उदर, वृक्क एवं त्वचा आदि रोगों में लाभकारी जौ (यव)
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आचार्य बालकृष्ण
वानस्पतिक नाम : Hordeum vulgare linn. (हारडियम वल्गेयर ) SynHordeum sativum Pers., Hordeum nigrum willd.; कुलनाम : Poaceae (पोएसी); अंग्रेजी नाम : barley (बार्लि); संस्कृत- यव, अक्षत, कुंचकिन, हयप्रिया, तीक्ष्णशूक; हिन्दी- यव (Yav), जो, जौ; उर्दू- जव (Jav); कन्नड़- यव (Yav), कुंचकीन (Kunchkin); गुजराती-जौ (Jau), जव (Jav); तमिल- बारलियारिसि (barliyarisi), बारलियारिशि (barliyarishi); तेलुगु- बारलीबियम (barlibiyam), यव (Yava), यवक (Yavaka) ; बंगाली- जो (Jao), जब (Jab); नेपाली- जौ (Jau), तोसा (Tosa); पंजाबी- नाई (Nai), जवा (Jawa); मलयालम- जवेगम्बु (Javegembu), यवम (Yavam); मराठी- जव (Jav), जवा (Java)। अंग्रेज़ी- माल्टिंग बालि (Thai basil); अरबी- शाईर (Shaair), श्यईर (Shair); फारसी- जओ (Jao) |
सर्वरोग में अति प्राचीन काल से यव का प्रयोग किया जाता रहा है। भारत में यह हिमालय के मैदानी एवं पहाड़ी क्षेत्रों में लगभग 4000 मी. की ऊँचाई तक, बहुधा गंगा के मैदानी क्षेत्रों, कश्मीर, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश एवं गुजरात में इसकी खेती की जाती है। प्राचीन वैदिक काल तथा आयुर्वेदीय निघण्टुओं एवं संहिताओं में इसका वर्णन मिलता है। यव अर्थात् जौ का 60-150 सेमी ऊँचा, सीधा, वर्षायु, स्थूल, पुंजमय, शाकीय पौधा होता है। इसके पत्र भालाकार, रेखित, अल्प संख्या में, सीधे, चपटे, 22-30 सेमी लम्बे, 12-15 मिमी चौड़े होते हैं। इसके पुष्प स्पाईक (शूक सहित) 20-30 सेमी लम्बे, 8-10 मिमी चौड़े, चपटे होते हैं। इसके फल 9 मिमी लम्बे, छोटे नुकीले सिरों से युक्त होते हैं। इसका पुष्पकाल एवं फलकाल दिसम्बर से अप्रैल तक होता है।
रासायनिक संघटन:
इसके पत्र में अराबिनोगेलेक्टोजाईलन, सायनोजेनिक ग्लायकोसाईड, फ्लेवोन ग्लायकोसाईड, ओरिऐन्टोसाईड तथा ओरिऐन्टिन एवं ल्युटिओलिन पाया जाता है।
इसके बीजों में स्टार्च, अमीनो अम्ल (आर्जिनिन, हिस्टीडीन, लाईसिन, टायरोसिन, ट्रिप्टोफेन, फेनीलेलेनीन, सिस्टीन, मिथीओनीन, थ्रीओनीन, लीडसीन, आईसोल्युसिन, वेलिन ग्लाईसिन) खनिज पदार्थ, एरेबीनोजाईलेन, फ्रुक्टोसेंस,
ग्लुकोस, माल्टोस, रेफ्फिनोस, सुक्रोस, गेलेक्टोजाईलेन, युरोनोजाइलेन, एल्ब्युमिन, ग्लोब्युलिन, हॉरजेनीन (ग्लुटेलीन), होरडेन, लिनोलीक, लिनोलेनीक, ऑयलिक, पॉमिटिक एवं स्टिएरिक अम्ल, प्रोएन्थेसाएनीडिन्स, प्रोडेलफीनीडीन, ऑरिएन्टीन एवं ऑरिएन्टोसाईड पाया जाता है।
औषधीय प्रयोग विधि
नेत्र रोग:
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तिमिर-20-30 मिली त्रिफला के क्वाथ में जौ को पकाकर उसमें घृत मिलाकर खाने से तिमिर में लाभकारी होता है।
नासा रोग:
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प्रतिश्याय-जौ के सत्तू में घृत मिलाकर खाने से नजला, जुकाम, खाँसी तथा हिचकी रोग में लाभ होता है।
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यव के काढ़े (15-30 मिली) को पीने से प्रतिश्याय में लाभ होता है।
कण्ठ रोग:
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रोहिणी-यव के 5-10 मिली पत्र स्वरस में 500 मिग्रा कृष्णमरिच चूर्ण मिलाकर सेवन करने से रोहिणी (डिप्थिरिया) में लाभ होता है।
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सरसों, नीम के पत्ते, सहजन के बीज, अलसी, यव तथा मूली बीज को खट्टी छाछ में पीसकर गले में लेप करने से गलगण्ड में लाभ होता है।
वक्ष रोग:
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श्वास-अर्क के पत्रांकुर स्वरस की अनेक भावनाओं से भावित यव के सत्तू को मधु के साथ सेवन करने से सांस की बीमारियों में अतिशय लाभ होता है।
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कास-श्वास-मधु तथा घृत मिलाकर प्रतिदिन पिप्पल्यादि लेह का सेवन करने से क्षतज श्वास, खाँसी, हृद्रोग तथा कृशता दूर होकर वीर्य की वृद्धि होती है।
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श्वसन संस्थान विकार-यव से बनाए काढ़े (15-30 मिली) को पीने से श्वसन संस्थानगत विकारों में लाभ मिलता है।
उदर रोग:
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तृष्णा-भुने अथवा कच्चे यवों की पेय बनाकर उसमें मधु एवं शर्करा मिलाकर पीने से तृष्णा (अत्यधिक प्यास) का शमन होता है।
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अम्लपित्त-छिलका रहित जौ, वासा तथा आँवले के काढ़े (15-30 मिली) में दालचीनी, इलायची और तेजपत्ता का चूर्ण तथा मधु मिलाकर पीने से अम्लपित्त में लाभ होता है।
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गुल्म-गुल्म रोगी में यदि पुरीष तथा अधोवायु का अवरोध हो तब जौ से बनाए खाद्य पदार्थों में अधिक मात्रा में स्नेह एवं लवण मिलाकर दूध के साथ सेवन करने से लाभ होता है।
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शूल-यव के आटे में यव क्षार एवं मा मिलाकर पेट पर लेप करने से दर्द में लाभ होता है।
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पित्तशूल-यव से बनाए यवागू या पेय में मधु मिलाकर सेवन करने से पैत्तिक शूलजन्य छर्दि, बुखार, जलन तथा अत्यधिक पिपासा का शमन होता है।
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अजीर्ण-भुने हुये यव से बनाए मण्ड तथा डण्ठल की 65 मिग्रा भस्म में शहद मिलाकर सेवन करने से अजीर्ण में लाभ होता है।
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अतिसार-शुष्क यव से बनाए काढ़े का सेवन करने से अतिसार में लाभ होता है।
वृक्कवस्ति रोग:
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प्रमेह-छिलका रहित यव चूर्ण में गोमूत्र और त्रिफला की भावना देकर आहार सेवन करना प्रमेह में पथ्य है।
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कफज प्रमेह में जौ से बने हुए विविध प्रकार के आहार का सेवन करना चाहिए। इसके अतिरिक्त छिलका रहित जौ के चूर्ण को त्रिफला क्वाथ में रातभर भिगोकर, छाया में शुष्ककर उसका सत्तूू बनाकर मधु मिलाकर, मात्रानुसार प्रतिदिन पीने से कफज प्रमेह में लाभ होता है।
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भुने हुए जौ, जौ का सत्तू आदि जौ से बनाए आहार द्रव्यों का नियमित सेवन करने से प्रमेह, मूत्र त्याग में कठिनता सफेद दाग, कोढ़ आदि रोगों को उत्पन्न नहीं होने देता है।
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प्रमेह-जौ के चूर्ण में विभिन्न प्रमेह नाशक काढ़ों की अलग अलग भावना देकर, सुखाकर, विविध आहार द्रव्य बना कर सेवन करना प्रमेह में पथ्य है। आँवला तथा मधु के साथ जौ का सेवन आहार में करना महत्व पूर्ण माना जाता है।
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शुष्क यव से निर्मित काढ़े का सेवन प्रमेह में लाभकारी माना गया है।
स्तन्य संबंधी रोग:
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स्तन्यदोष-यदि स्तन्य में झाग आने लगे तब जौ, गेहूँ तथा पीली सरसों को पीसकर स्तन पर लेप कर, सूखने पर धोकर, थोड़ा दूध निकालकर बाद में शिशु को स्तनपान कराना चाहिए।
अस्थिसंधि रोग:
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वात रक्त-वातरक्त रोग में लालिमा, पीड़ा तथा दाह हो तो रक्तमोक्षण के पश्चात मुलेठी चूर्ण, दूध एवं घी युक्त जौ के आटे का लेप करने से लाभ प्राप्त होता है।
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शूल-यव के उबले हुये बीजों को पीसकर जोड़ों में लगाने से आमवातजन्य वेदना तथा जोड़ों की वेदना का शमन होता है।
शाखा रोग:
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ऊरुस्तम्भ-ऊरुस्तम्भ में रुक्ष उपचार हेतु जौ से बनाए भात का प्रयोग करना चाहिये।
त्वचा रोग:
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विसर्प-समभाग जौ तथा मुलेठी से बनाए कल्क में घी मिलाकर विसर्प पर लेप करने से लाभ होता है।
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विसर्प रोगी को आहार में फालसा, द्राक्षा आदि से सिद्ध जल में जौ का सत्तू तथा घृत मिलाकर अवलेह की तरह सेवन करना चाहिये।
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जौ के सत्तू में घी मिलाकर लेप करना विसर्प में हितकर है।
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कुष्ठ-कुष्ठ रोग में जौ से बनाए गए भोज्य पदार्थ का सेवन करना पथ्य है।
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व्रण-दाह तथा वेदना युक्त घाव में समभाग जौ, मुलेठी तथा तिल के चूर्ण में घी मिलाकर उष्ण करें, तत्पश्चात घाव पर लेप करने से लाभ होता है।
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पीड़ा युक्त, कठिन, स्तब्ध तथा स्राव रहित घाव पर घृत युक्त जौ के आटे का बार-बार लेप करने से घाव में मृदुता उत्पन्न होती है तथा व्रण का रोपण होता है।
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व्रणपीडऩार्थ-पिच्छिल द्रव्यों की छाल, मूल आदि में जौ, गेहू तथा उड़द के चूर्ण को मिलाकर व्रण मुख को छोड़कर शेष भाग पर लेप करने से घाव का पीडऩ होता है।
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माजूफल के छिलके को यव के साथ घोट कर मुंह पर लेप करने से युवान पीडि़का का शमन होता है।
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दग्ध-जौ के सूक्ष्म चूर्ण को तिल तैल में मिलाकर आग से जले स्थान पर लेप करने से जलने के कारण उत्पन्न वेदना का शमन तथा व्रण रोपण होता है।
सर्वशरीर रोग:
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दाहज्वर- जौ के सत्तू को पानी में घोल कर लेप करने से बुखार के कारण उत्पन्न दाह का शमन होता है।
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रक्तपित्त- घृत युक्त जौ के सत्तू को पानी में घोलकर, मंथ बनाकर सेवन करने से अत्यधिक प्यास, जलन (दाह) तथा रक्तपित्त में लाभ होता है।
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क्षतक्षीण- उर:क्षत रोग में ज्वर हो तो घृत युक्त जौ चूर्ण से क्षीरपाक कर सेवन करना तथा दाह हो तो मिश्री एवं मधु के साथ जौ का सत्तू दूध में घोलकर पीना चाहिए।
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उर: क्षत के रोगी की जठराग्नि यदि प्रदीप्त हो, तो जौ के सत्तू में विषम मात्रा में मधु तथा घृत मिलाकर, जल में घोलकर पीने से लाभ होता है। ध्यान रहे कि घृत-शहद समान मात्रा में सेवन पूर्ण वर्जित है।
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स्थौल्य- जौ, आँवला तथा मधु का नियमित सेवन करने तथा नित्य व्यायाम एवं अजीर्ण में भोजन न करने से मेद जन्य मोटापे का शमन होता है।
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ज्वर- यवमूल तथा बीजों से बनाए चूर्ण का प्रयोग दिन में तीन बार करने से मलेरिया, आन्त्रिक ज्वर, (टाइफाईड बुखार) तथा सामान्य बुखार में लाभ मिलता है।
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यव को दुग्ध में पकाकर, इसमें शर्करा तथा मधु मिलाकर सेवन करने से ज्वर, दाह तथा दौर्बल्य में लाभ होता है।
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यव तथा आँवला चूर्ण को आपस में मिलाकर सेवन करने से मोटापा कम होता है।
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शोथ- यव को पीसकर शोथ स्थल पर लगाने से सूजन कम होती है। वास्तव में यव (जौ) भारत के किसानों द्वारा उपजाया अतिशय सात्विक अन्न है। इसके उपयोग से स्वास्थ्य संवर्धन के साथ-साथ जीवन शैली में सात्विकता भी आती है। अत: आज बढ़ते रोग के दौर में घर-घर को यव अर्थात् जौ से बने आहार को अपनाने की आवश्यकता है, जिससे सतत आरोग्यता का मार्ग प्रशस्त हो सके।
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