जीवन की सबसे बड़ी व महत्वपूर्ण खोज
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डॉ. आचार्या साध्वी देवप्रिया, संकायाध्यक्षा एवं
कुलानुशासिका, पतंजलि विश्वविद्यालय, हरिद्वार
एक छोटी सी कहानी से शुरु करते हैं जिसमें एक सम्राट् का इकलौता बेटा कुसंग में पडक़र शराबी जुआरी आदि दोषों से लिप्त हो गया तथा गलत रास्ते पर चल पड़ा।
सम्राट् ने बहुत समझाया पर सब व्यर्थ रहा। आखिर एक दिन मजबूर होकर राजा ने उसे यह सोचकर घर से निकाल दिया कि वह रोयेगा, पछतायेगा, लौटकर आयेगा, माफी मांगेगा, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। वह घर से चला गया और कीचड़ में धंसता ही चला गया। वह खूब शराब पीकर पड़ा रहता था, सम्राट् चिन्तित हुआ कि राज्य को आगे कौन सम्भालेगा? फिर जैसा भी हो, है तो आखिर बेटा ही। वर्षों बीत जाने पर राजा ने अपने एक व्यक्ति को उसे बुलाने के लिए भेजा, पर राजकुमार ने उसकी एक न सुनी, उसकी तरफ देखा तक नहीं और वह वापस लौट आया। फिर दूसरे मन्त्री को भेजा पर वह उससे इतनी मित्रता कर बैठा कि खुद भी उसी के रंग में रंग गया। वह भी पीने लगा और वहीं रह गया।
आखिर राजा ने अपने सबसे समझदार वजीर को भेजा। वह गया, वहाँ की परिस्थिति को समझा, सबसे मित्रता की, राजकुमार से भी मित्रता की और इतने विश्वास में ले लिया कि अब राजकुमार उसे पल-भर के लिए भी छोडऩा नहीं चाहता था। वह उनके साथ बैठता था, शराब प्याले में डालता तो था पर पीता नहीं था, पीने का नाटक भर करता था। वहाँ चल रहे नाच-गान को देखता तो था पर मन से कहीं और ही रहता था। उनके जैसा दिखता तो था मगर अन्दर से बिल्कुल अछूता, बिल्कुल निर्लिप्त कीचड़ में रहने वाले कमल की तरह। नदी में डूबने वाले को बचाने के लिए पानी में उतरा भी पर खुद नहीं डूबा और एक दिन वह राजकुमार को वापस महल में लौटा लाया। डूबते व्यक्ति को बचाने के लिए पानी में उसके पास उतरना, कपड़े गीले करना अनिवार्य है, केवल किनारे खड़े रहकर कोई तैरने के कितने भी सुन्दर उपदेश क्यों न दे, बचा नहीं पायेगा। दूसरा व्यक्ति वह है जो खुद तैरना नहीं जानता पर डूबते हुए को देखकर बचाने के लिए जोश में आकर कूद पड़ता है। वह भूल जाता है कि अभी तो मुझे तैरना आता ही नहीं। वह दूसरे को तो नहीं ही बचा पायेगा, साथ में खुद भी डूब जायेगा, क्योंकि डूबने वाला दूसरे को भी पकडक़र डुबाने की कोशिश करता है।
तीसरा व्यक्ति वह है जो खुद अच्छे से तैरना जानता है, पानी में उतरेगा, खुद नहीं डूबेगा और डूबने वालों को भी बचा पायेगा वह सद्गुरु है। यह जीवन की सबसे बड़ी व सबसे महत्वपूर्ण खोज है। भाग्य से ऐसा गुरु किसी को मिल जाये तो वह उसे संसार सागर में डूबने से बचा लेगा। सद्गुरु यदि शिष्य के निकट नहीं आयेगा, वह डूब रहा है तो उसे बचा नहीं पायेगा, बेशक कहीं किनारे खड़े खुद को डूबने से बचा ले पर तुम्हें नहीं बचा पायेगा। इसलिए उपनिषदों में एक कथा आती है कि गुरु जब शिष्यों को पढ़ाता है तो अपना सिर काटकर घोड़े का सिर लगा लेता है और पढ़ाने के बाद घोड़े का सिर साइड में रखकर अपना सिर अर्थात् हाथी का सिर लगा लेता है। आलंकारिक वर्णन है। घोड़ा पशु का प्रतीक है। शिष्य भी तो पशु ही होता है पर यदि गुरु उसके स्तर तक नहीं उतरेगा तो उससे कनेक्ट नहीं हो पायेगा और जब तक कनेक्ट नहीं हो पायेगा उसे करेक्ट नहीं कर पायेगा, और यदि सब समय उसी के स्तर पर जीने लगें तो कुछ भी सिखा नहीं पायेगा। आपने घरों में देखा होगा कि ऊँचे पद पर आसीन पिता भी घर में आकर बच्चे के सामने घोड़ा बनकर उसे अपनी पीठ पर बिठाकर घुमाता है। अत: सद्गुरु को शिष्य के स्तर पर नदी के पानी में उतरना होगा, गीला होना होगा, लेकिन यदि तैरना नहीं आया तो खुद भी डूबेगा और शिष्य को भी डुबायेगा।
इसलिए वही सद्गुरु बचा पायेगा जो शिष्य के निकट से भी निकट हो और कोसों दूर भी हो। बाहर से बिल्कुल साधारण हमारे जैसा ही दिखे और अन्दर से बिल्कुल ही अलग। जो बाहर से एक साधारण मनुष्य जैसा ही दिखे और साथ ही अन्दर से परमात्मा जैसा विराट् भी हो। जो बाहर परिधि पर खूब आपके साथ आनन्द करे और अन्दर से कभी केन्द्र से छूटे नहीं। इसलिए ऐसे सद्गुरु को पहचानना बहुत कठिन है। जो किनारे पर खड़े होकर बड़े-बड़े उपदेश करते हैं उन्हें तुम पहचान तो लोगे पर वे तुम्हें डूबने से बचा नहीं पायेंगे क्योंकि उनके और तुम्हारे बीच में दूरी इतनी है कि सम्बन्ध नहीं जुड़ेगा। जो दूसरे को बचाने की जोखिम नहीं उठाता उसे तैरना आता ही है, यह भी संदिग्ध है। लेकिन मात्र जोखिम उठाने वाला ही बचा पायेगा यह भी मत सोच लेना क्योंकि कभी-कभी जोश में आकर बचाने के लिए वह मूढ़ व्यक्ति भी कूद पड़ता है जो खुद तैरना नहीं जानता। दो चीजें हैं एक है Skill Power और दूसरी है- Will Power। दोनों बहुत महत्वपूर्ण हैं। यदि Will Power नहीं हो तो Skill Power बेकार चली जाती है और Skill Power नहीं है तो अकेली Will Power कुछ नहीं कर पायेगी।
श्रद्धेय गुरुदेव कहते हैं कि जीवन को ऐसे जियो जैसे कि कोई अभिनय हो, खेल हो, लीला हो। महापुरुषों ने ऐसा ही जीवन जीया। इसलिए उनके जीवन को कहते हैं- रामलीला, कृष्ण लीला और साथ ही खेल को या अभिनय को ऐसे खेलो कि जैसे सचमुच का जीवन ही हो। इसलिए सद्गुरु कभी-कभी ऐसी लीला करते हैं कि लगता है यह भी बिल्कुल हमारे ही जैसे व्यक्ति हैं। डूबने वाले को लगता है कि जैसे मैं हाथ-पैर मार रहा हूँ, वैसे ही यह बचाने वाला भी मार रहा है। वह हाथ-पैर तो मारता है लेकिन डूबने वाले से बिल्कुल ही अलग तरह, पूर्ण होश के साथ, पूर्णप्रेम के साथ डूबने वाला भी हाथ-पैर मारता है लेकिन पूर्ण बेहोशी में, पूर्ण भय और अज्ञान के साथ। इसलिए राम, कृष्ण, दयानन्द, गुरुनानकदेव महात्मा बुद्ध, भगवान् महावीर, ये सब महापुरुष बाहर से वैसे ही कार्य करते थे जैसे कि हम सब करते हैं परन्तु अन्दर के भावों में जमीन-आसमान का अन्तर था। सौभाग्य से ऐसे गुरु हमें मिले हैं।
जिन्होंने योगविद्या के माध्यम से अपने जीवन के साथ-साथ करोड़ों लोगों के जीवन को डूबने से बचाया है। आइये हम सब उसी योग की शरण में आकर, योगगुरु की शरण में आकर अपने तन-मन व प्राण को योग के माध्यम से एक नौका बनाकर इस भवसागर से पार परम सुख, शाश्वत शान्ति और अनन्त ज्ञान व असीम आनन्द को प्राप्त करने के पात्र बनें। यही जीवन की सबसे बड़ी व महत्वपूर्ण खोज है।
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