आओ सजा ले आज को

आओ सजा ले आज को

स्वामी अथर्वदेव 

श्वरीय अनुकम्पा से जब व्यक्ति को जीवन की श्रेष्ठता का बोध होता है, तो उसकी समस्त चिंताएँ व बाधाएँ अलविदा हो जाती हैं। नीरसता की गंधमात्र भी जीवन को बोझल नहीं बनाती। जीवन नित्य ही अविरल सत्य, अखण्ड प्रेम व अनुपम धैर्य के पथ पर आरूढ़ हो जाता है। उसका मन, वाणी व समस्त इन्द्रियाँ उस शाश्वत की अनुगामी हो जाती हैं तथा व्यक्ति आत्म चेतना से युक्त होकर अपने संपूर्ण कत्र्तव्यों में समाहित हो जाता है। परन्तु इस सत्य को जानने के लिए किन साधनों की आवश्यकता होती है जिनके अभ्यास से व्यक्ति अपनी पूर्णता को प्राप्त कर सकता है। उन्हीं साधनों का वर्णन हमारे शास्त्रों में किया गया है। वे उन महान् ऋषियों के अनुभव हैं जिन्होंने स्वयं के अंदर उस सत्य को अवतरित किया, प्रतिष्ठित किया व जन कल्याण के लिए शास्त्रों के रूप में उन अनुभवों को समर्पित किया। सभी सत्य एक-दूसरे के पूरक हैं, आप एक सत्य को अपने जीवन में प्रतिष्ठित करते हैं, तो दूसरा स्वयं ही प्रतिष्ठित हो जाता है। आप अभय को स्वयं में अवतरित करते हैं तो दया, क्षमा आपके अंदर स्वयं ही प्रकट हो जाते हैं। सभी महापुरुष भी इसी तरह एक सत्य को प्राथमिकता देकर उसे जीने लग जाते हैं तो उनके जीवन में अन्य सभी दैवीय सम्पदाएँ भी अपना स्थान ग्रहण कर लेती हैं। सभी महापुरुषों के जीवन में कुछ सामान्य सत्य तो होते ही हैं, जैसे- उनका चरित्र, उनकी निश्छलता व उनका अपने वर्तमान के प्रति समर्पण।
वर्तमान के प्रति समर्पण
हम यदि जीवन का अवलोकन करें कि हमारा सारा समय कहाँ लगता है, किन कार्यों को हम अपना अनमोल समय-रत्न समर्पित कर रहे हैं? हम पाएँगे कि या तो हम अतीत की चिंताओं से ढके हुए हैं, उन चिंताओं को ही हमने जाने-अनजाने अपना बना लिया है। या फिर हम जीते हैं भविष्य की कल्पनाओं में, कि यदि यह कर लेंगे तो यह हो जाएगा, ऐसा नहीं करेंगे तो ऐसा हो जाएगा। मात्र कल्पनाओं में हम अपने जीवन के स्वर्णिम आभूषण समय को उपयोग रहित बना देते हैं। वर्तमान बाँझ है हमारा, उसमें कुछ उपज नहीं है क्योंकि वहाँ हमारा ध्यान ही नहीं है। हमें अपने अतीत व भविष्य की चिंता करने से फुरसत मिले तब ही तो वर्तमान में सजग हो पाएँगे। पर नहीं, हमें तो उसी पुराने अभ्यास को दोहराकर उसे पक्का करना है, उसकी बेडिय़ों को और मजबूत कर लेना है। ऐसी विचारधाराओं से हम स्वयं ही अपने जीवन की सुकुमारता को छीन लेते हैं।
इसलिए अपने विचारों को कार्यान्वित करने का समय केवल और केवल वर्तमान है क्योंकि न तो हम भविष्य में जाकर कुछ कार्य कर सकते हैं, न ही अतीत को बदल सकते हैं। न ही अब अतीत अपना है और न ही उस भविष्य में अपनत्व है जो अभी आया भी नहीं है। केवल वर्तमान अपना है, उस पर मेरा पूर्ण अधिकार है। तो बस अपने वर्तमान को संभालो, उसे बहने मत दो, अपनी प्रार्थना व पुरुषार्थ की बाड़ से उसे बाँध लो व संपूर्ण आनन्द व प्रसन्नता से उसके प्रति समर्पण कर अपने कत्र्तव्यों का निर्वहन करो।
सबका वर्तमान निर्दोष है
परम श्रद्धेय श्री स्वामी जी महाराज व परम पूज्य गुरुदेव इस बात को हमेशा कहते हैं कि सबका वर्तमान निर्दोष है। अतीत में चाहे किसी ने कितने ही अक्षम्य अपराध किए हों, परन्तु वर्तमान सबका निर्दोष होता है। इसलिए यदि वर्तमान की निर्दोषता का यदि हमें भान हो जाए तो जीवन में त्रुटियों की संभावना नगण्य हो जाती है, व्यक्ति जीवन का सम्मान करने लगता है व आत्मग्लानि से मुक्त होने लगता है।
कल से बेहतर है आज
कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो हमेशा कहते रहते हैं कि हमें अपने लक्ष्य का भान नहीं है, और वे अपने जीवन को व्यर्थ गँवा बैठते हैं। उनके लिए एक लक्ष्य यह हो सकता है कि मेरा आज मेरे कल से बेहतर होना चाहिए। मेरे सारे अभ्यास, मेरा सोना, जागना, उठना, बैठना, स्वाध्याय करना, सत्संग करना कल से श्रेष्ठ होना चाहिए। कल जितनी एकाग्रता थी, उससे ज्यादा एकाग्रता मुझे आज चाहिए। कल जितना उत्साह, धैर्य, शौर्य व पुरुषार्थ मेरे जीवन में था, आज उससे अधिक होना चाहिए। इस लक्ष्य से व्यक्ति सत्य पथ पर आरूढ़ होकर उस परम लक्ष्य की ओर अग्रसर हो जाता है।
एक दिन, एक जीवन
परम पूज्य महाराज श्री हमें अपने अंदर के विराट् व्यक्तित्व व हमारी संपूर्ण कुशलताओं से मिलाने के लिए एक मंत्र देते हैं, वह मंत्र है- 'एक दिन, एक जीवन
बस आज है तुम्हारे पास जीने के लिए, आज है तुम्हारे पास अपनी संपूर्ण कुशलता व श्रेष्ठ अभ्यासों को संवारने के लिए, तो जितना आपके पास है, उसे पहचानो व आहूत कर दो वह सर्वस्व वर्तमान समय की अग्रि में। बस एक-एक छोटे से छोटे अभ्यास को इतनी कुशलता व जागरूकता से अपना बनाने का प्रयास मात्र करो, फिर आपकी निश्छलता, प्रामाणिकता व आपका पुरुषार्थ देखकर वे महान् शाश्वत सत्य आपका वरण करेंगे।
 

जीव दया: भागवत विधान

एक बार एक अत्यंत ही हिंसक प्रवृत्ति वाला व्यक्ति बैलगाड़ी से कहीं जा रहा था। रास्ता थोड़ा पहाड़ी था। दोपहर की तेज धूप में हाल-बेहाल हो रहा था। तभी उसे रास्ते के एक तरफ गाय का तीन वर्षीय बछड़ा पड़ा दिखाई दिया, उसके आगे के दोनों पैर टूटे हुए थे। न चल पाने के कारण अत्यधिक प्यासा था, वह दम तोडऩे की कगार पर था। तभी दैवयोग से उस व्यक्ति का मन पसीज गया, भरी दोपहर, सुनसान राह होने के बावजूद भी उसने अपनी परवाह न करते हुए उस पशु को अपने पास का बचा हुआ पानी उसके मुँह में धीरे-धीरे उतार दिया। कुछ ही पलों में उस पशु ने आँखें डिबडिबाई और आँखों में आँसुओं की धार उमड़ पड़ी, उसने प्रेम और आशीर्वाद स्वरूप मन्द निगाह से उस व्यक्ति को देखा। व्यक्ति में दया ने प्रवेश कर लिया। आगे उसके पास कोई सहारा न था, इसलिए किंकत्र्तव्यविमूढ़ हो गया। एक बार सोचता कि आगे चला जाऊँ, तभी उस पशु का हृदय उसे रोक रहा था। वहाँ रुकना भी पानी के अभाव में समस्याओं से खाली न था। अन्त में उसके मन में एक विचार कोंधा। उसने पशु को बैलगाड़ी में डालकर घर लाने का निश्चय कर लिया। लेकिन उसे बैलगाड़ी में डालना कठिन था, एडी-चोटी का जोर लगाने के बावजूद भी उसे उठाकर गाड़ी में नहीं रख पाया। परिश्रम के कारण उसे भी भयंकर प्यास लग रही थी। फिर उसे छोड़कर जाने का विचार किया, मगर उसका हृदय कतई तैयार न था। उसने कई असफल प्रयास किए। अपनी अंतिम कोशिश कर ही रहा था कि दैवयोग से एक व्यक्ति दिखाई दिया। दोनों ने मिलकर पशु को बैलगाड़ी में चढ़ाया। उसने अपनी यात्रा को आगे न बढ़ाते हुए बैलों का वापस घर की राह दिखाई। काफी दूर चलने के बाद पानी का स्रोत मिला। उसने पानी अपने पात्र में भरकर सर्वप्रथम उस पशु को पिलाया, फिर स्वयं भी पिया। पशु को घर लाकर उसने अपने परिवार वालों को सारी घटना बताई। सब लोग उसकी दया को देखकर दंग रह गए और प्रशंसा करने लगे। उसने उस पशु को लकड़ी की चारपाई बनाकर ऊपर स्थिर कर दिया और उसका उपचार स्वयं ही प्रारंभ कर दिया। किसान होने के कारण मिट्टी चिकित्सा को वह अच्छे से जानता था। उसने दीमक के ढेर वाली लाल मिट्टी लाकर उसके पैरों की सिकाई करनी शुरू की। रात में कुछ विशेष औषधीय पदार्थों की पट्टियाँ बाँध देता, दिन में सिकाई करता तथा उसकी तन-मन से सेवा करता। धीरे-धीरे वह पशु पूर्ण स्वस्थ हो गया। एक दिन जब वह उसे नहला रहा था, तभी उस पशु ने कुछ संकेत किया। उसकी आँखों में आँसूओं की धारा फूट पड़ी। व्यक्ति ने देखा कि इसे कुछ कष्ट हो गया है। मगर वह उसे कुछ कह रहा है। वह शान्त होकर उस पर ध्यान देने लगा। उसे पूर्ण विश्वास हो गया कि वह उसे आशीर्वाद दे रहा है। वह दिन उस व्यक्ति के जीवन का परिवर्तनकारी दिन था। उसे संसार से वैराग्य हो गया। पहले जो वह पशु हत्या को एक स्वाभाविक या अधिकार समझ रहा था, मन ही मन अपनी आराध्या देवी से क्षमा माँगता हुआ उसका मन निर्मल हो गया। उसने गृह त्याग कर दिया तथा गाँव से बाहर अपनी एक कुटिया बनाकर, बीमार गायों की सेवा करता हुआ ध्यान, भजन करने लगा। अपने पास आने वाले श्रद्धालुओं को प्रेम, दया व प्रभु भक्ति का संदेश देता हुआ एक दिव्य जीवन जीया तथा आस-पास अहिंसा का एक दिव्य वातावरण तैयार कर दिया।

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