जीवन की उत्पत्ति ईसाई से पहले की परंपरा (सभ्यता) पद्धतियां

जीवन की उत्पत्ति ईसाई से पहले की परंपरा (सभ्यता) पद्धतियां

डॉ. चंद्र बहादुर थापा 
वित्त एवं विधि सलाहकार- भारतीय शिक्षा बोर्ड एवं विधि परामर्शदाता पतंजलि समूह

चीन और यूनान की सभ्यता
(9) चीन की सभ्यता
  पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना के तुरंत बाद , 1954 में पहली राष्ट्रीय जनगणना द्वारा 39 जातीय समूहों को मान्यता दी गई थी। 1964 में दूसरी राष्ट्रीय जनगणना में यह बढक़र 54 हो गई , जिसमें 1965 में लोबा समूह को जोड़ा गया। अंतिम परिवर्तन 1979 में जिनो लोगों को जोडऩा था, जिससे मान्यता प्राप्त जातीय समूहों की संख्या वर्तमान में 56 हो गई। चीनी सभ्यता विश्व की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक है, जो ह्वांगहो और यांगत्सी नदियों की घाटी में पनपी थी। यह उन गिनी-चुनी सभ्यताओं में एक है जिन्होंने प्राचीनकाल में अपनी स्वतंत्र लेखन पद्धति का विकास किया। छापाखाना, कागज निर्माण, गोला बारूद, ताश, रेशम कीड़ों का पालन, चीनी मिट्टी बर्तन, पतंग उड़ाना, लेखन काल और दिशा सूचक यंत्र जैसी चीजें इसी सभ्यता की देन है। पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर चीन में मानव बसाव लगभग साढ़े बाईस लाख (22.5 लाख) साल पुराना है। झोऊ कोऊ दियन गुफा से मिले अवशेष 3 से 5.5 लाख वर्ष पुराने हैं और ये उस पेकिंग मानव के हैं जो होमो इरेक्टस था और आग का उपयोग किया करता था। गुआंगज़ी के लिऊजिआंग क्षेत्र में चीन के आधुनिक मानवों के होने के अवशेष मिले हैं, जिनमें खोपड़ी का एक भाग भी है जो 67,000 वर्ष पुराना है। यद्यपि लिऊजिआंग से मिले अवशेषों को लेकर कुछ विवाद है लेकिन जापान के ओकिनावा के मिनातोगावा से मिले एक कंकाल की आयु 18,250 ± 650 से 16,600 ± 300 वर्ष है, अर्थात आधुनिक मानव उस समय से पूर्व चीन पहुँच चुके थे। प्रथम एकीकृत चीनी राज्य की स्थापना किन वंश द्वारा 221 ईसा पूर्व में की गई, जब चीनी सम्राट का दरबार स्थापित किया गया और चीनी भाषा का बलपूर्वक मानकीकरण किया गया। 
चीनी भाषा में धर्म के लिए कोई अवधारणा नहीं
ऐतिहासिक रूप से चीनी भाषा में ‘धर्म’ के लिए कोई अवधारणा या व्यापक नाम नहीं रहा है। अंग्रेजी में, ‘लोकप्रिय धर्म’ या ‘लोक धर्म’ शब्द का इस्तेमाल लंबे समय से स्थानीय धार्मिक जीवन के लिए किया जाता रहा है। चीनी शैक्षणिक साहित्य और आम उपयोग में ‘लोक धर्म’ (चीनी: 民間宗教; पिनयिन : मिंजियान ज़ोंगजियाओ) विशिष्ट संगठित लोक धार्मिक संप्रदायों को संदर्भित करता है। चीन में धर्म विविध है और अधिकांश चीनी लोग या तो गैर-धार्मिक हैं या विश्वदृष्टि के साथ बौद्ध धर्म के संयोजन का अभ्यास करते हैं, जिसे सामूहिक रूप से चीनी लोक धर्म कहा जाता है। ‘चीनी लोक धर्म’ चीन का प्राचीन और मूल या स्थानीय धर्म है। इस धर्म में प्रकृति, ब्रह्माण्ड, ग्रह, आदि के साथ पहाड़ के देवता, गाँव का स्थानीय देवता, पूर्वजों, भूतों से लेकर ब्रह्माण्ड के शासक देवता की पूजा का प्रचलन है। इस धर्म पर भारतीय दर्शन कन्फ्यूशियस, ताओवाद और बौद्ध धर्म का काफी प्रभाव दिखाई देता  है। 
ईसा पूर्व 220 से 206 ई. तक हान राजवंश के शासकों ने अपने साम्राज्य की सीमाओं को सैन्य अभियानों द्वारा आगे तक फैलाया जो वर्तमान समय के कोरिया, वियतनाम, मोंगोलिया और मध्य एशिया तक फैला था और जो मध्य एशिया में रेशम मार्ग की स्थापना में सहायक हुआ, और चीन की संस्कृति पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। हानों के पतन के बाद चीन में फिर से अराजकता का माहौल छा गया और अनेकीकरण के एक और युग का आरम्भ हुआ। स्वतंत्र चीनी राज्यों द्वारा इस काल में जापान से राजनयिक सम्बन्ध स्थापित किए गए जो चीनी लेखन कला को वहां ले गए। 580 ईसवीं में सुई वंश के शासन में चीन का एक बार $िफर एकीकरण हुआ जो 614 ईसवीं तक रहा और गोगुर्येओ-सुई युद्धों में हार के बाद सुई वंश का पतन हो गया। इसके बाद के तेंग और सोंग वंशों के शासन में चीनी संस्कृति और प्रौद्योगिकी अपने चरम पर पहुंचे। सोंग वंश विश्व इतिहास की पहली ऐसी सरकार थी जिसने कागजी मुद्रा जारी की और पहली ऐसी चीनी नागरिक व्यवस्था थी जिसने स्थायी नौसेना की स्थापना की। 10वीं और 11वीं शताब्दी में, मुख्यत: चावल की खेती का मध्य और दक्षिणी चीन तक फैलाव और खाद्य सामग्री का बहुतायत में उत्पादन के कारण चीन की जनसँख्या दुगुनी हो गई। उत्तरी सोंग वंश की सीमाओं में ही 10 करोड़ लोग रहते थे। सोंग वंश चीन का सांस्कृतिक रूप से स्वर्णिम काल था जब चीन में कला, साहित्य और सामाजिक जीवन में बहुत उन्नति हुई। सातवीं से बारहवीं सदी तक चीन विश्व का सबसे सुसंस्कृत देश बन गया। 1271 में मंगोल सरदार कुबलाई खाँ ने युआन वंश की स्थापना की और 1279 तक सोंग वंश को सत्ता से हटाकर अपना अधिपत्य कायम किया। इसी समय यूरोप का प्रसिद्ध यात्री तथा व्यापारी मार्कोपोलो अपने पिता तथा चाचा के साथ वेनिस से चीन पहुँचा और कुबलाई खाँ के दरबार में नौकरी की, जिसका विवरण उसने अपने डायरी में वर्णन किया और लौटने पर सार्वजनिक किया, जिसके फलस्वरूप पश्चिमी देशों का ध्यान चीन की ओर गया तथा इटली के शहरों से अनेक यात्री निकट पूर्व की यात्रा करने के सिलसिले में चीन भी आये। इसके अतिरिक्त रोमन कैथोलिकों ने भी चीन से सम्बन्ध कायम करने का प्रयास किया। एक किसान ने 1368 में मंगोलों को भगा कर मिंग राजवंश की स्थापना की जो 1664 तक चला। मंचू लोगों के द्वारा स्थापित क्विंग राजवंश ने चीन पर 1911 तक राज किया जो चीन का अंतिम वंश था।
पश्चिमी देशों से चीन की यात्रा में आवागमन की असुविधाओं के चलते अनेक व्यापारिक कठिनाइयाँ उठ जाती थीं। यूरोप और एशिया के सारे व्यापारी अपने व्यापारिक जहाजों के साथ पहले लालसागर में उतरकर उसे पार करते थे और इसके बाद मिस्त्र का परिभ्रमण करते हुए वे आकर भूमध्यसागर में उतरते थे। व्यापार करने का अन्य मार्ग भी था। वे इरान की खाड़ी से अपनी व्यापारिक यात्रा प्रारम्भ करते थे। यात्रा के सिलसिले में इरान की खाड़ी से प्रस्थान कर बसरा, बगदाद, मक्का आदि देशों की यात्रा करते हुए एशिया माइनर पहुँचते थे। जहाँ उन्हें काफी समय व्यर्थ ही गंवाना पड़ता था और व्यापारियों का आर्थिक सम्बन्ध कतिपय देशों से कायम नहीं हो सकता था, यही कारण के चलते इन दिनों पूर्वी देशों के साथ पश्चिमी देश सम्बन्ध कायम नहीं कर सके। इतना ही नहीं, आगे चलकर पन्द्रहवीं सदी के उत्तराद्र्ध में उनके बचे-खुचे व्यापारी मार्ग भी अवरुद्ध हो गये। 1453 ई. में तुर्क जाति का मुहम्द द्वितीय ने कुस्तुनतुनिया पर अधिकार कर लिया और उनके व्यापारिक मार्ग को बन्द कर दिया। मंगोल शासक युआन जब तक जीवित रहा तब तक चीन से विदेशियों का कुछ-न-कुछ सम्पर्क अवश्य कायम रहा। लेकिन जैसे ही इसकी मृत्यु हुई वैसे ही ऐसा प्रतीत होने लगा कि अब उनके पारस्परिक सम्बन्ध समाप्त हो जाएँगे। लेकिन मिंग सम्राटों ने इस सम्बन्ध को पुर्नजीवित किया और पश्चिमी देशों की ओर उन्मुख हुए। समय बीतते रहने पर पश्चिमी देशों के व्यापारी पूर्वी देशों की आर्थिक सम्पन्नता (विशेषकर चीन की) विस्मरण नहीं कर पाए थे। मार्कोपोलो की डायरी उनके लिए प्रेरणा-स्रोत ही बन गयी थी फलत: पन्द्रहवीं सदी के अन्त और सोलहवीं सदी के आरम्भ के बीच इन यात्रियों की यात्रा पुन: होने लगी और उनका विस्तार भी होने लगा। इस समय स्पेनिश, डच और रुसी जातियों ने एशिया के पूर्वी तथा उत्तरी क्षेत्रों की ओर सम्बन्ध आगे बढ़ाने में सहयोग दिया। स्पेन और पुर्तगाल से प्रेरणा पाकर कोलम्बस नामक यात्री अपने साथी यात्रियों के साथ 1511 ई. में पुर्तगाली मकाओ (चीन) पहुँचे तथा स्थायी रूप से मकाओ में निवास करने लगे। चीनियों ने इन पुर्तगालियों को असभ्य तथा दुखदायक माना। इस समय अँग्रेज भी चीन आए। जब मिग वंश का शासन समाप्त हो रहा था और मंचू सम्राट शासन प्रारम्भ होने वाला था, ब्रिटेन के अँग्रेज चीन आ धमके। चीन में आगे चलकर वे ही सर्वाधिक प्रभावशाली हुए और चीन के द्वार को पश्चिमी देशों में व्यापार के हेतु खोलने का श्रेय प्राप्त किये।
पश्चिमी देशों की पूर्वी देशों में पहुँच
पूर्वी एशिया में मिंग वंश के शासन-काल में जिस, जाति का सर्वप्रथम आगमन हुआ वह पोर्तुगीज थी। 1498 ई. में वास्कोडिगामा ने अफ्रीका के समुद्र तटीय क्षेत्रों की यात्रा करते हुए भारत-भूमि पर अपने पैरों को रखा पोर्तुगाल यात्री वास्कोडिगामा को इस यात्रा से लाभ हुआ कि पश्चिमी देशों के लोगों, को प्रधानत: तत्काल में पोर्तुगीजों को, पूर्वी देशों तक पहुँचाने के मार्ग का पता लग गया। इसलिए उनका प्रस्थान तथा विस्तार अब अन्य देशों में भी होने लगा। 16वीं सदी के प्रारम्भ में ही मलक्का पर अधिकार करने के समय वे चीन पहुँच गये। चीन में उनकी पहुँच 1514 ई. में हुई। चीन आते ही वे व्यापारिक कार्यों में संलग्न हो गये। यहाँ के व्यापारी चीन से विलासप्रिय चीजों को खरीदने लगे और पश्चिमी देशों में उनका विक्रय किया जाने लगा जहाँ प्रसाधनों की माँग थी। अब तक चीन में अनेक पश्चिमी जातियाँ आ गयी थीं। 1516 ई. में पोर्तुगीज आ गये थे, 1575 ई. में स्पेनिश आ गये थे; डचों का आगमन 1604 ई. में हुआ था और अँग्रेज 1637 ई. में आये थे। पर इस समय तक अमरीकी तथा रूसी नहीं आ पाये थे। चिंग शासन-काल में इनका आगमन भी चीन में हो गया।
पोर्तुगीज अपने व्यवहार से चीनियों को प्रसन्न नहीं कर सके। इनके व्यवहार तथा आदतें अच्छी नहीं थी केवल पोर्तगीज ही बुरे नहीं थे, अन्य जातियों की भी ऐसी ही आदतें थीं। स्पेन के लोग जब अमेरिका पहुँचे तब वहाँ की मौलिक जातियों का जीवन भी उनके चलते अत्यन्त कष्टप्रद हो गया। स्पेन के लोगों के विरोध किये जाने पर भी अमेरिका नहीं छोड़ा और वहाँ बस्तियों का निर्माण कर नियमित रूप से बस गये। नियमित रूप से बसते ही वे अमेरिकन लोगों के धर्म, संस्कृति रहन-सहन वगैरह में हस्तक्षेप करने लगे। इतना ही नहीं, बस्तियों के निर्माण के साथ-साथ शनै:शनै: वे उपनिवेश निर्माण की ओर भी उन्मुख हुए इसी सिलसिले में स्पेनवासी चीन भी पहुँचे। पोर्तुगीजों के बाद स्पेनिश ही चीन आये। अमेरिका में इस जाति ने जिस प्रकार की हरकत की थी, उससे चीन के लोग परिचित ही थे। इसलिए चीन की धरती पर उपनिवेश-निर्माण का बीज लिए जैसे ही इस जाति का आगमन हुआ, वैसे ही चीनियों ने इनका विरोध करना प्रारम्भ किया। मिंग सरकार ने तो इस जाति के विरुद्ध एक जोरदार आन्दोलन भी प्रारम्भ कर दिया। यही कारण हुआ कि अमेरिका की तरह चीन में स्पेन वालों की दाल नहीं गल सकी। वे चीन में न तो अपना अस्तित्व ही कायम कर सके और न आकांक्षित बस्तियों का ही निर्माण कर सके। पोर्तुगीजों से भी व्यापारिक सम्बन्ध कायम हो गये थे। इनसे यह सम्बन्ध भी कायम नहीं हो सका। फिर भी स्पेनिश जिद्द के पक्के थे। अमेरिका में जिस प्रकार वे बलपूर्वक रहने लगे थे उसी प्रकार वे चीन में भी रहने का प्रयास किये। इनका एक जत्था चीन के प्रसिद्ध बन्दरगाह कैण्टन में ठहर गया और चीन से व्यापारिक सम्बन्ध कायम करने का प्रयास करने लगा। अन्त में, अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध (1557 ई.) में अपने कार्य में उन्हें सफलता मिली और मकाओ में अपनी बस्ती का निर्माण कर वे रहने लगे।
इसी समय पश्चिम की अनेक धार्मिक मिशनरियाँ भी चीन आयीं। चीन में इन मिशनरियों ने धर्म का प्रचार करना प्रारम्भ किया। प्रारम्भ में इन मिशनरियों के व्यवहार अच्छे थे, लेकिन बाद में उनकी स्वार्थपूर्ण नीति से चीन के लोग परिचित हुए। इसी समय अँग्रेजों तथा डचों का भी आगमन चीन में हुआ। लेकिन यहाँ यह बात याद रखनी चाहिए कि मिंगवंश के शासन में चीन का पश्चिमी देशों से दो प्रकार के सम्बन्ध कायम हुए- एक व्यापारिक सम्बन्ध और दूसरा धार्मिक सम्बन्ध। पश्चिम के देश दक्षिण के भूखण्डों का मकाओ तथा कैण्टन से व्यापार करते थे। पश्चिम के व्यापारी चीन में अपने देशों से अनाज सम्बन्धी अनेक पौधे तथा तम्बाकू लाए। तम्बाकू का प्रचार इन लोगों ने काफी किया। इन्हीं के चलते चीन के अधिकांश लोग तम्बाकू का सेवन करने लगे। इसी प्रकार चीन से उनका धार्मिक सम्बन्ध भी कायम था। चीन के भीतरी इलाकों में पश्चिमी देशों की मिशनरियाँ धर्म-प्रचार का कार्य करती थी। मंगोलों के शासन के बाद चीन में ईसाइयों का अन्त हो चला था और उनका प्रभाव घटने लगा था। लेकिन मिंगवंश के शासन के अन्तिम वर्षों में रोमन कैथालिकों ने इन ईसाइयों तथा उनकी मिशनरियों को पुनरुज्जीवित किया। इसी समय ब्रिटेन, फ्रांस वगैरह से फ्रान्सिसकन, आगस्टीनियन, जुसेइट, डोमिनियन आदि अनेक धार्मिक सम्प्रदाय के लोग चीन पहुँच गये। सोलहवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में ही जेसुइट सम्प्रदाय की प्रधानता चीन में कायम होने लगी। इस सम्प्रदाय का लोकप्रिय प्रचार फ्रान्सिस जेवियर्स था जिससे दक्षिणी तथा पूर्वी एशिया में इस सम्प्रदाय को लोकप्रिय बनाने का अथक प्रयास किया। इसी प्रचारक ने इस सम्प्रदाय का प्रचार चीन में भी किया। वस्तुत: जेवियर्स के चलते ही चीन में यह सम्प्रदाय जीवित हो सका। अभी जेविसर्य को अपने कार्य में पूरी सफलता भी नहीं मिली थी कि 1556 ई. में वह संसार से चल बसा। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके कार्य का भार मैथहर रिक्की ने अपने कंधों पर लिया। रिक्की इटली का निवासी था। जेसुइट सम्प्रदाय की लोकप्रियता बढ़ाने के लिए उसने जी जान लगा दी रिक्की की प्रतिभा बहुमुखी थी। वह ज्योतिष तथा गणित का प्रकांड विद्वान था। इतिहासकारों का अनुमान है कि सम्प्रति चीन में ज्योतिष तथा गणित का कोई भी ऐसा विद्वान नहीं था जो रिक्की की समता कर सके। अपने प्रतिभा के चलते ही उसने चीन साहित्य का भी अध्ययन किया। यह चीनी साहित्य रिक्की के लिए पूर्णत: नया विषय था, फिर भी अपने अध्यवसाय तथा प्रतिभा के चलते उसने चीनी साहित्यकारों के बीच काफी प्रतिष्ठा पायी। अपने धर्म का अध्ययन तो उसे था ही, उसने कनफ्यूसियस के धर्म तथा ईसाई धर्म का काफी गहरा अध्ययन किया और दोनों धर्मों की समानता तथा असमानता को एक विद्वान के रूप में रखने का प्रयास किया। चीन की राजधानी बीजिंग में उसने अपना निवास स्थल बनाया। इसी समय फिलीपीन से स्पेनियाई भी चीन आया।
1644 ई. में मिंग वंश का शासन समाप्त हो गया। उत्तर में मंचू नामक विजेताओं ने मिंग को परास्त किया। मंचू मंचूरिया के रहने वाले थे। सोहलवीं सदी के उत्तराद्र्ध तथा सत्रहवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में उन्होंने अपने को शक्तिशाली बना लिया और मिंग से मुकडेन अपहृत कर लिया जो उनकी राजधानी भी थी। मुकडेन को वे भी अपनी राजधानी बनाए। चीन में रहने वाले मंगोलों ने भी इच्छा या अनिच्छा से मंचूओं के शासन को स्वीकार कर लिया। मंचूओं ने चीन की दक्षिणी दीवार तक अपनी राज्य-सीमा बढ़ाने का प्रयास किया। इसी समय जब चीन में मिंग के विरुद्ध असन्तोष की भावना का जन्म हुआ तब मौका पाकर मंचूओ ने पेकिंग पर अपना अधिकार कर लिया और तभी से वे चीन में शासन करने लगे। काँगहसी (1661-1728 ई.) और चीन लुंग (1736-1796 ई.) इस वंश के सर्वाधिक प्रतापी राजा हुए। दीर्घकाल तक मंचूओ ने चीन पर शासन किया।
क्रमश:

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