धर्मशास्त्रों में प्रतिपादित सामान्य धर्म

धर्मशास्त्रों में प्रतिपादित सामान्य धर्म

प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

धर्म शास्त्रों में धर्म संबंधी विस्तृत विवेचना है। अत्यंत प्राचीनकाल से धर्मशास्त्रों के अंतर्गत बहुत से विषयों की विवेचना होती रही है। इनमें से आधारभूत रूप से महत्त्वपूर्ण है धर्मशास्त्रों में प्रतिपादित मानवधर्म है। मनुस्मृति का मूल नाम मानव धर्म शास्त्र ही है। ऋग्वेद में मनु को ही मानव जाति का पिता कहा गया है।
तैत्तिरीय संहिता में कहा है कि मनु ने जो कुछ कहा है, वह मनुष्य के लिए औषधि है अर्थात् उसे सदा स्वस्थ और रोगरहित एवं सबल रखने की विधि है। यही बात ताण्ड्य-महाब्राह्मण में भी कही गई है।
महाभारत में अनेकों स्थलों पर मनु का उल्लेख है। यह भी कहा है कि मनु राजशास्त्र प्रणेता है। इसके साथ ही ब्रह्मा द्वारा दिये उपदेशों और ज्ञानशास्त्र को विशालाक्ष, इन्द्र, बाहुदन्तक, बृहस्पति एवं शुक्राचार्य ने संक्षेप कर प्रस्तुत किया। शांतिपर्व में यह भी लिखा है कि स्वायंभुव मनु के लिखे ग्रंथ के आधार पर ही शुक्रचार्य और बृहस्पति ने अपने-अपने ग्रंथों का प्रणयन किया। इस प्रकार लेखन की और लिखित ग्रंथ को पढ़ाये जाने की प्राचीनतम परम्परा का उल्लेख भारत में हुआ है। यूरोप में जहाँ लेखन की कोई प्राचीन परम्परा उपलब्ध नहीं थी, वहाँ उन्होंने वाचिक परम्परा के जरिये प्राचीन बातों को याद रखा और इसे हीओरल टे्रडिशनकहा गया है। रोचक बात यह है कि 21वीं शताब्दी ईस्वी में यूरोपीय ईसाईयों ने भारत में भी अपने यहाँ की नकल मेंओरल टे्रडिशनकी बात कह दी और उनके उत्साही अनुयायियों ने भारत में भी मुख्यत: वाचिक परम्परा होने की बात लिखनी शुरु कर दी। जबकि ज्ञात इतिहास में और उपलब्ध सभी ग्रंथों तथा साक्ष्यों के अनुसार भारत में प्राचीनतम काल से लेखन ओर अध्यापन की परम्परा है।
वर्तमान मनुस्मृति में 12 अध्याय और 2694 श्लोक हैं। इसकी शैली सरल एवं धाराप्रवाह है। परम्परा से इसके अनेक रूप मिलते रहे हैं और कालप्रवाह में कतिपय परिवर्तन भी होते रहे होंगे। उपलब्ध मनुस्मृति में प्रारंभ में यह उल्लेख है कि ऋषिगण मनु के पास जाते हैं ओर उनसे प्रणाम आदि निवेदन कर धर्म के विषय में बताने का निवेदन करते है। इस पर महातेजस्वी मनु उन महात्माओं के अनुरोध को सुनकर उनका सत्कार करते हुए सर्वप्रथम सृष्टि प्रक्रिया का वर्णन करते हैं और फिर यह बताते है कि अनादि परमेश्वर ने कर्मों का विवेक ज्ञान प्रदान किया है तथा धर्म और अधर्म का स्वरुप निश्चित किया है और यह स्पष्ट बताया है कि धर्म से ही सुख प्राप्त होगा और अधर्म से दुख प्राप्त होगा। मनुष्य में द्वन्द्वात्मक भाव सदा रहते हैं और उसे पुरुषार्थपूर्वक धर्म का आचरण करना चाहिए, क्योंकि सुख उसी में है।
आगे मनु बताते है कि युग के भेद से मनुष्यों के धर्म में भी क्रम भेद आता है। सतयुग में मनुष्यों का प्रमुख धर्म होता है तप, त्रेतायुग में ज्ञान, द्वापर में यज्ञ और कलियुग में दान ही प्रधान धर्म हैं। इस प्रकार भिन्न-भिन्न युगों में धर्म की प्रधानता का स्वरुप किंचित भिन्न होता है। इसके बाद मनु चारों वर्णों के अलग-अलग धर्म कर्तव्यों का प्रतिपादन करते हैं। छठे अध्याय के 91, 92 एवं 93 वें श्लोक में वे श्लोक में वे धर्म को दस लक्षणों वाला बताते है और यह कहते है कि ये सामान्य धर्म है जो सभी के द्वारा पालनीय है। ये दस लक्षण हैं- धृति (धारण करने की सामर्थ्य और धैर्य), क्षमा, दम (मन पर नियंत्रण रखना), अस्तेय (किसी भी अन्य व्यक्ति के धन के प्रति लोभ का अभाव और उसकी कभी भी चोरी नहीं करना), पवित्रता (आंतरिक एवं बाहृय अर्थात् शरीर शुद्धि, मन की शुद्धि, वाणी की शुद्धि और आचरण की पवित्रता), ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को वश में रखना, घी (ज्ञानपरायण बुद्धि), विद्या (विद्या की निरन्तर साधना), सत्य और अक्रोध (क्रोध ना करना) ये दशलक्षणक धर्म कहे गये हैं जो सामान्य धर्म हैं और मनुष्य मात्र के लिए कल्याणकारक हैं। इसके बाद उन्होंने राजधर्म का और फिर वैश्यों के धर्म का तथा परिचर्या कर्म करने वालों के कर्तव्यों का वर्णन है। तदुपरान्त स्त्रीधर्म और पुरुषधर्म का वर्णन है। 10वें अध्याय में पुन: धर्म तथा यज्ञ एवं दान संबंधी विस्तृत वर्णन है और 11वें अध्याय में विभिन्न पापों और उनके प्रायश्चित के उपायों का वर्णन है तथा 12वें अध्याय में शुभ और अशुभ कर्म विशद विवेचना है। वहीं सभा और परिषद के स्वरुप के विषय में तथा उनके द्वारा धर्म का निर्णय किये जाने के विषय में प्रतिपादन है।
समस्त मनुष्यों के द्वारा पालन किये जाने योग्य सामान्य धर्म को ही सामासिक धर्म भी कहा है और उसे ही साधारण धर्म भी कहा है। मनुस्मृति अर्थात् मानव धर्मशास्त्र में, महाभारत में और सभी पुराणों में तथा समस्त स्मृतियों में धर्म की ही विवेचना मुख्य है और उसे ही सर्वोंपरि पालन करने योग्य कहा गया है।
धर्म संबंधी यह बोध भारत में प्राचीनतम काल से है। ऋग्वेद में कहा है - ‘सत्य वचन एवं असत्य वचन में प्रतियोगिता चलती है। देवता सत्य की ही रक्षा करते हैं और असत्य का हनन करते हैं।शतपथ ब्राह्मण में भी कहा है कि मनुष्य को केवल सत्य ही बोलना चाहिए। बृहदारण्यक उपनिषद में सत्य और धर्म को पर्याय कहा गया है। इसमें प्रार्थना ही है कि असत से सत की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमरत्व की ओर हमें ले जायें।
महाभारत में सत्य के 13 स्वरुपों का वर्णन है। शांतिपर्व में 162वें अध्याय में पितामह भीष्म महाराज युधिष्ठिर को बताते हैं कि सत्य ही सनातन धर्म है। सत्य को ही सदा नमन करना चाहिए। सत्य ही जीव की परमगति है। सत्य ही सनातन ब्रह्म है। सत्य ही परम यज्ञ है। सत्य ही धर्म, तप और योग है तथा सत्य पर ही सब कुछ प्रतिष्ठित है। सत्य के 13 स्वरुप यह हैं- सत्य, समता, दम, अमात्सर्य (किसी के भी प्रति मत्सर भाव अर्थात् ईर्ष्या नहीं रखना), क्षमा, संकोच या किसी भी अमर्यादित आचरण के प्रति लज्जा, तितिक्षा (कष्टसहन), अनसूया (द्वेष-दुर्भाव नहीं रखना), त्याग, परमात्मा का ध्यान, आर्य अर्थात् श्रेष्ठ आचरण, धृति (धैर्य एवं स्थिरता) तथा अहिंसा। आगे इसकी व्याख्या करते हुए कहा गया है कि सदा अविकारी रहना ही सत्य का लक्षण है। धर्म  सम्मत आचारण से सत्य की प्राप्ति होती है। प्रिय और अप्रिय दोनों में समान भाव रखना समता है। लालसाओं, कामनाओं और क्रोध का क्षय नहीं करना, सदा धीर-गंभीर रहना और निर्भय रहते हुए मन को शांत रखना। यह दम का लक्षण है। इसकी प्राप्ति ज्ञान से होती है।
इसी प्रकार दान करते समय और धर्ममय आचरण करते समय मन में शांत रखना तथा किसी से इस विषय में ईर्ष्या ना करना यही अमात्सर्य है। इसके लिए सदा सत्य पालन का अभ्यास होना आवश्यक है। क्षमाशील होने का अर्थ है सहने और ना सहने योग्य व्यवहार तथा प्रिय और अप्रिय वचन को समान रुप से ग्रहण करने की सामथ्र्य। यह क्षमा भाव भी सत्यवादी व्यक्ति को ही प्राप्त होता है। लज्जा नामक गुण धर्म के आचरण से प्राप्त होता है। जो बुद्धिमान व्यक्ति अन्यों का सदा कल्याण करता है और मन में किसी प्रकार की ग्लानि नहीं लाता तथा मन और वाणी को शान्त रखता है, वही लज्जाशील है।
जो मनुष्य निश्चित पुरुषार्थ की सिद्धि के लिए तथा धर्म के लिए कष्ट सहन करता है, उसी वह सहनशीलता ही तितिक्षा कहलाती है। तितिक्षा की प्राप्ति धैर्य से होती है। दूसरों के दोष नहीं देखने से अनसूया सिद्ध होती है।
वास्तविक त्याग है- विषयों की आसक्ति का त्याग। यह राग और द्वेष से रहित होने पर ही सिद्ध होता है। परमात्मा यानि परमसत्ता का चिंतन ही ध्यान है। अन्यों की भलाई तथा धर्ममय आचरण को ही आर्यत्व कहा गया है। यह आसक्ति के त्याग से प्राप्त होता है। मन में सुख या दुख किसी भी स्थिति में विकार का ना होना धृति है। वह व्यक्ति धैर्यवान कहलाता है, जिसमें हर्ष, भय और क्रोध को त्याग दिया है। मन, वाणी और क्रिया द्वारा किसी भी प्राणी के साथ कभी भी द्रोह ना करना, दया भाव रखना और दान करना- ये श्रेष्ठ पुरुषों के सनातन धर्म हैं। ये तेरह धर्म सनातन सत्य हैं। ये सभी सत्य के ही आश्रय से पुष्ट होते हैं और बढ़ते हैं।
अंत में पितामह भीष्म कहते है कि हे महाराज! सत्य से बढक़र कोई और धर्म नहीं है तथा झूठ से बढक़र कोई पाप नहीं है। सत्य ही धर्म की आधारशिला है। यदि कोई मनुष्य सत्य का आचरण करता है और सदा सत्य बोलता है, तो उसे सब प्रकार से यज्ञों का तथा दानों का और अन्य धर्मों का भी फल प्राप्त हो जाता है। 1,000 अश्वमेघ यज्ञ करने से बढक़र है सत्य बोलना और सत्य का आचरण करना।
अगले 163वें अध्याय में पितामह भीष्म महाराज युधिष्ठिर से मनुष्य के 13 दोषों का भी वर्णन करते हैं। ये हैं- क्रोध, काम, शोक, मोह, शास्त्र के विरुद्ध काम करने की इच्छा (विधित्सा), दूसरों को मारने की इच्छा, मद, लोभ, मात्सर्य, ईर्ष्या, निंदा, दोषदृष्टि और दैन्यभाव। भीष्म कहते हैं कि ये 13 दोष सदा हर मनुष्य में छा जाने का अवसर देखते रहते हैं। इसलिए मनुष्य को कभी प्रमाद नहीं होना चाहिए और इन दोषों के प्रति सावधान रहना चाहिए।
वे बताते है कि इनमें से क्रोध की उत्पत्ति लोभ से होती है और यह दूसरों के दोष देखकर बढ़ता है तथा क्षमा करने से शांत होकर निवृत्त हो जाता है। काम संकल्प से उत्पन्न होता है और सेवन से बढ़ता है तथा प्रज्ञा की जागृति से नष्ट हो जाता है। क्रोध और लोभ से तथा अभ्यास से भी दूसरों को मारने की इच्छा प्रकट होती है। दया और वैराग्य से वह निवृत्त होती है। तत्वज्ञान से वह नष्ट हो जाती है। अज्ञान से मोह उत्पन्न होता है और पाप की आवृत्ति करने से या पाप के अभ्यास से मोह बढ़ता जाता है। जब कोई प्रज्ञावानजनों में श्रद्धा रखता है तो उसका मोह नष्ट हो जाता है। धर्म के विरुद्ध अन्य ग्रथों का अवलोकन और अध्ययन करने से मन में अनुचित कर्म करने की इच्छाएं पैदा होती है। इसे ही विधित्सा कहा जाता है,यह तत्वधान से निवृत्त होती है। जिस पर प्रेम हो, उसके वियोग से शोक होता है। शोक की निरर्थकता जानने से शोक की शांति हो जाती है। क्रोध, लोभ और अभ्यास के कारण दूसरों को मारने की इच्छा होती है। दया और वैराग्य से वह शांत हो जाती है। दुष्टों का साथ करने से तथा सत्य का त्याग कर देने से मात्सर्य पैदा होता है, जो सत्संग से समाप्त हो जाता है।
देहाभिमानी मनुष्यों पर अपने कुल, ज्ञान और ऐश्वर्य का अभिमान होता है। यही मद का कारण है। इनके यथार्थ स्वरुप का ज्ञान होने से मद समाप्त हो जाता है। अन्यों की विशेष हंसी-खुशी देखकर ईर्ष्या उत्पन्न होता है और विवेकशील बुद्धि होने पर ईष्र्या का नाश होता है। समाज में उपेक्षित, बहिष्कृत और नीच लोगों की बातें सुनकर कुत्सा पैदा होती है, जिसके कारण मनुष्य अन्यों की निंदा करता रहता है। श्रेष्ठ व्यक्तियों की संगति से कुत्सा शांत हो जाती है। असूया भाव भी दोष-दर्शन की प्रवृत्ति का ही परिणाम है। करुणा जाग्रत रहने पर असूया का नाश होता है। दैन्य भाव रखने वाले लोगों को देखते-सुनते रहने से दैन्य भाव पैदा होता है और धर्मनिष्ठ उदारचरित्र लोगों को जानने पर दैन्य समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार अज्ञान के कारण भोगों के प्रति लोभ पैदा होता है, जो भोगों की क्षणभंगुरता और चपलता या अस्थिरता जान लेने से शांत हो जाता है। इस प्रकार ये 13 दोष हैं और इनकी निवृत्ति के उपाय कहे गये हैं। इस तरह सामान्य धर्म का संबंध मनुष्य मात्र के सदाचार से है। गौतम धर्मसूत्र में कहा गया है कि मनुष्य के आधारभूत आत्मगुण 8 हैं- दया, शान्ति, अनसूया, शौच, कृपणता को अभाव, स्पृहा का अभाव, कल्याण भावना और ऋजुता। गौतम का कहना है कि सभी संस्कारों को करने पर भी यदि किसी व्यक्ति में ये 8 गुण नहीं आये तो वह श्रेष्ठ व्यक्ति नहीं है। यही बात अनेक स्मृतियों और टीकाओं में कही गई है। आप स्तम्ब धर्मसूत्र में गुणों और अवगुणों की सूची ही दी गई है। इसके साथ ही सभी धर्मशास्त्रों में अंत में यह कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक आंतर पुरुष होता है यानि अंतश्चेतना होती है। वह जिन कामों से आनंदित हो, वही करना चाहिए। मनु ने भी यही कहा है। जिस कर्म के करने से कर्ता की अंतरात्मा को परितोष प्राप्त हो, वहीं करना चाहिए और जिस कर्म को करने से अंतरात्मा में अशान्ति का भाव आये उसे छोड़ देना चाहिए।
मनु ने यह भी कहा है कि परलोक में ना तो माता-पिता साथ देंगे, ना पति या पत्नी और ना ही पुत्र या पुत्री और ना ही कुटुम्बीजन। वहाँ तो केवल धर्म ही साथ जायेगा (मनुस्मृति अध्याय 4, श्लोक 241) उन्होंने यह भी कहा है कि पाप करने वाले जो व्यक्ति यह समझते हैं कि हमें देख कौन रहा है उन्हें जानना चाहिए कि देवता और आन्तरपुरुष सदा सबकुछ देखते रहते हैं। (वहीं अध्याय 8, श्लोक 85) आगे यह भी कहा है कि आकाश, पृथ्वी, जल, हृदय, चन्द्र, सूर्य, सूक्ष्म रूप से सर्वत्र व्याप्त अग्निदेव, वायुदेव, संध्या, रात्रि, यम और धर्म- ये बारह देवता सदा ही सभी प्राणियों के, सभी देहधारियों के अच्छे और बुरे कर्मों को देखते रहते हैं। अत: यह सदा ध्यान रखना चाहिए।
यही बात महर्षि वेदव्यास ने भी कही है कि धर्म ही मनुष्य का एकमात्र साथी है। सदा धर्म का ही आचरण करना चाहिए। अनुशासन पर्व के दूसरे अध्याय में 73वां और 74वां श्लोक है- पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, नेत्र, बुद्धि, आत्मा, मन, काल और दिशायें ये नित्य ही व्यक्ति के सुकृत एवं दुष्कृत सभी कर्मों को देखते रहते हैं।
आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में 74वें अध्याय में 28,29,30वें एवं 31वें श्लोक में भी यही कहा गया है- सनातन परमात्मा सबके हृदय में अंतर्यामी रूप से विद्यमान है। वह सबके पाप और पुण्य सभी कर्मों को जानता रहता है। जो भी व्यक्ति यह समझता है कि पाप करते समय मुझे कोई नहीं देख रहा है वह बहुत बड़ी भूल करता है क्योंकि सभी देवता और अंतर्यामी पुरुष मनुष्य के पाप और पुण्य को देखते और जानते रहते हैं। सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि, अंतरिक्ष, पृथ्वी, जल, यमराज, रात्रि, दिन, दोनों संध्यायें, हृदय और धर्म - ये सभी मनुष्य के भले और बुरे आचार-व्यवहार को, समस्त वृत्त को जानते रहते हैं। हृदय स्थित परमात्मा सभी कर्मों के साक्षी हैं और अपने क्षेत्र के क्षेत्रज्ञ हैं। वे जिस आचरण से प्रसन्न हों, उसके सभी पापा सूर्यपुत्र यमराज नष्ट कर देते हैं, परन्तु जिस दुरात्मा पर अंतर्यामी संतुष्ट नहीं होते, यमराज उस पापी को पापों को दंड देते हैं।
यहाँ यह बात बहुत स्पष्टता से ध्यान में रखने योग्य है कि  ये जो मानवीय गुण मानव धर्म या मनुष्य के सामान्य धर्म अथवा साधारण धर्म या सामाजिक धर्म के रूप में शास्त्रों में प्रतिपादित हैं ये मनुष्य के लिए हैं। ये सनातन धर्म नामक किसी पंथ विशेष को मानने वाले समूहों या समाज मात्र के लिए नहीं हैं। वस्तुत: इन्हें सनातन धर्म कहा ही इसी अर्थ में गया है किये सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त नियम है। इन नियमों का पालन विश्व में अनिवार्य है और इनके पालन ना करने से विश्व में सभी को कष्ट होगा। ऐसा नहीं है कि कोई स्वयं को किसी ऐसे पंथ विशेष का अनुयायी घोषित कर दे, जिसमें हिंसा, झूठ, दूसरे का धन छीनना या चुराना, मर्यादाविहीन तथा असामान्य या विकृति की पराकाष्ठा तक पहुँचा हुआ कामाचार एवं अन्य भोग और वस्तुओं का अंतहीन या अमर्यादित या सामान्य औसत से बहुत अधिक संचय (उपभोग हेतु, कि दान या वितरण हेतु) आदि को उसके पंथ का लक्षण और गुण या अधिकार बता दिया जाये, तो इससे वह व्यक्ति या समूह या पंथ इन सार्वभौम नियमों के अनुशासन से मुक्त हो जायेगा। शास्त्र स्पष्ट बताते है कि इनसे कोई भी मुक्त नहीं हो सकता। जो भी इनके अनुशासन के अनुरुप आचरण नहीं करेगा, उसे कष्ट और दुख निश्चित है। इसलिए ये सभी गुण अर्थात् ये धर्म सार्वभौम हैं और मनुष्य मात्र के लिए है।
 

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