यज्ञ के भेद-प्रभेद
On
स्वामी यज्ञदेव
वैदिक गुरुकुलम्
प्राचीन ग्रन्थों एवं परम्पराओं में यज्ञों की बहुतायत रूप में प्रचलन रहा है। विभिन्न लाभों के लिए अनेकों प्रकार के यज्ञ किए जाते रहे हैं। आइए! इनके विधान व प्रकारों को विस्तारपूर्वक जानते हैं।
v कतिपय यज्ञों के उल्लेख अथर्ववेद में मिलते हैं। यथा-
राजसूयं वाजपेयमग्निष्टोमस्तदध्वर:।
अर्काश्वमेधावुच्छिष्टे जीवबर्हिमदिन्तम:।।
अग्न्याधेयमथो दीक्षा कामप्रश्छन्दसा सह।
अग्निहोत्रं च श्रद्धा च वषट्कारो व्रतं तप:।।
चतुर्होतार आप्रियश्चातुर्मास्यानि नीविद:।
उच्छिष्टे यज्ञा होत्र: पशुबन्धास्तदिष्टय:।।
(अथर्ववेद,11.7.7.9)
मनुष्यों को योग्य है कि परमेश्वर की आराधना करते हुए राजसूय, वाजपेय, अग्निष्टोम, अश्वमेध, अग्न्याधान, अग्निहोत्र, चातुर्मास्य एवं पशुबन्ध आदि यज्ञों से समस्त प्राणियों को आनन्द देवें।
v ऐतरेय ब्राह्मण में पाँच प्रकार के यज्ञ प्रधान माने गये हैं-
स एष यज्ञ: पञ्चविध:। अग्निहोत्रं, दर्शपौर्णमासौ, चातुर्मास्यानि, पशु, सोम इति।। (ऐतरेय ब्राह्मण, 2.3 ऐतरेय आरण्यक, 2.3.3)
v गौतम धर्मसूत्र में तीन प्रकार की यज्ञसंस्थाओं के 21 यज्ञभेदों का उल्लेख है। यथा-औपासनहोम: वैश्वदेवं पार्वणमष्टका मासिकश्राद्धं श्रवणा शूलगवेति सप्त पाकयज्ञसंस्था। अग्निहोत्रं दर्शपूर्णमासौ आग्रयणं चातुर्मास्यानि निरुढ़पशुबन्ध: सौत्रमणि पिण्डपितृयज्ञादयो दर्विहोमा इति सप्तहविर्यज्ञसंस्था।अग्निष्टोम अत्यग्निष्टोमोक्थय षोडशी वाजपेयातिरात्रप्तोर्यामेति सप्तसोमसंस्था:।।
(गौतम धर्मसूत्रणि, 8.8)
सात पाकयज्ञ- औपासन, वेश्वदेव, पार्वण, अष्टका, मासिकश्राद्ध, श्रवणा और शूलगव।
सात हविर्यज्ञ- अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, आग्रयण, चातुर्मास्य, निरुढ़पशुबन्ध, सौत्रमणि और पिण्डपितृ नामक दर्विहोम।
सात सोमयज्ञ- अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थय, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र, और आप्तोर्याम।
इसी धर्मसूत्र में ही अन्यत्र सातवें हविर्यज्ञ के (पिण्डपितृयज्ञ) को छोडक़र अग्न्यिाधान को प्रथम स्थान में गिनाया गया है।
v महर्षि कात्यायन ने कात्यायनश्रौतसूत्र के विभिन्न अध्यायों में कुछ अन्य भेदों का वर्णन किया है। वे हैं- दाक्षायणं, एकाह, द्वादशाह, अग्निचयन, अश्वमेध, अभिचार, सत्र, सोमयाग, गवायमन, राजसूय, पुरुषमेध, प्रायश्चित तथा प्रवार्य। (कात्यायन श्रौतसूत्र,अध्याय 4 से 26)
v महर्षि मनु ने आवश्यक दैनिक कर्तव्यों को पांच महायज्ञ कहा है-
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञ: पितृयज्ञस्तु तर्पणम्।
होमो दैवो बलिर्भौतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ।।
(मनुस्मृति, 3.70)
अध्यापन-कार्य ब्रह्मयज्ञ, पितरों का तर्पण पितृयज्ञ, होमकार्य दैवयज्ञ, बलिप्रदान भूतयज्ञ एवं अतिथि-सत्कार नृयज्ञ हैं।
v श्रीमद्भगवद्गीता में पांच यज्ञों का उल्लेख है। यथा-
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतय: संशितव्रता:।।
(गीता, 4.28)
द्रव्ययज्ञ, तपयज्ञ,योगयज्ञ, स्वाध्याययज्ञ और ज्ञानयज्ञ ।
उक्त ग्रन्थ में ही यज्ञ के सात्विक, राजसिक एवं तामसिक भेद किये गये हैं। यथा-
सात्विक यज्ञ:-
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मन: समाधाय स सात्विक:।। गीता, 17.11
जो यज्ञ शास्त्रविधि से नियत किया हुआ है तथा करना ही कर्तव्य है ऐसे मन को समाधान करके फल को न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह यज्ञ, सात्विक है।
राजसिक यज्ञ:-
अमिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्।।
(गीता, 17.12)
जो यज्ञ केवल दम्भाचरण के ही लिये अथवा फल को भी उद्देश्य रखकर किया जाता है, उसे राजसिक यज्ञ कहते हैं।
तामसिक यज्ञ:-
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।।
(गीता,17.13)
शास्त्रविधि से हीन, अशुद्ध, अपवित्र द्रव्यों से किया गया हो, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किये हुए यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं।
v महर्षि मनु द्वारा कहे गये ‘देवयज्ञ’ तथा गीता में कहे गये ‘द्रव्ययज्ञ’ को द्विधा विभाजित करते हुए यज्ञविवेचक विद्वानों ने लिखा है-‘द्रव्ययज्ञ, श्रौत और स्मार्त भेद से अनेक प्रकार है। जिन यज्ञों का श्रुति (मन्त्र एवं ब्राह्मण) में साक्षात् उल्लेख मिलता है, उन्हें ‘श्रौतयज्ञ’ कहते हैं। जिन यज्ञों का ऋषिलोग स्मृतियों में विधान करते है, उन्हें स्मार्त कहते हैं। गृह्यसूत्रोक्त यज्ञ भी स्मार्तयज्ञों में ही गिने जाते हैं।
इन दोनों प्रकार के यज्ञों के नैत्यिक, काम्य, नैमित्तिक ये तीन भेद हैं-
1) नैत्यिक यज्ञ-जिन को प्रतिदिन आवश्यक रूप से करना अनिवार्य है। यथा- महर्षि मनु प्रोक्त ‘पञ्चमहायज्ञ’।
2) नैमित्तिक यज्ञ- जो किसी निमित्त से किये जायें वे नैमित्तिक यज्ञ कहे जाते है। यथा-षोडश संस्कार, प्राकृतिक संयोग वा उत्पात के कारण किये जाने वाले यज्ञ (प्रदूषण निवारक यज्ञों को नैमित्तिक यज्ञ कह सकते हैं)
3) काम्य यज्ञ- जो किसी कामना विशेष से किये जायें। यथा- वर्षेष्टि, पुत्रेष्टि आदि यज्ञ।
7 हविर्यज्ञ और 7 सोमयज्ञ = 14 यज्ञ श्रोतयज्ञ कहे जाते हैं, एवं 7 पाकयज्ञों को स्मार्तयज्ञ कहते हैं। इस प्रकार यह कुल २१ यज्ञ हैं। (श्रोतयज्ञों का संक्षिप्त परिचय, युधिष्ठिर मीमांसक, पृष्ठ-7)
v वैदिक सम्पत्तिकार ने कर्म, ज्ञान तथा उपासना की दृष्टि से तीन प्रकार के यज्ञ होने का उल्लेख किया है। (वैदिक सम्पत्ति, पं. रघुनन्दन शर्मा, पृष्ठ-279)
v (ज्ञानयज्ञ तथा उपासनायज्ञ तो स्वाध्याय तप एवं योग आदि है, किन्तु श्रौत स्मार्त यज्ञ ही कर्मयज्ञ हैं) अन्य कई विद्वानों ने आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक - ये तीन प्रकार के यज्ञ कहे हैं। (कृष्ण यजुर्वेद एक अध्ययन, डॉ. वीरेन्द्र कुमार मिश्र, पृष्ठ. 27)
v आधुनिक विद्वानों ने प्रयोगभेद से लिखा है कि ‘यज्ञों को पाँच वर्गों में रखा जा सकता है- होम, इष्टि, पशुयाग, सोमयाग तथा सत्र। (गोपथ ब्राह्मण, 1.5.7)
-क्रमश:
अपने गांव या शहर में ‘यज्ञ महोत्सव’ के आयोजन हेतु सम्पर्क करें-मो.-9068565306ई-मेल-yajyavijyaanam@patanjaliyogpeeth.org |
लेखक
Related Posts
Latest News
01 Nov 2024 17:59:04
जीवन सूत्र (1) जीवन का निचोड़/निष्कर्ष- जब भी बड़ों के पास बैठते हैं तो जीवन के सार तत्त्व की बात...