जीवनदायी गुणों से युक्त हरीतकी (हरड़)

जीवनदायी गुणों से युक्त हरीतकी (हरड़)

आयुर्वेद मनीषी आचार्य

बालकृष्ण जी महाराज

निघण्टुओं में हरड़ को सात प्रकार का कहा गया है। स्वरूप के आधार पर इसकी सात जातियाँ 1. विजया, 2. रोहिणी, 3. पूतना, 4. अमृता, 5. अभया, 6. जीवन्ती, 7. चेतकी निर्धारित की गई हैं। वर्तमान में यह तीन प्रकार की ही मिलती है। जिसको लोग अवस्था भेद से एक ही वृक्ष के फल मानते हैं। हरीतकी अत्यन्त सुगमता से सर्वत्र प्राप्त होने वाली किन्तु विविध गुण सम्पन्न औषधीय वृक्ष है।
रोगानुसार प्रयोग
शिरो रोग
  • शिर:शूल- हरड़ की गुठली को पानी के साथ पीसकर शिर में लेप करने से आधासीसी की वेदना का शमन होता है।
  • आम बीज चूर्ण और छोटी हरीतकी चूर्ण को समभाग लेकर दूध में पीसकर सिर पर लगाने से रूसी नष्ट हो जाती है।
नेत्र रोग
  • नेत्र विकार- हरड़ को रातभर पानी में भिगोकर सुबह पानी को छानकर आँखें धोने से आँखों को शीतलता मिलती है तथा नेत्रविकारों का शमन होता है।
  • हरड़ की मींगी को पानी में 3 पहर तक भिगोकर, घिसकर अंजन करने से मोतियाबिन्द नहीं होता है।
  • हरड़ की छाल को पीसकर अंजन करने से नेत्रों से पानी का बहना बन्द होता है।
  • समस्त नेत्ररोगों में हरीतकी को घृत में भूनकर विडालक (नेत्रों के चारों ओर बाहर के भाग में किया गया लेप) करना चाहिए।
  • तिमिर (मोतियाबिन्द)- भोजन करने के पूर्व प्रतिदिन 3 ग्राम हरीतकी का चूर्ण तथा 3 ग्राम मुनक्का कल्क को मिश्री, चीनी या मधु मिलाकर खाने से तिमिर में लाभ होता है।
नासा रोग
  • प्रतिश्याय- पक्व प्रतिश्याय में तीक्ष्ण शिरोविरेचन, रूक्ष अन्न, यव और हरीतकी का सेवन लाभप्रद है।
कण्ठ रोग
  • गलविद्रधि- 20-40 मिली. हरीतकी क्वाथ में 3 से 12 मिली. मधु मिलाकर पिलाने से गलविद्रधि आदि कण्ठरोगों में लाभ होता है।
मुख रोग
  • दन्त प्रयोग- हरीतकी के चूर्ण का मंजन करने से दाँत साफ  और निरोग हो जाते हैं।
  • मुखरोग- 10 ग्राम हरड़ को आधा लीटर पानी में उबालकर चतुर्थांश शेष काढ़े में थोड़ी सी फिटकरी घोलकर गरारा करने से शीघ्र ही मुख व गले से होने वाला रक्तस्राव बंद हो जाता है।
वक्ष रोग
  • कफ निष्कासनार्थ- कफ को निकालने में हरड़ का चूर्ण बहुत अच्छा है। इस हेतु हरड़ चूर्ण को 2-5 ग्राम की मात्रा में नित्य सेवन करना चाहिए।
  • कास-श्वास- हरड़, अडूसा की पत्ती, मुनक्का, छोटी इलायची, इन सबसे बने 10-30 मिली. क्वाथ में मधु और चीनी मिलाकर दिन में तीन बार पीने से श्वास (साँस फूलना), कास (खाँसी) और रक्तपित्त रोग में लाभ होता है।
उदर रोग
  • पाचन शक्ति- 3-6 ग्राम हरीतकी चूर्ण में बराबर मिश्री मिलाकर सुबह-शाम भोजन के बाद सेवन करने सेे पाचन-शक्ति बढ़ती है।
  • छर्दि (उल्टी)- 2-4 ग्राम हरड़ के चूर्ण को मधु में मिलाकर सेवन करने से दोष नष्ट होते हैं और उल्टी बंद होती है। यह योग पित्तज छर्दि में बहुत उपयोगी है।
  • मंदाग्नि- 2 ग्राम हरड़ तथा 1 ग्राम सोंठ को गुड़ अथवा 250 मिग्रा. सैंधानमक के साथ मिलाकर सेवन करने से अग्नि-प्रदीप्त होती है।
  • यदि प्रात: काल अजीर्ण की शंका हो तो हरड़, सोंठ तथा सैंधानमक के 2-5 ग्राम चूर्ण को शीतल जल के साथ सेवन करें, परन्तु दोपहर और सायंकाल भोजन थोड़ी मात्रा में खायें।
  • अतिसार- जिस रोगी को अतिसार हो अथवा थोड़ा-थोड़ा, रुक-रुक कर दर्द के साथ मल निकलता हो उसे बड़ी हरड़ तथा पिप्पली के 2-5 ग्राम चूर्ण को सुहाते (गुनगुने) गर्म जल के साथ सेवन करायें।
  • बद्धकोष्ठता- हरड़, सनाय और गुलाब के गुलकन्द की गोलियाँ बनाकर खाने से कब्ज़ का शमन होता है।
  • हरड़ और साढ़े तीन ग्राम दालचीनी या लौंग को 100 मिली. जल में 10 मिनट तक उबालकर, छानकर प्रात:काल पिलाने से विरेचन (पेट साफ) हो जाता है।
  • त्वचा रोग
  • श्लीपद रोग- 10 ग्राम हरड़ को 50 मिली. एरंड के तेल में पकाकर 6 दिन पीने से हाथी पाँव रोग में लाभ होता है।
  • घाव- हरीतकी के काढ़े से घाव को धोने से घाव जल्दी भरता है।
  • हरड़ की 1-2 ग्राम भस्म को 5-10 ग्राम मक्खन में मिलाकर व्रण (घाव) पर लेप करने से शीघ्र व्रण का रोपण होता है।
  • कुष्ठ रोग- 20-50 मिली. गोमूत्र को 3-6 ग्राम हरड़ चूर्ण के साथ प्रात:-सायं सेवन करें तो निश्चय ही लाभ होता है।
  • हरड़, गुड, तिल तेल, मिर्च, सोंठ तथा पीपल को समभाग लेकर पीसकर 2-4 ग्राम की मात्रा में लेकर एक माह तक प्रात:-सायं सेवन करने से कुष्ठ रोग में लाभ होता है।
मानस रोग
  • मूच्र्छा- हरड़ के क्वाथ से पके हुये घी का सेवन करने से मद और बेहोशी मिटती है।
सर्वशरीर रोग
  • रक्तपित्त- रक्तपित्त रोग में जिन रोगियों को विरेचन कराना होता है, उन्हें हरड़ के 2-5 ग्राम चूर्ण में 1 चम्मच मधु और थोड़ी-सी चीनी मिलाकर सेवन कराने से लाभ होता है।
  • विषम ज्वर- 3-6 ग्राम हरीतकी चूर्ण को मधु के साथ सेवन करने से मलेरिया में लाभ होता है।
  • ज्वर- 3-6 ग्राम हरीतकी चूर्ण में 1 मिली. तिल तेल, 1 ग्राम घृत तथा 2 ग्राम मधु मिलाकर सेवन करने से दाह, सर्वज्वर, खाँसी, रक्तपित्त, विसर्प, श्वास (सांस फूलना) तथा छर्दि आदि का शमन होता है।
  • 25 मिली. मुनक्के के क्वाथ में 3 ग्राम हरीतकी चूर्ण मिलाकर प्रात: सायं पीने से ज्वर का शमन होता है।
  • 3 से 6 ग्राम हरीतकी का सेवन करने से वात-कफ ज्वर में लाभ होता है।
  • 3-6 ग्राम हरीतकी चूर्ण को समभाग द्राक्षा के साथ प्रात: सायं सेवन करने से रक्तपित्त, खुजली, पित्तजगुल्म, पुराने बुखार आदि का शमन होता है।
  • गोमूत्र के साथ केवल हरीतकी चूर्ण का सेवन करने से कफज शोथ का शमन होता है।
  • अतिस्वेद- हरीतकी को पीसकर पूरे शरीर में रगडऩे के बाद स्नान करने से अतिस्वेद (अधिक पसीना आना) का शमन होता है।
  • 2-4 ग्राम हरीतकी चूर्ण को मधु के साथ प्रात:काल सेवन करने से अतिस्वेद में लाभ होता है तथा शरीर दौर्गन्ध्य का शमन होता है।
  • ज्वर- समभाग हरड़, हींग, पीपल और सोंठ का चूर्ण बनाकर 500 मिग्रा. की मात्रा में बिजौरा नींबू के रस में मिलाकर सेवन करने से सन्निपात ज्वर में लाभ होता है।
  • 10-20 मिली. त्रिफला के क्वाथ में 10 मिली. गोमूत्र डालकर पीने से वात कफ  से उत्पन्न वृषण शोथ का शमन होता है।
बाल रोग
  • ज्वर- नागरमोथा, हरड़, नीम की छाल, पटोलपत्र तथा मुलेठी के क्वाथ को 10-15 मिली. मात्रा में गुनगुना कर पिलाने से बालकों के सम्पूर्ण ज्वर नष्ट होते हैं।
विशेष सेवन विधि
हरीतकी को नमक के साथ सेवन करने से कफ  रोग को, शक्कर के साथ पित्त को, घृत के साथ वात-विकारों को और गुड़ के साथ सेवन करने से सब रोगों को दूर करती है। जो रसायनार्थ हरीतकी का सेवन करना चाहते हैं, उन्हें वर्षा ऋतु में नमक से, शरद् में शक्कर से, हेमन्त में सोंठ से, शिशिर में पिप्पली के साथ, वसन्त ऋतु में मधु के साथ और ग्रीष्म ऋतु में गुड़ के साथ हरड़ का सेवन करना चाहिये।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
 रीतकी मधुर, तिक्त, कषाय होने से पित्त, कटु, तिक्त, कषाय होने से कफ  तथा अम्ल, मधुर होने से वात का शमन करती है। इस प्रकार यह त्रिदोषहर है। प्रभाव से यह वात प्रकोप नहीं करती, इसलिए त्रिदोषहर है। यह रूखी, गर्म, जठराग्निवर्धक, बुद्धि को बढ़ाने वाली, नेत्रों के लिये लाभकारी, आयुवर्धक, शरीर को बल देने वाली तथा वात का शमन करने वाली है। यह श्वास, कास, प्रमेह, बवासीर (अर्श), कुष्ठ, सूजन, उदर रोग, कृमिरोग, स्वरभंग, ग्रहणी, विबंध, गुल्म, आध्मान, व्रण, थकान, हिचकी, कंठ और हृदय के रोग, कामला, शूल, अनाह, प्लीहा व यकृत् के रोग, पथरी, मूत्रकृच्छ्र और मूत्राघातादि रोगों को दूर करती है। हरड़ का फल व्रण के लिये हितकारी, उष्ण, सर, मेध्य, दोषनाशक, शोथ, कुष्ठनाशक, कषाय, अग्निदीपन, अम्ल तथा आँखों के लिये हितकारी है। हरड़ में पाँचों रस साथ रहकर भी प्रकोप नहीं करते। इसलिए एक ही हरीतकी अनेक रोगों में प्रयोग की जाती है। हरीतकी की मज्जा में मधुर रस, नाडिय़ों में अम्ल रस, वृन्त में कड़वा रस, छाल में कटुरस और गुठली में कसैला रस रहता है।
विशिष्ट गुण व कार्य
चबाकर खाई हुई हरड़ अग्निवर्धक, पीसकर खाई हुई दस्तावर, उबालकर खाई हुई दस्त बन्द करती है। भूनकर खाई हुई त्रिदोषहर, भोजन के साथ खाई हुई हरड़ बुद्धिबल तथा इन्द्रियों को प्रसन्न करती है, भोजन के उपरांत खाई हुई हरीतकी मिथ्या अन्न-पान से होने वाले सब विकारों को दूर करती है।
  • इसका जलीय सार अनॉक्सीकारक गुण प्रदर्शित करता है।
     
  • इसका सार रेडियोप्रोटेक्टिव व उत्परिवर्तननाशक क्रियाशीलता प्रदर्शित करता है।
     
  • इसका सार अनॉक्सीकारक एवं मुक्तमूलक अपमार्जक क्रियाशीलता प्रदर्शित करता है।
हरीतकी सेवन के अयोग्य व्यक्ति
  • अधिक चलने से थका हुआ व्यक्ति, बल रहित, रूक्ष, कृश और लंघन किया हुआ व्यक्ति, जिसके पित्त अधिक हो, गर्भवती नारी तथा जिसने रक्तमोक्षण किया हो, उसे हरीतकी का सेवन नहीं करना चाहिए।
     
  • अजीर्ण के रोगी, रूक्ष पदार्थों को खाने वाले, अधिक मैथुन करने वाले, मद्यपान करने वाले, विषपान करने से कृशित शरीर वाले, भूख तृष्णा तथा गर्मी से पीडि़त व्यक्तियों को हरीतकी का सेवन नहीं करना चाहिए।
     
  • तृष्णा, मुखशोथ, हनुस्तम्भ, गलग्रह, नवज्वर तथा क्षीण रोगियों को हरीतकी का सेवन नहीं करना चाहिए। 

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