शाश्वत प्रज्ञा
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स्वभाव को सुन्दर कैसे बनाएं
किसी के जीवन का मूल्यांकन मुख्य दो बातों से होता है एक व्यक्ति की उपलब्धियां, सफलताएं, कामयाबी, देश, धर्म, संस्कृति, मानवता या अस्तित्व के लिए उसका व्यक्ति का स्वभाव, प्रकृति, आचरण या चरित्र कैसा है? कई बार देखा जाता है कि व्यक्ति पुरुषार्थ करके सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक या आध्यात्मिक क्षेत्र में अथवा शिक्षा, चिकित्सा, खेती, अनुसंधान के क्षेत्र में प्रशासनिक-न्यायिक या मीडिया आदि क्षेत्रों में सफल तो हो जाता है लेकिन उनकी आदतें, स्वभाव या प्रकृति में दिव्यता नहीं होती है तो लोग कहते हैं भाई इस आदमी ने काम तो बहुत किया है, कामयाबी भी हासिल की है लेकिन इस व्यक्ति का जीवन बहुत अच्छा नहीं हैं। जीवन में सफलता पाने के लिए ज्ञान-विज्ञान-अनुसंधान विविध कुशलताएं अत्यन्त पुरुषार्थ, ध्येय में निरन्तर संघर्ष, शौर्य, पराक्रम, वीरता, गंभीरता, उत्साह, धैर्य, सामूहिक रूप से जीने की कला समाज को संगठित करके बड़े लक्ष्य पाने की सामर्थ्य, त्याग व बलिदान आदि बहुत से गुण हैं जिनसे व्यक्ति जीवन में सफल होता है।
इसी तरह स्वभाव को सुन्दर बनाने के लिए भी बहुत से गुण, कर्म, स्वभाव या अभ्यास, आदते हैं या मनसा वाचा कर्मणा, मति भक्ति कृति के संयाग से अपनी प्रकृति को श्रेष्ठ, सुन्दर, दिव्य या सात्विक बनाने की एक प्रक्रिया है इसको ही हम संक्षेप से यहाँ लिखने का प्रयत्न कर रहे हैं। स्वभाव को सुन्दर बनाने का प्रथम साधन है- सदा प्रसन्नता में जीने का स्वभाव। बचपन एवं युवा अवस्था से ही हम अध्ययन से लेकर परीक्षा, परिणाम, शिक्षेतर गतिविधियों एवं पूरी जीवन शैली में इस प्रसन्नता, सहजता, सरलता, प्रेम, कृतज्ञता, अनुशासन निरभिमानिता, बड़ों का आदर, श्रेष्ठता का आदर अशुभ का अनादर, भूलों का सुधार एवं दोषों की अनावृत्ति के लिए पूर्ण प्रतिबद्धता कभी भी निराश न होकर सदा अपने कर्त्तव्य, कर्म या स्वधर्म में पूर्ण ज्ञान, पूर्ण निष्ठा एवं पूर्ण पुरुषार्थ से लगे रहना आदि ऐसे अभ्यास हैं जिससे हम सदा प्रसन्नता में जीने का अपना स्वभाव, आदत या प्रकृति बना लेते हैं या बन जाती हैं। कार्य, पुरुषार्थ या जीवन में विविध उपलब्धियाँ के साथ-साथ स्वभाव की सुन्दरता को भी हमें समान रूप से महत्व या प्राथमिकता देनी होगी। कुछ लोग मशीन की तरह काम करके कामयाबी तो हासिल कर लेते हैं लेकिन उनका जीवन बिगड़ जाता है। आहार-विचार, वाणी-व्यवहार, स्वभाव-आचरण या चरित्र की दिव्यता, प्रसन्नता, आनन्द, संतुष्टि, तृप्ति, पूर्ण संतोष, सहजता यातो खो जाती है या न्यून हो जाती है। काम बनने बनाने में जीवन नहीं बिगड़ना चाहिए। कामयाबी कम या अधिक हो तो भी जीवन की दिव्यता या आचरण की पवित्रता कम नहीं होनी चाहिए। उपलब्धियां या सफलताएं कम, ज्यादा होगी ही लेकिन आचरण की दिव्यता या प्रसन्नता सभी समान रूप में अर्जित कर सकते हैं। संसाधनों का न्यूनाधिक होना स्वभाविक या अपरिहाये है लेकिन साधना व साधन की पवित्रता से, चरित्र की पवित्रता, चित्त की प्रसन्नता या जीवन की दिव्यता सभी समान रूप् से प्राप्त कर सकते हैं। बाहर की परिस्थितियों सदा एक जैसी कभी हो ही नहीं सकती लेकिन संयम, साधना एवं श्रेष्ठ व्रतों के अभ्यास से हम अपनी मनःस्थिति को एक जैसा रखकर सदा प्रसन्नता से जीवन जी सकते हैं।
स्वभाव को सुन्दर बनाने का अत्यन्त महत्वपूर्ण उपाय या साधन है सदा उच्च चेतना, दिव्य चेतना, आत्म चेतना, गुरु चेतना, ऋषि चेतना, वेद चेतना, भागवत चेतना, या योग चेतना में जीने का अभ्यास प्रयत्न या पुरुषार्थ एक ही सत्य को कई शब्दों में लिखा है। वैदिक दिनचर्या में भोर में उठकर, प्रातःरग्नि, प्रातरिन्द्र हषा महे- मंत्रों को पाठ तथा उसके बाद योग यज्ञ एवं दिनभर कर्म योग करके योग्स्थ या ब्रहास्थ रहकर ब्रह्मभाव से ब्रह्म कर्म करते हुए अर्थात् भगवान के नाते कर्म करते हुए सदा योगमय जीवन जीना। योगमय जीवन का तात्पर्य है इस भाव निरंकार से जीवन जीना। कि सब कुछ जानने व करने का संकल्प व सामर्थ्य अर्थात् ज्ञान भाव कर्म की शक्ति के दाता भगवान् हैं। हम निमित्त मात्र है। यही ज्ञान योग, भक्ति योग या कर्म योग है। यही अष्टांग योग, राजयोग या हठयोग हैं इस योग चेतना या दिव्य चेतना से नीचे नहीं आना यदि एक क्षण के लिए प्रमाद भी हुआ तो उसी क्षण पुरुषार्थ करके अपनी निजता में आ जाने का अभ्यास। योगी का शरीर व मन अथवा स्वभाव, आदत या अभ्यास ऐसा होना चाहिए कि एक क्षण मे हम स्वयं को व्यवस्थित कर सकें। यही साधना का मर्म है। जब ऐसा जीवन जीने का अभ्यास परिपक्व हो जायेगा तो दैवी सम्पद या सात्विकता हमारा स्वभाव या प्रकृति बन जायेगी। यहीं गुणातीत या भावातीत जीवन का साधन है। यही जीवन मुक्ति, मोक्ष, अपवर्ग अथवा जीवन का निर्माण एवं निर्वाण है। यही जीवन का परम पुरुषार्थ या पुरुषार्थ चतुष्टय है।
तीसरी बात है सदा कर्मशील रहना। अखंड़ पुरुषार्थ सेवा साधनारत रहना। एक क्षण भी अकर्मण्यता, नैराश्य, आत्मग्लानि नकारात्मक में नहीं जीना। दृष्टि एवं कृति दोनों को एक साथ साधना। दृष्टि में दिव्यता के साथ अर्थात् समग्र, संतुलित, न्यायपूर्वा, समानता, एकता, स्वाधीनता व सब प्रकार की दिव्यता का दृष्टिकोण लेकर उसी के अनुरूप कृति की दिव्यता ही सुन्दर सुखी, सफल या महान जीवन का मापदंड है। यही जीवन का प्रयोजन या लक्ष्य है; हम सब आत्माओं का ऐसा ही सुन्दर स्वभाव व जीवन बनें। ऐसे पुरुषार्थ या सामर्थ्य की प्रार्थना भगवान् के चरणों में करता हूँ।
स्वामी रामदेव
लेखक
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