संत हृदय मोहे करियो नाथ

संत हृदय मोहे करियो नाथ

साध्वी देवशक्ति, वैदिक कन्या गुरुकुलम्

बंदऊ सन्त समान चित्त, हित अनहित नहिं कोई।
अंजलि गत सुभ सुमन, जिमि सम सुगन्ध कर दोई।।
गोस्वामी तुलसीदास जी सन्तों की महिमा का वर्णन करते हुए कहते है- मैं सन्तों को प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्त में समता है, जिनका कोई मित्र है और शत्रु उपमा देते हुए कहते हैं जैसे अंजलि में रखे हुए सुन्दर फूल (जिस हाथ ने फूल को तोड़ा और जिसने उनको रखा) उन दोनों ही हाथों को समान रूप से सुगन्धित करते हैं। वैसे ही सन्त शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप से कल्याण करते हैं।
आगे गोस्वामी तुलसीदास कहते है ऐसे सन्तों का दर्शन भगवद् अनुग्रह से होता है
नहि दरिद्र सम दु: जग नाही।
सन्त मिलन सम सुख जग नाही।।
दरिद्रता सबसे बड़ा दु: है और सन्त मिलन के समान कोई सुख नहीं है। हमारी भारतीय संस्कृति अतीव विशिष्ट अनोखी हैं। इस भारत देश को मानसिक, वैचारिक, शारीरिक आर्थिक रूप से सुव्यवस्थित बनाने में सन्तों, ऋषि-ऋषिकाओं, वीर-वीराङ्गनाओं ने अहम् भूमिका निभाई है। सन्त नाम सुनतें है हमारा हृदय विनय से भर जाता है। तो आइए! अब हम सन्त के लक्षणों पर विचार करते हैं, जिससे की हम उन्हें जानकर अपने जीवन में धारणकर दिव्यता की ओर कदम बढ़ा सकें।
आदि शंकराचार्य जी ने सन्त शब्द की परिभाषा देते हुए कहा है-
अखिलवीतरागा: अपास्तमोह शिवतत्वनिष्ठ:
जिसका विषयों में राग जा चुका है, जो सदैव जागृत है, जिसे किस भी प्रकार की मूर्छा नहीं है, जो सत्य-असत्य को स्पष्ट देख रहा है। जिसकी परमतत्व में पूर्ण निष्ठा है, जो सदैव कल्याण में स्थित है, वही सन्त हैं।
सन्त के लक्षण बताते हुए सन्त कबीरदास जी कहते है-
निरबैरी निहकामना, सोई सेतीनेह।
विषया सू न्यारा रहै, संतन के अंग एह।।
जिसका कोई शत्रु नहीं है, जो निष्काम है, ईश्वर से प्रेम करता है और विषयों से असंपृक्त रहता है, वही सन्त हैं।
सन्त कवि दूलनदास जी भी सन्तों को उपवन के पुष्प समान बताते हैं।
दूलन साधु सब एक है, बाग फूल समतूल।
कोई कुदरती सुबास है और धूल-धूल के कण।।
जिस प्रकार उपवन का एक पुष्प दूसरे से कोई अन्तर नहीं रखता और सर्वत्र सुगन्धि विकीर्ण करता हैं, वैसे ही सन्त अपनी अमृतमय वाणी से धरा धाम पर सुख-शान्ति लाता है।
इसी प्रकार रामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में श्रीराम संवाद के माध्यम से सन्तों के लक्षण निरुपण किये गये है, नारद प्रश्न करते है। उत्तर देते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम कहते है-
संन्तह के लच्छन रधुबीरा, कहहु नाथ भव भंजन भीरा।
सुनु मुनि सन्तह के गुन कहऊं, जिन्ह ते मैं उन्ह के वस रहूँ।।
हे रघुवर!, हे भव भय का नाश करने वाले मेरे नाथ अब कृपा कर सन्तों के लक्षण कहिये। हे मुनि! सुनों मैं सन्तों के गुणों को कहता हूँ, जिनके कारण मैं उनके वश में रहता हूँ। इतना कहते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जी अब उन गुणों का वर्णन करते हैं।
षट् विकारजित अनद्य अकामा, अचल अकिञ्चन सुचि सुखधामा।
अमित बोध अनीह मितभोगी, सत्यसार कबि कोबिद जागी।।
वे सन्त (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर) : विकारों को जीते हुए पापरहित, कामनारहित निश्चल अकिञ्चत (सर्वत्यागी) अन्दर-बाहर से पवित्र सुख के धाम असीम ज्ञानवान इच्छारहित मिताहारी, सत्यनिष्ठ, कवि, विद्वान योगी।
सावधान! मानद मदहीना। धीरधर्म गति परम प्रबीना, सावधान! दूसरों को मान देने वाले, अभिमान रहित धैर्यवान धर्म के ज्ञान और आचरण में अत्यन्त निपुण।
निज गुन श्रवन सुनत सुकुचाही,
परगुन सुनत अधिक हरषाही।
सम शीतल नहि त्यागहि नीति,
सरल सुभाऊ सब-हि, सन प्रीति।।
कानों से अपने गुण सुनने में संकुचाते है। दूसरों के गुण सुनने से विशेष हर्षित होते हैं। सम शीतल है, न्याय का कभी त्याग नहीं करते। सरल स्वभाव होते है और सभी से प्रेम रखते है।
जप, तप, व्रत दम संजम नेमा
गुरु गोविन्द विप्र पद प्रेमा।
श्रद्धा, क्षमा, मत्रयी दाया,
मुदिता मम पद प्रीति अमाया।।
वे जप, तप, व्रत, दान, संयम और नियम में रत रहते हैं और गुरु, गोविन्द तथा श्रेष्ठजनों के चरणों प्रेम रखते हैं। उनमें श्रद्धा, क्षमा, मैत्री, दया, मुदिता और मेरे (प्रभु) चरणों में निष्कपट प्रेम होता है।
विरति विवेक विनय बिठयाना,
बोध जयारथ वेद पुराना।
दंभ मान मद करहिं काऊ,
भूलि देहिं कुमारग पाऊ।।
तथा वैराग्य विवेक विनय, विज्ञान और वेद पुराण का यथार्थ ज्ञान रहता है। वे दम्भ अभिमान और मद कभी नहीं करते और भूलकर भी कुमार्ग पर पैर नहीं रखते है।
गवहिं सुनहिं सदा मम लीला,
हेतु रहित परहित रत लीला।
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते,
कहि संकहिं सारद श्रुति तेते।।
सदा प्रभु गीत गाते हैं, भगवन् नाम सदा स्मरण करते है। बिना ही हेतु दूसरों के हित में लगे रहने वाले होते है। हे मुनि! सुनों सन्तों के जितने गुन है, उनको सरस्वती और वेद भी नहीं कह सकते।
सन्त हृदय जस निर्मल बारी।
सन्तों का हृदय निर्मल स्वच्छ जल की भांति है।।
रामचरित के उत्तरकाण्ड में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जी भरत जिज्ञासा पर पुन: सन्त गुणों का वर्णन करते है। इसी गुण कारण चन्दन देवताओं के सिर पर चढ़ता है और जगत् का प्रिय हो रहा है और कुल्हाड़ी के मुख को यह दण्ड मिलता है कि उसको आग में जलाकर फिर घन से पीटते हैं।
विषय अलंपट सील गुनाकर, पर दुख-सुख-सुख देखे पर।
सम अभूतरिपु बिसद विरागी, लोभा रष-हरष-भय त्यागी ।।
सन्त विषयों में लिप्त नहीं होते, शील और सद्गुणों की खान होते हैं। जिन्हे पराया दु: देखकर दु: और सुख देकर सुख होता है। वे समता में रहते हैं। उनके मन में कोई शत्रु नहीं है। वे मद रहित और वैराग्यवान् होते है तथा लोभ, क्रोध, हर्ष और भय का त्याग किए रहते हैं।
श्रीमद् भगवद्गीता के षोड्शोऽध्याय में भी दैवीय गुणों का वर्णन किया है। जोकि सन्त लक्षण है।
अभयं सत्त्वसंशुद्धिज्ञानयोगव्यवस्थिति:
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ।। (16-1)
योगेश्वर श्रीकृष्ण चन्द्र जी कहते है भय का सर्वथा अभाव, अन्त:करण की पूर्ण निर्मलता, तत्वाज्ञान के लिए ध्यानयोग में निरन्तर दृढ़ स्थिति और सात्विक दान, इन्द्रियों का दमन, भगवान् देवता और गुरुजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों को आचरण एवं वेद-शास्त्रों का पठन-पाठन तथा भगवान् के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिए कष्ट सहन और शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अन्त:करण की सरलता।
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शान्तिरपैशु नम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं हीरचापलम् ।। (16-2)
मन, वाणी और शरीर के किसी प्रकार भी किसी को कष्ट देना, यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना उपकार करने वाले पर भी क्रोध का होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्त:करण की उपरति अर्थात् चित्त की चञ्चलता का अभाव, किसी की भी निन्दादि करना, सब भूत प्राणियों में हेतु रहित दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति होना, कोमलता लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव।
तेज: क्षमा घृति: शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।। (16-3)
तेज, क्षमा का भाव होना, धैर्य, आन्तरिक और बाहृय शुद्धि, किसी में भी शत्रु भाव का ना होना, अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव, योगेश्वर श्रीकृष्ण जी कहते है। हे अर्जुन! ये सब गुण दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए सन्त के लक्षण है। तो इसी क्रम में भगवान् श्रीराम सन्तों के लक्षण बताते हुए कहते है-
कोमलचित्त दीनन्ह पर दया, मन बच क्रम मम भगति अमाया।
सबहि भानप्रद आपु अमानी, भरत प्राण सम ते प्राणी।।
उनका चित्त बड़ा कोमल होता है, वे दीनों पर दया करते है तथा मन, वचन और कम से मेरी निष्कपट भक्ति करते हैं। सबको सम्मान देते है, पर स्वयं मानरहित होते है। हे भरत! वे प्राणी मेरे प्राणों के समान है।
विगत-काम मम नाम परायन,
सन्ति विरति विनती मुदितायन।
शीतलता, सरलता, भयश्री,
द्विज पद प्रीति धर्मे जनयत्री।।
उनको कोई कामना नहीं होती। वे मेरे नामके परायण होते है। शान्ति, वैराग्य, विनय और प्रसन्नता के घर होते हैं। उनमें शीतलता, सरलता सबके प्रति मित्रभाव और ब्राह्मण के चरणों में प्रीति होती है, जो धर्मों को उत्पन्न करने वाली है।
सब लच्छन बसहिं जासु उर,
जानेहु तात संतत फुर।
सम, दम, नियम, प्रीति नहिं डोलहिं,
परुष वचन कुबहु नहि बोलहि।।
हे तात! ये सब लक्षण जिसके हृदय में बस्ते हो उसको सदा सच्चा सन्त जानना। जो सम (मन के निग्रह) दम (इन्द्रियों के निग्रह) नियम और नीति से कमी विचलित नहीं होते और मुख से कभी कठोर वचन नहीं बोलते।
निन्दा अस्तुति उभय सम ममता पदकंज।
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुखपुंज।।
जिन्हे निन्दा और स्तुति दोनों समा हैं और मेरे (प्रभु) चरण कमलों में जिनकी ममता (प्रीति) हैं। वे गुणों के धाम और सुख राशि सन्तजन मुझे प्राणों के समान प्रिय है। इस प्रकार मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने भरत को इन सन्तों के गुण लक्षणों से अवगत कराया।
हम भी उस करुणानिधान परम पिता परमात्मा से प्रार्थना करते है। हे नाथ! मेरे हृदय में इन गुणों का आधान कीजिए। मेरा जीवन मन भी सन्त कर दीजिए। हे प्रभु, हे करुणाधार! इतनी कृपा कर दीजिए।
विनती प्रभु से करुण पुकार,
सन्त हृदय मोह करियो नाथ,
तेरी याद में आंखों में पानी,
और मौन है मेरी वाणी,
शुद्ध हृदय हो तुमसे लगन लगाए,
मोह माया सब तन-मन से हट जाए,
तुझे पाकर ना रहे और इच्छाएं,
विनती मेरी यही और यही है पुकार,
सब दोषों से हे प्रभु मुझको उभार,
और तेरे गीत ही गाए मेरी वाणी,
मैं छोड़ दू हर अपने मन की मनमानी,
हर प्राणी के लिए प्रीत ज्योत जल जाए,
ये डोर जिन्दगी की प्रभु तुझ संग बंध जाए,
परमार्थ करना हर जन का मेरा लक्ष्य बन जाए,
अंहकार से मुझको हे प्रभों! तू ही उभार,
श्रद्धा भावों से पुरित करो मन मेरा नाथ।
 

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