पारंपरिक विज्ञान संस्कृति पर आधारित हैं

परम पूज्य योगऋषि स्वामी रामदेव जी महाराज

पारंपरिक विज्ञान संस्कृति पर आधारित हैं

  51वें अखिल भारतीय प्राच्यविद्या सम्मेलन में पूज्य स्वामी रामदेव जी महाराज को ‘योगीन्द्र सम्राट’, पूज्य आचार्य बालकृष्ण जी महाराज को ‘आयुर्वेद विद्या विभूति’ तथा पूज्या डॉ. साध्वी देवप्रिया जी को भारतीय ‘विद्या विशारदा’ उपाधि से सम्मानित किया गया।

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उडुपी (कर्नाटक)। श्री कृष्णमठ में आयोजित 51वें अखिल भारतीय प्राच्यविद्या सम्मेलन के उद्घाटन समारोह में प.पू.स्वामी रामदेव जी महाराज एवं प.पू. आचार्य बालकृष्ण जी महाराज ने कहा, ‘पारंपरिक विज्ञान संस्कृत पर आधारित हैं, जो सभी भाषाओं की मूल भाषा है।’ 
यह सम्मेलन भारतीय विद्वत परिषद् बैंगलोर, पर्याय पुट्टीगे मठ और केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय नई दिल्ली के सहयोग से आयोजित किया गया था। कार्यक्रम कृष्ण मठ के राजाङ्गण में हुआ। सम्मेलन का उद्घाटन पारंपरिक रूप से दीप प्रज्वलित करके और तुलसी के पौधे को पानी देकर किया गया। अखिल भारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन कर्नाटक सम्मेलन के दौरान, परम पूज्य स्वामी रामदेव जी महाराज को श्री सुगुनेंद्र तीर्थ स्वामीजी द्वारा ‘योगीन्द्र सम्राट’ की उपाधि एवं पूज्य आचार्य बालकृष्ण जी महाराज को ‘आयुर्वेद विद्या विभूति’ से सम्मानित किया गया। पूज्या डॉ. साध्वी देवप्रिया जी (विभागाध्यक्षा दर्शन विभाग एवं संकायाध्यक्षा मानविकी एवं प्राच्य विद्या संकाय) को भारतीय ‘विद्या विशारदा’ उपाधि से सम्मानित किया गया।
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सम्मेलन में पतंजलि योगपीठ हरिद्वार के संस्थापक अध्यक्ष योगऋषि स्वामी रामदेव जी महाराज ने प्राचीन ज्ञान के संरक्षण में संस्कृत की महत्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डालते हुए कहा कि गुरुकुलों में वेद और संस्कृत सीखने वालों को दुनिया भर में प्रसिद्ध होना चाहिए। उनमें विभिन्न क्षेत्रों में इतिहास रचने की इच्छा है और पतंजलि संगठन इस दिशा में काम कर रहा है। भारतीयों को ऋषियों की महान वंशावली के उत्तराधिकारी होने पर गर्व और सम्मान होना चाहिए। माधवाचार्य ने महान दार्शनिक और व्यावहारिक विचार प्रस्तुत किया कि मनुष्य ईश्वर की संतान हैं। इसलिए उडुपी काशी, मथुरा और वृंदावन के समान सम्मान का हकदार है।’
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संस्कृत के छात्रों को छात्रवृत्ति के बारे में बताते हुए प.पूज्य स्वामी जी महाराज ने कहा, पतंजलि गुरुकुल में बच्चों को भगवद् गीता और उपनिषद् याद करना सिखाया जाता है। मैं उडुपी के छात्रों को हमारे संस्थान में आने के लिए आमंत्रित करता हूँ। इसका खर्च हमारा संगठन उठाएगा, इसके अलावा, प्रत्येक छात्र को 25,000 रुपये की छात्रवृत्ति मिलेगी। संस्कृत में पारंगत लोग प्रोफेसर बनने से कहीं अधिक कर सकते हैं, वे इससे भी बड़ी उपलब्धियाँ हासिल कर सकते हैं। 21वीं सदी भारत की है और संस्कृत के जानकारों को विशेष मान्यता दी जाएगी। उन्होंने कहा, पारंपरिक विज्ञान पर अगला अखिल भारतीय सम्मेलन हरिद्वार में पतंजलि संस्थान में आयोजित किया जाएगा। इस वैश्विक सम्मेलन में भाग लेने के लिए दुनिया भर के गणमान्य व्यक्तियों को आमंत्रित किया जाएगा। उडुपी के आठ मठों के प्रमुखों और विद्वानों को इस कार्यक्रम में शामिल होना चाहिए।
कार्यक्रम में पर्याय श्री पुट्टीगे मठ के पूज्य श्री सुगुनेंद्र तीर्थ स्वामीजी ने कहा, ‘उडुपी आध्यात्मिकता की राजधानी है। भगवान और भक्तों के संगम के कारण भारत अद्वितीय है। ज्ञान की प्राचीन प्रणाली समय के साथ परिपक्व हुई है, और इसका संरक्षण आवश्यक है। ऐसे युग में जहां सनातन धर्म को नुकसान पहुंचाने वाले शब्द सुने जाते हैं, सभी को धर्म और संस्कृति की रक्षा करने का संकल्प लेना चाहिए। सनातन धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है जो बौद्धिक स्वतंत्रता देता है, यही कारण है कि इसके भीतर कई संप्रदाय पनपे हैं। अन्य धर्मों में, संस्थापक के शब्दों को अंतिम माना जाता है और दूसरों को भी उसका पालन करना चाहिए।’ स्वामीजी ने संस्कृत की चिरस्थायी प्रकृति पर प्रकाश डालते हुए कहा कि भारतीय ज्ञान परंपरा की तुलना में कुछ भी नहीं है। अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव व्यापक है, लेकिन पारंपरिक ज्ञान को संरक्षित करना एक कर्तव्य है, क्योंकि इसका इतिहास 10,000 साल पुराना है। यह स्वतंत्र है और किसी भी बाहरी ताकतों से प्रभावित नहीं हुआ है। अन्य भाषाओं ने अपने मूल रूप में परिवर्तन किया है, जबकि संस्कृत ने सभी समय में एक ही रूप बनाए रखा है। यदि अन्य भाषाएं अस्पष्ट हैं, तो संस्कृत एक सटीक भाषा है। अंग्रेजी में, लिखने और पढऩे में अंतर है, लेकिन संस्कृत में, जो लिखा जाता है उसे उसी तरह पढ़ा जाता है। संस्कृत को संरक्षित करने से प्राचीन ज्ञान का संरक्षण सुनिश्चित होता है।’
कार्यक्रम में परम श्रद्धेय आचार्य बालकृष्ण जी महाराज ने उपस्थित लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि हमारी संस्कृति संस्कृत भाषा से जुड़ी हुई है, इसलिए हमें अपनी संस्कृति को बचाने के लिए संस्कृत भाषा को बचाना होगा। भारत के अलावा दुनिया में कोई भी संस्कृति ऐसी नहीं है, जहां लोग ‘सर्वे भवन्ति सुखिन:’ कहते हों। लोग सिर्फ अपने विकास के बारे में सोचते हैं। संस्कृत ही संस्कृति को बचा सकती है। लेकिन इस परंपरा को खत्म करने की साजिश हो रही है। आर्य-द्रविड़ अवधारणा का प्रचार लोगों में फूट डालने के लिए किया जा रहा है। सिल्क रूट का निर्माण भारतीयों ने किया था, लेकिन अंग्रेजों ने इतिहास को बदलकर यह साबित कर दिया कि यह रूट विदेशियों के भारत में प्रवेश के लिए बनाया गया था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पास 6,000 ऐतिहासिक स्थलों का रिकॉर्ड है, जबकि पतंजलि संस्था ने 10,000 ऐतिहासिक स्थलों का डेटा इकट्ठा किया है।
इस अवसर पर अखिल भारतीय प्राच्य सम्मेलन (AIOC) पर एक पुस्तक और केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय नई दिल्ली के कुलपति श्रीनिवास वरखेड़ी द्वारा लिखित ‘शास्त्र बद्धताही’ का विमोचन भी किया गया। एसएमएसपीटी द्वारा यक्षगान के माध्यम से आरंभिक प्रार्थना प्रस्तुत की गई। आचार्य वीरनारायण पांडुरंगी, अध्यक्ष बीवीपी ने उपस्थित लोगों का स्वागत किया। श्रीनिवास वरखेड़ी ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। कनिष्ठ मठाधीश श्री सुसरेंद्र तीर्थ स्वामीजी, पेजावर मठ के श्री विश्वप्रसन्न तीर्थ स्वामीजी, श्री भंडारकेरी मठ के विध्येश तीर्थ, सांसद कोटा श्रीनिवास पुजारी, कौप विधायक गुरमे सुरेश शेट्टी, स्थानीय सचिव प्रोफेसर शिवानी वी, महासचिव प्रो.कविता होली, संस्कृत पुणे के सेवानिवृत्त प्रोफेसर विश्वविद्यालय की प्रो.सरोजा भाटे और अन्य उपस्थित थे।

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