धर्मो रक्षति रक्षित:

धर्मो रक्षति रक्षित:

डॉ. चंद्र बहादुर थापा  वित्त एवं विधि सलाहकार-

भारतीय शिक्षा बोर्ड एवं विधि परामर्शदाता पतंजलि समूह

प्रकृति और धर्म

प्रकृति का नियम है परिवर्तन, जिसके कारण पृथ्वी में प्रणव ध्वनि 'ॐ’ से प्रदत्त पञ्च तत्व 'पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश जिसको आधुनिक वैज्ञानिकों ने परमाणु के अवयव 'इलेक्ट्रान, न्यूट्रॉन, प्रोटोन, फोटान और वैक्यूम नाम दिए हैं, के सबसे सरल  परमाणु संख्या 1 हाइड्रोजन सेल से विकास होते-होते, अरबों वर्षों से अनगिनत महाप्रलय और प्रलय के साथ साथ शताब्दियों, अर्ध-शताब्दियों, दशाब्दियों, प्रति वर्ष, प्रत्येक ऋतुओं, यहाँ तक की प्रतिक्षण, में होने वाले पृथिवी के किसी कोने में, किसी दिशा में, किसी गोलार्ध में, किसी महाद्वीप या महासागर में, अथवा सम्पूर्ण पृथ्वी के  महालय, प्रलयमहामारी, युद्ध, महायुद्ध, आपदा, नर संहार, जीव संहार, आदि विभीषिकाओं को झेलते हुए एक कोषीय प्रोटोज़ोआ से विकसित होते होते अति-परिस्कृत मानव और सृष्टिकर्ता के प्रतिरूप तक के स्थिति में पहुंचे सभी निर्जीव, सजीव, वनस्पति, प्राणी, देव और ईश्वर तक के परिकल्पना में पहुँच कर, मिटते-पनपते, परिष्कृत होते, आज के स्थिति में पहुंचे हैं। इसी परिपेक्ष में अनेक मानव सभ्यताएँ विकसित हुई और समय के साथ साथ विलुप्त भी हो गईं।
मानव अकाट्य रूप से प्राणियों में उत्कृष्टतम प्रतिरूप है और पृथ्वी में ईश्वर सत्ता के सृजन में और विनाश में प्रतिभागी है। शास्त्रों में यह ईश्वर सत्ता से लड़ता-भिड़ता भी है, जिसके कथानक सनातन के पुराणों में दशावतार अथवा अन्य अवतार से लेकर, अन्य साहित्यों, यथा वर्तमान युग के अधिकतम राज्यों और जनसँख्या ने मानने वाले बाइबिल, कुरान और कम्युनिस्ट-मेनिफेस्टो में भी मिलते हैं। विश्व के कोने-कोने में बिखरे हुए मानव प्रजाति के अपने-अपने उत्थान और पतन के अकथ्य और असंख्य कथानक है, जो 'स्वस्थतम की उत्तरजीविताÓ (स्ह्वह्म्1द्ब1ड्डद्य शद्घ ह्लद्धद्ग स्नद्बह्लह्लद्गह्यह्लह्य) अनुरूप अपने अपने प्रजाति के अंतिम सदस्य सदा अपने विकास और विस्तार करना चाहता है, जिसके लिए स्वयं की सुरक्षा के साथ अपने समूह की सुरक्षा सर्व प्रथम प्राथमिकता है, और परमेश्वर प्राप्ति अंतिम लक्ष, जिसको भारतीय पद्धति 'सनातन धर्मÓ कहता है।

धर्म का शाब्दिक अर्थ और लक्षण

धर्म एक संस्कृत शब्द है - ध + र् + म = धर्म। ' देवनागरी वर्णमाला का 19वां अक्षर और तवर्ग का चौथा व्यंजन है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से यह दन्त्य, स्पर्श, घोष तथा महाप्राण ध्वनि है। संस्कृत (धातु) धा + ऽ विशेषण- धारण करने वाला, पकड़ने वाला होता है। जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है। नैसर्गिक भाव से पृथ्वी समस्त प्राणियों को धारण किए हुए, ब्रह्माण्ड सभी तारे, ग्रह, नक्षत्र, इत्यादि को, तथा परमात्मा तत्व समस्त को धारण किये हैं। कहा गया है, धारयति- इति धर्म:! अर्थात जो सबको संभाले हुए है, वही धर्म है। सवाल उठता है कि कौन क्या धारण किए हुए हैं? धारण करना सही भी हो सकता है और गलत भी।
धर्म की अनुवाद अंग्रेजी भाषा में रिलिजन तथा इस्लाम में मजहब की गई है। मजहब का अर्थ संप्रदाय होता है। उसी तरह रिलिजन का समानार्थी रूप विश्वास, आस्था या मत हो सकता है, लेकिन धर्म नहीं। धर्म का अर्थ रिलिजन और मजहब के अर्थ से अत्यंत व्यापक है। रिलिजन और मजहब को पंथ कहा जा सकता है, धर्म नहीं, क्योंकि ये दोनों धर्म के पर्यायवाची के रूप में प्रयोग शब्द किसी संप्रदाय विशेष के तौर तरीके या मत/विचार विशेष को बताते हैं जो अन्य समूह या संप्रदाय के तौर तरीके या मत/विचार से भिन्न होते हैं। जबकि धर्म जीव-व्यवहार में प्रत्येक प्रजाति के व्यवहार में भिन्नता नहीं रखता, समान रूपसे धारण किये रहता है, इसीलिए इसको सनातन धर्म कहा जाता है।
कहा गया है - धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षित:। तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ।। अर्थात्, ''जो पुरूष धर्म का नाश करता है, उसी का नाश धर्म कर देता है, और जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी धर्म भी रक्षा करता है। इसलिए मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले, इस भय से धर्म का हनन अर्थात् त्याग कभी न करना चाहिए।’’ यतोऽभ्युदयनि:श्रेयससिद्धि: स धर्म:। धर्म वह अनुशासित जीवन क्रम है, जिसमें लौकिक उन्नति (अविद्या) तथा आध्यात्मिक परमगति (विद्या) दोनों की प्राप्ति होती है। मनु ने धर्म के दस लक्षण बताए हैं- धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम्।। (धृति (धैर्य), क्षमा (दूसरों के द्वारा किए गए अपराध को माफ कर देना, क्षमाशील होना), दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (आंतरिक और बाहरी शुचिता), इन्द्रिय निग्रह: (इन्द्रियों को वश में रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन, वचन और कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना); ये दस धर्म के लक्षण हैं।) सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यमप्रियं। प्रियं च नानृतं ब्रूयात्, एष धर्म: सनातन:।। सत्य बोलें, प्रिय बोलें पर अप्रिय सत्य न बोलें और प्रिय असत्य न बोलें, ऐसी सनातन रीति है।।

धर्म का धारण

कहा जाता है की सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, क्षमा आदि, धर्म के नियमों का पालन करना ही धर्म को धारण करना है जैसे ईश्वर प्राणिधान, संध्या वंदन, श्रावण माह व्रत, तीर्थ चार धाम, दान, मकर संक्रांति-कुंभ पर्व, पंच यज्ञ, सेवा कार्य, पूजा पाठ, 16 संस्कार और विशेषकर ईसाई और इस्लाम अनुयायियों में धर्म प्रचार आदि। परन्तु ये सभी कार्य व्यर्थ हैं यदि कोई सत्य के मार्ग पर नहीं हो। सत्य को जानने से अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौचादि सभी स्वत: ही जाने जा सकते हैं। अत: सत्य ही धर्म है और धर्म ही सत्य है। जो संप्रदाय, मजहब, रिलिजन और विश्वास, सत्य को छोड़कर किसी अन्य रास्ते पर चल रहा है वह सभी अधर्म के ही मार्ग हैं। इसीलिए सनातन के मौलिक शाखा हित्दुत्व में कहा गया है 'सत्यंम शिवम सुंदरम
अत: किसी तात्कालिक लाभ अथवा प्रलोभन अथवा डर-त्रास अथवा किसी के प्रभाव में आकर सनातन सास्वत नैसर्गिक 'धर्म को न तो त्यागना चाहिए न ही गिरोह बंदी कर अपने से भिन्न विचारधारा रखने अन्य व्यक्ति या समूह को प्रलोभन देकर या डरा धमकाकर या अन्य प्रभाव से अपनी गुटबन्दी में शामिल करना चाहिए, क्योंकि यह 'धर्म को मारने का कार्य होगा और ऐसे व्यक्ति या समूह को देर सवेर 'धर्म ही मार डालेगा, यह प्रकृति का नियम सत्य है। जिससे अलौकिक उन्नति तथा पारलौकिक कल्याण की प्राप्ति हो वह धर्म है। धर्म से ही लोक और समाज का धारण होता है। धर्म से ही अभ्युदय होता है, अनुशासनहीन समाज या व्यक्ति पतन के गर्त में गिरेगा । हमारे सत्कर्म ही प्रारब्ध बनते हैं और वही दूसरे जन्म के ऐश्वर्य, वैभव, सुख के कारण होते हैं। इसके विपरीत अधर्म को धारण करने वाले दु:ख पीड़ा को प्राप्त होते हैं। धर्म के आचरण से भोगवृत्ति का नाश होता है। हृदय की शुद्धि होती है। इस प्रकार कर्मों में असंगता की प्राप्ति होती है जहां कर्मों में असंगता की सिद्धि हुई, मोक्ष स्वत:सिद्ध हो जाता है।  

स्वभाव और गुण

वास्तव में धर्म जीव के मूल स्वभाव की खोज है। धर्म एक रहस्य है, संवेदना है, संवाद है और आत्मा की खोज है। धर्म स्वयं की खोज का नाम है। जब भी हम धर्म कहते हैं तो यह ध्वनित होता है कि कुछ है जिसे जानना जरूरी है। कोई शक्ति है या कोई रहस्य है। धर्म है अनंत और अज्ञात में छलांग लगाना। धर्म है जन्म, मृत्यु और जीवन को जानना। सनातन की मूल शाखा हिन्दू संप्रदाय में धर्म को जीवन को धारण करने, समझने और परिष्कृत करने की विधि बताया गया है। धर्म को परिभाषित करना उतना ही कठिन है जितना ईश्वर को। दुनिया के तमाम विचारक जिन्होंने धर्म पर विचार किया है, अलग-अलग परिभाषाएं दी हैं। इस नजरिए से वैदिक ऋषियों का विचार सबसे ज्यादा उपयुक्त लगता है कि सृष्टि और स्वयं के हित और विकास में किए जाने वाले सभी कर्म-धर्म हैं।
सनातन पद्धति में स्वाभाव और गुण को व्यक्ति के दैवी और आसुरी, दो प्रकार के सम्पदा के रूप में निरूपण की गई है जिसको श्रीमद्भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय में विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है (जो महाभारत का अंश है)। इसके अनुसार दैवी सम्पदा मोक्ष अर्थात परमेश्वर प्राप्ति तथा आसुरी सम्पदा सांसारिक बन्धन प्राप्ति के कारक हैं, इसीलिए प्रत्येक आत्मा को दैवी सम्पदायुक्त हो कर परमपिता के प्राप्ति के गुण स्वाभाव रूपी धर्म अपनाना चाहिए। तानहं द्विषत: क्रूरान्संसारेषु नराधमान्। क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु।। उन द्वेष करने वाले, क्रूर स्वभाव वाले और संसार में महान् नीच, अपवित्र मनुष्यों को मैं बार-बार आसुरी योनियों में गिराता ही रहता हूँ। आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि-जन्मनि। मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्।। हे कुन्तीनन्दन! वे मूढ मनुष्य मेरे को प्राप्त न करके ही जन्म-जन्मान्तर में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अधिक अधम गति में अर्थात् भयङ्कर नरकों में चले जाते हैं।

सनातन धर्म की विविधता

भारतीय सभ्यता सनातन धर्म की विविधता और सौहार्द्य का द्योतक है, जिसने इस भूमि पर अनेकानेक विचारों और परम्पराओं के एक विकाशशील सहअस्तित्व को अक्षुण रखा है। तर्क-वितर्क के माध्यम से ज्ञान-विज्ञान और दर्शन के प्रति जो प्रगतिवादी और प्रयोगवादी दृष्टिकोण भारतीय विचारकों ने रखा है वह ही भारतीय सभ्यता है, और आज विश्व भर में तमाम विकसित और सभ्य देशों और संस्थानों में ऐसा ही सौहार्द्य और तार्किक विचार अपनाया जा रहा है, जिसमें भारत और भारतीय विचारकों का भी अतुलनीय योगदान है। आज भारतीय सभ्यता के पुराने होने पर नहीं उसके मूल स्वरूप के आधार और दर्शन, तर्क, शास्त्रार्थ, प्रगति, प्रयोग, सहअस्तित्त्व, सौहार्द्य जैसे आधुनिक मानवीय मूल्य होने पर हमें गर्व करने की ज्यादा जरुरत है।
आधुनिक साक्ष्य देखें तो विश्वभर में और भारत में आज से 20,000 साल पहले केवल ऐसे कबीले थे जो खेती करना नहीं जानते थे और घुमंतू जीवन जीते हुए शिकार करके अपना पेट भरते हुए और गुफाओं में रहते हुए उनका काम चला। 12,000 साल पहले घुमंतू प्राणियों ने नदियों किनारे भारत की सर्वप्रथम सभ्यता बसाई और आदिवासी जीवन से खेतिहर जीवन में निवास प्रारंभ किया। इनके छोटे-छोटे गांवों का कालांतर में शहरों में परिवर्तन हुआ। इस तरह भारत की प्रारंभिक नगर-व्यवस्था विकसित हुई जिसे हम आज सिंधु घाटी सभ्यता नाम से जानते हैं। सिंधु घाटी सभ्यता का सुमेर और अन्य सभ्यताओं से व्यापार होने लगा और फिर ईरान के आसपास पायी जाने वाली कुछ सभ्यताओं के साथ मूल निवासियों का मेलजोल 4000 साल पहले उस अवस्था में पहुंचा जहां से काफी मात्रा में यूरोपीय डीएनए लेकर लोगों की खेप आकर सिंधु घाटी के स्थापित शहरों में बस कर रहने लगी।
यूरोपीय और सिंधु घाटी के मेलजोल से उस एक सांस्कृतिक परिपाटी का विकास हुआ जिसमें संस्कृत भाषा को अपनाकर आर्य संस्कृति का निर्माण हुआ जिसका कालांतर में वर्चस्व हो गया। मूलभूत सिंधु घाटी रहवासी दक्षिण की ओर पलायन करने लगे हालांकि उत्तर और दक्षिण दोनों के बीच पर्याप्त संबंध थे और दोनों के बीच डीएनए का काफी आदान प्रदान हुआ। इस तरह वैदिक धर्म की स्थापना हुई जिसमें उल्लिखित कर्मकांड के अनुसार तत्कालीन ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र अपना पृथक् सामाजिक कार्य और जीविका रखते हुए जीवन यापन करने लगे। कर्मकांड की सत्ता और ज्ञान की वर्गीकृत सीमितता से विद्रोह की स्थिति उत्पन्न हुई। 'वेदांतÓ नामक विचार में (उपनिषद् साहित्य में) वैदिक कर्मकांड से ऊपर जाकर कुछ मनीषियों ने वेदों-के-अंत सूत्रों को रचा ताकि अब उपनिषदों के दार्शनिक विचार पर लोग आ जाएं और कर्मकांड की परिपाटी से ऊपर उठकर, वैदिक पूजा-पाठ से परे, मानवीय अस्तित्व पर विचार करें और दार्शनिक महत्त्व के विषयों पर चिंतन-मनन करना प्रारम्भ करें।
इसलिए वैदिक परंपरा से पूरी तरह मुक्त और मानव से मानव में किसी भी तरह के अन्तर को नकारने वाले विचारक और उनकी धार्मिक परंपरा स्थापित हुई जिसमें श्रमण धारा के विचारक महावीर और बुद्ध सबसे प्रमुख रहे। दूसरी ओर साँख्य (उपनिषदिक) और चावार्क (स्वतंत्र) जैसे अन्य अनीश्वरवादी दर्शन भी परंपरा से स्वतंत्र होकर फलीभूत हुए। कालांतर में बुद्ध के विचार का फैलाव और ख्याति बहुत तेजी से फैली और इससे 'स्थापित वैदिक परंपराÓ को स्वयं को पुनर्स्थापित करने की प्रक्रिया प्रारंभ करनी पड़ी जिसमें रामायण, महाभारत और आदि शंकराचार्य ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
वैदिक परंपरा से कई जातियां, कई गोत्र, शैव, वैष्णव, शाक्त इत्यादि होते गए, बौद्ध आगे जाकर हीनयान-महायान इत्यादि, और जैन दिगंबर-श्वेतांबर, इत्यादि हुए, आगे जाकर हिन्दू रक्षण हेतु सिक्ख, और समरसता हेतु साईं बाबा भी आए, संतोषी माता भी आयीं, ओशो व रजनीश भी; और वैदिक, वेदांत, बौद्ध, जैन, सिख, इत्यादि सारे एक साथ हैं, जैन की उत्पत्ति या बौध संस्कृति की उत्पत्ति के बाद वे विलुप्त नहीं हुए, बल्कि एक सुदृढ़ सशक्त धारा के रूप में बह निकले जो मूल धारा के समांतर थी। ऐसे विकास में कभी-कभी मूल धारा विलुप्त हो भी जाती है जैसे सिंधु घाटी सभ्यता की भाषा और परंपरा अपने मूलरूप में लुप्त हो गयी जबकि उसका प्रभाव वैदिक हिंदू संस्कृति पर बना रहा, तथा बौद्ध, जैन और सिक्ख आए, आर्य समाज, ब्रह्म समाज, के वैदिक रुझान उपजे, रामकृष्ण मिशन के वेदांत और उपनिषद आधार पर बने विचार आगे बढ़े, और आज सारे विचार हमारे सामने उपलब्ध हैं बिलकुल उसी तरह जैसे कि विकास क्रम में एक कोशिका से बहु-कोशीय जीव और तमाम जैविक तंत्र बना जिसमें कुछ विलुप्त होते गए, कुछ परिवर्तित, कुछ मिश्रित, और कुछ समांतर जीवन जीते रहे, यथा शार्क मछली एक तरह का जिंदा जीवाश्म है जो प्रागैतिहासिक काल से कभी विलुप्त नहीं हुआ और आज भी मानव के समांतर जीवन जी रहा है।

स्वधर्मे निधनं श्रेय:

शार्क मछली की प्राचीनता अध्ययन के लिए सर्वथा उचित है परन्तु प्राचीन होने से वह श्रेष्ठतम और अनुकरणीय प्राणी नहीं हो जाती, श्रेष्ठतम और अनुकरणीय बनने के लिए सनातन के तरह मूल धर्म में सत्यता के साथ टीके रहना चाहिए, तभी ईश्वर को भी आना पड़ता है- यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।। अर्थात्जब-जब धर्म की हानि होती है, तब तब मैं आता हूँ, जब-जब अधर्म बढ़ता है तब-तब मैं साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ, सज्जन लोगों की रक्षा के लिए मै आता हूँ, दुष्टों के विनाश करने के लिए मैं आता हूँ, धर्म की स्थापना के लिए मैं आता हूँ और युग-युग में जन्म लेता हूँ। 
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।। अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है। जो व्यक्ति अपना धर्म छोड़कर दूसरे का धर्म अपनाता है, वह अपने कुलधर्म का नाश कर देता है। कुलधर्म के नाश से आने वाली पीढ़ियों का आध्यात्मिक पतन हो जाता है। इससे उसके समाज का भी पतन हो जाता है। सामाजिक पतन से राष्ट्र का पतन हो जाता है; ऐसे व्यक्ति और उसकी पीढ़ियों को मौत के बाद तब तक सद्गति नहीं मिलती जब तक कि उसके कुल को तारने वाला कोई न हो।
यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्। स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव:।। जिस परमेश्वर से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।। अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्म कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता। सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् । सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:।। अतएव हे कुन्तीपुत्र! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए, क्योंकि धुएँ से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी-न-किसी दोष से युक्त हैं। असक्तबुद्धि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृह:। नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति।। सर्वत्र आसक्ति रहित बुद्धिवाला, स्पृहारहित और जीते हुए अन्त:करणवाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा उस परम नैष्कर्म्यसिद्धि को प्राप्त होता है ।
समर्थ को न दोष गोसाईं
हमारे पूर्वजों की थाती वेदयुक्त ज्ञान, धर्मयुक्त कर्म, योगयुक्त जीवनचर्या, शास्त्रयुक्त आचार-व्यवहार, परमेश्वर में दृढ़ विश्वास, स्वयं में दैवी सम्पदा, समाज मे उपकार के भाव, इत्यादि गुणों के साथ - ú सर्वे भवन्तु सुखिन:। सर्वे सन्तु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दु:ख भाग्भवेत्।। - सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दु:ख का भागी न बने, के भाव के 'सनातन धर्मÓ के कारण ही लगभग 1100 वर्ष के बाद भी सनातन अब विश्वपटल में अंगड़ाई लेकर गतिमान हो रहा है। संसार योग दिवस मना रहा है, यज्ञ और आयुर्वेद सहित प्राच्य शिक्षा पद्धति को महत्व दिया जा रहा है। विश्व भारत की तरफ दिशा-निर्देश के लिए देख रहा है, अर्थात् अब सूर्योदय हो चूका है, हमें अपने अपने क्षेत्रों (खेतों) में किसान के तरह खर-पतवार साफ करने, जोतने, सींचने, बीजारोपण करने, मेड़बंदी करने, बाली सुरक्षा करने, फसल को किट-पतंगों और जंगली जानवरों से बचाने, फसल पकने पर सुरक्षित भण्डारण करते हुए, अगले फसल के लिए तैयारी करने के लिए निरंतर सतर्क रहना है, कर्म करना है, धर्म और कर्म ईश्वर प्राप्ति के साधन हैं।  हमारी कुशलता और सफलता देखकर 20०० वर्ष पहले से अलग हुए सनातनी ईसाई-ख्रीस्त पंथी और 1444 वर्ष पहले अलग हुए ईस्लाम-पैगम्बर पंथी भी शनै: शनै: घर वापसी करेंगे; नहीं भी करेंगे तो हमारे आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों को बरगलाकर अपने समूह में शामिल करने अथवा सनातनियों को मिटाने की कोशिश नहीं करेंगे - समर्थ को न दोष गोसाईं।
पतंजलि योगपीठ का योगदान
धर्म सत्ता ने गुरुकुल शिक्षित प्रशिक्षित दो युवा वर्तमान में योगऋषि परम पूज्य स्वामी रामदेव जी महाराज और आयुर्वेद शिरोमणि परम पूज्य आचार्य बालकृष्ण जी महाराज को देवभूमि उत्तराखंड के पवित्रतम स्थल गंगोत्री से सनातन के पुनर्जागरण के लिए अभिसिञ्चित कर महान् तीर्थ हरिद्वार के कृपालु बाग कनखल आश्रम से कर्म क्षेत्र में उत्प्रेरित किया। 1995 में दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट और 2005 में पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट की स्थापना से आज 2023 के द्वितीय मास तक इन दो महापुरुषों की जोड़ी ने विश्व के लगभग सभी देशों में वेद, यज्ञ, योग, आयुर्वेद तथा सनातन पद्धति को ज्ञात कराया है। प्रतिवर्ष 21 जून को विश्व योगदिवस मनाए जाने सम्बन्धी घोषणा के लिए सूत्रधार भी ये दो युवा ही थे तथा विश्वव्यापी महामारी कोरोना (Covid-19) में कोरोनिल तथा स्वासारी के साथ अन्य रोग निरोधक आयुर्वेद तथा वैकल्पिक प्राच्य उपचार पद्धति से करोड़ों जनमानस को सुरक्षित करना, ईश्वरीय कार्य ही थे। पतंजलि समूह द्वारा न केवल भारत अपितु नेपाल सहित विदेश में भी यज्ञ, योग, आयुर्वेद, वैकल्पिक उपचार पद्धति, भारतीय मूल्य-मान्यताओं आधारित शिक्षा, प्रदूषण रहित वातावरण तथा कृषि, खाद्य उपज और खाद्य प्रसाधन, निरोगी काया, स्वदेशी जागरण, सनातन के पुनर्स्थापन, इत्यादि के लिए समूह की कंपनियों, ट्रस्टों, पतंजलि विश्वविद्यालय, भारतीय शिक्षा बोर्ड, आचार्यकुलम्, गुरुकुलम् जैसे संस्थानों के माध्यम से अथक परिश्रम किया जा रहा है जिसके लिए अपार जन समर्थन देश-विदेश में सर्वत्र मिल रहा है।
यह है 'धर्मो रक्षति रक्षित: के उत्कृष्ट उदहारण। अस्तु।
 

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