स्वाभाविक राष्ट्र भारत का गौरवशाली इतिहास

स्वाभाविक राष्ट्र भारत का गौरवशाली इतिहास

प्रो. कु सुमलता केडिया

    भारतवर्ष में स्वाधीनता के बाद इतिहास कुछ इस प्रकार पढ़ाया जाता रहा, जिससे कि उस पढ़ाए जा रहे इतिहास को पढ़कर भारतीयों के मन में कुण्ठा, हताशा और ग्लानि पैदा हो। अगर यह तथाकथित इतिहास सत्य पर आधारित होता तब कुण्ठा और ग्लानि में भी कोई आपत्ति न होती परंतु अभिलेखीय साक्ष्य बताते हैं कि ग्लानि पैदा करने वाला जो इतिहास भारत में 'इतिहास’ कहकर पढ़ाया गया, वह अप्रमाणित है और वास्तविक अभिलेख उससे नितांत विपरीत तथ्यों के उपलब्ध है।
 इतिहास का सार्वभौम प्रयोजन
सामान्यत: विश्व भर में इतिहास को जानने और समझने का एक सुनिश्चित और स्पष्ट प्रयोजन है- अपने देश या समाज के सत्य को और उन दिनों विश्व के साथ जो कुछ घटित हुआ, उसे सत्य और तथ्य के रूप में जानना। इस ज्ञान के द्वारा स्वयं अपने समाज के स्वभाव, शक्ति तथा कमजोरियों का ज्ञान होता है और अन्य राज्यों व समाजों के मध्य आपसी रिश्तों और टकराव की प्रकृति का ज्ञान होता है तथा अपनी और दूसरों की सैनिक शक्ति, दक्षता और क्षमता का ज्ञान होता है, जिससे कि अपनी शक्ति में निरंतर वृद्धि होती रहे और दूसरों के सम्मुख टिक सकने का सामथ्र्य बना रहे।
वाल्मीकि रामायण में बाह्लीक, यवन, दरद आदि का वर्णन है। महाभारत एवं रघुवंशम् में पारसीक और यवन प्रान्त को उत्तरापथ के राज्य कहा गया है (वाल्मीकि रामायण, अयोध्या कांड, 68/18-19; महाभारत, भीष्म पर्व, जम्बुखंड विनिर्माण पर्व, अध्याय 9 एवं 20; रघुवंशम्, चतुर्थ सर्ग, श्लोक 60-64)
महाभारत में भीष्म पर्व के 20वें अध्याय में कौरव और पाण्डव, दोनों पक्षों की सेनाओं का वर्णन है, जिनमें कौरव सेना में कृपाचार्य के नियंत्रण में शक, पहलव, यवन आदि देशों के राजाओं और सैनिकों का वर्णन है। मनुस्मृति के अनुसार जो क्षत्रिय जातियाँ यज्ञ आदि संस्कारों के अभाव में पतित हो गयीं, उनमें यवन, शक, बाह्लीक, पह्लव, किरात, पारद आदि मुख्य हैं। इस प्रकार यवन, बाह्लीक आदि क्षेत्र सदा से भारत के अंग रहे हैं। यवन और रोम भी शकों का ही क्षेत्र था। जो भारतीय क्षत्रिय ही हैं।
यवन प्रान्त और रोम कभी भी यूरोप का अंग नहीं थे। वे हजारों वर्षों तक भारत और जंबूद्वीप का ही अंग थे।
19वीं शती ईस्वी में यवन प्रान्त को यूरोप प्रचारित किया गया
जब यूरोप के लोगों को विशेषकर उसके पादरियों को संसार के बारे में अपने द्वारा फैलाए गए ज्ञान के झूठ का पता चला और यह प्रमाणित हुआ कि संसार में बड़ी-बड़ी सभ्यताएं हैं, तब उनमें से जो प्रबुद्ध लोग थे, वे बेचैन हो उठे और उन्होंने यूरोप का भी कोई एक प्राचीन गौरवशाली इतिहास ढूंढने की कोशिश की। और जब ढूंढने पर नहीं मिला तो उसे रचने की कोशिश की। इसी क्रम में भूमध्यसागरीय क्षेत्र के यवन और रोम इलाकों को यूरोप बताने लगे। जबकि ये केंद्रीय यूरोप के ठण्डे इलाकों से बिल्कुल अलग, अपेक्षाकृत गरम इलाके हैं और सदा भारत से सम्बन्धित रहे हैं। तुर्की, रोम तथा यवन भारत के क्षेत्र रहे हैं। (देखें महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 20)
अग्रपुर (जिसे बाद में पादरियों ने अपनी आदत के अनुसार तोड़-मरोड़कर नाम रखते हुए अक्रोपोलिस कहा) में अतुला देवी (शक्ति) का भव्य मंदिर था, जो करीब डेढ़ हजार वर्षों से अपने वैभव के लिए विख्यात था, जहाँ सोने और हाथी दांत के आभूषणों से नित्य देवी की सज्जा और पूजा होती थी। 15वीं सदी में पादरियों ने आक्रमण कर उसे छीन लिया और उसे चर्च घोषित कर दिया। (अ शोर्ट हिस्ट्री ऑफ वल्र्ड, जाफरी ब्लेनी, पेंग्विन, नयी दिल्ली 2001, अध्याय 6। पृष्ठ 107)। बाद में मुसलमानों ने ईसाइयों से छीनकर उसे मस्जिद बना डाला। 1687 ईस्वी में वेनिस के सैनिकों ने उसे नष्ट कर डाला। वहाँ की भाषा भूषण और भोजन पर गहरा भारतीय प्रभाव अभी कुछ समय पहले तक रहा है।
यवन प्रांत में ईसाइयत का उल्लेखनीय विस्तार पहली बार 19वीं सदी ईस्वी में हुआ। बीसवीं सदी ईस्वी के मध्य तक सम्पूर्ण यवन प्रांत में कुल 8000 ईसाई पादरी थे और वह सब यवन परम्परा के अनुसार विवाहित थे। क्योंकि वह परम्परा भारत की ब्राह्मण परम्परा का ही अंग थी। स्वयं महाकवि होमर के काव्य में ऐलों के पुरुषार्थ की गाथा है और वह महाभारत की युद्ध कथा से बहुत अधिक प्रभावित है।
 
सिकन्दर के आक्रमण के आंतरिक साक्ष्य नहीं हैं
सिकन्दर का भारत पर जो आक्रमण बताया जाता है, उसका कोई भी उल्लेख भारत के किसी भी आन्तरिक साक्ष्य में नहीं मिलता। 19वीं शताब्दी ईस्वी के प्रारम्भ से 7 वर्ष पहले पादरी विलियम जोंस ने मेगस्थनीज की इंडिका का हवाला देते हुए एलेक्जेंडर (सिकन्दर) का किस्सा रचा और उसे पहली बार ग्रेट कहा। महत्वपूर्ण यह है कि जिस इंडिका का हवाला पादरियों ने दिया है, उसका एक भी पन्ना आज तक नहीं मिला। भारत के किसी भी काव्य या अभिलेख आदि में एलेक्जेंडर के भारत आने की कोई चर्चा नहीं है। बर्नार्ड के संपादन में छपे इन्साइक्लोपीडिया अमेरिकाना में पृष्ठ 537 से 540 तक यह बताया गया है कि मकदूनिया का राजा एलेक्जेंडर पल्ला (भारतीय नाम) नगर से चला और दजला फरात नदियों के किनारे बढ़ते-बढ़ते पाटल तक पहुंचा और फिर तक्षशिला से मुड़कर मकराना के रास्ते काबुल लौट गया, क्योंकि भारत के सम्राट् पौरव राज की सेना का पराक्रम और शौर्य सुनकर सिकन्दर और उसकी सेना ने भारत की ओर बढऩे का साहस नहीं किया और लौट गए। इन्साइक्लोपीडिया अमेरिकाना के खण्ड 1 में पृष्ठ 540 में कहा गया है कि एलेक्जेंडर की सेना हिंदुकुश से आगे पूर्व की ओर बढऩे के साहस को पागलपना मानती थी और एलेक्जेंडर को यही ज्ञान था कि सिंधु नदी वस्तुत: नदी नहीं, समुद्र है, वह पूर्व का कोई विराट् समुद्र है, जहाँ से आगे धरती है ही नहीं। ऐसे में वह भारत विजय की कल्पना भी करे, यह असम्भव है। पर किस्से रचे गये और फैलाये गये।
केवल इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका ने सबसे पहले ब्रिटिश पादरियों की गप्पों को ऐतिहासिक तथ्य की तरह प्रस्तुत किया कि कोई महान् योद्धा एलेक्जेंडर नाम का हुआ था। पहले तो पादरी लोग एलेक्जेंडर को यवन सेनापति कहते रहे। बाद में जाकर उन्हें अपनी भूल का पता चला तो वे उसे मकदूनिया का राजा बताने लगे। पादरियों की प्रचारित इन गप्पों को इतिहास मानने वाले भारतीयों को तो यह तथ्य भी स्मरण नहीं है कि एलेक्जेंडर के समय से 700 वर्ष पहले सम्पूर्ण यवन क्षेत्र नौ अलग-अलग राज्यों में बँटा था, जिनमें स्पार्टा और अतिका मुख्य थे और मकदूनिया उनमें सबसे छोटा राज्य था। इसकी कुल लम्बाई लगभग 250 किलोमीटर और औसत चौड़ाई लगभग 7 किलोमीटर थी और इस प्रकार वह उत्तर प्रदेश के पुराने गोरखपुर या गाजीपुर जिले से भी आकार में छोटा था तथा उसकी कुल आबादी एक लाख के आसपास थी। वर्तमान में भी मकदूनिया की कुल आबादी 21 लाख है और उसे रिपब्लिका मकदूनिया कहा जाता है।
मकदूनिया सहित सम्पूर्ण यवन क्षेत्र को ईसा पूर्व 380 में पारसिक नरेश, जो कि वस्तुत: भारत के ही नरेश थे, को पराजित कर अपने राज्य में मिला लिया था। ऐसा बताया जाता है कि अपने पिता की मृत्यु के बाद एलेक्जेंडर ने थोड़ी तैयारी करके मकदूनिया से सटे क्षेत्र में पारसीक सेना से युद्ध किया। परन्तु इस युद्ध का क्या परिणाम हुआ, यह कोई नहीं जानता, क्योंकि थोड़े ही समय बाद स्वयं उसने पूरा क्षेत्र पारसिक नरेश को लौटा दिया।
यद्यपि एलेक्जेंडर कभी भी रोम, यूरोप, अफ्रीका, अमेरिका और आस्ट्रेलिया नहीं गया था, परन्तु ईसाई पादरियों ने 19वीं शताब्दी के उषाकाल में अचानक उसे उसके जन्म के 2,200 वर्ष के पश्चात् महान् कहना शुरू कर दिया। अपने समय के किसी भी महत्वपूर्ण साम्राज्य से टकराने का साहस एलेक्जेंडर ने नहीं किया था क्योंकि वह वीर तो था, लेकिन मूर्ख नहीं था और उसकी कुल शक्ति बहुत थोड़ी थी। 22 वर्ष की उम्र में गद्दी पर बैठा और 11 वर्ष तक लगातार लड़ते-लड़ते थक कर भटकता हुआ मर गया और थोड़े समय बाद मकदूनिया को शकों ने जीत लिया।
उन्हीं दिनों भारत में अत्यंत विशाल राज्य थे। मौर्य वंश, गुप्त वंश आदि के विशाल साम्राज्य के रहते हुए किनारे की सीमा में कभी आया भी हो तो भारत के स्पर्श को ही एलेक्जेंडर द्वारा भारत की जीत बता देना कैसी आन्तरिक हीनता और कातरता का प्रमाण है?

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