‘पतंजलि वैलनेस केंद्र : स्वास्थ्य की एक और क्रांति’
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वंदना बरनवाल, राज्य प्रभारी महिला पतंजलि योग समिति - उ.प्र.(मध्य)
किसी भी देश की तरक्की तभी संभव है जब उसके नागरिक स्वस्थ और सेहतमंद हों। लेकिन भारत जैसा देश जहाँ वेदों के ज्ञान का भण्डार हो, जो योग, आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा जैसी स्वस्थ जीवन की अचूक पद्धतियों का जनक हो, ऐसे देश में स्वास्थ्य और सेहत को लेकर यदि लोगों में निराशा का भाव उत्पन्न होने लगे तो हमें कभी स्वयं से भी प्रश्न जरुर पूछना चाहिए। अक्सर चिकित्सा व्यवस्थाओं में खामियों को लेकर लोग सरकारी व्यवस्थाओं को दोष देते फिरते हैं जबकि दोष देश में चिकित्सा को लेकर सरकारी व्यवस्थाओं, चिकित्सा की सुविधाओं या फिर अस्पतालों में चिकित्सकों की कमी का होना ही भर नहीं है। बल्कि दोष है लोगों की बदलती हुई सोच में वो भी उनके स्वयं के स्वास्थ्य को लेकर। गत तीन दशकों से भी अधिक समय से स्वयं पूज्य स्वामी जी ही लोगों को यह समझा रहे हैं कि यदि हम अपने रहन-सहन और खान-पान की आदतों में मामूली से फेर बदल करते हुए कम से कम एक से दो घंटे नियमित योगाभ्यास की आदत डाल लें तो दिनचर्या में मात्र इसी परिवर्तन से अनेकों बीमारियों से छुटकारा मिल सकता है और चिकत्सा पर खर्च होने वाला देश का लाखों करोड़ बच सकता है। यद्यपि पूज्य स्वामी जी के निरंतर प्रयास से आज दुनिया भर में लाखों नहीं बल्कि करोड़ों लोगों ने इस सीख को आत्मसात कर लिया है और उसके फलस्वरूप आज वे ना सिर्फ स्वयं स्वस्थ हैं बल्कि दूसरों को भी राह दिखा रहे हैं। पर बावजूद इसके खान-पान की जो वस्तुएं एक आम आदमी के लिए आज बाजार में उपलब्ध हैं और साथ ही आज जिस प्रकार की लाइफ स्टाइल के साथ लोग जीने के आदी हो चुके हैं ऐसे में रोग उनका और वो रोग का साथ नहीं छोड़ पा रहे। ऐसे में हर छोटी बड़ी बीमारी के लिए बाजार में आसानी से उपलब्ध अंग्रेजी दवाएं, अस्पताल, चिकत्सक लोगों के लिए जरुरी और मज़बूरी दोनों ही बन चुके हैं। अपनी इन्हीं मजबूरियों में लोगों ने दवाओं को ही स्वास्थ्य का पर्याय मान लिया है। पर क्या दवा स्वास्थ्य का पर्याय बन सकते हैं?
दवा स्वास्थ्य का पर्याय कभी नहीं बन सकते
निश्चित रूप से दवा और स्वास्थ्य ना तो एक दूसरे के पर्याय बन सकते हैं और ना ही पूरक। आपने गौर किया ही होगा कि आजकल की आधुनिक चिकित्सा पद्धति में ज्यादातर बीमारियों में चिकित्सक द्वारा रोगी को नियमित दवा के सेवन की सलाह दी जाती है। यहाँ तक कि शरीर के लिए आवश्यक खनिज तत्वों और विटामिन के लिए भी चिकित्सक नियमित गोलियों के सेवन की सलाह देने लग गए हैं। आधुनिक चिकित्सा की प्राथमिकता यही होती है कि किसी भी कारण से शरीर में यदि किसी भी प्रकार का असंतुलन आ रहा है तो दवाओं आदि का प्रयोग कर उसे संतुलित रखा जाये। ऐसे में शुरू हो जाता है दवाओं का कभी ना रुकने वाला सिलसिला। इस कड़ी में रक्तचाप, मधुमेह एवं थाइरोइड आदि बिमारियों के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं। आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था में आज सभी चिकित्सक इन बिमारियों में दवाओं के नियमित सेवन की सलाह ही देते हैं। इन अंग्रेजी दवाओं के सेवन से लैब परीक्षण में बीमारी का स्तर तो किसी प्रकार से संतुलित दिख जाता है और इसके कारण नियमित दवाओं के सेवन को ही लोग सेहत और स्वास्थ्य का पर्याय मान बैठते हैं। और फिर उनके साथ दवाओं का नाता जिन्दगी भर के लिए जुड़ जाता है। दवाओं पर उनकी निर्भरता ऐसी हो जाती है कि मेडिकल स्टोर, हॉस्पिटल, डॉक्टर, फार्मेसी आदि की समीपता में ही उन्हें स्वास्थ्य नजर आता है। दवाओं पर लोगों की बढ़ती निर्भरता चिकित्सा के क्षेत्र में व्यापार के नए आयामों को जन्म देती है। इन नए आयामों में ढेरों प्रकार की दवाओं से लेकर अनेकों विशेषज्ञों की फौज और चिकित्सा की मंहगी सुविधाएँ सभी शामिल हैं। बस यदि कुछ शामिल नहीं है तो वो है स्वास्थ्य।
बस यूँ समझ लीजिये कड़वी दवाओं के हुक्म पर चल रही जिन्दगी, देखते ही देखते बन गयी दवाओं की गुलाम जिन्दगी, ताकत के लिए दूध, फल, पानी को छोड़, कैप्सूल, इंजेक्शन और सीरप के भरोसे हो चुकी है जिन्दगी।
कड़वी दवाओं ने जिन्दगी को भी कड़वा बना डाला है, और इन्हीं कड़वी दवाओं के हुक्म पर चल रही है अब ये जिन्दगी।
सेहत बिगाडऩे वाले विभिन्न प्रयोग
भारत में दशकों से आधुनिकता और विकास के नाम पर लोगों के स्वास्थ्य के साथ खूब खिलवाड़ हुए हैं। नयी तकनीक, विकास और जीवन को सुविधाजनक बनाने के नाम पर, बाजार में अनगिनत उपकरण आ गए। प्रचार के दौरान हमें बताया गया कि ये उपकरण जीवन की राह आसान कर देंगे। देखते-देखते मसालों को पीसने के लिए सिल-बट्टे की जगह मिक्सी ने ले ली तो पानी ठंडा करने के लिए मटके की जगह रेफ्रिजेरेटर ने ले ली। अब घर में रेफ्रिजेरेटर हो तो उसमें सब्जी, दूध और बचा हुआ खाना रखा जाना तो स्वाभाविक ही है। खाना पकाने के लिए माइक्रोवेव आ गए और कपड़ों की धुलाई के लिए वाशिंग मशीन। पीने का पानी साफ-सुथरा मिले इसके लिए आरओ वाटर प्यूरीफायर लग गए। आधुनिक दिखने और दिखाने के चक्कर में लोग कार चलाकर जिम में साइकिल चलाने जाने लगे। सुविधाभोगी उपकरणों की जरुरत भारत जैसे देश में पता नहीं कितनी थी पर हमने इन उपकरणों को अपनी दिनचर्या का अभिन्न अंग बना लिया और जब लोग इन उपकरणों के ऊपर पूरी तरह से निर्भर हो गए तब उन्हें इनके प्रयोग से होने वाली हानियों के बारे में पता चला। इसी तरह से देश में कृषि के क्षेत्र में भी प्रयोग करने के साथ स्वाद के क्षेत्र में भी नए नए प्रयोग किये जाने लगे। रासायनिक उर्वरकों और जेनेटिक मॉडिफाइड फूड के प्रयोगों से पैदावार कितनी बढ़ी ये तो पता नहीं पर हम रसायनयुक्त फल, सब्जियों का सेवन करते रहे हुए खुश होने लगे। एक तरफ जीवन को सुविधाजनक बनाने वाले विभिन्न उपकरण और उस पर से रासायनिक उर्वरक के इस्तेमाल से उपजाई गई फल, सब्जियां और अनाज ये सब मिलाकर हमारी सेहत को बिगाड़ते रहे। ऐसे अनगिनत प्रयोगों से पहले जब शरीर में नयी-नयी बीमारियाँ नए-नए लक्षण दिखलाई देने लगे तो उन पर चिकित्सकीय अनुसन्धान की बात होने लगी। देखते-देखते कुछ हमने स्वयं के प्रयास से और रही सही कसर दूसरों के प्रयास से पूरी कर हम धीरे-धीरे प्रकृति से दूर होते चले गए। परिणामस्वरूप चिकित्सा के नाम पर शुद्ध व्यापार पर आधारित चिकित्सा व्यवस्था उपजती चली गयी। यह व्यवस्था स्वास्थ्य के नाम पर व्यापार के सेहत को तो खूब मेल खाती है पर शरीर के सेहत को नहीं।
क्षेत्र कोई भी अछूता नहीं रहा
बढ़ती जनसँख्या और बढ़ती बीमारी ने चिकित्सा के हर क्षेत्र में लोगों को व्यापार के खूब अवसर प्रदान किये। इन अवसरों में पढ़ाई से लेकर दवाई तक सभी शामिल हो गए। नतीजतन मेडिकल कॉलेज से लेकर अस्पताल तक सब इस व्यापार आधारित चिकित्सा व्यवस्था के भेंट चढ़ते चले गए। बीमारियों के इलाज और स्वास्थ्य की बढ़ती हुई मांग को देखते हुए निजी मेडिकल कॉलेजों का जाल भी बढ़ता चला गया। इनमें से ज्यादातर का उद्देश्य देश में स्वास्थ्य की क्रांति लाना नहीं बल्कि विशुद्ध व्यापार था। ऐसे में मेडिकल में प्रवेश हेतु कोचिंग की फीस, फिर लाखों खर्च करके एमबीबीएस की डिग्री, उसके बाद पीजी में होने वाला खर्च यानि कुल मिलाकर कम से कम एक से दो करोड़ रूपये खर्च करने के बाद लोग चिकित्सक बनने लग गए। पैसों की व्यवस्था ने पैसों के आधार ऐसे चिकित्सक तैयार कर दिए जिनके लिए स्वास्थ्य नहीं बल्कि स्वास्थ्य के नाम पर व्यापार प्रमुख था। ऐसे चिकित्सक वास्तव में चिकित्सा को व्यापार बनाने वाले कॉर्पोरेट जगत के लक्ष्य को पूरा करने वाले मशीन सदृश बन गए। अब तो हालात ये हैं कि एक तरफ ज्यादातर प्राइवेट अस्पतालों में चिकित्सकों के लिए लक्ष्य निर्धारित कर दिए जाते हैं तो दूसरी तरफ उन्हीं चिकित्सकों पर फार्मा कंपनियों द्वारा उनकी दवाओं की बिक्री बढ़ाने का दबाव और प्रलोभन दिया जाता है। ऐसे में व्यापार आधारित व्यवस्थाएं तो यही चाहेंगी कि चिकित्सा के बाजार में रोग भी रहे, रोगी भी रहें क्योंकि उनके लिए रोगी व्यक्ति ही उपभोक्ता है।
उपभोक्तावादी संस्कृति में उपभोक्ता है रोगी
जब रोगी को उपभोक्ता माना जायेगा तो फिर स्वास्थ्य कैसे मिलेगा। उपभोक्तावाद तो हमें खपत के माध्यम से ख़ुशी और पूर्ति की तलाश करने के लिए प्रेरित करता है जो बड़े पैमाने पर उत्पादन को प्राथमिकता देता है और बिक्री को बढ़ाता है। उपभोक्तावादी इस संस्कृति ने भारतीय चिकित्सा व्यवस्था की पूरी तस्वीर बिगाड़ दी है जिसमें व्यक्ति और वस्तु में कुछ खास अंतर नहीं रह गया है। करोड़ों खर्च के बाद बने चिकित्सक को रोग और रोगी की कितनी चिंता होगी यह लिखने की आवश्यकता नहीं। इसी प्रकार से दवा बनाने वाली कंपनियों के नजरिये से देखिये तो उनकी प्राथमिकता तो यही होगी कि दवा की बिक्री अधिक से अधिक होती रहे। ऐसे में अस्पताल बनाने में भारी भरकम रकम खर्च करने वाले अपना नुकसान क्यों करना चाहेंगे। उनकी प्राथमिकता में मरीजों का आना और कुछ दिनों तक टिक कर रुकना शामिल है। यही नहीं परीक्षण के लिए जो मशीनें लगाई गयी हैं उनका उपयोग भी तो होना चाहिए अन्यथा उनका खर्च कैसे निकलेगा। कुल मिलाकर इस व्यवस्था से जुड़े हर व्यक्ति एवं संस्थान का बस एक ही अघोषित लक्ष्य है कि एक भी इंसान इस पृथ्वी पर बिना दवा के जीवित ना रहे। स्वास्थ्य के नाम पर चल रहा उद्योग चाहता है कि अधिक से अधिक जांचें हों कभी रोग के नाम पर तो कभी सेहत के नाम पर। क्या ऐसे स्वास्थ्य आ सकता है। ध्यान रहे ये दवा कम्पनियाँ स्वास्थ्य कम्पनियाँ नहीं। इस प्रकार की कॉरपोरेट स्वास्थ्य सेवाएं किसी भी व्यापार की ही तरह हैं और इसकी नकेल भी बाजारवाद और फायदे नुकसान के हिसाब किताब के हाथ में होती है, नैतिकता और तर्कों के हाथ में नहीं। ऐसे में स्वास्थ्य के नाम पर चल रही दुकानों की प्राथमिकता सूची में रोग और रोगी दोनों की मौजूदगी पर ध्यान केन्द्रित किये जाते हैं न कि व्यक्ति के स्वास्थ्य पर।

रोग विशेषज्ञ बहुतेरे तो स्वास्थ्य विशेषज्ञ कौन
आधुनिक चिकित्सा में पठन-पाठन, क्रिया-कलाप और अनुसंधान ये सब कुछ हमेशा से इस प्रकार से होते रहे हैं कि इस व्यवस्था ने कभी भी समाज को स्वास्थ्य विशेषज्ञ नहीं दिया बल्कि हमेशा रोग विशेषज्ञ ही दिया। संभवत: इसके पीछे की मुख्य वजह यह रही होगी कि इस व्यवस्था ने हमेशा रोगों पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किया ना कि स्वास्थ्य पर। इसीलिए अंग्रेजी चिकित्सा की पढ़ाई इस प्रकार से होती है कि वहां से पढक़र निकला चिकित्सक किसी ना किसी रोग का विशेषज्ञ बन जाता है। यानि वह स्वास्थ्य का विशेषज्ञ ना होकर रोग का विशेषज्ञ होता है। इन रोग विशेषज्ञों के अंग्रेजी नाम भी चिकित्सक की फीस और दवा की तरह ही भारी भरकम होते हैं। जैसे पाचन तंत्र के संक्रमण और सूजन और लिवर से जुड़ी समस्या के लिए गैस्ट्रोएंट्रोलॉजिस्ट। इस रोग के विशेषज्ञ हेपेटाइटिस, पीलिया जैसी बीमारियों की जानकारी रखते हैं। इसी प्रकार गुर्दे और मूत्रीय प्रणाली के लिए यूरॉलॅजिस्ट तो गुर्दे की बीमारियों का विशेषज्ञ नेफरॉलजिस्ट कहलाता है। किसी महिला को अपने रोग के लिए विशेषज्ञ की आवश्यकता है तो उसको गाइनिकॉलजिस्ट के पास जाना होगा तो वहीं बच्चे के रोगों के लिए पीडियट्रिशियन होते हैं। कान-नाक-गले की कोई समस्या हो जाये तो आपको ओटो-लेरिगो-राइनॉलजिस्ट के वहां जाना पड़ेगा और यदि त्वचा से संबंधित समस्या है तो डर्मेटॉलजिस्ट के वहां कतार में लगिये। इसी प्रकार मन के रोगों का विशेषज्ञ साइकियाट्रिस्ट कहलाता है तो वहीं हृदय रोग विशेषज्ञ कार्डियॉलजिस्ट कहलाता है। यानि इस पद्धति में अलग-अलग रोगों के विशेषज्ञ तो खूब मिल जायेंगे परन्तु मूलभूत जरुरत यानि स्वास्थ्य का विशेषज्ञ एक भी नहीं मिलेगा। जबकि भारतीय चिकित्सा पद्धति यानि आयुर्वेद एवं प्राकृतिक चिकित्सा या फिर यौगिक चिकित्सा जिन्हें चिकित्सा की बजाय स्वस्थ जीवन और स्वास्थ्य की पद्धतियाँ कहा जाता है, इनका उद्देश्य ही स्वस्थ व्यक्तियों के स्वास्थ्य की रक्षा और रोगी व्यक्तियों की रोग से रक्षा करना है। ‘प्रयोजनं चास्य स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणं, आतुरस्यविकारप्रशमनं च’। इसके पीछे कारण बिलकुल स्पष्ट है, हमारे देश में स्वास्थ्य एक स्वाभाविक स्थिति थी और आयुर्वेद एवं प्राकृतिक चिकित्सा का मुख्य प्रयोजन स्वस्थ के स्वास्थ्य की रक्षा करना था जबकि अंग्रेजी चिकित्सा व्यवस्था में रोग ही स्वाभाविक थे और रोगों से सतत युद्ध ही उस का प्रमुख कार्य था। ऐसे में यह कहना उचित ही होगा कि सीखना उन्हें चाहिए था हमसे ‘जीना’परन्तु सीख हमने लिया उनसे ‘मरना’।
तो फिर विकल्प क्या है
जब हम विकल्प की बात करते हैं तो हमें हर प्रकार-प्रकार के प्रश्नों और उत्तर में उपजी समस्त संभावनाओं पर विचार करना होगा। जैसे क्या कोई चिकित्सा पद्धति है जो स्वस्थ के स्वास्थ्य की रक्षा करना चाहती हो, क्या कोई चिकित्सा पद्धति है जो नए रोग पैदा ना करे अर्थात् उसका दुष्प्रभाव ना हो, क्या कोई चिकित्सा पद्धति है जो रोगों का नियंत्रण नहीं बल्कि रोगों के मूल कारण को जड़ से समाप्त कर सके, क्या कोई चिकित्सा पद्धति है जो देश का रोग-भार कम कर सके, क्या कोई ऐसी चिकित्सा पद्धति है जो हमें प्राकृतिक रूप से स्वस्थ रख सके? दरअसल इन सभी प्रश्नों का उत्तर इस देश की भौगोलिक स्थिति, यहाँ की जलवायु एवं संस्कृति में छिपी हुई है। एक ऐसी संस्कृति जिसमें स्वास्थ्य को मूलभूत आवश्यकता मानते हुए प्राथमिकतायें तय की जाती हों। दरअसल पश्चिम में जीवन प्रकृति से निरंतर संघर्ष था इसलिए वहां प्रकृति से संघर्ष रूपी एलोपैथी विकिसत हुई जबकि हमारे देश में प्रकृति से प्रेम था इसलिए हमारे वहां प्रकृति के सहारे जीवन का पूर्ण विज्ञान यानि आयुर्वेद प्रकट हुआ। इसलिए इन सभी प्रश्नों का एक मात्र उत्तर बस यही है कि प्रकृति के नजदीक रहते हुए अपने स्वास्थ्य को प्राकृतिक ढंग से बनाये रखने की प्राचीन परंपरा को हमें अपनाये रखना है। यही हमारे स्वभाव में है और हमारे ऋषि-मुनियों ने भी हमें इसी मार्ग पर चलना सिखाया है। हमें स्वयं को भाग्यशाली मानना चाहिए कि स्वास्थ्य के लिए हमारे पास धन्वन्तरी, चरक, सुश्रुत आदि द्वारा प्रदत्त अद्भुत ज्ञान उपलब्ध है। किन्हीं भी कारणों से आज भले ही चरक और सुश्रुत संहिता जैसे चिकित्सा के महान् ग्रंथों का आधुनिक चिकित्सा में जिक्र नहीं किया गया हो पर इससे इनकी उपयोगिता किसी भी प्रकार से कम नहीं हो जाती क्योंकि निन्यानवे प्रतिशत बीमारियों का इलाज योग, आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा में है।
पतंजलि वैलनेस केंद्र बनेगा विकल्प
पश्चिम में जीवन प्रकृति से निरंतर संघर्ष था इसलिए वहां प्रकृति से संघर्ष रूपी एलोपैथी विकिसत हुई जबकि हमारे देश में प्रकृति से प्रेम था इसलिए हमारे वहां प्रकृति के सहारे जीवन का पूर्ण विज्ञान यानि आयुर्वेद प्रकट हुआ। इसकी उपयोगिता और विशेषता इसी से समझी जा सकती है कि हमारे देश में हर त्यौहार को प्रकृति के साथ जोडक़र ही देखा जाता है। एक समय था जब परम श्रद्धेय गुरुवर ने योग की अलख जगाई और देखते ही देखते योग की लोकप्रियता इतनी बढ़ गयी कि आज योग न सिर्फ लोगों की छोटी-मोटी बीमारियाँ दूर कर उनको स्वास्थ्य ही प्रदान कर रहा बल्कि यह अपने आप में अरबों की इंडस्ट्री भी बन चुका है। पतंजलि योगपीठ से निकली योग क्रांति का आज पूरा विश्व कायल हो चुका है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय योग पद्धति ने ऐसे आयाम स्थापित कर दिए हैं कि पूरी दुनिया के लिए हमारा देश योग, आयुर्वेद और अध्यात्म का केंद्र बन गया है। अब बारी है प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में एक पतंजलि वेलनेस केन्द्रों के स्थापना के माध्यम से अगली क्रांति की। यकीन मानिये यह क्रांति योग और आयुर्वेद के पश्चात पतंजलि योगपीठ द्वारा शुरू की गयी स्वास्थ्य की अगली क्रांति के रूप में पूरे विश्व में अपनी पहचान बनाएगी। इन केन्द्रों की स्थापना के साथ ही आम लोगों के स्वास्थ्य के स्तर को को नया आयाम मिल सकेगा। अत: एक स्वस्थ भारत बनाने के लक्ष्य के लिये इन केन्द्रों की महत्वपूर्ण भूमिका होनी तय है। यह भूमिका सिर्फ स्वस्थ भारत तक ही सीमित नहीं रहेगी बल्कि यह चिकित्सा के क्षेत्र में पर्यटन को भी बढ़ावा देगी। एक रिपोर्ट के मुताबिक हाल के वर्षों में भारत में इलाज सस्ता होने के कारण यूरोप, उत्तरी अमेरिका और कुछ दक्षिण पूर्व एशियाई देशों की तुलना में चिकित्सा पर्यटन बढ़ा है और जब पूरे देश में पतंजलि वेलनेस केन्द्र सुचारू रूप से संचालित होने लगेंगे तो उस समय भारत में चिकित्सा पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा। देश ही नहीं अपितु विश्व एक बार पुन: पूज्य स्वामी जी महाराज का आभारी बनने के लिए तैयार है कि उनके प्रयासों की बदौलत लोग प्रकृति के समीप रहकर अपने स्वास्थ्य को प्राकृतिक ढंग से बनाये रखते हुए स्वस्थ जीवन जी सकेंगे। यही नहीं पतंजलि वेलनेस केन्द्रों की स्थापना स्वास्थ्य में आत्मनिर्भरता के नए संकल्पों को भी समेटे हुए होगा जिसमें बीमारियों से लडऩे के लिए एक नयी ऊर्जा, नयी प्रेरणा के साथ पूर्ण स्वास्थ्य के संकल्प को अपनाया जायेगा जिससे रोग, चिकित्सा और स्वास्थ्य को लेकर फैली भ्रांतियां मिट सकेंगी।
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