शिक्षा के क्षेत्र में लॉकडाउन वर्षों नहीं दशकों पुराना

शिक्षा के क्षेत्र में लॉकडाउन वर्षों नहीं दशकों पुराना

पंकजस्वदेशी दिव्य प्रकाशन

मार्च 2020 यह वह तारीख है, जिस दिन हमारे प्रधानमंत्री माननीय श्री नरेंद्र मोदी जी के माध्यम से Complete Lockdown का शब्द पुरे भारत वासियों को सुनने को मिला और इसके पश्चात देश के करोड़ों परिवारों को एक बड़ी पीड़ा से गुजरना पड़ा। यहाँ तक की परिवार के किसी किसी सदस्य की मृत्यु होने के कारण, लाखों परिवार तक उजड़ गए। इन सब के पीछे आखिर कारण क्या था? यह हमारे देश के बच्चे-बच्चे को पता है, उत्तर है- कोरोना महामारी। यह वह शब्द है, जिसे वर्तमान में विश्व का प्रत्येक मनुष्य जानता है।
यह बीमारी इतनी घातक होती, यदि भारत की प्राचीन गुरुकुल शिक्षा प्रणाली, योग एवं आयुर्वेद की शिक्षा पर मैकाले द्वारा लगाया गया Complete Lockdown हमने वर्षों पहले तोड़ दिया होता। यह बीमारी इतनी घातक होती, यदि कोरोना महामारी पर भारत सरकार के द्वारा लगाए गए Lockdown को जैसे हमने तोडऩे में जितनी उत्सुकता दिखाई थी, उतनी ही उत्सुकता हमने प्राचीन महान् शिक्षा पर मैकाले द्वारा लगाए गए Lockdown को तोडऩे के लिए वर्षों पहले दिखाई होती। यह बीमारी इतने जीवन निगलती यदि शिक्षा के ठेकेदारों ने वर्षों पहले, हमारे महान ऋषियों की जीवन रक्षक योग एवं आयुर्वेद विद्या तथा गुरुकुल शिक्षा परम्परा का सम्मान किया होता।
परन्तु ऐसा भी नहीं है, जो वर्षों से नहीं हुआ वह अभी भी हो पाएगा। ऋषियों की महान् शिक्षा को जानने का हमारा एक-एक कदम हमें जीवन में समय-समय पर आने वाली विभिन्न चुनौतियों एवं विपत्तियों से सदा बचाएगा। किसी ने यदि दशकों पहले ऋषियों की महान् समृद्ध विद्या को तार-तार करने का षडय़ंत्र रचा था, तो आज हम सब मिलकर इस विद्या को पुनःप्रतिष्ठापित भी कर सकते हैं और यह तो वर्तमान में दो महान् युग पुरोधाओं योगऋषि स्वामी रामदेव जी महाराज एवं आयुर्वेद शिरोमणि आचार्य बालकृष्ण जी महाराज के अखंड पुरुषार्थ के फलस्वरूप इनके दिव्य आलोक में होता हुआ हमें संभव भी दिख रहा है। वर्तमान आवश्यकता तो बस इन दोनों महापुरुषों के सानिध्य में एक शिष्य के रूप में अपने सर्वोच्च योगदान देने की है। ये दोनों महापुरुष बाल्यकाल से ही लाखों किलोमीटर की यात्रा कर, सूरज के प्रकाश स्वरूप मुख पर तेज लिए, दुनियाँ में फैले अज्ञान रूपी अन्धकार का अंत कर वैदिक ज्ञान के आधार पर पूरी दुनियाँ को खुशहाल जीवन जीने का राज अमूल्य सूत्र बता रहें हैं।

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इस संसार में दु: जो हम सब को होता है, वह हमारे विचारों का ही परिणाम है और विचार संस्कारों का परिणाम है। अत: यदि केवल संस्कारों और स्वभावों को हमारे महान् ऋषियों द्वारा बताए गए मार्ग के अनुरूप कर लिया जाए तो हम स्वयं को अपनों को संसार के विभिन्न दु:खों से बचा सकते हैं। इस संसार में जितने भी संवेदनशील माता-पिता एवं वरिष्ठ हैं वह यह जानते ही हैं कि स्वभाव एवं संस्कारों को यदि बचपन में ही मजबूत कर दिया जाए तो वह जीवन के अंत तक अखंड बने रहते हैं और मैकाले के काले दिमाग ने भारत की शिक्षा में से इन्ही दिव्य संस्कारों जो भारतीय संस्कृति की आत्मा थे, उन्हें बड़ी ही चतुराई से गायब कर दिया और वर्तमान में तो यह देखकर आश्चर्य होता है कि फिल्मों, सोशल मीडिया एवं विभिन्न माध्यमों से ग्लैमर का ऐसा तगड़ा अज्ञानरूपी तडक़ा लगा दिया गया है कि इसमें पूरी पीढ़ी ही बेढ़ंगा जीवन जीते हुए, नशों वासनाओं की चौखट पर स्वयं को बर्बाद करने की प्रतिस्पर्धा पर अड़ी है। आज संवेदनशील माता-पिता व्याकुल हैं, यह सोच पर कि आखिर कौन है जो हमारे बच्चों को इस अंधी प्रतिस्पर्धा में भाग लेने से बचाएगा? जबकि इसका बहुत ही सरल समाधान उनके पास ही है। मैकाले ने जो वर्षों पहले संस्कार रूपी शास्त्रों में दिए गए सूत्रों को हमारी शिक्षा व्यवस्था से निकाल दिया था, हमें उन्हीं सूत्रों को अपने घर में स्थान देना होगा। बच्चे छोटे हों या बड़े, यदि वह विद्यार्थी जीवन में है तो यह सब संभव है। विद्यार्थी जीवन हमारे प्यारे बच्चों के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय होता है। यही वह समय है, जहाँ बच्चों के जीवन की दिशा एवं दशा तय होती है। अत: विद्यार्थी जीवन में विद्या अर्जित करने एवं जीवन के आवश्यक मूल्यों, सिद्धांतों को सिखाने पर ज़ोर दिया जाता है। ज्ञान प्राप्ति, नीति का ज्ञान, नैतिक मूल्य इत्यादि विद्यार्थी जीवन की प्राथमिकता होते हैं। क्योंकि यही ज्ञान एवं यही मूल्य सिद्धांत आगे जाकर व्यक्ति के चरित्र एवं व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं और उन्हें एक सफल इंसान बनाते हैं। इसलिए यह अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि विद्यार्थीकाल में बच्चों को सही ज्ञान एवं सही मार्गदर्शन प्राप्त हो। हमारे महान् ऋषियों ने बहुत ही सुन्दर, प्रेरणादायक, विद्यार्थी जीवन में श्रेष्ठ संस्कारों के लिए अमूल्य सूत्र दिए हैं। जिनका प्रत्येक माता-पिता को अपने बच्चों से प्रतिदिन अवश्य उच्चारण इनकी व्याख्या करवानी चाहिए, उच्चारण से उनके संस्कार बनेंगे और संस्कार बनाने के पश्चात वह इन दिव्य श्लोकों में दिए गए संकेतों का अनुकरण करेंगे और अच्छे इंसान महान् बनेंगे। भारत देश का अपने माता-पिता का गौरव बढ़ाएंगे। शास्त्रों में से चयन कर कुछ अति महत्वपूर्ण श्लोक आप सभी के समक्ष सम्प्रेषित है-
यथा ह्येकेन चक्रेण रथस्य गतिर्भवेत्।
एवं परुषकारेण बिना दैवं सिद्धयति।।
अर्थात्- जिस प्रकार एक पहिये से रथ नहीं चल सकता है, उसी प्रकार बिना पुरुषार्थ के भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता है। अत: भाग्य के भरोसे सब कुछ छोडक़र मत बैठिए, लक्ष्य की प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ करते रहिये।
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि मनोरथै:
हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:।।
अर्थात्-दुनियाँ में सभी कार्य परिश्रम से सिद्ध होते हैं कि सोचते रहने से। जिस प्रकार सोते हुए शेर के मुख में हिरण आदि जानवर स्वयं प्रवेश नहीं करते, अपितु शेर को स्वयं शिकार करना पड़ता है। ठीक उसी प्रकार हमें भी वांछित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए लगनशील होकर परिश्रम करना चाहिए।
क्षणश: कणश: चैव विद्यामर्थं साधयेत्।
क्षणत्यागे कुतो विद्या कण त्यागे कुतो धनम्।।
अर्थात्- एक-एक क्षण का सदुपयोग कर विद्या प्राप्त करनी चाहिए तथा एक-एक कण को महत्वपूर्ण समझ करके धन संचय करना चाहिए। क्षण के महत्व को बिना समझे उसे गंवाने वाले को विद्या कहाँ प्राप्त होगी? अत: समय को अनावश्यक कार्यों में व्यर्थ करने वाला कभी विद्या को प्राप्त नहीं कर सकता। ठीक उसी प्रकार जो कण (धन का अत्यंत छोटा सा हिस्सा) के महत्व को नहीं समझेगा उसे धनवान बनने का सुयोग नहीं प्राप्त हो सकता, एक बुद्धिमान व्यक्ति, जो विद्याध्ययन की अभिलाषा रखता हो, उसे प्रत्येक क्षण (समय) का उपयोग करना चाहिए तथा धनवान बनने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को प्रत्येक कण को महत्वपूर्ण समझ कर इसका संग्रह करना चाहिए।
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपु:
नास्त्युद्यमसमो बन्धु: कृत्वा यं नावसीदति।।
अर्थात्- मनुष्यों का आलस्य ही उसका सबसे बड़ा शत्रु है तथा परिश्रम जैसा कोई दूसरा मनुष्य का अनन्य मित्र नहीं है। परिश्रम करने वाला मनुष्य कभी भी दुखी नहीं होता।
उद्यमेनैव हि सिध्यन्ति, कार्याणि मनोरथै:
हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगा:।।
अर्थात्- अचानक आवेश में कर बिना सोच विचार किये कोई कार्य नहीं करना चाहिए, क्योंकि विवेक शून्यता सबसे बड़ी विपत्तियों का घर होती है। इसके उलट जो व्यक्ति सोच-समझकर कार्य करता है, उसके इसी गुण की वजह से माता लक्ष्मी का आशीर्वाद उन्हें स्वत: प्राप्त हो जाता है अर्थात् धन सम्पदा स्वत: उनकी ओर आकृष्ट होने लगती है।
सुखार्थिन: कुतो विद्या विद्यार्थिन: कुत: सुखम्।
सुखार्थी वा त्यजेत विद्या विद्यार्थी त्यजेत् सुखम्।।
अर्थात्- सुख की कामना करने वालों को विद्या कहाँ प्राप्त हो सकती है? और विद्या की इच्छा रखने वाले को सुख नहीं मिल सकता। अत: सुख की लालसा रखने वालों को विद्या अध्ययन को त्याग देना चाहिए, तथा जो वास्तव में विद्या प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें सुख का परित्याग कर देना चाहिए।
प्रियवाक्य प्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तव:
तस्मात तदैव वक्तव्यम वचने का दरिद्रता।।
अर्थात्- प्रिय अर्थात् मधुर वचन से सभी जीवों को प्रसन्नता होती है, फिर मधुर वचन बोलने में कंजूसी किसलिए? अतएव हमें सदा सर्वदा मधुर वचन ही बोलने चाहिए।
अनाहूत: प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधम:।।
अर्थात्- बिना बुलाए भी जाना, बिना किसी के पूछे बहुत बोलना, विश्वास नहीं करने लायक व्यक्तियों पर विश्वास करना... ये सभी मूर्ख और अधम लोगों के लक्षण हैं। अत: अपने जीवन में हमें इन चीजों का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए।
रूप यौवन सम्पन्ना विशाल कुल सम्भवा:
विद्याहीना शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुका:।।
अर्थात्- रूप और यौवन से सम्पन्न तथा उच्च कुलीन परिवार में उत्पन्न व्यक्ति भी विद्याहीन होने पर सुगंध रहित पलाश की भाँति ही शोभा नहीं देते। विद्या अध्ययन करने में ही मनुष्य जीवन की सफलता है।
नास्ति विद्यासमो बन्धुर्नास्ति विद्यासम: सुहृत्।
नास्ति विद्यासमं वित्तं नास्ति विद्यासमं सुखम्।।
अर्थात्- विद्या के सामान कोई बंधु नहीं, विद्या जैसा कोई मित्र नहीं, विद्या धन के जैसा अन्य कोई धन या सुख नहीं, अत: विद्या इस लोक में हमारे लिए सकल कल्याण की वाहक है, अतएव विद्यार्जन जरूर करना चाहिए।
चोरहार्य राजहार्य भ्रतृभाज्यं भारकारि।
व्यये कृते वर्धति एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।।
अर्थात्- इसे ही कोई चोर चुरा सकता है, ही राजा छीन सकता है, ही इसको संभालना मुश्किल है और ही इसका भाइयों में बंटवारा होता है। यह खर्च करने से बढऩे वाला धन हमारी विद्या है जो सभी धनो से श्रेष्ठ है।
विद्वत्वं नृपत्वं नैव तुल्यं कदाचन।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।।
अर्थात्- एक राजा और विद्वान में कभी कोई तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि एक राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है, वही एक विद्वान हर जगह सम्मान पाता है।
षड् दोषा: पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध: आलस्यं दीर्घसूत्रता।।
अर्थात्- इस संसार में सम्पन्न होने अथवा उन्नति करने की प्रबल इच्छा रखने वाले मनुष्यों को इन छह आदतों का परित्याग कर देना चाहिए- अधिक नींद लेना अथवा अधिक सोना, जड़ता, भय, क्रोध, आलस्य और दीर्घसूत्रता अर्थात् कार्यों को टालने की प्रवृत्ति, अन्यथा ये आदतें व्यक्ति के उन्नति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बनकर उसकी कामना को कभी भी पूर्ण नहीं होने देंगे।
बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धन:
श्रुतवानपि मूर्खो सौ यो धर्मविमुखो जन:।।
अर्थात्- जो व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करता, वह व्यक्ति बलवान होने पर भी असमर्थ, धनवान होने पर भी निर्धन ज्ञानी होने पर भी मूर्ख होता है। अत: हम अपने कर्तव्यों के प्रति सदा सजग रहें और उनका पूर्ण समर्पण के साथ पालन करें।
विद्यां ददाति विनयं, विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वात् धनमाप्रोति, धनात् धर्मं तत: सुखम्।।
अर्थात्- विद्या विनय देती है। विनय अथवा विनयशीलता से हमें पात्रता (लक्ष्य को प्राप्त करने की योग्यता) प्राप्त होती है, पात्रता से धन प्राप्त होता है और धन से धर्म और सुख की प्राप्ति होती है। दूसरे प्रकार से अगर हम कहें तो धन कभी भी अपात्र के हाथों में एकाएक नहीं जाता और अगर भी जाए तो नहीं रुक सकता क्योंकि धन की प्राप्ति के लिए पात्र (विनयशील) होना एक आवश्यक शर्त है। विनयशील होना ही धन प्राप्ति की पात्रता है और विनयशील होने के लिए मनुष्य को विद्वान होना भी आवश्यक है।
विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम्।
विद्या भोगकरी यश: सुखकरी विद्या गुरूणां गुरु:।।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम्।
विद्या राजसु पूज्यते हि धनं विद्याविहीन: पशु:।।
अर्थात्- विद्या मनुष्य का सबसे गुप्त एवं विशिष्ट धन है। वह भोग देने वाली, यश प्रदान करने वाली और सुखकारक है। विद्या गुरुओं की भी गुरु है। विदेश में विद्या अपने बंधुजनों के समान ही है। विद्या ही परम देवता है, राजा भी विद्या की ही पूजा करता है। अत: जिसके पास यह विद्यमान नहीं है वह मनुष्य पशु के ही समान है।
द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम्।
धनवन्तम् अदातारम् दरिद्रं अतपस्विनम्।।
अर्थात्- दो प्रकार के लोगों की गर्दन में एक बड़ी शिला (पत्थर) बांधकर उनको गहरे जल में प्रवाहित कर देना चाहिए। पहला जो धनवान होकर भी दान नहीं करता तथा दूसरा जो निर्धन होकर भी कठिन परिश्रम करने से भागता हो। मतलब इतना सा है कि एक निर्धन व्यक्ति को, धनहीन व्यक्ति को कठोर श्रम करना चाहिए ताकि उसे धन की प्राप्ति हो, जो कि जीवन जीने के लिए बहुत आवश्यक तत्व है, तथा धनवान व्यक्ति जब दानशील होगा तो उसे समाज में जो कमजोर लोग हैं उनकी सहायता भी होगी और धनवान व्यक्ति की ख्याति भी बढ़ेगी।
सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात ब्रूयात सत्यं अप्रियम्।
प्रियं नानृतं ब्रूयात एष धर्म: सनातन:।।
अर्थात्- हमें सत्य बोलना चाहिए, प्रिय बोलना चाहिए परन्तु अप्रिय लगने वाला सत्य नहीं बोलना चाहिए। प्रिय लगने वाला असत्य भी नहीं बोलना चाहिए। यही धर्म है। इस श्लोक (सुभाषित) का अर्थ यही है कि हमारा व्यवहार ही हमारे सामाजिक जीवन में, हमारे पारस्परिक संबंधों में काफी अहम भूमिका निभाता है। यदि हमारा स्वयं का रवैया किसी के प्रति अथवा किसी और का रवैया हमारे प्रति घृणा युक्त और दोषपरक होगा, तो इससे हमारे बीच शत्रु भाव जायेगा। यदि दृष्टि एवं व्यवहार प्रेम मय होगा तो संबंध सुंदर सजीव और मित्रवत हो जाएगा। अर्थात् व्यवहार ही हमारे सामाजिक संबंधों का मूल है।
माता शत्रु: पिता वैरी येन बालो पाठित:
शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा।।
अर्थात्- जो माता-पिता अपने संतान की शिक्षा का प्रबंध नहीं करते उन्हें नहीं पढ़ाते हैं, वह अपने संतानों के लिए शत्रु के समान हैं। क्योंकि उनकी विद्याहीन संतान को समाज में यथोचित आदर नहीं मिलेगा जिस प्रकार हंसों के बीच में बगुले का सत्कार नहीं होता।
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।
अर्थात्- जो व्यक्ति अभिवादनशील एवं विनम्र है तथा अपने से बड़ों का सम्मान करता है, नित्य प्रतिदिन वृद्धजनों की सेवा करता है, उसे इस सेवा के फलस्वरूप जो आशीर्वाद प्राप्त होता है, उससे उसके आयु विद्या कीर्ति और बल में वृद्धि होती है। ये श्लोक हमारी संस्कृति की मूल अवधारणा का उद्घोष कर रही है जिसमें (भारतीय संस्कृति में) बड़े बुजुर्गों की सेवा को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है।
वर्तमान शिक्षा व्यवस्था ने भले ही अच्छे संस्कारों के रूप में मिलने वाली वैदिक शिक्षा पर दशकों से Complete Lockdown  लगा रखा हो, परन्तु योगऋषि स्वामी रामदेव जी महाराज एवं आयुर्वेद शिरोमणि आचार्य बालकृष्ण जी महाराज के माध्यम से किये जा रहें पिछले लगभग 3 दशकों के अखंड पुरुषार्थ से हमारे महान ऋषियों की वैदिक शिक्षा, योग एवं आयुर्वेद को पूरे विश्व में विशाल सम्मान एवं स्थान मिला है। आज हमारे पास परम पूज्य स्वामी जी एवं परम श्रद्धेय आचार्य श्री जी के माध्यम से बच्चों के स्वस्थ, सुखी, सफल जीवन के लिए स्वयं के हाथों से लिखित ज्ञानवर्धक प्रेरणादायक पुस्तकें उनके आशीर्वाद के रूप में प्रत्येक उम्र के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध है। जो उन्हें स्वस्थ जीवन जीने के सूत्र भी बताती है और जीवन में सफल होने के लिए प्रेरक मार्गदर्शन भी प्रदान करती है। बच्चे इन पुस्तकों का अध्ययन कर श्रेष्ठ आदर्श विचारों को ग्रहण कर अपना जीवन जियेंगे, उन्हें अपने भीतर भगवान् द्वारा दिए गए महान् सामर्थ का बोध होगा, वह जीवन को छोटे-छोटे उद्देश्यों के लिए नहीं अपितु बड़े महान् उद्देश्य के लिए जियेंगें, स्वस्थ जीवन जीने के लिए वह ऋषियों द्वारा बताए गए मार्ग का अनुसरण करेंगें। अत: अपने प्यारे बच्चों के लिए यह पुस्तकें आप अपने घर मंदिर में अवश्य रखें। आज समय गया है, मैकाले द्वारा लगाए गए Lockdown  को चूर-चूर कर दिया जाए और मॉडर्न शिक्षा के साथ-साथ अपने प्रिय बच्चों को ऋषियों द्वारा दिए गए महान् सूत्रों के संस्कारों से परिपूर्ण कर दिया जाए।
योगऋषि परम पूज्य स्वामी रामदेव जी महाराज एवं आयुर्वेद शिरोमणि परम श्रद्धेय आचार्य बालकृष्ण जी महाराज द्वारा विद्यार्थियों के लिए स्वयं लिखित पुस्तकें: खेल-खेल में योग, योग और बचपन, आओ सीखें योग, योग एवं जीवन कौशल, विचार क्रांति, प्राणायाम रहस्य, योग-दर्शन, योग सामान्य ज्ञान, आयुर्वेद सिद्धांत रहस्य, चाणक्य-सूत्र, वेदों की शिक्षाएं, श्रीमद्भागवत गीता, भारत के आदर्श व्यक्तित्व आदि पुस्तकें एवं साहित्य आप हमारी वेबसाइट www.divyaprakashan.com से प्राप्त कर सकतें है।
अपने प्यारे बच्चों एवं आप अपने स्कूल की लाइब्रेरी के लिए योग की रोचक एवं ज्ञानवर्धक प्रेरणादायक पुस्तकेंदिव्य-प्रकाशन विभाग, हरिद्वारसे संपर्क कर (7302732334, 7302732335) सीधे प्राप्त कर सकते हैं। आपको सहजता से पुस्तकें एवं साहित्य उपलब्ध करवाने हेतु हम प्रतिबद्ध हैं।    
 

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