समकालीन भारत की मुख्य समस्याएँ और प्रमुख दृष्टियाँ

समकालीन भारत की मुख्य समस्याएँ और प्रमुख दृष्टियाँ

प्रोफेसर कुसुमलता केडिया

मकालीन भारत की प्रमुख समस्याएँ क्या हैं और वर्तमान में कौन-कौन सी प्रमुख दृष्टियाँ यहाँ क्रियाशील है, उनको शांत चित्र से सम्यक दृष्टि से देखने की आवश्यकता है।
सबसे पहले यह स्मरण करना आवश्यक है कि वस्तुत: सत्ता का हस्तांतरण शांतिपूर्वक अंग्रेज क्यों करके गए और किन्हें करके गए ?
क्योंकि उसके बाद से ही संपूर्ण भारत में राज्य की वह व्यवस्था थोड़े परिवर्तन के साथ चल रही है जो 15 अगस्त, 1947 तक लगभग आधे से थोड़ी अधिक भारत में थी, जबकि शेष भारत में कई जगह सनातन धर्म की परंपरा के अनुसार मान्यता वाले राज्य चल रहे थे और कई जगह मुस्लिम जगीरदार चल रहे थे। उसका सार यह है कि भारत के एक हिस्से में पूर्व पाकिस्तान और पश्चिम पाकिस्तान बना देने के बाद जो बचा हुआ अंश है, उस भारत को कॉमनवेल्थ का अंग बनाएंगे, यह निर्णय हुआ ।
'कॉमन वेल्थका अर्थ ही है साझी संपत्ति अर्थात् शेष बचे हुए 'इंडिया देट इज भारतकी संपत्ति इंग्लैंड के साथ साझा होगी।  यह साझेदारी कैसी होगी, यह भी स्वयं इंग्लैंड के शासकों ने ही तय की थी, जिसका सामान्य सार यह है कि भारत के संसाधन बड़ी मात्रा में इंग्लैंड को भेजे जाएंगे तथा इंग्लैंड के मित्र देशों जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका आदि को भेजे जाएंगे और वहाँ से भारत में वह चीजें बुलाई जाएंगी जो कि वे चाहते हैं, न कि हम। इसे विकास के लिए आवश्यक बताया गया और उन वस्तुओं तथा व्यवस्थाओं की भारत   में प्रधानता को ही विकास बताया जाने लगा ।
तदनुसार सबसे पहले वहाँ से बड़ी मात्रा में कर्ज लिया गया ऐसे कामों के लिए, जिसके लिए कोई आवश्यकता ही नहीं थी और इस कर्ज लेने को विकास की उड़ान के लिए आवश्यक बताया गया और बाद में उसका ब्याज मूलधन से भी ज्यादा जमा किया जाता रहा।
इस तरह विकास के नाम पर भारत पर कर्ज लाद दिया गया। दूसरी ओर यहाँ के संसाधनों का बड़ा हिस्सा और भी अधिक तेजी से व और भी अधिक मात्रा में यूरोपीय देशों को और संयुक्त राज्य अमेरिका को भेजा जाता रहा है।
इसका सबसे बड़ा प्रमाण है संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रकाशित आँकड़े जो बताते हैं कि 1947 से 1990 तक भारत से इंग्लैंड तथा अन्य देशों और संयुक्त राज्य अमेरिका को जो संसाधन भेजे गए, वे  उससे कहीं बहुत अधिक थे जो 1858 से 1947 ईस्वी  तक  इंग्लैंड का राज्य भारत से ले गया।
पूज्य स्वामी रामदेव जी महाराज ने 2014 ईस्वी के चुनाव से पूर्व राष्ट्रव्यापी अभियान में यह मुद्दा पूरी प्रामाणिकता और विस्तार से उठाया था और उसके पीछे तथ्यों और आँकड़ों का बल था। स्वयं अंतर्राष्ट्रीय अर्थशास्त्रियों ने कहा है और अंक्टाड की रिपोर्ट ही है कि इन वर्षों में 'इंडिया वाज ब्लीडेड व्हाइटÓ (भारत का इतना खून चूसा गया कि राष्ट्र देह मानो रक्तहीनता से सफेद हो चली)। यह पूरी तरह सत्य है कि जितना धन भारत से इंग्लैंड तथा विदेशों को 1947 ईस्वी तक गया, उससे बहुत अधिक संसाधन 1947 के बाद से विदेशों को जाता रहा है।
1947 ईस्वी से पहले भी यह काम अंग्रेजों ने घोषित युद्ध के द्वारा या खुली लूट के द्वारा उतना नहीं किया था, जितना कि योजनापूर्वक भारत में अपना समर्थक एक बहुत बड़ा समूह क्रमश: बढ़ाते रहकर किया जो कि भारत के इस तरह के शोषण और उत्पीडऩ को ही भारत का विकास और भारत की सुख समृद्धि का प्रबंधन बताता रहा।
वहीं ऐसे समूह कांग्रेस ने 1947 ईस्वी के बाद भी तैयार किए जो इस प्रक्रिया को ही बड़े उल्लास से भारत के वैभव और ऐश्वर्य का ही मार्ग बताते रहे और आज भी बता रहे हैं।  जिसमें शोषक के शोषण को भी शोषित का उद्धार और उत्कर्ष बताया जाता है। इसके लिए एक व्यवस्थित शिक्षा तंत्र तथा सूचना तंत्र अपने नियंत्रण में खड़ा किया जाता है।
अंग्रेजों के जाने के बाद कांग्रेसी शासन ने  विस्तार से देशभर में इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। सबसे ज्यादा तो इस भयंकर शोषण और दमन के पक्ष में कला और संस्कृति के क्षेत्र में भावना का वातावरण तैयार किया गया, जिसमें साहित्य, कथा, कहानी, कविताओं और फिल्मों तथा नाटकों की विशेष भूमिका रही। ऐसे नाटक रचे गए और ऐसी फिल्में बनाई गई जिसमें भारत के संसाधनों की लूट को ही इसकी प्रगति बताया गया और भारत की जो सनातन शक्तियाँ थी, उनमें से प्रत्येक पर प्रहार किया गया और भारतीय समाज को सदा से पिछड़ा, अन्यायी बताकर ग्लानि और आत्महीनता के भाव से भरने का व्यवस्थित अभियान फिल्मों के द्वारा विशेषकर चलाया गया। इसी के लिए इप्टा सहित अनेक संगठन बनाए गए जिनके  प्रमुख सदस्यों को ही  महान् फिल्म निदेशक, महान् कलाकार और उनकी फिल्मों को महान फिल्में बताकर नास्तिकता और कामाचार का उन्माद जगाया गया। वह प्रक्रिया अभी भी चल रही है।
इसे थोड़ा और भली-भाँति समझने के लिए राज्य की प्रकृति और शक्ति को समझना आवश्यक है ।
राज्य किसी भी समाज का दंडबल है और वह दंडबल समाज के लक्ष्यों के अनुकूल कार्य करता है अथवा शासक समूह के लक्ष्यों के अनुकूल कार्य करता है। अंग्रेजों ने अपना समर्थक एक बड़ा वर्ग जो भारत में तैयार किया, उसका काम था अंग्रेजों द्वारा भारत वर्ष के खून चूसने की प्रक्रिया को इसकी प्रगति और उत्कर्ष बताना और  इंग्लैंड के भारत शोषण के लक्ष्य को गरिमामंडित करना, ताकि इंग्लैंड के लक्ष्य प्राप्ति के पथ के कंटक दूर किए जा सकें। यह काम करने को ही कंटक शोधन कहा जाता है।  इंग्लैंड के जो लक्ष्य थे उनकी प्राप्ति में भारत के देशभक्त ही सबसे बड़े कंटक थे और इसलिए उनको दूर करके इंग्लैंड के स्वाभाविक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए योजना पूर्वक शिक्षा संचार फिल्मों और साहित्य के माध्यम से इंग्लैंड ने काम किया और उसमें पूरी तरह सफल होते रहे। उस सफलता का उत्कर्ष है जवाहरलाल नेहरू को भारत का प्रधानमंत्री बनाया जाना, जिन्होंने इंग्लैंड से भारत को एकाकार  करने के लिए योजनापूर्वक शिक्षा और साहित्य, संस्कृति, कला तथा संचार व्यवस्थाओं को नियोजित किया और बड़े-बड़े पदों पर ऐसे लोगों को बैठाया जो भारत से भारतीयता की समाप्ति और धर्मद्रोही लोगों को प्रतिष्ठा दिलाने के कार्य कर रहे थे। विश्वविद्यालयों में, समाचार पत्रों में, मीडिया में और विशेषकर फिल्मों आदि में ऐसे ही लोगों को महिमामंडित किया गया। उन्हीं फिल्मों की चकाचौंध भारत में पैदा की गई जो भारत में भारतीयता के प्रति धिक्कार और तिरस्कार का भाव जगाएँ और भारत के अभारतीयकरण को गरिमामंडित करें।
ऐसे में जो भारत का प्रतिनिधि शासन हो, जो समाज का स्वाभाविक प्रतिनिधि शासन हो, जो राष्ट्रभक्त शासन हो, उसका काम होगा भारत राष्ट्र के कंटकों का शोधन करना, कंटकों का उन्मूलन करना और उन्हें भारतीय राष्ट्र के मार्ग से हटाना। एक लोकतांत्रिक और परिपक्व  समाज में यह काम कोई मार-काट के द्वारा कभी भी नहीं होता।
स्वयं इंग्लैंड ने यह काम भारत में मार-काट से उतना नहीं किया था, जितना कि राज्यबल के प्रयोग के द्वारा किया। शिक्षा और फिल्मों सहित विविध सांस्कृतिक माध्यमों से ही भारत का परिवेश क्रमश: बदला ।
अत: राष्ट्रभक्त राज्य भी  सबसे अधिक काम इन्हीं माध्यमों से करेगा।  वह सच्चे इतिहास बोध को फैलाएगा, सनातन धर्म के मूल्यों को सम्यक् रूप में महिमामंडित करने वाली शिक्षा और संचार माध्यमों  को प्रोत्साहित करेगा और ऐसी फिल्मों को तथा ऐसे साहित्य और कलाओं को प्रोत्साहित करेगा जो भारतीय समाज के स्वाभाविक सत्य की, सनातन वैदिक धर्म की प्रतिष्ठा करें और जो किसी भी रूप में भारत की सनातन धारा के किसी भी अंग को लांछित न करें, उसके प्रति निंदा और विद्वेष का प्रसार न करें अपितु विवेक का जागरण करें।
यह भारत के श्रेष्ठ राज्य का सर्वोपरि लक्ष्य है, क्योंकि सारे विश्व में प्रतिनिधि राज्य का यही लक्ष्य होता है कि वह समाज के सनातन प्रवाह के मार्ग के कंटकों को दूर करता है। उनको कूटनीति से तथा शिक्षा नीति, संस्कृति नीति आदि सभी उपायों का अवलंबन करते हुए तथा विधिपूर्वक आवश्यक अनुशासन लाते हुए कंटकों को राष्ट्र के मार्ग से हटाता है और समाज की शक्ति को अपने वैभव के साथ व्यक्त होने देता है। समाज की ज्ञान परंपरा और विद्या परंपरा को, बोध परंपरा और इतिहास बोध को, शौर्य और वीरता की परंपरा को, मंदिरों, स्थापत्य, भाषाओं, भूषा, भवन और भोजन की अपनी श्रेष्ठ परंपराओं को तथा कला और संस्कृति के सभी क्षेत्रों में अपने श्रेष्ठ सृजनशील रूपों को अभिव्यक्त होने का अवसर देता है।
इसके द्वारा ही कोई भी समाज शक्तिशाली और वैभवशाली होता है। इस प्रक्रिया में जो राष्ट्र के कंटक हैं, वे व्याकुल होकर और अधिक उत्पात करते हैं तो उनका विविध कूटनीतिक राजनैतिक और विधिक तथा आर्थिक उपायों से दमन करना, शमन  करना और उनकी सच्चाई को राष्ट्र के समक्ष और विश्व के समक्ष प्रस्तुत करना राज्य का कार्य है। वर्तमान शासक दल में जो वर्तमान नेतृत्व है, उसमें कंटकशोधन की सामथ्र्य विद्यमान है, यह धारा 370 और 35-ए की कुशलतापूर्वक समाप्ति से प्रमाणित हो गया है। वर्तमान नेतृत्व कंटक शोधन के कौशल से संपन्न है और ऐसा लगता है कि उसमें इस बात की सजगता भी है।
इस तरह भारत की सबसे बड़ी और ज्वलंत समस्या भारत की सनातन ज्ञान परंपरा, शौर्य परंपरा, उद्यम और व्यवसाय परंपरा तथा कला और संस्कृति की परंपरा को प्रतिष्ठित करना है। इस प्रकार राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों में इसकी अपनी पुरुषार्थ परंपरा को बाधित करने वाले कंटकों का 70 वर्षों में राष्ट्रव्यापी विस्तार भी राज्य के समक्ष सबसे बड़ी समस्या है और सच्चे राष्ट्रभक्त राज्य द्वारा इन कंटकों का दमन, शमन और शोधन, यह भारत के राज्य का सर्वोपरि लक्ष्य है। राज्य के इस कार्य में समाज स्वाभाविक उल्लास से सहयोगी बनता रहा है और बनेगा। धारा 370 और 35-ए की समाप्ति के समय उमड़े राष्ट्रव्यापी उल्लास से यह प्रमाणित हो गया है।
राष्ट्रव्यापी कंटको की पहचान राज्य को निश्चित रूप से है और होगी। यह कंटक शिक्षा, मीडिया और संस्कृति के क्षेत्रों में अपनी पूरी सामथ्र्य से सक्रिय है और सब ओर से भारत की मर्यादा, भारत के गौरव और भारत के वैभव को बाधित कर रहे हैं तथा भारतीयों के मन में ग्लानि और कुंठा के भाव भर कर यहाँ अकारण और निराधार विक्षोभ जगा रहे हैं और विविध भारतीय समूहों  को परस्पर लड़ाकर, चारों ओर विग्रह और कलह के बीज बोकर कलह के जंगल फैला रहे हैं। इन विग्रह और कलह के विषबीजों का शमन और दमन, शोधन और उन्मूलन  राज्य का लक्ष्य है और समाज स्वाभाविक रूप से इन कंटकों को पहचानता है।
इन कदमों को राज्य की शक्ति द्वारा किसी भी प्रकार संरक्षण न दिया जाए, इसके लिए कदम उठाना बहुत आवश्यक है। उसके लिए न्याय परंपरा में और विधि व्यवस्था में भी आवश्यक परिष्कार के विषय में विचार किया जाना चाहिए। साथ ही शिक्षा में सत्य और धर्म को प्रतिष्ठित करना अति आवश्यक है ।
भारत के जिस सनातन और पुरातन ज्ञान की संपूर्ण विश्व में चर्चा है, आदर है, आकर्षण है, वह ज्ञान भारत के विश्वविद्यालयों में ही न पढ़ाया जाए तो फिर वह शिक्षा भारत की प्रतिनिधि शिक्षा कैसे हो सकती है? भारत की शिक्षा भारतीय ज्ञान परंपरा को पूरे वैभव के साथ प्रतिष्ठित करते हुए विश्व की ज्ञान परंपराओं का भी सम्यक् और सत्य परिचय विद्यार्थियों को दें, यही स्वाभाविक होगा ।
विशेषकर जैसा संपूर्ण संसार में होता है, अपने पूर्वजों की ज्ञान परंपरा को आगे बढ़ाना ही शिक्षा का सार्वभौम लक्ष्य है। तो भारत में भी शिक्षा का यही स्वाभाविक लक्ष्य होना ही स्वाभाविक है।
विदेश से संबंधित विशेष ज्ञान उच्च स्तर के विशेषज्ञों में ही होना चाहिए। छोटे-छोटे बच्चों में उस ज्ञान को राज्य के बल से प्रक्षेपित करना अनुचित है। संचार माध्यमों के आधुनिक युग में वैसे भी प्रत्येक बच्चे को संसार की बहुत सी जानकारियाँ प्राप्त होती रहती हैं और उसमें बाधा करना अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के संदर्भ में संभव नहीं है। अत: विश्व की तरह-तरह की जानकारियाँ तो भारत के बच्चों को भी वैसे ही मिल रही है। ऊपर से राज्य के द्वारा योजनापूर्वक उन जानकारियों को ही देना और भारत की अपनी ज्ञान परंपरा को लगभग पूरी तरह उपेक्षित कर देना अनुचित है।
वह भारतीय ज्ञान परंपरा जो समस्त विश्व में समादृत है, भारत की शिक्षा में पुन: प्रतिष्ठित हो, यह समकालीन भारत का लक्ष्य है और यह एक बहुत बड़ा लक्ष्य है।
इसी प्रकार शांति की समस्त बातें तो दो-दो महायुद्ध के भयंकर विनाश के बाद से शुरू हुई हैं। पहले तो ईसाई और मुसलमान शासक और लड़ाके लोग समस्त विश्व को अपने ही अधीन लाने की  गर्जना करते घूमते थे। जब लगा कि नहीं, विश्व में अन्य समाज भी बहुत वीर हैं और लड़कर तो हम नष्ट हो जाएंगे तब यह जो जीता है, उसे बचाकर रखने के लिए शांति की बातें शुरू की गईं। परंतु शांति की इन समस्त चर्चाओं के और भाषणों के बीच प्रत्येक राष्ट्र राज्य युद्ध की निरंतर तैयारी कर रहा है और करता रहा है।
यदि सचमुच केवल शांति ही राष्ट्रों के लक्ष्य होते तो युद्ध की दिन दूनी रात चौगुनी गति से जो तत्परता और शक्ति और सामथ्र्य का विस्तार हो रहा है, वह तो कहीं घटित होता दिखता ही नहीं। परंतु यह हो रहा है। युद्ध की, प्रहारक और संहारक शस्त्रास्त्रों की शक्ति विश्व का प्रत्येक राष्ट्र राज्य निरंतर बढ़ा रहा है।
राज्य का काम काल्पनिक जगत में रहना नहीं है। क्योंकि वह अत्यंत व्यावहारिक भाव भूमि पर और सत्य की भूमि पर टिकी हुई शक्ति है। राज्य कोई कविता नहीं है, वह लौकिक, और नैतिक तथा विधिकबल है जिसमे दंडबल की प्रधानता है। वह समाज की और राष्ट्र की प्रतिनिधि संस्था है।
समकालीन विश्व का सत्य सम्मुख है। सब निरंतर युद्धबल को, शस्त्रबल को, सैन्यबल को और युवाओं के शौर्यबल को बढ़ा रहे हैं। उस दृष्टि से अपने सैन्यबल का विस्तार और भारत की सुरक्षा की संपूर्ण व्यवस्था तथा इसके लिए सेना को आधुनिकतम  शस्त्रास्त्रों से सम्पन्न बनाना भारत के राज्य का लक्ष्य है। साथ ही युवाओं को सैन्य शिक्षण तथा कम से कम 5 वर्ष सेना में सेवाएँ देना अनिवार्य होना चाहिए। जैसा विश्व के अधिकांश आधुनिक राष्ट्रों में है।
ये ही समकालीन भारत के मूल लक्ष्य है । इनकी विरोधी दृष्टियाँ भारत के शत्रुओं के लक्ष्यों के लक्ष्य की पूर्ति के लिए कार्यरत कंटक हैं, उनका शोधन राजधर्म है।
 

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