संस्थान द्वारा निर्मित रिसर्च बेस्ड नेचुरल मेडिसिन

संस्थान द्वारा निर्मित रिसर्च बेस्ड नेचुरल मेडिसिन

मने यथासम्भव आयुर्वेद की परम्परागत विधा एवं शास्त्रीय योगों को गुणवत्ता पूर्ण ढंग व शास्त्रीय विधि से निर्माण कर जनमानस के लाभ के लिए प्रचार प्रसार किया। पुनरपि कुछ रोगों में रोगी की स्थिति के अनुसार आशातीत लाभ न होने से वर्षों के अनुभव व सतत अनुसन्धान के परिणामस्वरूप कुछ स्वानुभूत प्रयोगों का निर्माण किया है। जो निम्नलिखित हैं-

स्पिरूलीना कैप्सूल

मुख्य घटक : शैवाल (Spirulina Abbreviata)
मुख्य गुण-धर्म : इसमें फाइबर व प्रोटीन प्रचुर मात्रा में है जो लीवर को स्वस्थ रखते हैं। यह रक्त से कॉलेस्ट्राल स्तर को कम करता है जिससे रक्तचाप नियंत्रित रहता है। स्पिरूलीना कैप्सूल के सेवन से प्रतिरक्षा तंत्र मजबूत होता है। अनेक पोषक तत्त्वों से परिपूर्ण होने के कारण यह कैंसर की रोकथाम में अति लाभकारी है। यह त्वचा, मधुमेह, नेत्र तथा मस्तिष्क संबंधी रोगों में भी लाभदायक है।
सेवन-विधि व मात्रा : १ से २ कैप्सूल सुबह-शाम नाश्ता व भोजन के बाद जल के साथ सेवन करें।
विशेष : ऑटो-इम्यून डिस्आर्डर वाले रोगी, गर्भवती व स्तनपान कराने वाली महिलाएँ इसका सेवन न करें।
मातृत्व
मुख्य घटक : इसके मुख्य घटक सोया, गोघृत, जौ, शहद, गोदुग्ध, मेथी, आँवला, सेब, अश्वगंधा, सौंफ, शंखपुष्पी, केसर इत्यादि हैं।
मुख्य गुण-धर्म : यह गर्भवती महिलाओं के लिए सामान्य दौर्बल्य, मस्तिष्क दुर्बलता एवं सम्पूर्ण शारीरिक विकास में लाभदायक है।
सेवन- विधि व मात्रा : -२ चम्मच सुबह-शाम दूध के साथ सेवन करें।
दिव्य अर्शकल्प वटी
मुख्य घटक : शुद्ध रसौत, हरड़ छोटी, बकायन के बीज, नीम के बीज, रीठा छाल, देसी कपूर, कहरवा, खूनखराबा, मकोय, एलुआ, नागदौन आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
  • खूनी व बादी दोनों तरह की बवासीर को दूर कर उससे उत्पन्न होने वाली असुविधाओं से बचाती है। कुछ दिन लगातार प्रयोग करने से बवासीर, भगन्दर व फिस्च्युला आदि से भी बचा जा सकता है।
  • यह अर्शजन्य शूल, दाह व पीड़ा को भी दूर करती है।
सेवन-विधि व मात्रा : छाछ (तक्र) या ताजे पानी के साथ रोग की अवस्थानुसार 1-1 या 2-2 गोली प्रात: खाली पेट व सायं खाने से पहले सेवन करें।
दिव्य आरोग्य वटी
मुख्य घटक : गिलोय, नीम, तुलसी आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
  • यह वटी स्वास्थ्यवर्धक, जीवाणु संक्रमण का निवारण करने वाली, त्वक्रोग तथा त्रिदोष विषमता को दूर करने वाली है।
  • ज्वर, शीत व कफज रोगों में लाभदायक तथा रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने वाली है।
  • विभिन्न रोगों से होने वाले दुष्परिणामों से शरीर का बचाव करती है।
सेवन- विधि व मात्रा : 1 से 2 गोली दिन में 2 बार जल के साथ भोजन के उपरान्त सेवन करें।
दिव्य उदरामृत वटी
मुख्य घटक : पुनर्नवा, भूमि आँवला, मकोय, चित्रक, आँवला, बहेड़ा, निशोथ, कुटकी, आम बीज, बिल्व, अजवायन, अतीस कड़वा, घृतकुमारी, मुक्ताशुक्ति भस्म, कसीस भस्म, लौह भस्म, मण्डूर भस्म आदि।
मुख्य गुण-धर्म : इस वटी के सेवन से पेट दर्द, मन्दाग्नि, अतिसार, विबन्ध, अजीर्णता आदि उदर विकारों तथा पीलिया, रक्ताल्पता व जीर्ण ज्वर आदि यकृत् विकारों में विशेष लाभ होता है।
सेवन- विधि व मात्रा : 1-1 या 2-2 गोली सुबह शाम नाश्ते या खाने के बाद गुनगुने पानी या दूध से लें।
दिव्य कायाकल्प वटी
मुख्य घटक : बावची, पनवाड़, निम्ब, त्रिफला, खदिर, मंजिष्ठा (मंजीठ), कुटकी, अमृता, चिरायता, चन्दन, देवदारु, हल्दी, दारुहल्दी, उषब, द्रोणपुष्पी, लघु कंटकारी, कालीजीरी, इन्द्रायण मूल, करंज बीज आदि का घनसत् (एक्सट्रैक्ट) आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
  • रक्त का शोधन करके सभी प्रकार के चर्म रोगों को दूर करने वाली अचूक औषध है।
  • कील, मँुहासों को दूर करके चेहरे की झांईयाँ व दाग को भी समाप्त करती है।
  • सभी प्रकार के जीर्ण, पुराने व विकृत दाद, खाज, खुजली, एक्जिमा में तुरन्त लाभ देती है तथा श्वेत कुष्ठ व सोराइसिस में भी पूर्ण लाभप्रद है।
सेवन-विधि व मात्रा : 1 से 2 गोली सुबह खाली पेट और शाम को खाने से एक घण्टा पहले ताजे पानी से लें। दूध या दूध से बने पदार्थ इसके सेवन के एक घण्टा पहले व बाद तक सेवन न करें।
दिव्य गिलोय  घनवटी
मुख्य घटक : गिलोयघन सत् इत्यादि।
मुख्य गुण-धर्म :
1.     इसका प्रयोग ज्वर तथा विभिन्न प्रकार के संक्रमित रोगों में किया जाता है।
2.     यह मुख्यरूप से वातरक्त, संधिगतवात एवं मूत्रल विकारों (प्रमेह) में बहुत उपयोगी है।
3.     इसे रक्तवह संस्थान तथा स्रोतों की शुद्धि के लिए उत्तम औषध माना गया है।
4.     यह तीनों दोषों को साम्य अवस्था में रखती है।
5.     इसके अन्दर कोशिकाओं का पुनरुद्भव  (क्रद्ग-त्रद्गठ्ठद्गह्म्ड्डह्लद्बशठ्ठ) करने की क्षमता पायी गयी है।
6.     यह औषधि सामान्य दौर्बल्य ज्वर, डेंगू, चिकन गुनिया, त्वचा एवं मूत्र रोगों में लाभदायक है।
सेवन-विधि व मात्रा : 1 से 2 गोली दिन में 2 बार जल के साथ भोजन के उपरान्त सेवन करें।
दिव्य नीम  घनवटी
मुख्य घटक : नीमघनसत् इत्यादि।
मुख्य गुण-धर्म :
1.     नीम घनवटी रक्तशोधक, जीवाणु नाशक तथा त्वचा विकारों में हितकर है।
2.     यह शरीर के लिए अमृत तुल्य है।
3.     यह रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है।
4.     मधुमेह में इसका प्रयोग अत्यन्त लाभकारी होता है।
सेवन-विधि व मात्रा : 1 से 2 गोली दिन में 2 बार जल के साथ भोजन के उपरान्त सेवन करें।
दिव्य पीड़ान्तक वटी
मुख्य घटक : कुचला, नागरमोथा, रास्ना, निर्गुण्डी, पुनर्नवामूल, मेथी, निशोथ, शतावर, हडज़ोड़, हल्दी, शुण्ठी, कुटकी, शुद्ध गुग्गुलुुु, गोदन्ती भस्म, मुक्ताशुक्ति भस्म, योगराज गुग्गुलुुु, प्रवाल पिष्टी, गिलोय, मेथी, अश्वगंधा, शिलाजीत सत्, दशमूल इत्यादि।
मुख्य गुण-धर्म :
  • इसके सेवन से विभिन्न प्रकार की वातज व्याधियों- जानूशूल, मासपेशियों में दर्द, वातरक्त, समस्त संधि बन्धनों में पीड़ा इत्यादि विकारों में लाभ होता है।
  • यह ज्वरघ्न, जोड़ों के दर्द में आराम देने वाली एवं शोथहर गुणों से युक्त है।
  • इसके सेवन से सभी प्रकार के जोड़ों के दर्द में लाभ होता है। स्नायु सम्बन्धी शूल तथा शोथ इत्यादि रोगों में लाभ होता है।
सेवन-विधि व मात्रा : 1 से 2 गोली दिन में 2 बार जल के साथ भोजन के उपरान्त सेवन करें।
दिव्य मधुकल्प वटी
मुख्य घटक : दिव्य मधुनाशिनी वाले द्रव्यों का बिना घनसत् निकाले सूक्ष्म चूर्ण करके मधुकल्प वटी बनाई गई है।
मुख्य गुण-धर्म व सेवन-विधि : मधुनाशिनी की तरह।
दिव्य मधुनाशिनी वटी
मुख्य घटक : गुडुची, जामुन, कुटकी, निम्ब, चिरायता, गुड़मार, करेला, कुटज, गोक्षुर, कचूर, हल्दी, कालमेघ, बबूल फली, काली जीरी, अतीस कड़वा, अश्वगन्धा, बिल्व, त्रिफला, वट जटा आदि का घनसत् (एक्सट्रैक्ट), शिलाजीत, मेथी आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
1.   यह अग्नाशय (पेन्क्रियाज) को क्रियाशील कर अग्नाशय से इन्सुलिन का सही मात्रा में स्राव कराती है तथा उसके माध्यम से अतिरिक्त ग्लूकोस को ग्लाइकोजन में परिवर्तित कराती है।
2.   यह कमजोरी व चिड़चिड़ापन दूर करती है तथा मस्तिष्क को ताकत प्रदान कर कार्यक्षमता बढ़ाती है। हाथ-पैरों में आई शून्यता को दूर कर स्नायुतन्त्र को बलिष्ठ बनाती है।
3.   यह मधुमेह की वजह से होने वाली थकान, कमजोरी और तनाव जैसी समस्याओं से निजात दिलाती है।
4.   बहुत प्यास लगना, बार-बार मूत्र की इच्छा, वजन घटना, धुंधली दृष्टि, सनसनाहट, थकान, त्वचा, मसूड़ों व मूत्राशय का संक्रमण आदि विकारों से रक्षा करती है।
5.   मधुनाशिनी से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है।
सेवन-विधि व मात्रा : 2-2 गोली प्रात: नाश्ते व सायंकाल भोजन से एक घण्टा पहले पानी के साथ लें या प्रात: नाश्ता व रात्रि में भोजन के पश्चात् गुनगुने पानी या दूध के साथ सेवन करें। यदि आप शुगर के लिए इन्सुलिन या एलोपैथिक औषध लेते हैं तो मधुनाशिनी प्रारम्भ करने के दो सप्ताह बाद शुगर परीक्षण कर लें, जैसे-जैसे शुगर का स्तर सामान्य आता जाए वैसे-वैसे अंग्रेजी औषध को धीरे-धीरे कम कर दें। मधुनाशिनी की मात्रा भी जैसे-जैसे शुगर कम होती जाए, वैसे-वैसे कम करते जाएँ।
दिव्य मुक्तावटी
मुख्य घटक : हिमालय की पवित्र जड़ी-बूटियाँ जैसे-ब्राह्मी, शंखपुष्पी, उस्तेखद्दूस, अर्जुन, पुष्करमूल, जटामांसी, सर्पगन्धा, ज्योतिष्मती, वचा, अश्वगन्धा आदि वनौषधियों एवं मोतीपिष्टी आदि सौम्य द्रव्यों से निर्मित दिव्य औषध है।
मुख्य गुण-धर्म :
1.    मुक्तावटी पूर्णरूप से दुष्प्रभावरहित है।
2.    उच्च रक्तचाप चाहे गुर्दों के विकार या हृदयरोग के कारण से हो अथवा कोलेस्ट्रॉल, चिन्ता, तनाव या वंशानुगत आदि किसी भी अन्य कारण से हो तथा बी.पी. के साथ यदि अनिद्रा, घबराहट, छाती व सिर में दर्द भी हो तो मात्र इस एक ही औषध के प्रयोग से इन सब समस्याओं से छुटकारा मिल जाता है।
3.    यदि उच्च रक्तचाप के कारण अनिद्रा, बेचैनी हो तो उसके लिए अलग से औषधि लेने की आवश्यकता नहीं है। जिन्हें नींद पूरी आती हो, उनकी नींद नहीं बढ़ेगी।
4.    किसी भी प्रकार की कोई भी एलोपैथिक आदि अन्य औषध सेवन कर रहे हों तो 'मुक्तावटीÓ सेवन प्रारम्भ करने के बाद उसे आप तुरन्त बन्द कर सकते हैं। यदि आप बहुत लम्बे समय से अन्य औषध सेवन कर रहे हों या भयग्रस्त हों तो दूसरी औषध की मात्रा धीरे-धीरे कम करते हुए बन्द कर दें।
5.    यदि किसी एलोपैथिक आदि औषध को लेने पर भी आपका रक्तचाप सामान्य न हो पाता हो तथा साथ ही नींद न आना या घबराहट रहती हो तो भी मुक्तावटी से तुरन्त लाभ मिलेगा।
6.    एलोपैथिक औषध आपको रक्तचाप से केवल राहत दिला सकती हैं, रोग को समूल नष्ट नहीं कर सकती। जबकि 'मुक्तावटीÓ लगभग एक-डेढ़ वर्ष में ही उच्च रक्तचाप को सदा के लिए सामान्य कर देती है एवं सभी औषधियाँ छूट जाती हैं। यदि अपवाद स्वरूप किसी को हमारी औषध लम्बे समय तक भी खानी पड़े तो इसका कोई दुष्प्रभाव नहीं होता।
सेवन-विधि व मात्रा : एलोपैथिक औषध लेते हुए भी रक्तचाप 160-100 या इससे अधिक होने पर दो-दो गोली सुबह नाश्ते से पहले दोपहर को भोजन से पहले और शाम को खाने से एक घण्टा पहले दिन में तीन बार ताजे पानी से लें। गोली चबा कर ऊपर से पानी पीना अधिक लाभप्रद है। जब रक्तचाप सामान्य होने लगे तो धीरे-धीरे एलोपैथिक औषध को बन्द करके मुक्तावटी की दो-दो गोली दो बार लेते रहें। यदि एलोपैथिक औषधि का सेवन करते हुए रक्तचाप 140-90 रहता हो तब मुक्तावटी की दो-दो गोली सुबह-शाम प्रारम्भ कर दें। रक्तचाप सामान्य होने पर एलोपैथिक औषध बन्द कर दें।
विशेष : यदि आप बी.पी. के लिए एलोपैथिक औषध को ले रहे हों तो आप मुक्तावटी प्रारम्भ करने के बाद बी.पी. जाँचते रहें, जब बिना अंग्रेजी औषध के ही बी.पी. सामान्य हो जाय तो अंग्रेजी औषध को बन्द कर दें। यदि आप लम्बे समय से अंग्रेजी औषध को ले रहे हों तो उसकी मात्रा धीरे-धीरे कम करते हुए बन्द कर दें। मुक्तावटी भी दो-दो गोली कुछ समय खाने के बाद लेते रहें। रक्तचाप जब सामान्य रहने लगे तो मुक्तावटी पहले दो-दो, फिर एक-एक गोली कुछ समय लेने के बाद, केवल सुबह एक गोली खाने मात्र से बी.पी. नियन्त्रित रहने लगेगा। कुछ समय के बाद एक गोली खाने से भी जब बी.पी. 120-80 से भी कम होने लगे तब सप्ताह में दो बार एक-एक गोली लें। फिर सात दिन में, और फिर इस मुक्तावटी को बन्द कर देंगे, तब भी आपका बी.पी. बढ़ेगा नहीं अर्थात् आप पूर्ण स्वस्थ हो जाएँगे।
पथ्य-अपथ्य (खान-पान) : हल्का व सुपाच्य भोजन लें। प्रात:काल उठकर दो से चार गिलास पानी पीएँ। नमक कम मात्रा में लें।
दिव्य मेधावटी
मुख्य घटक : ब्राह्मी, शंखपुष्पी, वचा, ज्योतिष्मती, अश्वगन्धा, जटामांसी, उस्तेखद्दूस, पुष्करमूल आदि का घनसत् (एक्सट्रेक्ट) तथा प्रवाल पिष्टी, मोती पिष्टी, व चाँदी भस्म आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
  • यह वटी स्मरणशक्ति की कमजोरी, सिर दर्द, निद्राल्पता, स्वभाव का चिड़चिड़ापन, दौरे (एपिलेप्सी) आदि में लाभप्रद है।
  • स्वप्न अधिक आना व निरन्तर नकारात्मक विचारों के कारण अवसाद (डिप्रेशन), घबराहट आदि इसके सेवन से दूर होता है तथा आत्मविश्वास व उत्साह बढ़ता है।
  • विद्यार्थियों तथा मानसिक कार्य करने वालों के लिए यह अत्यन्त हितकारी, प्रतिदिन सेवन करने योग्य, बुद्धि व स्मृतिवर्धक उत्तम टॉनिक है।
  • वृद्धावस्था में स्मृतिभ्रंश होना अर्थात् स्मरण शक्ति का अभाव व किसी भी पदार्थ आदि को सहसा ही भूल जाना आदि में भी यह एक सफल व निरापद औषध है।
सेवन-विधि व मात्रा : 1 से 2 गोली सुबह खाली पेट दूध से या नाश्ते के बाद पानी से और सायंकाल खाना खाने के बाद पानी या दूध से सेवन करें।
दिव्य मेदोहर वटी
मुख्य घटक : शुद्ध गुग्गुल शिलाजीत सत् तथा हरड़, बहेड़ा, आँवला, कुटकी, पुनर्नवामूल, निशोथ, वायविडंग आदि का घनसत्।
मुख्य गुण-धर्म :
  • यह पाचन तन्त्र में आई विकृति को दूर कर शरीर के अतिरिक्त बढ़े हुए मेद (फैट) को कम करके शरीर को सुन्दर, सुडौल, कान्तिमय व स्फूर्तिमय बनाती है।
  • यह थायरायड की विकृति, सन्धिवात, जोड़ों का दर्द, कमर दर्द, घुटनों के दर्द में भी विशेष लाभप्रद है।
  • यह शरीर के मेद का पाचन करके हड्डी, मज्जा व शुक्रादि धातुओं को पुष्ट करती है अर्थात् मेद को रूपान्तरित करके शरीर को गठीला बनाती है। इसके सेवन से शरीर पर कोई भी दुष्प्रभाव नहीं होता।
सेवन-विधि व मात्रा : 1-1 या 2-2 गोली शरीर के वजन के अनुसार दिन में दो या तीन बार खाने से आधा घण्टा पहले या भोजन के एक घण्टे बाद गुनगुने पानी से सेवन करें। मीठा व घी बन्द करके सुबह उठकर तथा दिन में भी गुनगुने पानी का अधिक मात्रा में उपयोग करें। तली हुई व मैदे की चीजें तथा मेद को बढ़ाने वाले पदार्थों का सेवन न करें।
दिव्य यौवनामृत वटी
मुख्य घटक : जावित्री, जायफल, केशर, सफेद मूसली, स्वर्ण भस्म, कौंच के बीज, अकरकरा, बलाबीज, शतावर, मकरध्वज आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
  • ढ़लती आयु या थके कमजोर शरीर वालों के लिए यह अत्यन्त बलवर्धक और पुष्टिकारक हैै।
  • यह वटी दिल और दिमाग को शक्ति देने वाली, शुक्राणु अल्पता तथा शरीर में स्फूर्ति बढ़ाने वाली और वाजीकारक है।
  • नशीली वस्तु का सेवन किए बिना शुक्राणुवर्धक, अत्यन्त बलवर्धक, पुष्टिकारक, वाजीकरण, ओज, तेज, कान्तिवर्धक, नपुंसकता नाशक व शक्ति देने वाली सर्वोत्तम औषध है।
सेवन- विधि व मात्रा : 1 या 2 गोली प्रात: नाश्ते व सायं खाने के बाद दूध के साथ सेवन करें।
दिव्य वृक्क  दोषहर वटी
मुख्य घटक : ढाकफूल, पित्तपापड़ा, पुनर्नवामूल, पाषाण भेद, वरुण छाल, कुलथी, अपामार्ग, कासनी, पीपल छाल, नीम छाल, मकोयदाना, गोखरू दाना, अमलतास गूदा, बलामूल आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
1.     इसका सेवन वृक्कदोष, शोथ, मूत्राश्मरी आदि में लाभदायक होता है।
2.     वृक्क निष्क्रियता (Chronic Renal Failure) में इसका सेवन करने से विशेष लाभ मिलता है।
सेवन-विधि व मात्रा : आवश्यकतानुसार एक से दो गोली दिन में दो बार वृक्कदोषहर क्वाथ से लेने से विशेष लाभ मिलता है।
नोट : इसका सेवन चिकित्सक के परामर्शानुसार करना उचित रहेगा।
दिव्य शिलाजीत रसायन वटी
मुख्य घटक : शिलाजीत, अश्वगन्धा, भूमि आँवला, त्रिफला आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
1.     इस वटी का प्रभाव वातवाहिनी नाड़ी तथा वृक्क (मूत्र-पिण्ड) एवं वीर्यवाहिनी शिराओं पर विशेष होता है।
2.     यह वातशामक, बलवर्धक, वीर्यवर्धक है। इसके सेवन से स्वप्नदोष, प्रमेह, श्वेतप्रदर आदि में विशेष लाभ होता है।
सेवन-विधि व मात्रा : 2-2 गोली दूध अथवा गुनगुने जल के साथ भोजनोपरान्त लें।
दिव्य स्त्रीरसायन वटी
मुख्य घटक : पुत्रजीवक, श्वेत चन्दन, कमल, दारुहल्दी, वंशलोचन, प्रवाल पिष्टी, शिलाजीत, शतावर, शिवलिंगी बीज, पारस पीपल, मुलैठी, त्रिफला, अम्बरधान, बीजबन्द (बला बीज), आँवला, अशोक, नागकेशर, अश्वगंधा, देवदारु, शुद्ध गुग्गुलुुु आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
  • सम्पूर्ण स्त्री रोगों जैसे श्वेतप्रदर, रक्तप्रदर, मासिकधर्म की अनियमितता या कटि-पेडू की पीड़ा आदि में विशेष लाभप्रद है।
  • अति मासिकस्राव में विशेष उपयोगी है। कुछ समय सेवन करने से समस्त स्त्री रोग दूर हो जाते हैं।
  • चेहरे पर झुर्रियाँ पडऩा, आँखों के नीचे कालिमा, हर समय शरीर में थकान व आलस्य जैसे विकारों को दूर करने में स्त्रीरसायन वटी अत्यधिक सहायक है।
सेवन-विधि व मात्रा : 1 से 2 गोली दिन में दो से तीन बार खाने के बाद दूध या पानी से लें।
दिव्य हृदयामृत वटी
मुख्य घटक : अर्जुन छाल, अमृता, अश्वगन्धा, रास्ना, निर्गुण्डी, पुनर्नवा, चित्रक, नागरमोथा आदि का घनसत् (एक्सट्रैक्ट), हीरक भस्म, अकीक पिष्टी, संगेयशव पिष्टी, मोती पिष्टी, चाँदी भस्म, शिलाजीत सत् व शुद्ध गुग्गुलुुु आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
  • इसके सेवन से हृदय को ताकत मिलती है। इससे हृदय की धमनियों के अवरोध (ब्लॉकेज) दूर होते हैं। बढ़े हुए कोलेस्ट्रॉल का नियमन होता है।
  • बार-बार उठने वाले हृदय शूल (एञ्जाइना) में भी यह तुरन्त प्रभावकारी है।
  • हृदय की कोशिकाओं को क्रियाशील बना देती है। बेचैनी, घबराहट को दूर कर हृदय की कार्यक्षमता बढ़ाती है।
  • यह हृदय के अन्दर आई हुई अवरुद्धता (ब्लॉकेज) को दूर करके हृदय को स्वस्थ रखने में अत्यन्त सहयोगी है।
  • यदि आप हृदय का ऑपरेशन करा चुके हैं तो भी हृदय को स्वस्थ बनाए रखने के लिए आप दिव्य हृदयामृत वटी का सेवन कर सकते हैं।
मात्रा व अनुपान : 1 से 2 गोली प्रात: व सायं दूध या गुनगुने पानी अथवा अर्जुन छाल के क्वाथ के साथ लें। अर्जुन छाल 2 से 3 ग्राम लेकर उसको एक कप दूध व एक कप पानी में पकाएँ और जब एक कप शेष रह जाय तब छानकर पीना या अर्जुन क्वाथ (काढ़ा) पानी में पकाकर पिया जा सकता है। यदि आप हृदय के लिए एलोपैथिक औषध प्रयोग कर रहे हैं तो जैसे-जैसे हृदयामृत के सेवन से आपका हृदय स्वस्थ होता जाए वैसे-वैसे अंग्रेजी औषधियों को डॉक्टर के परामर्श से कम कर देें।
दिव्य अश्वगंधा कैप्सूल
मुख्य घटक : अश्वगंधा घनसत् इत्यादि।
मुख्य गुण-धर्म :
1.   इसके सेवन से शारीरिक दुर्बलता, मानसिक तनाव, अनिद्रा आदि रोगों में लाभ होता है।
2.   यह मस्तिष्क तथा हृदय को बल प्रदान करता है।
3.   यह स्नायु दौर्बल्य तथा वात विकारों को दूर करने वाली श्रेष्ठ औषधि है।
सेवन-विधि व मात्रा : 1 से 2 कैप्सूल प्रतिदिन सुबह-शाम नाश्ते या खाने के बाद दूध या जल के साथ सेवन करें।
दिव्य अश्वशिला कैप्सूल
मुख्य घटक : अश्वगंधा घनसत्, शिलाजीत सत् इत्यादि।
मुख्य गुण-धर्म :
  • यह थकान, तनाव, यौन दौर्बल्य, अस्थमा, जोड़ों का दर्द, मधुमेह जन्य दौर्बल्य, धातु रोग, मूत्र-विकार तथा शारीरिक दौर्बल्य में लाभप्रद है।
  • यह यौन विकारों को दूर करने की निरापद व प्रभावशाली औषधि है।
  • इसमें उपस्थित अश्वगन्धा तनाव व थकान को दूर करता है तथा शिलाजीत शुक्रधातु का पोषण कर मधुमेह तथा यौन दौर्बल्य को दूर कर जीवनीय शक्ति का संचार करता है।
  • यह रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है।
सेवन-विधि व मात्रा : 1 से 2 कैप्सूल दिन में 2 बार दूध के साथ भोजन के उपरान्त सेवन करें।
दिव्य शिलाजीत कैप्सूल
मुख्य घटक : शिलाजीत सत् इत्यादि।
मुख्य गुण-धर्म :
  • इसका सेवन क्लैब्य (नंपुसकता), स्नायु विकारों एवं रक्तमेह (यदि शुगर का स्तर बढ़ा हो तो) में अति लाभकारी होता है।
  • यह मूत्र-विकारों में लाभकारी है।
  • जिनको उच्च रक्तचाप की समस्या हो तो उन्हें इसे कम मात्रा में या चिकित्सक के परामर्शानुसार सेवन करना चाहिए।
  • यह मासपेशियों को ताकत प्रदान करता है।
  • यह यौन-दुर्बलता, वातज-विकारों, कफज-विकारों, धातु रोगों तथा मूत्र-विकारों में लाभप्रद व जीवनीय-शक्ति को बढ़ाने वाला है।
सेवन-विधि व मात्रा : 1 से 2 कैप्सूल दिन में 2 बार दूध के साथ भोजन के उपरान्त सेवन करें।
दिव्य अश्मरीहर क्वाथ
मुख्य घटक : पाषाणभेद, वरुण, पुनर्नवा, गोक्षुर।
मुख्य गुण-धर्म : दिव्य अश्मरीहर क्वाथ आयुर्वेद में वर्णित मूत्रल एवं अश्मरी भेदन वनस्पतियों से निर्मित है। इसका सेवन मुख्य रूप से वृक्काश्मरी में अति लाभदायक है। अश्मरीहर क्वाथ का प्रयोग पित्ताश्मरी में भी किया जाता है। इसके अतिरिक्त समस्त मूत्र-विकारों जैसे मूत्रकृच्छ्र, मूत्रदाह आदि में भी इसका सेवन लाभकारी है।
सेवन-विधि व मात्रा : एक चम्मच या 5 ग्राम क्वाथ को लेकर 400 मिली. पानी में पकाएँ। जब एक चौथाई शेष रह जाय तब छानकर ठण्डा करके प्रात: सायं खाली पेट लें।
दिव्य कायाकल्प क्वाथ
मुख्य घटक : बावची बीज, पनवाड़, हल्दी, दारुहल्दी, खैर छाल, करंज बीज, नीम छाल, मंजीठ, गिलोय, चिरायता, कुटकी, चन्दन, देवदारु, उषब, द्रोणपुष्पी आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
1.    इस क्वाथ का सेवन करने से सभी सब प्रकार के चर्मरोग, एग्जिमा, कुष्ठ रोग, श्लीपद आदि रोगों में अत्यन्त लाभकारी है।
2.    इससे पेट भी साफ  होता है। मोटापा कम करने में भी यह सहयोग करता है।
3.   चर्मरोग के लिए कायाकल्प वटी और मोटापे के लिए मेदोहर वटी के साथ इसका सेवन करें।
सेवन-विधि : 5 से 10 ग्राम क्वाथ को लगभग 400 मिली. पानी में पकाकर जब लगभग 100 मिली. शेष रह जाय तब छानकर सुबह खाली पेट व रात्रि को भोजन से लगभग 1 घण्टा पहले पीएँ। इसका स्वाद कड़वा है। यदि आपको मधुमेह नहीं है तो शहद या मिश्री मिलाकर भी पी सकते हैं। यदि काढ़ा अधिक मात्रा में न पीया जाय, तो ज्यादा उबालें और कम जल शेष रहने पर छानकर पीयें।
नोट : क्वाथ को पकाने से पहले लगभग 8-10 घण्टे भिगोकर रखना अधिक गुणकारी होता है।
दिव्य पीड़ान्तक क्वाथ
मुख्य घटक : पिप्पली मूल, निर्गुण्डी, अश्वगन्धा, रास्ना, नागरमोथा, एरण्डमूल, सोंठ, अजवायन, नागकेशर, गजपीपल, पारिजात आदि वातशामक औषधियाँ।
मुख्य गुण-धर्म : जोड़ों का दर्द, गृध्रसी (सियाटिका), गठिया आदि सभी प्रकार की वेदनाओं व शोथ में लाभप्रद है।
प्रयोग-विधि एवं मात्रा : 5 से 10 ग्राम क्वाथ को लगभग 400 मिली. पानी में पकाएँ। जब लगभग 100 मिली. शेष रह जाय तब छानकर सुबह खाली पेट व रात को सोते समय पीएँ। विशेष लाभ के लिए किसी भी वातशामक औषध को काढ़े के साथ सेवन करने से शीघ्र लाभ होता है। अतिशोथ व पीड़ा के लिए क्वाथ स्नान व सिकाई से भी विशेष लाभ होता है।
क्वाथ स्नान-विधि :
  • रोगानुसार दिये गये क्वाथ से यदि वाष्प (भाप) लेनी हो तो निर्दिष्ट औषध को 1-1.5 लीटर पानी में प्रेशर कुकर में डालकर पकाएँ। जब सीटी से वाष्प निकलने लगे, तब सीटी को हटाकर उसके स्थान पर गैस वाला रबड़ का पाइप लगा दें तथा पाइप के दूसरे सिरे से निकलती हुई वाष्प से रोगयुक्त स्थान पर वाष्प दें। पाईप के जिस सिरे से वाष्प निकलती है वहाँ कपड़ा लगाकर रखें, अन्यथा गुनगुने जल के छींटे शरीर को जला सकते हैं। उचित समय तक वाष्प लेने के बाद शेष बचे गुनगुने जल से पीड़ायुक्त स्थान पर सिकाई करें।
  • यदि वाष्प न लेना हो तो औषध को आवश्यकतानुसार 3-4 लीटर पानी में पकाएँ। जब उबलते हुए लगभग आधा पानी शेष रह जाए तो गुनगुने जल को कपड़े आदि के माध्यम से लेकर रोगयुक्त स्थान की सिकाई करें।
दिव्य मेधा क्वाथ
मुख्य घटक : ब्राह्मी, शंखपुष्पी, अश्वगन्धा, जटामांसी, उस्तेखद्दूस, मालकांगनी, सौंफ, गाजवा (गोजिह्वा) आदि।
मुख्य गुण-धर्म : जीर्ण शिर:शूल, माईग्रेन (अर्धावभेदक), निद्राल्पता, अवसाद (डिप्रेशन) में अत्यन्त लाभप्रद है। इसके सेवन से घबराहट दूर होती है तथा यह स्मृतिवर्धक है
सेवन-विधि व मात्रा : इसका काढ़ा बनाकर सुबह व शाम पीएँ। साथ में मेधावटी का सेवन करने से शीघ्र लाभ मिलता है।
दिव्य वृक्क दोषहर क्वाथ
मुख्य घटक : पाषाणभेद, गोखरू, पुनर्नवामूल, कुलथी, वरुणछाल आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
  • इसका सेवन हमारे उत्सर्जन तन्त्र को विशेष रूप से प्रभावित करता है। यह मूत्रल, शीतल व शोथहर है।
  • इसके सेवन से गुर्दे की पथरी तथा मूत्राशय की पथरी टूट-टूटकर निकल जाती है। जिनको बार-बार पथरी बनने की शिकायत हो, इसका सेवन करने पर निश्चित रूप से पथरी बननी बन्द हो जाती है। इससे गुर्दे के अन्दर का इन्फैक्शन व अन्य विकार दूर होते हैं। पित्ताशय की पथरी में भी यह लाभप्रद है।
सेवन-विधि व मात्रा : दो चम्मच (लगभग 10 ग्राम) की मात्रा में क्वाथ लेकर उसे डेढ़ गिलास (आधा लीटर) पानी  में पकाएँ तथा 1/4 भाग शेष बचने पर छानकर सुबह खाली पेट तथा दोपहर के भोजन के 5-6 घण्टे बाद खाली पेट लें। इसके साथ अश्मरीहर रस के सेवन से विशेष लाभ होगा।
दिव्य सर्वकल्प क्वाथ
मुख्य घटक : पुनर्नवा, भूमि आँवला, अमलतास, मकोय आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
  • इस क्वाथ के सेवन का प्रभाव हमारे यकृत् को सबल बनाता है। जिससे यकृत् अपना कार्य सुचारु रूप से करने लगता है।
  • आजकल के दूषित खाने तथा दूषित पेयों (कोल्ड ड्रिंक्स, चाय, कॉफी) आदि के माध्यम से शरीर के अन्दर जहरीले रसायन एकत्र होकर यकृत् की क्रियाशीलता को कम या नष्ट कर देते हैं। फलत: शरीर बीमारियों का घर हो जाता है और पीलिया उसकी अत्यन्त जटिल स्थिति Hepatitis B तथा C जैसी असाध्य अवस्था में पहुँच जाता है। सर्वकल्प क्वाथ यकृत् से सम्बन्धित उपरोक्त ॥द्गश्चड्डह्लद्बह्लद्बह्य क्च तथा ष्ट जैसी जीर्ण अवस्थाओं से बचाकर यकृत् को क्रियाशील बनाता है।
  • इसके सेवन से पीलिया (पाण्डु), यकृत् की वृद्धि, सूजन, मूत्राल्पता, सर्वांग-शोथ तथा पेट व पेड़ू में दर्द होना, भोजन का पाचन न होना, भूख न लगना आदि समस्त विकार दूर होते हैं।
सेवन-विधि व मात्रा : 1 चम्मच (लगभग 5 ग्राम) क्वाथ को एक गिलास पानी (लगभग 300 मिली.) में पकाकर 100 मिली. जल बचने पर छानकर खाली पेट पीएँ। इसी प्रकार सायंकाल खाने से एक घण्टा पहले या रात्रि को सोते समय लें। यदि पेट साफ नहीं होता हो तो पकाते समय उसमें 8-10 मुनक्का भी डाल लें।
दिव्य कायाकल्प तेल
मुख्य घटक : बावची बीज, पनवाड़ बीज, दारुहल्दी, हल्दी, करंज बीज, निम्ब छाल, हरड़, बहेड़ा, आँवला, मंजिष्ठा, अमृता, चिरायता, कुटकी, श्वेत चन्दन, देवदारु, काली जीरी, द्रोणपुष्पी, कंटकारी, उषब, रीठा, गोमूत्र, तिल तेल आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
  • यह तेल दाद, खाज, खुजली, चमला (एग्जीमा), श्वेत कुष्ठ, सोराइसिस, शीतपित्त, चकत्ते, स्किन एलर्जी, सन बर्र्निंग आदि समस्त चर्मरोगों में तुरन्त लाभ देता है।
  • हाथ पैरों का फटना, जलने, कटने व घाव आदि पर भी लगाने से सद्य: प्रभावकारी, यह कायाकल्प तेल प्रत्येक घर में सदैव रखने योग्य दिव्य औषध है।
उपयोग-विधि : रोगग्रस्त स्थान पर दिन में 2-3 बार लगाएँ।
दिव्य केश तेल
मुख्य घटक : भृंगराज, ब्राह्मी, आँवला, श्वेत चन्दन, दारुहल्दी, कमल, अनन्तमूल, केतकी, जटामाँसी, नील, रतनजोत, श्वेत रत्ती, प्रियंगु, लोध्र, नागकेशर, नागरमोथा, बला, तिल तेल आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
  • यह बालों के लिए अमृत समान है। यह तेल असमय बालों का सफेद होना, झडऩा, रूसी, गंजापन आदि को रोकता है। इसको लगाने से बाल स्वस्थ व घने होते हैं।
  • अनेक दिव्य जड़ी-बूटियों के मिश्रण से बना हुआ यह तेल आँखों को शक्ति तथा दिमाग को शीतलता व ताकत देता है। सिर दर्द व सब प्रकार के शिरो विकारों में लाभ प्रदान करता है।
उपयोग-विधि : इस तेल को बालों की जड़ों में लगाकर अच्छी तरह मालिश करें।
दिव्य पीड़ान्तक तेल
मुख्य घटक : वत्सनाभ, मधुयष्टि, पिप्पलीमूल, सैंधा नमक, वच, गजपीपल, जटामांसी, नागकेशर, हल्दी, दारुहल्दी, तेजपात, भृंगराज, मंजीठ, पलाशमूल, पुष्करमूल, सुगंधबाला, शतावर, सोंठ, सोयाबीन, चित्रकमूल, सौंफ, एरण्डमूल, अर्कमूल, धतूरा, अजवायन, कुपीलु, मालकांगनी, गन्धप्रसारणी, रास्ना, निर्गुण्डी, लहसुन, गोदुग्ध, दही, गोमूत्र, दशमूल, जीवक, मेदा, वृद्धि, काकोली, क्षीर काकोली, तिल तेल आदि।
मुख्य गुण-धर्म : जोड़ों का दर्द, कमर दर्द, घुटनों का दर्द, सर्वाइकल स्पोंडलाइटिस, स्लिपडिस्क आदि सभी प्रकार की वेदना, शोथ व पीड़ा में लाभप्रद है।
उपयोग-विधि : पीड़़ायुक्त स्थान पर धीरे-धीरे मालिश करें। यह तेल केवल बाह्य प्रयोगार्थ ही (स्नशह्म् श्व3ह्लद्गह्म्ठ्ठड्डद्य ह्यद्ग ह्रठ्ठद्य4) है। मालिश सदा ही हृदय की ओर उचित बल का प्रयोग करते हुए धीरे-धीरे करनी चाहिए।
दिव्य उदरकल्प चूर्ण
मुख्य घटक : मुलेठी, सौंफ, सनाय, रेवंदचीनी, गुलाब फूल, छोटी हरड़, मिश्री आदि।
मुख्य गुण-धर्म : यह पित्तशामक, मृदु विरेचक और सौम्य औषध है। इस चूर्ण के सेवन से पेट साफ होकर कब्ज दूर होता है। इसके सेवन से आँतों में किसी प्रकार की जलन या विकार उत्पन्न नहीं होते। यह जठराग्नि को प्रदीप्त कर आँव का पाचन करता है।
सेवन-विधि व मात्रा : 2 से 4 ग्राम तक रात्रि को सोते समय गुनगुने जल या गुनगुने दूध के साथ लें। इसमें मिश्री है। अत: मधुमेह के रोगी सेवन न करें। यह मृदु होने से बच्चों के लिए भी हानिरहित विरेचक है।
दिव्य गैसहर चूर्ण
मुख्य घटक : अजवायन, काली मिर्च, नींबू सत्, जीरा, काला नमक, छोटी हरड़, शुद्ध हींग आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
  • इस चूर्ण के सेवन से भोजन का पाचन होता है तथा अम्लपित्त आदि रोगों में लाभ होता है।
  • भोजन के पश्चात् पेट भारी होना, अफारा होना, दर्द, भोजन में अरुचि आदि रोगों में तुरन्त लाभ प्रदान करता है।
सेवन-विधि व मात्रा : भोजनोपरान्त आधा चम्मच गुनगुने जल से सेवन करें। पेट में दर्द, अफारा, बेचैनी आदि की अवस्था में किसी भी समय आधा चम्मच गुनगुने पानी से लें।
दिव्य दिव्य चूर्ण
मुख्य घटक : गुलाब फूल, सोंठ, सैंधा नमक, सनाय पत्ती, छोटी हरड़, कालादाना, सौंफ आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
  • यह चूर्ण कब्ज को दूर करता है तथा आँतों में जमे मल को साफ कर बाहर निकालता है। आँतों को क्रियाशील बनाता है, जिससे आँतों के अन्दर की परत पर मल को पुन: जमने नहीं देती।
  • यह चूर्ण उदरशूल, आध्मान, अरुचि आदि विकारों में लाभप्रद है।
सेवन-विधि व मात्रा : 1 चम्मच या आवश्यकतानुसार रात को सोते समय गुनगुने पानी से लें।
दिव्य वातारि चूर्ण
मुख्य घटक : सोंठ, अश्वगन्धा, सुरंजान मीठी, कुटकी, मेथी आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
1.  इस चूर्ण के सेवन से सब प्रकार के वातरोग, आमवात, संधिशूल, सर्वांग वेदना आदि विकारों में लाभ होता है।
2.   यह शूलनाशक तथा प्रकुपित वायु का शमन कर आमवात, गृध्रसी, पीठ व कमर दर्द आदि को दूर करता है।
सेवन-विधि व मात्रा : 2 से 4 ग्राम तक गुनगुने जल या दूध के साथ दोपहर-सायं के भोजन के बाद दो बार सेवन करें।
दिव्य अश्मरीहर रस
मुख्य घटक : यवक्षार, मूलीक्षार, श्वेत पर्पटी, हजरूलयहूद आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
  • यह रस (पाउडर) मूत्रल है। इसके सेवन से जमा हुआ कैल्शियम घुलकर शरीर के बाहर निकल आता है, जिससे उसके कारण उत्पन्न वेदनाओं से मुक्ति मिलती है। यह गुर्दे की शोथ व पीड़ा को भी दूर करता है। जिनको बार-बार पथरी बनने की शिकायत होती है, कुछ समय तक इसके सेवन से हमेशा के लिए पथरी बननी बन्द हो जाती है।
  • इस औषध के सेवन से मूत्रदाह का शमन होता है तथा शरीर में एकत्र विजातीय तत्व (टॉक्सिन्स) शरीर से बाहर निकल जाते हैं।
सेवन-विधि व मात्रा : 1 से 2 ग्राम अश्मरीहर रस सुबह खाली पेट तथा दोपहर खाने के 5-6 घण्टे बाद अश्मरीहर क्वाथ से लेें। इस अश्मरीहर रस को काढ़े के बिना भी सामान्य जल के साथ लिया जा सकता है।
दिव्य पीड़ान्तक वटी
मुख्य घटक : अजवायन, निर्गुण्डी, सुरंजान मीठी, अश्वगन्धा, रास्ना, मोथा, महावातविध्वंसन रस, प्रवाल पिष्टी, शिलाजीत, मोती पिष्टी, शुद्ध कुपीलु, हीरक भस्म, दशमूल, गिलोय, योगराज गुग्गुलुुु, मण्डूर भस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म आदि।
मुख्य गुण-धर्म : जोड़ों का दर्द, गठिया, कमर दर्द, सर्वाइकल स्पोण्डिलाइटिस, सियाटिका आदि में अत्यन्त लाभप्रद है। यह समस्त शारीरिक पीड़ाओं में शीघ्र तथा स्थाई लाभ देता है।
सेवन-विधि व मात्रा : 1-1 या 2-2 गोली दो बार दूध या गुनगुने जल के साथ भोजनोपरान्त लें।
दिव्य श्वासारि रस
मुख्य घटक : प्रवाल पिष्टी, अभ्रक भस्म, मुक्ताशुक्ति भस्म, टंकण भस्म, स्फटिका भस्म, गोदन्ती भस्म, कपर्दक भस्म, अकरकरा मूल, लवंग, दालचीनी, त्रिकटु चूर्ण, काकड़ा सिंगी, मधुयष्टि, रुदन्ती फल आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
  • श्वासारि रस का सेवन करने से फेफड़ों के ऊतकों में अधिक क्रियाशीलता आती है। श्वसननलिका-शोथ तथा फुफ्फुस-शोथ दूर होता है, जिससे अधिक मात्रा में ऑक्सीजन फेफड़ों को मिलती है और ब्रोन्काइटिस जैसी समस्याओं से छुटकारा मिलता है।
  • इसके सेवन से फेफड़ों में जमा हुआ कफ सरलता से बाहर निकल जाता है।
  • इसके सेवन से फेफड़ों की रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है तथा कफ, नजला, जुकाम, दमा, बार-बार छींकें आना, सिर में भारीपन, साइनस आदि रोगों में विशेष लाभ होता है। यह फेफड़ों को पोषण देने वाला एक उत्तम टॉनिक है।
सेवन-विधि व मात्रा : 500 मिग्रा से 1 ग्राम तक दिन में 2 या तीन बार भोजन से पहले शहद से या गुनगुने पानी से लें। इसको भोजन के बाद भी लिया जा सकता है। यदि श्वास की तीव्रता अधिक हो तो 50 ग्राम श्वासारि रस में अभ्रक भस्म 10 ग्राम, प्रवालपिष्टी 10 ग्राम मिलाकर सबकी 60 पुडिय़ा बनाकर 1-1 पुडिय़ा दिन में 2 या 3 बार शहद के साथ सेवन करें।
आँवला रस
बालों का असमय सफेद होना, ग्रोथ कम होना, झडऩा व गंजापन आदि समस्त केश रोगों के लिए साथ ही आँखों का चश्मा हटाने व समस्त नेत्र रोगों के लिए यह रस सर्वोत्तम है। इसके नित्य प्रयोग से पाचनतन्त्र, श्वसनतन्त्र, उत्सर्जनतन्त्र एवं प्रजननतन्त्र संतुलित एवं स्वस्थ होता है। वयावस्था-जन्य विकारों से शरीर की रक्षा करता है। आँवला रस उत्तम रसायन तथा वृष्य (वीर्यवर्धक) है। इसका प्रयोग स्वस्थ पुरुष के स्वास्थ्य को बनाये रखने तथा रोगी के रोग के निवारण हेतु किया जाता है। आयुर्वेद में आँवला फल को अमृत तुल्य कहा गया है। आँवला रस वय:स्थापक है। अत: मानव शरीर को रोगों से मुक्त रखता है। आँवला शीतवीर्य होने से पित्त के विकारों में शीघ्र ही लाभ पहुँचाता है। यह तीनों (वात, पित्त, कफ) दोषों को सम करके रोगों का निवारण करता है। इसके लागातार सेवन करते रहने से चेहरे की कान्ति तथा वर्ण की वृद्धि होती है।
सेवन-विधि व मात्रा : प्रात: उठते ही 25 से 50 मिली. रस गुनगुने या सामान्य जल में मिलाकर सेवन करें। आँवला या एलोवेरा रस का एक साथ मिलाकर सेवन करने से गैस आदि रोगों में विशेष लाभ होता है। आँवला रस शाम खाने के बाद भी सेवन कर सकते हैं।
घृतकुमारी स्वरस (एलोवेरा जूस)
पाचन तन्त्र को सदा स्वस्थ रखने, गैस, कब्ज, एसिडिटी, जोड़ों का दर्द, कैंसर, कोलाइटिस, यौनरोग, धातुरोग, श्वेतप्रदर व रक्तप्रदर आदि समस्त स्त्री रोगों के लिए यह अत्यन्त लाभकारी है। एलोवेरा एवं आँवला का स्वरस यदि प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त में खाली पेट व सायंकाल खाने के बाद पिया जाय तो व्यक्ति लम्बे समय तक निरोगी जीवन जी सकता है।
सेवन-विधि व मात्रा : सुबह 25 से 50 मिली. एलोवेरा स्वरस को पीकर ऊपर से गुनगुना पानी पी लें। शाम को भी खाने के बाद जल में मिलाकर सेवन कर सकते हैं। घृतकुमारी रस को आँवला रस व ज्वारे के रस के साथ भी लिया जा सकता है।
दिव्य कान्तिलेप
मुख्य घटक : मेंहदी बीज (पत्र), आमाहल्दी, हल्दी, मंजीठ, जायफल, सफेद चन्दन, सुगन्धबाला, स्फटिकभस्म, समुद्रफेन, कत्था, कपूर आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
  • यह लेप त्वचा पर आई हुई सभी समस्याओं जैसे-कील-मुँहासे, चेहरे पर झुर्रियों का पडऩा, निस्तेजता, कान्तिहीनता, कालापन आदि विकारों में शीघ्र लाभकारी है।
  • इसका चेहरे पर निरन्तर लेप करने पर यह लेप त्वचागत सभी विकारों को अवशोषित कर लेता है, जिससे रोगग्रस्त त्वचा पुन: स्वस्थ हो जाती है, चेहरे का प्राकृतिक सौन्दर्य फिर से निखरता है और मुख पर ओज, तेज व कान्ति आती है।
सेवन-विधि व मात्रा : लगभग एक चम्मच पाउडर लेकर पानी, गुलाब जल या कच्चा दूध मिलाकर लेप (पेस्ट) बना लें। इस लेप को चेहरे पर 3-4 घण्टे तक लगा रहने दें, बाद में गुनगुने पानी से धो लें।
दिव्य अमृत रसायन (अवलेह)
मुख्य घटक : आँवला पिष्टी, गोघृत, केशर, ब्राह्मी, शंखपुष्पी, बादाम, वंशलोचन, एला, दालचीनी, शतावर, कौंच बीज, प्रवाल पिष्टी आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
  • यह मस्तिष्क को पूर्ण पोषण देने वाला अत्यन्त लाभप्रद रसायन है। यह मेधावर्धक (बुद्धिवर्धक), शीतल, शरीर के सम्पूर्ण अंगों को शक्ति, पुष्टि व आरोग्य प्रदान करता है।
  • शरीर को पुष्ट करके बल, कान्ति को बढ़ाने वाला, नेत्रों के लिए हितकारी, शीतल रसायन जो गर्मी की ऋतु में विशेष रूप से सेवनीय है।
  • यह विद्यार्थियों व बुद्धिजीवियों के लिए एक उत्तम टॉनिक है।
सेवन-विधि व मात्रा : 1 से 2 चम्मच अर्थात् 10 से 20 ग्राम सुबह-शाम दूध के साथ या रोटी आदि के साथ चटनी की तरह भी प्रयोग कर सकते हैं।
पतंजलि दृष्टि (आई ड्रॉप)
नियमित रूप से 2-2 बूँद औषध को आँखों में डालने से मोतियाबिन्द कट जाता है। ग्लूकोमा के रोगी का आँख का दबाव कम हो जाने से धीरे-धीरे ठीक हो जाता है। कम उम्र में आँखों पर दूर या नजदीक का चश्मा, आँखों की एलर्जी, काला या सफेद मोतियाबिन्द (ग्लूकोमा व कैटरैक्ट), डबल विजन, कलर विजन, रेटिनाइटिस पिग्मेंटोसा, रतौंधी व यूवीआइटिस (1द्गद्बह्लद्बह्य) आदि समस्त नेत्र रोगों से बचने व इन समस्त नेत्र रोगों से छुटकारा पाने के लिए यह एक उत्तम अनुभूत औषध है।
सेवन-विधि व मात्रा : 1 से 2 बूँद सुबह-शाम आँख में डालें। बच्चों को गुलाब जल में मिलाकर डाल सकते हैं। 5 मिली. गुलाब जल में 5 बूँद दृष्टि आई ड्रॉप डालकर रख लें और इसे बच्चों एवं कोमल प्रकृति के व्यक्ति प्रयोग कर सकते हैं।
दिव्य धारा
मुख्य घटक : पिपरमेन्ट, कर्पूर, अजवायन सत्, लौंग तेल आदि।
गुण-धर्म व सेवन-विधि :
  • 5 से 10 बूँद दिव्य धारा को सौंफ आदि के अर्क में मिलाकर 15-15 मिनट में देने से हैजे में लाभ होता है। जब रोग में लाभ होने लगे तो समय भी उसी तरह बढ़ा दें अर्थात् आधे-आधे घण्टे, एक-एक घण्टे, दो-दो घण्टे पश्चात् देने लगें। इससे हैजे में निश्चित लाभ हो जाता है।
  • यह सिर दर्द, दाँत दर्द, कान का रोग, नकसीर, शीतपित्त, खाँसीअजीर्ण, मन्दाग्नि आदि में लाभदायक है।
  • सिर दर्द में माथे पर इसकी 3-4 बूँद लगाकर मालिश करने तथा सूँघने से सिर दर्द में तुरन्त राहत मिल जाती है। दाँत दर्द होने पर रूई में लगाकर पीड़ायुक्त स्थान पर लगा दें।
  • उदरशूल, आध्मान आदि उदर-विकारों में खाँड, बताशा या गुनगुने जल में 3-4 बूँद डालकर सेवन करें। दमा व श्वास में रूमाल पर दिव्यधारा लगाकर सूंघने व छाती पर लगाने से विशेष लाभ होता है। श्वास रोग बढऩे की वजह से यदि श्वास न ले पा रहे हों तो आधे से एक लीटर गुनगुने जल में 4-5 बूँद दिव्य धारा डालकर वाष्प लेने से तुरन्त लाभ मिलेगा।
दिव्य दन्तमंजन
मुख्य घटक : बबूल, नीम, मौलसरी, तुम्बरू, माजूफल, छोटी पीपल, अकरकरा मूल, लवंग, कालानमक, समुद्रफेन, सैंधानमक, स्फटिकभस्म, कर्पूर देशी, पिपरमेन्ट आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
  • इसके प्रयोग से मुख दौर्गन्ध्य, अरुचि आदि विकारों का शमन होता है जिसके फलस्वरूप मसूड़ों से निकलने वाला रक्त-पूय (पायरिया) दूर होता है तथा दाँतों में फँसे अन्न कण निकल जाते हैं।
  • इसके प्रयोग से दाँतों तथा मसूढ़ों के विकारों का शमन होता है।
सेवन-विधि : इस मंजन को मध्य की अंगुली से मसूड़ों तथा दाँतों पर अच्छी तरह मालिश करें या टूथ ब्रश से भी इस मंजन को कर सकते हैं। इसके पश्चात् पानी से अच्छी तरह सफाई करें। रात को भी खाने के बाद मंजन को प्रात: काल की तरह ही प्रयोग करें। इस प्रकार दिव्य दन्तमंजन के प्रयोग से दाँतो के सभी रोग दूर होते हैं।
दिव्य पेय (हर्बल टी)
मुख्य घटक : एला (इलायची), तेजपत्र, दालचीनी, लवंग, चन्दन, जावित्री, जायफल, काली मिर्च, गुलाबफूल, कमलफूल, अश्वगन्धा, सोमलता, पुनर्नवा, वासा, चित्रक, अमृता, भूमि आँवला, आज्ञाघास, बनप्साफूल, ब्राह्मी, शंखपुष्पी, तुलसी, छोटी पिप्पली, श्वेत चन्दन, चव्य, सोंठ, नागरमोथा, तेजपात, सौंफ, अर्जुन आदि।
मुख्य गुण-धर्म :
  • यह मादकतारहित मधुर स्वादयुक्त चाय का उत्तम विकल्प आयुर्वेदिक पेय है।
  • इस पेय के सेवन से शरीर में रोगप्रतिरोधक शक्ति का विकास होता है, जिससे कफ आदि रोग शरीर को आक्रान्त नहीं कर पाते। किसी असावधानीवश रोग शरीर में आ भी गया हो तो शीघ्र छुटकारा मिल जाता है।
  • इसके सेवन से मन्दाग्नि दूर होती है। मस्तिष्क को शान्ति व शक्ति प्राप्त होती है तथा शरीर की शक्ति में भी वृद्धि होती है। इस पेय का सेवन कॉलेस्ट्रॉल का नियमन करता है तथा हृदय रोगों से बचाता है।
  • यह दिव्य पेय यकृत को शक्ति प्रदान करता है। सबसे उत्तम बात तो यह है कि यह दूध में उपस्थित स्नेहत्व को नष्ट नहीं करती तथा निकोटिन रहित है, जबकि बाजार में उपलब्ध चाय में निकोटिन होती है तथा उसके सेवन से गैस, कब्ज व एसीडिटी जैसे रोग सहज ही पैदा हो जाते हैं।
सेवन-विधि तथा मात्रा:
इस पेय की उपयोग-विधि सामान्य चाय की तरह है। मात्रा भी सामान्य चाय की तरह ही है, बल्कि उससे भी कम मात्रा में डालना उचित है। इसे दूध में डालकर सामान्य चाय की अपेक्षा अधिक देर तक पकाएँ। इससे जड़ी-बूटियों का अधिक लाभ मिलेगा। आवश्यकतानुसार चीनी मिलाकर पीएँ।

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