उदर व त्वचा रोगों में सर्वश्रेष्ठ आयुर्वेदिक घटक घृतकुमारी
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आयुर्वेद मनीषी आचार्य बालकृष्ण जी महाराज
घृतकुमारी भारतवर्ष में सर्वत्र पायी जाती है। प्राय: इसको लोग घरों के अंदर गमलों आदि में तथा खेत के किनारे मेड़ पर लगा लेते हैं। अमरकोष, भावप्रकाश आदि ग्रन्थों में इसका उल्लेख प्राप्त होता है। स्थान एवं देश भेद से इसकी कई प्रजातियाँ पाई जाती हैं जिनका प्रयोग चिकित्सा में किया जाता है।
बाह्य स्वरूप
यह 30-60 सेमी. ऊँचा, मांसल, बहुवर्षायु शाकीय पौधा है। इसमें काण्ड नहीं होता, जड़ के ऊपर से ही चारों तरफ मोटे-मोटे मांसल पत्ते निकले हुए होते हैं। ये पत्र गूदे से परिपूर्ण, सरल, वृन्तहीन, सीधे, 35-60 सेमी. लम्बे, 10 सेमी. चौड़े, 18 मिमी. मोटे, चक्करो में, किनारों पर कंटकित, दो पंक्ति में सघन रूप में व्यवस्थित, चमकीले हरे वर्ण के, अनियमित श्वेत वर्ण के धब्बेदार, संकरे भालाकार, सीधे तथा फैले हुए होते हैं। इसके क्षुप के मध्य से लम्बा पुष्प ध्वज निकलता है, जिसमें शीतकाल के अंत में रक्ताभ पुष्प लगते हैं। इसके फल नुकीले तथा अण्डाकार होते हैं। इसके पत्तों को काटने पर पीताभ वर्ण का पिच्छिल द्रव्य निकलता है जो ठंडा होने पर जम जाता है, इसे कुमारी सार कहते हैं। इसका पुष्पकाल एवं फलकाल दिसम्बर से मई तक होता है।
रासायनिक संघटन
घृतकुमारी के पौधे में एलोइन, एलोएसोन एवं एलोएसिन पाया जाता है। घृतकुमारी के पत्र में बारबेलोईन, क्रायसोफेनॉल, एग्लाएकोन, एलोय-इमोडिन, म्यूसिलेज, ग्लुकोस, गैलेक्टोस, मैन्नोस, गेलेक्ट्युरोनिक अम्ल, मैलिक अम्ल, सिट्रिक अम्ल, टार्टेरिक अम्ल, एलोएसोन तथा एलोएसिन पाया जाता है।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
घृतकुमारी पचने में भारी, स्निग्ध, पिच्छिल, कटु, शीतल और विपाक में तिक्त होती है। घृतकुमारी दस्तावर, नेत्रों के लिए हितकारी, रसायन, मधुर, पुष्टिकारक, वीर्यवर्धक और वात, विष, गुल्म, प्लीहा, यकृत्, अंडवृद्धि, कफ, ज्वर, ग्रन्थि, अग्निदाह, विस्फोटक, पित्त, रुधिर-विकार तथा त्वचा रोगनाशक है। अल्पमात्रा में यह दीपन, पाचन, भेदन, यकृत् उत्तेजक तथा अधिक मात्रा में यह विरेचक और कृमिघ्न है। यह स्निग्ध, पिच्छिल एवं उष्ण होने के कारण गर्भाशयगत रक्त संवहन को बढ़ा देता है तथा गर्भाशय की पेशियों को उत्तेजित कर उनका संकोच बढ़ा देता है, इस कारण यह आत्र्तवजनन और गर्भस्रावकर है।
घृतकुमारी पत्र स्वरस त्वक्शोथ, नेत्ररोग, यकृत् रोग, उदरशूल, विबन्ध, कृमिरोग, उदावर्त तथा जलशोफ शामक होती है।
औषधीय प्रयोग एवं विधि
शिरो रोग
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शिरोवेदना- घृतकुमारी के गूदे में थोड़ी मात्रा में दारुहल्दी का चूर्ण मिश्रित कर गर्म करके वेदना स्थान पर बाँधने से वातज तथा कफज शिर:शूल में लाभ होता है।
नेत्र रोग
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नेत्ररोग- घृतकुमारी का गूदा आँखों में लगाने से आँखों की लाली मिटती है, गर्मी दूर होती है। यह वायरल कंजक्टीवाइटिस में लाभकारी है।
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1 ग्राम घृतकुमारी के गूदे में 375 मिग्रा. अफीम मिलाकर पोटली बाँधकर पानी में भिगोकर नेत्रों पर फिराने से और 1-2 बूँद नेत्रों के अन्दर डालने से नेत्र पीड़ा मिटती है।
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घृतकुमारी के गूदे पर हल्दी डालकर थोड़ा गर्म कर नेत्रों पर बाँधने से नेत्रों की पीड़ा मिट जाती है।
कर्ण रोग
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कर्णशूल- घृतकुमारी के रस को हल्का गर्म कर जिस कान में शूल हो, उसके दूसरी तरफ के कान में दो-दो बूँद टपकाने से कान का दर्द मिट जाता है।
वक्ष रोग
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कास- घृतकुमारी का गूदा और सेंधा लवण, दोनों की भस्म बनाकर 5 ग्राम की मात्रा में मुनक्का के साथ सुबह-शाम सेवन करने से कास, जीर्ण कास तथा कफज श्वास में लाभ होता है।
उदर रोग
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वातज गुल्म- कुमारी का गूदा 6 ग्राम, गाय का घी 6 ग्राम, हरीतकी चूर्ण 1 ग्राम, सेंधानमक 1 ग्राम, इन सबको मिलाकर सुबह-शाम खाने से वातज गुल्म में लाभ होता है।
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उदरगाँठ- घृतकुमारी के गूदे को पेट के ऊपर बाँधने से पेट की गाँठ बैठ जाती है। आँतों में जमा हुआ मल बाहर निकल जाता है।
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उदरशूल- कुमारी की 10-20 ग्राम जड़ को कुचलकर उबालकर छानकर उस पर भुनी हुई हींग बुरककर देने से उदरशूल का शमन होता है।
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गुल्म- घृतकुमारी का गूदा निकाल कर समभाग घृत मिलाकर (60-60 ग्राम दोनों) उसमें हरीतकी चूर्ण तथा सेंधा लवण 10-10 ग्राम की मात्रा में मिलाकर भली-भाँति घोंट लेते हैं। इसको 10-15 ग्राम की मात्रा में प्रात:-सायं सेवन करने से वातज गुल्म आदि उदर तथा वातजन्य विकारों में गुनगुने पानी के साथ प्रयोग करने से लाभ होता है।
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प्लीहावृद्धि- 10-20 मिली घृतकुमारी स्वरस में 2-3 ग्राम हल्दी चूर्ण मिलाकर सेवन करने से प्लीहा वृद्धि तथा अपची रोग में लाभ होता हैै।
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गुल्म- गोघृत युक्त 5-6 ग्राम घृतकुमारी के गूदे में त्रिकटु (सोंठ, मरिच, पिप्पली), हरीतकी तथा सेंधानमक का चूर्ण मिलाकर सेवन करने से गुल्म में लाभ होता है।
गुदा रोग
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रक्तार्श- घृतकुमारी के 50 ग्राम गूदे में 2 ग्राम पिसा हुआ गेरू मिलाकर इसकी टिकिया बनाकर, रूई के फाहे (फाया) पर फैलाकर गुदा स्थान पर रखकर लंगोट की तरह पट्टी बाँध देनी चाहिए। इससे मस्सों में होने वाली दाह तथा वेदना का शमन होता है एवं मस्से सिकुड़ कर दब जाते हैं। यह प्रयोग रक्तार्श में भी लाभदायक है।
यकृत् व प्लीहा रोग
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कामला- 10-20 मिली. कुमारी रस को दिन में दो-तीन बार पिलाने से पित्तनलिका का अवरोध दूर होकर पीलिया में लाभ होता है। इस प्रयोग से नेत्रों का पीलापन एवं कब्ज दूर हो जाता है। इसके रस की 1-2 बूँद रोगी की नाक में डालने से भी लाभ होता है। कामला में घृतकुमारी स्वरस को 1-2 बूँद नाक में डालना हितकर है।
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कुमारी के पत्तों का गूदा निकालकर शेष छिलकों को मटकी में भरकर, बराबर मात्रा में नमक मिलाकर मुँह बन्द कर कंडों की अग्नि पर रख देते हैं। जब अन्दर का द्रव्य जलकर काला हो जाता है तो उसे महीन पीसकर शीशी में भरकर रखते हैं। इस कुमारी लवण को 3-6 ग्राम तक की मात्रा में छाछ के साथ देने से यकृत् वृद्धि तथा तिल्ली बढऩा, पेट फूलना, दर्द तथा अन्य पाचन संस्थानगत विकारों में लाभ होता है।
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यकृत् दौर्बल्य- घृतकुमारी के पत्तों का रस दो भाग तथा 1 भाग मधु, दोनों द्रव्यों को चीनी मिट्टी के पात्र में रखकर पात्र का मुँह बन्द कर 1 सप्ताह तक धूप में रखते हैं। तत्पश्चात् इसको छान लेते हैं। इस औषधि योग को 10-20 मिली. की मात्रा में प्रात: सायं सेवन करने से यकृत् विकारों में अच्छा लाभ होता है। इसकी अधिक मात्रा विरेचक है, परन्तु उचित मात्रा में सेवन करने से मल एवं वात की प्रवृत्ति ठीक होने लगती है, यकृत् सबल हो जाता है और उसकी क्रिया सामान्य हो जाती है।
वृक्कवस्ति रोग
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मूत्रकृच्छ्र- कुमारी के ताजे (5-10 ग्राम) गूदे में शक्कर मिलाकर खाने से मूत्रकृच्छ्र (मूत्र त्याग में कठिनता) और मूत्रदाह (जलन) मिटती है।
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मधुमेह- 250-500 मिग्रा. गुडूची सत्त में 5 ग्राम घृतकुमारी का गूदा मिलाकर देने से मधुमेह में लाभ होता है।
प्रजननसंस्थान रोग
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मासिक विकार- घृतकुमारी के 10 ग्राम गूदे पर 500 मिग्रा. पलाश का क्षार बुरक कर दिन में दो बार सेवन करने से मासिक धर्म शुद्ध होने लगता है।
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उपदंश- उपदंशजनित व्रणों में घृतकुमारी के गूदे का लेप लाभकारी होता है।
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लिंगपाक- घृतकुमारी स्वरस के साथ जीरा को पीसकर (लिंग पर) लेप करने से जलन तथा पाक का शमन होता है।
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रजोरोध-1-2 कुमारिका वटी का सेवन मासिक धर्म होने के 4 दिन पूर्व से, दिन में तीन बार रज:स्राव कालपूर्ण होने तक करने से मक्कल शूल, जरायु शूल तथा सब प्रकार के योनि व्यापद में लाभ होता है।
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सुखोष्ण जल के अनुपान से 250-500 मिग्रा. (1-2 गोली) की मात्रा में प्रतिदिन रज:प्रवर्तनी वटी (घृतकुमारी युक्त) का सेवन करने से मासिक धर्म के अवरोध के कारण उत्पन्न तेज वेदना का शमन होता है।
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पूयमेह- सौवीराञ्जन को दोगुना घृतकुमारी स्वरस से खरल कर, 7-5 किलो वन्योपल (जंगली उपलों) का पुट देकर, प्राप्त भस्म को 1 ग्राम की मात्रा में मक्खन के साथ सेवन कर, अनुपान में दही का प्रयोग करने से उग्र सूजाक में भी अतिलाभ होता है।
अस्थिसंधि रोग
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गठिया- घृतकुमारी के कोमल गूदे को नियमित रूप से 10 ग्राम की मात्रा में प्रात: सायं खाने से गठिया में लाभ होता है।
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कटिशूल- गेहूँ का आटा, घी और कुमारी का गूदा (कुमारी का गूदा इतना होना चाहिए जितना आटे में गूंथने के लिये काफी हो), इनको गूंथकर रोटी बना लें। इस रोटी का चूर्ण बनाकर शक्कर और घी मिलाकर लड्डू बनाकर खाने से कमर की बादी तथा कमर की पीड़ा मिटती है।
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स्नायुक- एलुआ का लेप करने से स्नायुक गल जाता है।
त्वचा रोग
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यदि फोड़ा ठीक से पक न रहा हो तो घृतकुमारी के गूदे में थोड़ी सज्जीक्षार तथा हल्दी चूर्ण मिलाकर घाव पर बाँधने से फोड़ा जल्दी पक कर फूट जाता है।
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यदि फोड़ा पकने के नजदीक हो तो घृतकुमारी की मज्जा को गर्म करके बाँधने से फोड़ा शीघ्रता से पककर फूट जाता है। जब फोड़ा फूट जाता है तो गूदे में थोड़ा हल्दी चूर्ण मिलाकर बाँधने से घाव की सफाई होकर घाव जल्दी भर जाता है।
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कुमारी के पत्ते को एक ओर से छीलकर तथा उस पर थोड़ा हल्दी चूर्ण बुरक कर, कुछ गर्म करके बाँधने से गाँठों की सूजन में भी लाभ होता है।
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चोट, मोच, सूजन, दर्द आदि लक्षणों से युक्त विकारों पर घृतकुमारी के गूदे में अफीम तथा हल्दी चूर्ण मिलाकर बाँधने से आराम मिलता है।
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स्त्रियों के स्तन में चोट आदि के कारण या अन्य किसी कारण से गाँठ या सूजन होने पर इसकी जड़ का कल्क बनाकर, उसमें थोड़ा हल्दी चूर्ण गर्म करके बाँधने से लाभ होता है। इसे दिन में 2-3 बार बदलना चाहिए।
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घृतकुमारी का गूदा व्रणों को भरने के लिए सबसे उपयुक्त औषधि है। रेडियेशन के कारण हुए असाध्य व्रणों पर इसके प्रयोग से असाधारण सफलता मिलती है।
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घृतकुमारी के गूदे को अग्नि से जले हुए स्थान पर लगाने से जलन शान्त हो जाती है तथा फफोले नहीं उठते।
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घृतकुमारी पत्र को एक तरफ से छीलकर चर्मकील पर विधिपूर्वक बाँधने से चर्मकील में लाभ होता है।
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घृतकुमारी स्वरस को तिल तथा कांजी के साथ पकाकर या केवल कुमारी स्वरस को पकाकर घाव पर लेप करने से लाभ होता है। घृतकुमारी कल्क को स्विन्न कर व्रण पर लेप करने से भी शीघ्र व्रणरोपण होता है।
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