वाल्मीकि रामायण में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम का दिव्य चरित्र

वाल्मीकि रामायण में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान्  श्रीराम का दिव्य चरित्र

इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामो नाम जनै: श्रुत:।
नियतात्मा महावीर्यो द्युतिमान् धृतिमान् वशी ।।8।।
'इक्ष्वाकु के वंश में उत्पन्न हुए एक ऐसे पुरुष हैं जो लोगों में राम-नाम से विख्यात हैं, वे ही ऐसे हैं, वे ही मन को वश में रखने वाले, महाबलवान्, कान्तिमान्, धैर्यवान्, और जितेन्द्रिय हैं।।8।।
बुद्धिमान् नीतिमान् वाग्मी श्रीमान् शत्रुनिबर्हण:।
विपुलांसो महाबाहु: कम्बुग्रीवो महाहनु: ।।9।।
'वे बुद्धिमान नीतिज्ञ, वक्ता, शोभायमान तथा शत्रुसंहारक हैं। उनके कंधे मोटे और भुजाएँ बड़ी-बड़ी हैं। ग्रीवा शंख के समान और ठोढ़ी मांसल (पुष्ट) हैं ।।9।।
महोरस्को महेष्वासो गूढजत्रुररिन्दम:।
अजानुबाहु: सुशिरा: सुललाट: सुविक्रम:।।10।।
'उनकी छाती चौड़ी तथा धनुष बड़ा है, गले के नीचे की हड्डी (हँसली) माँस से छिपी हुई है। वे शत्रुओं का दमन करने वाले हैं। भुजाएँ घुटने तक लम्बी हैं, मस्तक सुन्दर है, ललाट और चाल मनोहर हैं ।।10।।
सम: समविभक्ताङ्ग: स्निग्धवर्ण: प्रतापवान्।
पीनवक्षा विशालाक्षो लक्ष्मीवाञ्छुभलक्षण: ।।11।।
'उनका शरीर (अधिक ऊँचा या नाटा न होकर) मध्यम और सुडौल है, देहका रंग चिकना है। वे बड़े प्रतापी हैं। उनका वक्ष स्थल भरा हुआ है, आँखें बड़ी-बड़ी हैं। वे शोभायमान और शुभलक्षणों से सम्पन्न है ।।11।।
धर्मज्ञ: सत्यसंधश्च प्रजानां च हिते रत:।
यशस्वी ज्ञानसम्पन्न: शुचिर्वश्य: समाधिमान् ।।12।।
'धर्म के ज्ञाता’ सत्यप्रतिज्ञ तथा प्रजा के हित-साधन में लगे रहने वाले हैं। वे यशस्वी, ज्ञानी, पवित्र जितेन्द्रिय और मन को एकाग्र रखने वाले हैं ।।12।।
प्रजापतिसम: श्रीमान् धाता रिपुनिषूदन:।
रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता ।।13।।
'प्रजापति के समान पालक, श्री सम्पन्न, शत्रुविध्वंसक और जीवों तथा धर्म के रक्षक हैं ।13।।
रक्षिता स्वस्य धर्मस्य स्वजनस्य च रक्षिता।
वेदवेदांगतत्त्वज्ञो धनुर्वेदे च निष्ठित: ।।14।।
'स्वधर्म और स्वजनों के पालक, वेद-वेदांगों के तत्त्ववेत्ता तथा धनुर्वेद में प्रवीण हैं ।14।।
सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञ: स्मृतिमान् प्रतिभानवान्।
सर्वलोकप्रिय: साधुरदीनात्मा विचक्षण: ।।15।।
'वे अखिल शास्त्रों के तत्त्वज्ञ, स्मरण शक्ति से युक्त और प्रतिभा सम्पन्न हैं, अच्छे विचार और उदार हृदय वाले वे श्री रामचन्द्र बातचीत करने में चतुर तथा समस्त लोकों के प्रिय हैं ।।15।।
सर्वदाभिगत: सद्भि: समुद्र इव सिन्धुभि:।
आर्य: सर्वसमश्चैव सदैव प्रियदर्शन: ।।16।।
'जैसे नदियाँ समुद्र में मिलती हैं, उसी प्रकार सदा राम से साधु पुरुष मिलते रहते हैं, वे आर्य एवं सबमें समान भाव रखने वाले हैं, उनका दर्शन सदा ही प्रिय मालूम होता है ।।16।।
स च सर्वगुणोपेत: कौसल्यानन्दवर्धन:।
समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्येण हिमवानिव ।।17।।
'सम्पूर्ण गुणों से युक्त वे श्री रामचन्द्र जी अपनी माता कौशल्या के आनन्द बढ़ाने वाले हैं, गम्भीरता में समुन्द्र और धैर्य में हिमालय के समान हैं ।।17।।
विष्णुना सदृशो वीर्ये सोमवत्प्रियदर्शन:।
कालाग्निसृदश: क्रोधे क्षमया पृथिवीसम: ।।18।।
'वे विष्णुभगवान् के समान बलवान् हैं। उनका दर्शन चन्द्रमा के समान मनोहर प्रतीत होता है। वे क्रोध में कालाग्नि के समान और क्षमा में पृथिवी के सदृश हैं, त्याग में कुबेर और सत्य में द्वितीय धर्मराज के समान हैं ।।18।।
धनदेन समस्त्यागे सत्ये धर्म इवापर:।
तमेवंगुणसमपन्नं रामं सत्यपराक्रमम् ।।19।।
ज्येष्ठं ज्येष्ठगुणैर्युक्तं प्रियं दशरथ: सुतम्।
प्रकृतीनां हितैर्युक्तं प्रकृतिप्रियकाम्यया ।।20।।
यौवनाराज्येन संयोक्तुमैच्छत् प्रीत्या महीपति:।
'इस प्रकार उत्तम गुणों से युक्त और सत्यप्रराक्रम पर वाले सद्गुणशाली अपने प्रियतम ज्येष्ठ पुत्र को जो प्रजा के हित में संलग्न रहने वाले थे, प्रजावर्ग का हित करने की इच्छा से राजा दशरथ ने प्रेमवश युवराज पद पर अभिषिक्त करना चाहा ।।19-20 १/२।।
तस्यभिषेकसम्भारान् दृष्ट्वा भार्याथ कैकयी ।।21।।
पूर्वं दत्तवरा देवी वरमेनमयाचत।
विवासनं च रामस्य भरतस्याभिषेचनम् ।।22।।
'तदनन्तर राम के राज्याभिषेक की तैयारीयाँ देखकर रानी कैकयी ने, जिसे पहले ही वर दिया जा चुका था, राजा से यह वर माँगा कि राम का निर्वासन (वनवास) और भरत का राज्याभिषेक हो ।।21-22।।
स सत्यवचनाद् राजा धर्मपाशेन संयत:।
विवासयामास सुतं रामं दशरथ: प्रियम् ।।23।।
'राजा दशरथ ने सत्य वचन के कारण धर्म-बन्धन में बंधकर प्यारे पुत्र राम को वनवास दे दिया ।।23।।
स जगाम वनं वीर: प्रतिज्ञामनुपालयन्।
पितुर्वचननिर्देशात् कैकय्या प्रियकारणात् ।।24।।
'कैकयी का प्रिय करने के लिए पिता की आज्ञा के अनुसार उनकी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए वीर रामचन्द्र वन को चले ।।24।।
तं व्रजन्तं प्रियो भ्राता लक्ष्मणोऽनुगाम ह।
स्नेहाद् विनयसम्पन्न:सुमित्रानन्दवर्धन: ।।25।।
भ्रातरं दयितो भ्रातु: सौभ्रात्रमनुदर्शयन्।
'तब सुमित्रा के आनन्द बढ़ाने वाले विनयशील लक्ष्मण जी ने भी, जो अपने बड़े भाई राम को बहुत ही प्रिय थे, अपने सुबन्धुत्व का परिचय देते हुए स्नेहवश वन को जाने वाले बन्धुवर राम का अनुसरण किया ।।25 १/२।।
रामस्य दयिता भार्या नित्यं प्राणसमा हिता ।।26।।
जनकस्य कुले जाता देवमायेव निर्मिता।
सर्वलक्षणसम्पन्ना नारीणामुत्तमा वधू: ।।27।।
सीताप्यनुगता रामं शशिनं रोहिणी यथा।
पौरेरनुगतो दूरं पित्रा दशरथेन च ।।28।।
'और जनक के कुल में उत्पन्न सीता भी, जो अवतीर्ण हुई देवमाया की भाँति सुन्दरी, समस्त शुभ लक्षणों से विभूषित स्त्रियों में उत्तम राम के प्राणों के समान प्रियतमा पत्नी तथा सदा ही पति का हित चाहने वाली थी, रामचन्द्र जी के पीछे चली, जैसे चन्द्रमा के पीछे रोहिणी चलती है। उस समय पिता दशरथ (ने अपना सारथी भेजकर) और पुरवासी मनुष्यों ने (स्वयं जाकर) दूर तक उनका अनुसरण किया।।26-28।।

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