कठोपनिषद् में आत्मा का स्वरूप

कठोपनिषद् में आत्मा का स्वरूप

शुकदेव शास्त्री

  • कठोपनिषद्: आत्मविद्या का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है, जो यम-नचिकेता-संवाद के नाम से प्रसिद्ध है।
ऋषि उद्दालक ने सर्वमेध यज्ञ के समापन पर जब बूढ़ी गायों को पुरोहितों को दान देना शुरू किया, तब उसके एकमात्र पुत्र नचिकेता ने खिन्न होकर पूछा कि उसे किसे दान में देंगे। तीन बार पूछने पर उसके पिता नाराज हो गये और गुस्से में कहा- ‘मैं तुझे मृत्यु को दे दूंगा नचिकेता ने कहा- यह कोई असामान्य बात नहीं है, क्योंकि प्राणी तो अनाज के समान पकते रहते हैं और फिर उससे उत्पन्न होते हैं। मैं इनमें से बहुतों का पूर्ववर्ती होऊँगा और अनेकों का परावर्ती।
और नचिकेता मृत्युदेवता यमराज के घर पहुँच गये। उस समय यमराज घर पर नहीं थे। नचिकेता को बिना खाये-पिये तीन रातें बितानी पड़ीं। बाहर से लौटने पर यमराज को जब ज्ञात हुआ, तो उन्होंने नचिकेता को तीन वर मांगने के लिए कहा, क्योंकि नचिकेता ने तीन रातें उनके घर पर गुजारी थीं। नचिकेता ने प्रथम वर के रूप में अपने पिता की पूर्ववत् शान्ति और प्रसन्नता के लिए वर मांगा और द्वितीय वर के रूप में उन्होंने स्वर्ग ले जाने वाली अग्रि का ज्ञान देने की प्रार्थना की।
तीसरा वर मांगते हुए नचिकेता ने कहा कि लोगों के मन में यह शंका होती है कि मृत्यु के पश्चात् आत्मा रहता है और कुछ मनुष्यों की धारणा है कि नहीं रहता। इस शंका का निवारण करने वाली विद्या का मुझे उपदेश दीजिये। यह मेरा तीसरा वर है।
यमराज ने कहा- इस विषय पर पहले देवताओं को भी शंका हुई थी। इसे जानना बड़ा कठिन है। इसलिए कोई अन्य वर मांगो। अपनी बात पर अडिग रहते हुए नचिकेता ने कहा मैं दूसरा या अन्य वर नहीं मांगूँगा। ऐसे में यमराज ने कहा कि स्वर्ग की प्राप्ति, स्त्री-सुख, अपरिमित सम्पदा आदि मैं देने को तैयार हूँ, ये ले लो। नचिकेता ने कहा कि ये सब क्षणिक हैं और धन से व्यक्ति कभी भी सन्तुष्ट नहीं हो सकता- ‘ वित्तेन तर्पणीयो मनुष्य:’ इसलिए मेरा तीसरा वर यही है। तब यमराज ने उपदेश देना शुरू किया कि एक श्रेय है और दूसरा प्रेय। इनमें से प्रथम को ग्रहण करने वालों का कल्याण होता है और प्रेय को स्वीकार करने वाला लक्ष्य से भ्रष्ट हो जाता है। मूढ़ लोग धन के मोह से प्रमादी और भ्रान्त हो जाते हैं और वे परलोक की नहीं सोचते। वे अविद्या में रहते हुए एवं स्वयं को पण्डित मानते हुए उसी तरह कष्ट पाते हैं, जैसे किसी अन्धे  व्यक्ति को कोई अन्धा ही जब आगे ले जाता है।
आत्मविद्या के बारे में बताते हुए यमराज ने कहा कि आत्मविद्या का वक्ता कोई विरल ही होता है और श्रोता भी कोई कुशल मनुष्य। इसकी जानकारी प्रवचन से या तर्क से नहीं हो सकती। हे नचिकेता! तुमने कामनाओं की पूर्ति, जगत् की प्रतिष्ठा, यश की अनन्तता और भयरहित प्रशंसनीय महिमा आदि को छोड़ दिया है, तुमने विवेक और धैर्य का परिचय दिया है। इसलिए मैं कहूँगा कि अध्यात्म विद्या की प्राप्ति से धीर व्यक्ति आत्मा को जानकर हर्षशोक से मुक्त हो जाता है। इस तरह यमराज ने आत्मविद्या का विस्तार से नचिकेता को उपदेश दिया।

ओ३म और आत्मा:

सारे वेद जिस पद को सिखाते हैं, जिसके लिए सारी तपस्या की जाती है और जिसकी प्राप्ति की इच्छा से ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है, उस पद को मैं तुम्हें संक्षेप में बताता हूँ। वह ओ३म् है। यही अक्षर ब्रह्म है, यही परम अक्षर है। इसी अक्षर को जानने के बाद मनुष्य वह जानता है, जिसकी इच्छा होती है। यह तो कभी जन्म लेता है और कभी मरता है। यह तो कहीं से उत्पन्न हुआ है और कहीं समाप्त होता है। यह अज है, नित्य है, शाश्वत है और पुराण है। यह शरीर के हत होने पर भी हत नहीं होता। जो लोग सोचते हैं कि मैं मारा गया हूँ या कोई मुझे मारने वाला है, वे दोनों ही सही स्थिति को नहीं जानते, क्योंकि वह तो मरता है और मारता है।
आत्मा को रथी जानो और शरीर को रथ। इसी प्रकार बुद्धि सारथी है और मन लगाम, इन्द्रियाँ घोड़े हैं और विषय इनके घास (खाद्य) हैं। इस प्रकार आत्मा मन और इन्द्रियों से युक्त होने के कारण भोक्ता कहा जाता है। विषय इन्द्रियों से परे हैं और मन विषयों से परे है। मन से परे बुद्धि और बुद्धि से परे महान् आत्मा। यही सब प्राणियों में निगूढ़ रहता है, जो प्रकट नहीं होता।
वह अणु से भी अणु और महान् से भी महान् है। आत्मा इस जन्तु की गुफा में निहित है। इसकी महिमा को संकल्पवान् पुरुष देखता है और शोक से मुक्त हो जाता है। यह स्थित होकर भी दूरस्थ चला जाता है और सोते हुए भी सभी ओर घूम आता है। इस प्रकार का जो महान् देवता आत्मा है, उसे मेरे सिवा कौन जान सकता है? शरीर में शरीर से रहित तथा अस्थिर में स्थिर इस महान् सर्वव्यापी आत्मा को जानकर विवेकी शोक नहीं करता।
यह आत्मा तो प्रवचन से प्राप्त होता है तथा मेधा और बुद्धि से। बहुत अध्ययन करने से भी प्राप्त नहीं होता। जिसे यह स्वयं चुनता है, वही उसे पा सकता है। उसके लिए ही यह अपने-आप को खोल देता है। ब्रह्म और क्षत्र दोनों जिसके अन्न है, मृत्यु जिसके लिए उपधान है, उसके बारे में कौन जान सकता है कि वह कहाँ है।
आत्मा को रथी जानो और शरीर को रथ। इसी प्रकार बुद्धि सारथी  है और मन लगाम, इन्द्रियाँ घोड़े हैं और विषय इनके घास (खाद्य) है। इस प्रकार आत्मा मन और इन्द्रियों से युक्त होने के कारण भोक्ता कहा जाता है। विषय इन्द्रियों से परे हैं और मन विषयों से परे है। मन से परे बुद्धि और बुद्धि से परे महान् आत्मा। यही सब प्राणियों में निगूढ़ रहता है, जो प्रकट नहीं होता। किन्तु वह एकाग्र और तीक्ष्ण बुद्धिवाले सूक्ष्मदर्शियों द्वारा देखा जाता है। वाणी को मन में डाले, मन को ज्ञानरूपी आत्मा में और ज्ञान को महान् आत्मा में और उसे शान्त आत्मा में।
उठो, जागो, श्रेष्ठ लक्ष्यों को प्राप्त कर समझो। यह छुरे के धार के समान तीक्ष्ण और दुर्गम पथ है। ऐसा ज्ञानी लोग बताते हैं।
विद्वानों का मन्तव्य है कि- समस्त कठोपनिषद् आत्मा की अमरता-विषयक उच्च कल्पनाओं एवं आत्मानुभूति के व्यावहारिक उपायों से परिपूर्ण है। कठोपनिषद् में विविध लोगों की आत्मानुभूति के अन्तर की ओर संकेत किया गया है। जब तक हम इस देह से इस संसार में हैं, तब तक हम दर्पण-प्रतिबिम्ब के समान आत्मचिन्तन कर सकते हैं। यह केवल ब्रह्मलोक में ही सम्भव है कि छाया और प्रकाश की भाँति अनात्मा और आत्मा का हम पृथक्-पृथक् निरूपण कर सकें। वहाँ हम आत्मा को उसी प्रकार स्वच्छ प्रकाश में देख सकते हैं, जिस प्रकार हम खुले दिल से चीजों को देख सकते हैं।
आत्मा के स्वरूप के बारे में जो विवेचन कठोपनिषद् में प्राप्त होता है, उसी का अनुसरण करते हुए श्रीमद्भगवद्गीता में भी आत्मा का विवेचन किया गया है।
वास्तव मे आत्मजिज्ञासा ही जीवन का लक्ष्य है, पर जरूराी नहीं कि यह कंदराओं में बैठकर ही जाना जा सके। इसे कर्मयोग, दिव्य राष्ट्रयोग, प्राणायाम के नित्य पुरुषार्थ से भी पाया जा सकता है। योग ऋषि की आकांक्षा है कि देश का हर नागरिक आत्मयोगी बने, हमारा पतंजलि अभियान कर्मयोग के माध्यम से करोड़ों लोगों को उसी दिशा में बढ़ा रहा है, आइये हम भी साथ हो लें।
 

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