतिशय लाभ होता है।
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ज्वर-खदिर सार तथा चिरायता का काढ़ा बनाकर, 10-30 मिली मात्रा में पिलाने से प्लीहा वृद्धि तथा ज्वर का शमन होता है।
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10-30 मिली चिरायता क्वाथ में 500 मिग्रा खदिर सार को मिलाकर पीने से ज्वर में लाभ होता है।
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शोथ-खदिर छाल को पीसकर शोथ युक्त स्थान पर लगाने से शोथ (सूजन) का शमन होता है।
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रक्तस्राव-खदिर छाल चूर्ण को घाव पर डालने से घाव से बहता हुआ रक्त रुक जाता है।
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पूयस्राव-कत्थे को पीसकर व्रण पर बुरकने से पूय स्राव बंद हो जाता है।
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