तीर्थों की यात्रा का माहात्म्य
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प्रो. कुसुमलता केडिया
वनवास के समय जब शेष पाण्डव काम्यक वन में तपस्वी जीवन जी रहे थे, उस समय अर्जुन तीर्थ यात्राओं पर गये हुये थे। एक दिन जब महाराज युधिष्ठिर अर्जुन की प्रतीक्षा कर रहे थे और उनकी चिंता बहुत अधिक बढ़ गई, तो आकाश मार्ग से चलकर देवर्षि नारद मानो उनके मन की बात जानकर उनकी सभा में उपस्थित हुये। धर्मराज ने उठकर उनका यथायोग्य सत्कार किया। महाराज युधिष्ठिर का चिंतित मुख देखकर देवर्षि नारद ने उनसे चिंता का कारण जानना चाहा। युधिष्ठिर ने कहा कि अनुज अर्जुन ऋषि वेदव्यास के निर्देश पर तीर्थयात्रा पर गये हैं। कृपया हमें तीर्थयात्रा के फल के विषय में बताइये। इस पर देवर्षि ने पितामह भीष्म से ऋषि पुलस्त्य द्वारा बताई गई जानकारी का स्मरण दिलाया और उसका सार बताया।
देवर्षि ने बताया कि ऋषि पुलस्त्य ने जानकारी दी थी कि तीर्थ का फल ऐसे व्यक्ति को ही मिलता है, जो अहंकार से रहित होकर तीर्थयात्रा करें और जितेन्द्रिय तथा अल्पाहारी और अपरिग्रही होकर तीर्थ में जाये। तीर्थ में कभी भी झूठ नहीं बोलना चाहिये और क्रोध नहीं करना चाहिये। अन्यथा तीर्थ के फल नहीं मिलते। तीर्थ का सर्वाधिक महत्वपूर्ण फल यह है कि जिन व्यक्तियों के पास धन न हो और इसलिये जो द्रव्यों के द्वारा किये जाने वाले यज्ञ न कर पायें, उन्हें भी यज्ञों के समान ही फल बल्कि यज्ञ के फल से भी बढक़र सुफल तीर्थयात्रा से मिलते हैं। बड़े-बड़े अग्निष्टोम आदि यज्ञों द्वारा यजन करने से मिलने वाले फल से भी अधिक फल तीर्थयात्रा से प्राप्त होता है। कतिपय महत्वपूर्ण तीर्थों के फल निम्नांकित हैं :-
पुष्कर तीर्थ - ब्रह्मा जी के तीर्थ पुष्कर में सदा ही आदित्य, वसु, रूद्र और साध्य देव रहते हैं। वहाँ जाकर तप करने पर महान पुण्य प्राप्त होता है। पुष्कर में स्नान करने से और देवताओं की पूजा करने से तथा पितरों का तर्पण करने से अश्वमेधा यज्ञ से दस गुना फल मिलता है। वहाँ जाकर कम से कम एक विद्वान ब्राह्मण को भोजन अवश्य कराइये। विशेषत: कार्तिक मास की पूर्णिमा में पुष्कर तीर्थ में स्नान करने से महापुण्य प्राप्त होता है। पुष्कर में पवित्रतापूर्वक संयम, नियम के साथ बारह वर्षों तक निवास करने पर मनुष्य को सम्पूर्ण यज्ञों का फल मिलता है और व्यक्ति मृत्यु के बाद ब्रह्मलोक को जाता है।
जम्बू मार्ग - जम्बू मार्ग देवताओं से सेवित तीर्थ है और वहाँ जाने से मनुष्य की मनोकामनायें पूरी हो जाती हैं।
अगस्त्य सरोवर - अगस्त्य सरोवर में तीन दिन स्नान और पूजन करने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त होता है। वहाँ रहकर फलाहार करते हुये पूजा करने पर महान पुण्य उदित होता है।
कण्व आश्रम - ऋषि कण्व के आश्रम में जाते ही मनुष्य समस्त पापों के प्रभाव से मुक्ति पा जाता है। उसे धर्मारण्य कहा जाता है।
महाकाल तीर्थ - महाकाल तीर्थ में कुछ समय तक नियमित रहकर साधना करने से अश्वमेधा यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
नर्मदा तट - पवित्र नर्मदा नदी तीनों लोकों में विख्यात हैं। उनके तट पर जाकर स्नान, तर्पण और देव पूजन करने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
दक्षिण समुद्र की यात्रा - नर्मदा से दक्षिण जाकर इन्दु महासागर की यात्रा करने से पुन: महान पुण्य फल की प्राप्ति होती है।
आबू तीर्थ - पवित्र अर्बुद (आबू) पर्वत स्वयं में एक महान तीर्थ है। पूर्व में यहाँ एक गहरा विवर (विशाल गड्ढा) था। यहाँ एक रात रहने से हजारों गोदान का फल प्राप्त होता है।
प्रभास तीर्थ - प्रभास तीर्थ में स्नान एवं देव पूजन से अनेक यज्ञों का फल प्राप्त होता है।
सरस्वती-समुद्र संगम - सरस्वती और समुद्र के संगम में जाकर स्नान करने से हजार गोदान का $फल तो मिलता ही है, दीर्घकाल तक स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है।
वरूण तीर्थ ‘समुद्र’- वरूण तीर्थ यानी समुद्र में तीन दिन स्नान करने से मनुष्य को कांति और तेज प्राप्त होता है तथा उसे अश्वमेघ यज्ञ का $फल मिलता है।
द्वारका तीर्थ - द्वारका में जाकर नियमित पूजा अर्चना करते हुये कुछ दिन निवास करने से और पिण्डारक तीर्थ में पूजन करने से व्यक्ति को प्रचुर स्वर्ण की प्राप्ति होती है।
तीर्थराज प्रयाग - इसी प्रकार महर्षि नारद ने महाराज युधिष्ठिर को ऋषि पुलस्त्य द्वारा बताये गये तीर्थों के पुण्य फल विस्तार से बताते हुये गंगा यमुना के संगम स्थल तीर्थराज प्रयाग की महिमा बताई। जहाँ सर्वप्रथम ब्रह्मा जी ने यज्ञ किया था। उस प्रकृष्ट याग के किये जाने के कारण ही इस स्थान का नाम प्रयाग हुआ। यह सम्पूर्ण जगत में विख्यात परम पवित्र और परम पुण्यमय स्थल है। इसके पास ही ऋषि अगस्त्य का आश्रम है। यह भी एक पवित्र तीर्थ है। प्रयाग का विस्तार प्रतिष्ठान ‘झूंसी’से वासुकि नाग के जलाशय तक है और कंबल नाग एवं अश्वतर नाग तथा बहुमूलक नाग तक है। यह प्रजापति के पवित्र स्थल के रूप में तीनों लोक में विख्यात है। प्रयाग, प्रतिष्ठानपुर एवं अलर्कपुर में तीन पवित्र कूप हैं। गंगा एवं यमुना के बीच की समस्त भूमि पृथ्वी की सबसे समृद्धिशाली भूमि है और प्रयाग उसका मर्म भाग है। जहाँ तीनों नदियाँ गंगा, यमुना एवं सरस्वती मिलती हैं वह पवित्र त्रिवेणी है। उसमें स्नान से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। प्रयाग के अन्तर्गत 20 से अधिक उपतीर्थों की महिमा भी बताई गई है। साथ ही माघ मास में संगम स्नान की महत्ता भी कही गई है। नारदजी ने बताया कि संगम में स्नान करने वाले व्यक्ति को दस अश्वमेधा यज्ञों का $फल मिलता है और उसके कुल का उद्धार हो जाता है।
काशी - काशी या वाराणसी पवित्रतम तीर्थों में से एक है और वहाँ सैकड़ों उपतीर्थ हैं। भगवान विश्वनाथ वाराणसी के रक्षक देव हैं। ‘वनपर्व के साथ ही अनुशासन पर्व में भी काशी की महिमा बताई गई है।’ वाराणसी, काशी, अविमुक्त, आनंदकानन और महाश्मशान - ये काशी के ही नाम हैं। भगवान शिव की प्रिय नगरी होने से यह आनंदकानन या आनंदवन है और इसीलिये यह महाश्मशान भी है। नारद जी ने बताया कि यहाँ आने वाला और रहने वाला व्यक्ति भगवान विश्वनाथ के दर्शन करते ही समस्त पापों से मुक्त हो जाता है और यदि उसकी काशी में मृत्यु हो जाती है तो उसे मोक्ष प्राप्त होता है।
अयोध्या - ऋषि पुलस्त्य ने पितामह भीष्म को बताया था कि अयोध्या परम पवित्र तीर्थ है। वहाँ जाकर स्नानपूर्वक तीन दिन उपवास करने वाला मनुष्य वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त करता है और उसके कुल का उद्धार हो जाता है तथा वह एक हजार गौओं के दान का फल प्राप्त करता है।
चित्रकूट - मंदाकिनी के तट पर स्थित चित्रकूट का दर्शन समस्त पापों का नाश कर देता है और परम गति प्रदान करता है। चित्रकूट क्षेत्र में स्थित भरत कूप में समस्त पवित्र नदियाँ और चारों समुद्र निवास करते हैं। उसके जल में स्नान करने से पुरुष परम पवित्र होकर परम गति को प्राप्त करते हैं।
गया तीर्थ - राजर्षि गय एक विख्यात सम्राट थे। उन्होंने बहुत बड़ा यज्ञ किया और असंख्य दक्षिणायें बाटीं। वहाँ वर्ष भर याचकों को प्रतिदिन भोजन और दान दिया जाता था। चारों और वेदमंत्रों की ध्वनि गूंजती रहती थी जो स्वर्ग तक पहुँचती थी। वह यज्ञ अभूतपूर्व था और उनके कारण गया तीर्थ परम पवित्र तीर्थ है। ब्रह्म हत्या जैसे घोर पाप को करने वाला व्यक्ति भी प्रेतशिला एवं क्रौंचपदी तथा निरविन्द की पहाड़ी पर पिण्डदान करने से विशुद्ध हो जाता है। गया क्षेत्र में अनेक तीर्थ हैं, जिनका वर्णन वनपर्व के साथ ही अनुशासन पर्व में भी हुआ है।
कुरूक्षेत्र - महर्षि नारद ने कुरूक्षेत्र का महत्व बताते हुये उसे भी परम पवित्र बताया और वहाँ जाकर उपासना करने से अनेक सिद्धियों की प्राप्ति बताई। ऋषि पुलस्त्य के अनुसार कुरूक्षेत्र ब्रह्मवेदी है। जहाँ ब्रह्मर्षिगण सदा निवास करते हैं, वहाँ रहकर पूजा उपासना करने से अक्षय फल की प्राप्ति होती है। कुरूक्षेत्र तीनों लोकों के निवासियों के लिये विशिष्ट हैं। इस विषय में देवर्षि नारद द्वारा कहे गये श्लोक निम्नांकित हैं -
त्रयाणामपि लोकानां कुरुक्षेत्रं विशिष्यते।
पांसवोऽपि कुरुक्षेत्रद् वायुना समुदीरिता:।।
अपि दुष्कृतकर्माणं नयन्ति परमां गतिम्।
दक्षिणेन सरस्वत्या उत्तरेण दृषद्वतीम्।।
ये वसन्ति कुरुक्षेत्रे ते वसन्ति त्रिविष्टपे।
कुरुक्षेत्रे गमिष्यामि कुरुक्षेत्रे वसाम्यहम्।।
अप्येकां वाचमुत्सृज्य सर्वपापै: प्रमुच्यते।
ब्रह्मवेदी कुरुक्षेत्रं पुण्यं ब्रह्मर्षिसेवितम्।।
तस्मिन् वसन्ति ये मत्र्या न ते शोच्या: कथंचन।।
तरन्तुकारन्तुकयोर्यदन्तरं, रामहृदानां च मचक्रुकस्य च।
एतत् कुरुक्षेत्रसमन्तपन्चकं, पितामहस्योत्तरवेदिरुच्यते।।
(वनपर्व, अध्याय 83, श्लोक 203-208)
अर्थात् भूमंडल में नैमिष, पुष्कर और कुरूक्षेत्र अतिविशिष्ट तीर्थ हैं। इनमें भी कुरूक्षेत्र सर्वाधिक विशिष्ट है। वहाँ जो धूल उड़ती है, वह जिस व्यक्ति पर पड़ती है वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। सरस्वती नदी के दक्षिण और दृषद्वती के उत्तर में कुरूक्षेत्र है। यह परम पवित्र है। इसमें निवास करने की कामना करने वाला भी सब पापों से मुक्त हो जाता है। यह ब्रह्मा जी की वेदी है। कुरूक्षेत्र ही समन्तपंचक है। जिसे ब्रह्मा जी की उत्तर वेदी कहते हैं।
वस्तुत: वनपर्व के अन्तर्गत अधयाय 80 से 145 तक हजारों तीर्थों का माहात्म्य का वर्णन देवर्षि नारद ने महाराज युधिष्ठिर से किया। जो धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त महत्व का है। तीर्थों का यह महत्व सुनकर तीर्थयात्रा पर गये हुये अर्जुन के विषय में युधिष्ठिर की चिंता समाप्त हुई और उन्होंने वनवास की समाप्ति के बाद कौरवों से भीषणतम युद्ध की योजना बनानी शुरू की। इस दृष्टि से तीर्थयात्रा पर्व का बहुत महत्व है। इस तीर्थयात्रा में जाने से अर्जुन को जो अनेक पुण्य$फल और सिद्धियाँ प्राप्त हुईं तथा भीमसेन द्वारा सौगन्धिक कमल लाने के लिये जो यात्रा की गई, जिसमें उनकी त्रेतायुग से निरंतर तपस्या कर रहे चिरंजीवी, सर्वज्ञ महायोगी श्री हनुमानजी से भेंट हुई, उनका वर्णन करते हुये श्री वेदव्यास जी ने अर्जुन के गंधमादन पर्वत पर लौट कर आने तक की कथा कही है।
-क्रमश:
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