समकालीन समाज में लोकव्यवहार को गढ़ती हैं राजनीति और सरकारें

समकालीन समाज में लोकव्यवहार को गढ़ती हैं राजनीति और सरकारें

प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

   हिन्दू समाज में सामाजिक संस्थायें अत्यंत सशक्त रही हैं। क्योंकि राजा का कर्तव्य था  समाज की परंपराओं और मान्यताओं को संरक्षण देना तथा सबको उनकी मर्यादा में गतिशील रखना। इसे ही कहा जाता रहा है - ‘वर्णाश्रम धर्म प्रतिपालन।’ परंतु 15 अगस्त 1947 के बाद से भारत मे हिन्दुओं के द्वारा पहली बार स्वयं ही धर्म से उदासीन ऐसा शासनतंत्र रचा गया, जिसने राज्य को समाज की समस्त गतिविधियों, क्रियाशीलताओं और पुरुषार्थ परंपराओं का नियंत्रक और शास्ता बना दिया। इस राज्य में सनातन धर्म के धर्म शास्त्रों की कोई विधिक न्यायिक शक्ति मान्य नहीं की गई। अत: धर्मशास्त्रों के विद्वानों की भी विधिक निर्णय और न्याय के संदर्भ में कोई अधिकृत सत्ता नहीं होती। इसके स्थान पर एंग्लोक्रिश्चियन कानूनों और विधिक मान्यताओं तथा व्यवस्थाओं को ही अधिकृत और विधि विहित घोषित किया गया। समाज की किसी भी गतिविधि के सही-गलत, उचित-अनुचित और विधि सम्मत या विधि विरूद्ध होने की कसौटी ये कानून ही बने। लोक शांति प्रक्षुब्ध न हो और हिन्दुओं का विक्षोभ व्यापक नहीं हो, इसलिये एंग्लोक्रिश्चियन कानून और विधि व्यवस्था के पदाधिकारियों द्वारा अपनी बुद्धि और सुविधा के अनुसार यदाकदा धर्मशास्त्रों का भी संज्ञान या दृष्टांत लिया जाता रहा अथवा धार्मिक मान्यताओं को समायोजित किया जाता रहा, परंतु विधिक शक्ति केवल एंग्लोक्रिश्चियन विश्वासों और मान्यताओं वाली संस्थाओं के पास ही रही। प्रारंभ में कुछ वर्षों तक प्रबुद्ध हिन्दुओं का भी किन्हीं कारणों से इस वास्तविकता की ओर ध्यान नहीं गया, परंतु जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, ये वास्तविकतायें उभरकर सामने आ रही हैं। इनको कुछ उदाहरणों से सरलता से समझा जा सकता है। 
साहित्य, संगीत और कलायें
साहित्य, संगीत और कलाओं के क्षेत्र में इसे सरलता से समझा जा सकता है। पहले शास्त्रीय संगीत, गायन और नृत्य की सामाजिक गतिविधियाँ और कलात्मक अभ्यास भी संबंधित गुणी कलाकारों द्वारा अपने स्तर पर तो होता ही था, समाज में उनका आयोजन और उनकी परख भी महाजन या व्यापक समाज ही करते थे। निश्चय ही इसमें स्वयं राजा और राजन्य वर्ग भी शामिल होते थे, परंतु राजा के स्तर पर कभी भी ऐसी कोई संस्थायें नहीं बनाई जाती थी और न ही कोई नीति बनाई जाती थी कि अमुक प्रकार के संगीत या संगीतज्ञ, नृत्य या नर्तक और गायन या गायक को ही विशेष संरक्षण दिया जायेगा, परंतु 15 अगस्त 1947 के बाद इन विषयों में भी नीतियाँ बनाई जाने लगी और उनके क्रियान्वयन का मुख्य अधिकार उन प्रशासकों के पास रहा और है, जिनको वस्तुत: विधि व्यवस्था एवं शासनतंत्र का ही प्रशिक्षण दिया जाता है। $फलस्वरूप ये प्रशासक या तो अपनी रूचियों के अनुसार अथवा विभागीय प्रमुख यानी मंत्रियों के अनुसार संरक्षण में स्पष्ट भेदभाव करते है। इस विषय में समाज का उन्हें कोई संकोच नहीं होता। कुछ वर्ष बीतते-बीतते संबंधित विभागीय अ$फसरों में अपने मन का निर्णय लेने के प्रति इन विषयों में उत्साह बढ़ता गया है। 
परिणाम यह हुआ है कि समाज में प्रतिष्ठा और प्रचार ऐसे ही गुणीजनों का होता है जिनको शासकीय संस्थाओं और शासन के स्तर पर सम्मानित किया गया हो। अ$फसर चूंकि इन विषयों के जानकार नहीं होते। अत: उनके निर्णयों का आधार गुणवत्ता नहीं, निजी झुकाव होते हैं। 
यह बात साहित्य के क्षेत्र में और अधिक उभर कर आई। जब शासन पर कम्युनिस्ट झुकाव वाले नेताओं और अ$फसरों का लगभग एकाधिकार हो गया। कम्युनिस्ट और समाजवादी लेखकों, कवियों आदि को उनकी योग्यता के अनुपात में कई गुना महत्व और प्रचार दिया जाने लगा और साथ ही मानदेय, सम्मान, पुरस्कार आदि भी उन्हें ही दिये जाने लगे। लोकतंत्र की लाज रखने के लिये थोड़ा बहुत अन्य धारा के अनुकूल लोगों को भी पूछा जाता रहा।
यह स्थिति इतनी व्यापक हो गई कि अब शासन में आने वाला हर दल इसे ही स्वाभाविक मानता है। वह अपनी रूचि और अपने संगठन या पार्टी से जुड़े लेखकों, कवियों आदि को ही महत्व देता है और उनका ही संचार माध्यमों से प्रचार किया जाता है तथा उन्हें ही पद-प्रतिष्ठा, सम्मान-पुरस्कार आदि दिये जाते हैं। सामान्यत: अधिक प्रतिभाशाली हिन्दू लोग कभी भी यूरोपीय मतवादों में आस्था वाले किसी दल के सदस्य होने की रूचि नहीं रखते। ऐसी स्थिति में वे उपेक्षित और अनाम रह जाते हैं या उन्हें अल्प ख्याति ही मिल पाती है। 
यह स्थिति हिन्दू समाज की परंपरा के नितांत प्रतिकूल है, परंतु अब इसके पक्ष में हर पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं में उत्साह रहता है। प्राय: वे इसे स्वभाविक मान लेते हैं। उन्हें लगता है कि अभी तक कांग्रेस ने, कम्युनिस्टों और वामपंथियों को बढ़ावा दिया तो अब हम अपने संगठन और अपनी पार्टी से जुड़े लोगों को बढ़ावा दें। ऐसा परिवेश बन गया है कि यह बात अब संबंधित लोगों को स्वाभाविक लगती है, परंतु ध्यान देने की बात यह है कि इस प्रक्रिया में वास्तविक प्रतिभाशाली कवि, लेखक आदि तो सामान्यत: उपेक्षित ही रह जाते हैं या उन पर मानसिक दबाव बनता है कि वे शासक दल से जुड़ें। इस जुडऩे में वैसे तो कोई समस्या नहीं है परंतु राजनैतिक संगठनों और दलों से जुडऩा बहुत अधिक समय और शक्ति मांगता है और विद्या या कला या शास्त्र ज्ञान में ही विशेष प्रवृत्ति रखने वाली प्रतिभाएं कभी भी इन गतिविधियों के लिये अधिक समय और शक्ति नहीं लगा पाती, क्योंकि उनमें इस ओर कोई रूझान ही नहीं होता। तभी तो वे अपने क्षेत्र में विशेष दक्षता प्राप्त कर पाती हैं। 
यह स्थिति इतनी व्यापक हो गई है कि अब खुलकर दिखाई पडऩे लगी है, परंतु महत्व की बात यह है कि इस ओर किसी भी महत्वपूर्ण या प्रभावशाली व्यक्ति ने चर्चा करना तक उचित नहीं माना है। मान लिया गया है कि यही स्वाभाविक है, परंतु यह तो हिन्दू समाज का ईसाई या मुस्लिम मानस अथवा कम्युनिस्ट मानस में ढल जाना है। 
सभी जानते हैं कि ये तीनों ही धारायें बौद्धिक दृष्टि से अत्यंत संकीर्ण हैं और अन्यों के प्रति अत्यधिक असहिष्णु हैं। इसीलिये इन तीनों ही धाराओं में ‘सहृदय’, ‘गुणीजन’, ‘रसिक’, ‘सामाजिक’ जैसे पद हैं ही नहीं। इनके समानार्थी या पर्याय कोई भी पद इन धाराओं में नहीं है। उनके स्थान पर ‘ईमान लाने वाला’, ‘$फेथ$फुल’ या ‘कमिटेड’ जैसे पद ही वहाँ प्रचलित हैं। जो स्पष्ट रूप से एकांगिता और संकीर्णता के द्योतक हैं तथा सार्वजनिक रूप से ऐसी एकांगिता और संकीर्णता को न केवल वैधता देते हैं अपितु गौरव भी देते हैं। स्पष्ट है कि इसके कारण हिन्दू समाज की उदात्त और व्यापक परंपरा का क्रमश: विलोप होता चला जायेगा। दलगत खेमों और खाचों में विद्या, कला और साधना के अनुशासन भी कसे जाने लगेंगे। जो उनके विघटन और विकार का ही कारण बनेंगे। इस दिशा में राजनैतिक क्षेत्र में कोई विचार करने वाले लोग तो नहीं ही बचे हैं, चिंता और आश्चर्य की बात यह है कि शास्त्र, विद्या और कला के क्षेत्र में भी इन विषयों पर या इन प्रवृत्तियों पर विचार होता नहीं दिख रहा है। इस प्रकार बिना सार्वजनिक घोषणा और निर्णय के हिन्दू समाज क्रमश: यूरोक्रिश्चियन या मुहम्मदन या कम्युनिस्ट मतवादी समूहों जैसा बनता जायेगा और रूपान्तरित होता जायेगा।
यह सनातन धर्म और सार्वभौम मानव मूल्यों तथा सत्य और ऋत के प्रति निरपेक्ष होते चले जाना है। जो भारतवर्ष के मूल स्वभाव के ही विलोप का कारण बन सकता है। अत: इस विषय में शास्त्र सम्मत व्यवहार की तथा सनातन धर्म की प्रतिष्ठापक न्याय पद्धति की पुन: प्रतिष्ठा आवश्यक है। इसकी पहल करना श्रेष्ठ शासक का राजधर्म है।

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