यूरोप की राजनैतिक दशायें तथा नेशन स्टेट का उदय

यूरोप की राजनैतिक दशायें तथा नेशन स्टेट का उदय

प्रो. कुसुमलता केडिया   

    भारत के लोगों को यूरोप के इतिहास के विषय में प्रामाणिक जानकारी बहुत कम है। चकाचौंध भरा प्रोपेगंडा ही उनको विदित है। इसलिये तथ्य जानने आवश्यक हैं। 19वीं शताब्दी ईस्वी में यूरोप में अत्यन्त महत्वपूर्ण राजनैतिक परिवर्तन हुये। अनेक नये-नये राज्य बने और पुराने बिगड़े। विश्व के अनेक देशों से यूरोपीय क्षेत्र के अनेक राज्यों ने सोना-चाँदी जवाहरात और धन तो लूटा ही, वहाँ के लोगों को गुलाम बनाकर भी बड़ी संख्या में लाये। गुलामों का पूरा व्यापार ही चलता रहा। सम्पूर्ण 19वीं शताब्दी ईस्वी में यूरोप के प्रत्येक राज्य ने गुलामों का व्यापार किया और उससे बड़ी कमाई की। गुलामों के साथ अवर्णनीय क्रूरता और पैशाचिकता की जाती थी। केवल किसी समाज को युद्ध में पराजित करके ही उन्हें गुलाम बनाते हों, ऐसा नहीं था। अपितु जहाँ भी कोई समाज या समुदाय किसी यूरोपीय समुदाय द्वारा अचानक अत्याचार किये जाने पर उनके प्रतिरोध के लिये सक्षम नहीं था, वहाँ सब जगह वे लोगों को जबरदस्ती पकडक़र बांधकर ले जाते और दूर देश में ले जाकर बेच देते। इसके पक्ष में तरह-तरह के तर्क बाद में गढ़े गये। परंतु वे तर्क सब बाद के थे, पहले तो क्रूरता, नृशंसता और पैशाचिकता का यह कर्म कर लिया जाता था। बाद में पूछे जाने पर उसके पक्ष में तर्क दिये जाते थे। 
उदाहरण के लिये पहले तो यह तर्क दिया गया कि हम श्रेष्ठ हैं और गैर यूरोपीय गैर ईसाई लोग निकृष्ट हैं। इसलिये हमें उन्हें गुलाम बनाने का अधिकार है। अफ्रीका और अमेरिका के मूल निवासी लोगों के लिये तो यह कह दिया गया कि वे मनुष्य ही नहीं हैं, ओरांगउटांग नामक एक प्रजाति विशेष हैं और इसलिये उन्हें गुलाम बनाने तथा कुपित होने पर उनकी हत्या कर देने का भी पूरा अधिकार गॉड ने यूरोपीय ईसाइयों को दे रखा है। इस प्रकार गुलामी का व्यापार भारी मुनाफे का धंधा बन गया। क्योंकि इसमें पूँजी केवल उनको बंदी बनाने और मारपीट कर ढोकर ले जाने में आने वाले खर्च के रूप में ही लगाई जाती थी। बदले में भारी मुनाफा उनकी बिक्री से मिलता था। बाद में यूरोपीय ईसाइयों ने इसका एक और आसान रास्ता भी निकाला। मारपीट कर बंदी बनाने की जगह वे अफ्रीकी मुसलमानों से गुलामों को बेहद सस्ते दामों में खरीदने लगे और फिर केवल ढुलाई का खर्च लगता था तथा उन्हें ले जाकर भारी दामों में बेच दिया जाता था।
लोगों को गुलाम बनाने के लिए झूठे और गंदे कुतर्क गढ़े गए
गुलाम प्रथा के विस्तार को समझने के लिये 19वीं शताब्दी ईस्वी में यूरोप की राजनैतिक दशा को समझना आवश्यक है। हाब्सबर्ग, आस्ट्रिया, प्रशा, जर्मनी, फ्रांस, रूस, इंग्लैंड, आयरलैंड, स्काटलैंड, नार्वे, स्वीडन, स्विटजरलैंड, पुर्तगाल, स्पेन, हालैंड आदि इसके प्रमुख राज्य थे। मुसलमानों से ईसाइयों ने स्पेन को छीना और फिर वहाँ अपना राज्य स्थापित किया। 18वीं शताब्दी के अंत तथा 19वीं शताब्दी के आरंभ में स्पेन, पुर्तगाल और इंग्लैंड की सेनाओं ने फ्रांस से युद्ध शुरू कर दिया। फ्रांस की ओर से इस युद्ध का नेतृत्व नेपोलियन बोनापार्ट ने किया। उसके पहले आस्ट्रिया ने इटली को गुलाम बना लिया था। फ्रांस ने आस्ट्रिया को पराजित कर इटली को स्वतंत्र करने की घोषणा की। आस्ट्रिया और फ्रांस में तीन युद्ध हुये। युद्ध के बाद की संधियों में बार-बार भौगोलिक क्षेत्रों के आदान-प्रदान हुये। नेपोलियन ने युद्ध के नेतृत्व में अद्भुत वीरता दिखाई और अंत में आस्ट्रिया को संधि करनी पड़ी। इस बीच यूरोप के विविध समुदाय भारत आकर यहाँ विद्यमान बड़े-बड़े राज्यों को देख चुके थे। अत: पहली बार यूरोप में भी बड़े-बड़े राज्य स्थापित करने की लालसा जगी। नेपोलियन के पक्ष और विपक्ष में फ्रांस के अलग-अलग समुदाय एकत्रित हो गये। अंत में आपस के गृहयुद्ध से निपटने में नेपोलियन सफल रहा और वह फ्रांस का सम्राट बन गया। फिर उसने इंग्लैंड पर आक्रमण की योजना बनाई। तब इंग्लैंड ने आस्ट्रिया और रूस से संधि कर नेपोलियन का मुकाबला किया। 
नेपोलियन के समय यूरोप में कोई नेशन स्टेट नहीं था।
इस प्रकार स्पष्ट है कि नेपोलियन के समय तक यूरोप में कोई भी नेशन स्टेट नहीं था। अलग-अलग जागीरें थीं और राजघरानों का राज्य था जो बनता बिगड़ता रहता था। 19वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ में ही नेपोलियन ने सम्पूर्ण यूरोपीय क्षेत्र पर एकाधिकार के लिये युद्ध छेड़ दिया। फ्रांस और इंग्लैंड क्षेत्रों के कुछ राजा उसके पहले भी बहुत समय से लगातार लड़ रहे थे। यद्यपि तब तक फ्रांस और इंग्लैंड नेशन स्टेट नहीं बने थे। उनके तत्कालीन राजाओं को बाद में बने नेशन स्टेट के प्रतिनिधि के रूप में लिखने का चलन है, जबकि वे वस्तुत: केवल अपने छोटे से इलाके के राजा होते थे। 
संधियां करना और तोडऩा: पूर्ण अनैतिकता
19वीं शताब्दी ईस्वी आरंभ होने के एक दशक पहले से ही यूरोपीय क्षेत्र के ये सभी राजा और जागीरदार नित्य नये गठबंधन बनाते थे और नये-नये मोर्चे खोलते और बंद करते थे, संधियाँ करते और तोड़ देते थे और लगातार युद्ध पर युद्ध लड़े जा रहे थे। 
फ्रांस के संवैधानिक राजा के विरूद्ध इंग्लैंड सहित यूरोप के अनेक जागीरदारों ने मोर्चा बनाया और फ्रांस को हराने में जुट गये। इसमें फ्रांस के अनेक क्रांतिकारियों ने इन आक्रामक राजाओं से संधियाँ की थीं। फिर राजाओं ने उस पर अमल नहीं किया तो 20 अप्रैल 1792 ईस्वी को क्रांतिकारियों के बहुमत वाली फ्रेंच विधानसभा ने ऑस्ट्रिया के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। तब ऑस्ट्रिया के साथ संधि में बंधे प्रशा के राजा ने फ्रांस पर जून 1992 में आक्रमण कर दिया। ऑस्ट्रिया और प्रशा के जागीरदारों की सेना ने फ्रांस पर आक्रमण कर वर्दन नामक शहर पर कब्जा कर लिया और पेरिस में हजारों लोगों की हत्या कर दी। तब फ्रांस की सैन्य टुकडिय़ों ने अपने शहर वाल्मी पर आक्रमण कर ऑस्ट्रिया की सेना को भगा दिया और इसकी जीत का खूब शोर किया। परन्तु फ्रांस के शेष हिस्से में ऑस्ट्रिया का कब्जा तब भी बरकरार था।
फ्रेंच क्रांति की असलियत
फ्रांस की तत्कालीन सरकार भंग करके युद्ध की तैयारी के साथ फें्रच गणराज्य घोषित कर दिया गया। परन्तु राइन नदी की ओर से नीदरलैंड होकर ऑस्ट्रिया की सेनाओं ने आक्रमण जारी रखा और उधर अंग्रेजों ने अपनी कूटनीति चलते हुये फे्रंच क्रांतिकारियों को राष्ट्रद्रोह के लिए उकसाया और ट्यूटन पर कब्जा कर लिया। फ्रांस में हडक़ंप मच गया और आदेश जारी हुआ कि 18 वर्ष और उससे ऊपर के सभी फे्रंच किशोरों को सेना में भर्ती होना अनिवार्य है। तब फ्रांस की बड़ी सेना बन गई और उन्होंने आक्रमणकारियों को मार भगाया। अन्य राज्यों में इसका भय बैठ गया।
नीदरलैंड का एक हिस्सा ऑस्ट्रिया ने फ्रांस को समर्पित किया और इटली की अनेक जागीरें भी फ्रांस को सौंप दी गईं। स्पेन ने भी घबराकर फ्रांस से संधि की। परन्तु फ्रेंच क्रांतिकारियों ने फ्रेंच नरेश लुई सोलहवें को फांसी दे दी। जिससे स्पेन, नीदरलैंड और नेपल्स के राजा नाराज हो गये तथा क्रांतिकारियों को उखाड़ फेंकने के लिये सक्रिय हो गये। इस सारी गहमागहमी में वह फे्रंच क्रांति विफल हो गई जिसका गुणगान मूर्खों के झुंड भारत में आजतक करते हैं। वह क्रांति कुचल दी गई। फ्रांस में पुन: राजशाही आ गई। 
तब भी प्रशा की सेना ने फ्रांस पर आक्रमण किया। परन्तु फ्रांस की प्रशिक्षित सेना से उसे मुँह की खानी पड़ी। फ्रांस लगातार अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाता रहा और सभी युवकों को सेना में भर्ती कर प्रशिक्षण देता रहा। सेना में भर्ती होने से मना करने वाले युवक को राजद्रोही घोषित कर दिया जाता और मृत्युदंड दिया जाता था। इससे फ्रांस की सेनाओं में नया जोश आया और उन्होंने ब्रिटेन और ऑस्ट्रिया दोनों को हरा दिया। 
फ्रांस के राजा ने बटाविया क्षेत्र में अपनी एक कठपुतली को राजा बना दिया। उसने फ्रांस से बेसिल की संधि की। डच के राजा ने भी फ्रांस से संधि कर उसे अपने राज्य का एक हिस्सा सौंप दिया। फ्रांस और स्पेन में संधि हुई और फ्रांस सुरक्षित लगने लगा। परन्तु ब्रिटेन ने फ्रेंच लोगों में फूट जारी रखी और बार-बार विद्रोह को भडक़ाया। जिसे नेपोलियन बोनापार्ट ने विफल कर दिया। इसके साथ ही ब्रिटेन को कमजोर करने के लिये नेपोलियन ने जार्डन, इजिप्त मिश्र तथा इटली पर एक साथ आक्रमण की योजना बनाई। नेपोलियन बोनापार्ट इटली को पराजित करने में सफल हुआ। साथ ही भीतर के फ्रेंच विद्रोहियों को कुचल दिया गया। इसके बाद ब्रिटेन और फ्रांस की सेनाओं में युद्ध छिड़ गया। 
नेपोलियन बोनापार्ट के नेतृत्व में फ्रेंच सेनाओं ने इटली, स्विटजरलैंड, दक्षिणी जर्मनी और भूमध्यरेखिक क्षेत्र में एकसाथ कई मोर्चों पर युद्ध छेड़ दिया और विजयी रहे। लून विले की संधि और एमियन्स की संधियाँ हुईं तथा फ्रांस के कब्जे में अनेक क्षेत्र आ गये। ब्रिटेन ने बड़ी चतुराई से तुर्क राजाओं से दोस्ती कर ली और उनको फ्रांस के विरूद्ध अपने साथ कर लिया। इन युद्धों में फ्रांस के 75,000 सैनिक मारे गये और इंग्लैंड, स्विटजरलैंड, इटली तथा दक्षिणी जर्मनी एवं मुस्लिम सेनाओं को मिलाकर कुल 2 लाख सैनिक मारे गये। दोनों ओर से लगभग डेढ़-डेढ़ लाख सैनिक बंदी बनाये गये।  फिर 1 अप्रैल 1805 से 18 जुलाई 1806 ईस्वी तक पुन: दोनों पक्षों में भीषण युद्ध हुआ। इंग्लैंड, ईसाई बना हुआ रोमन साम्राज्य (जिसे वे होली एम्पायर कहते थे), रूस, नेपल्स, सिसली और स्वीडन एक तरफ थे और फ्रांस तथा उनके मित्र इटली, स्पेन, बावरिया आदि दूसरी ओर। 
कुटिल भेद-नीति में कुशल अंग्रेज
ब्रिटेन ने फ्रांस के बोरबोन राजपरिवार के एक सदस्य लुई एनटाइने हेनरी, जो एजियेन नामक जागीर के ड्यूक थे, को भेदपूर्वक अपने पक्ष में कर लिया जिससे कि नेपोलियन बोनापार्ट ने उसे फांसी दे दी। इस पर यूरोप के सभी राजघराने भडक़ उठे और रूस के जार अलेक्जेंडर प्रथम ने नेपोलियन को सबक सिखाने का निर्णय लिया। स्वयं टाल्सटॉय ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘वॉर एंड पीस’ में एजियेन के जागीरदार को फांसी देने का उल्लेख किया है। जिसमें बताया है कि तत्कालीन अतिप्रसिद्ध फ्रेंच अभिनेत्री के घर लुई एनटाइने और नेपोलियन बोनापार्ट दोनों एक पार्टी में थे। बोनापार्ट को मिर्गी का दौरा आ गया और वह गश खाकर गिर पड़ा। तब लुई एनटाइने ने उसे संभाला। परन्तु बोनापार्ट ने बाद में लुई एनटाइने को मृत्युदंड देकर चुकाया, जो टाल्सटॉय के अनुसार कृतघ्नता का एक उदाहरण है। जबकि बोनापार्ट का तर्क था कि फ्रांस से गद्दारी करने के कारण अब लुई एनटाइने का रक्त अशुद्ध हो गया है। उसकी रक्त की शुद्धता का दावा नहीं किया जा सकता। अत: उसे मृत्युदंड देना उचित है। 
राजघरानों की एकता
राजा लुई एनटाइने की हत्या से यूरोप के विभिन्न राजघराने कुपित होकर नेपोलियन के विरूद्ध हो गये। पहले की संधियाँ तोड़ दी गईं। ब्रिटेन ने 18 मई 1803 ईस्वी को फ्रांस के विरूद्ध पुन: युद्ध की घोषणा कर दी। दिसंबर 1804 में ब्रिटेन के पक्ष में स्वीडन आ गया और 11 अप्रैल 1805 ईस्वी को रूस भी इसी खेमे में आ गया। ऑस्ट्रिया, नेपल्स तथा सिसली ने भी मोर्चे में साझेदारी स्वीकार की और युद्ध तीव्रतर होता गया। परंतु  इस युद्ध में अंत में नेपोलियन की ही विजय हुई। नेपोलियन का डंका पूरे यूरोपीय क्षेत्र में बज गया  लेकिन बाद में इंग्लैंड ने उसे विष देकर मरवा डाला। इसके बाद भी यूरोपीय क्षेत्र में निरंतर आपसी संघर्ष होते गये। 
बीसवीं शताब्दी से 30 वर्ष पहले बना जर्मन राष्ट्र
1870 ईस्वी में बिस्मार्क ने पहली बार जर्मन राष्ट्र के एकीकृत स्वरूप की बात की। उसके पहले तक सम्पूर्ण जर्मन क्षेत्र 300 से अधिक अलग-अलग राजनैतिक इकाइयों में बंटा था। वस्तुत: जर्मन शब्द स्वयं हूण का तद्भव रूप है। यह बात जर्मन भी जानते हैं और सम्पूर्ण यूरोप भली-भांति जानता है। तो बिस्मार्क ने दावा किया कि जहाँ-जहाँ हूणों का कब्जा रहा है, वह सम्पूर्ण क्षेत्र जर्मन राष्ट्र है। अब यह बात अलग है कि हूण वस्तुत: भरतवंशी क्षत्रिय हैं और वाल्मीकीय रामायण तथा महाभारत में उन्हें भारतीय क्षत्रिय ही कहा गया है और सम्पूर्ण पुराणों में तथा टॉड के द्वारा संकलित क्षत्रियों की वंशावली में भी हूणों को भारतीय क्षत्रिय ही कहा गया है। परंतु ईसाई पादरियों ने और ईस्ट इंडिया कंपनी के बाबू तथा सैनिक एवं अन्य निचली श्रेणी के कर्मचारियों ने अपने राजनैतिक और आर्थिक लक्ष्यों के लिये मनमाने झूठ रचे और उसे ही यूरोप में प्रचारित किया। इसलिये बिस्मार्क को हूणों के भरतवंशी क्षत्रिय होने वाला तथ्य स्मरण नहीं था। यद्यपि जर्मन लोग हूणों को यानी स्वयं को 20वीं शताब्दी ईस्वी में आर्य तो कहने ही लगे थे। 
लडख़ड़ाया सत्ता संतुलन
जर्मन राष्ट्र के 1870 ईस्वी में इस उभार के साथ ही यूरोप में सत्ता संतुलन लडख़ड़ा गया। क्योंकि यह नवोदित जर्मन राष्ट्र इंग्लैंड और फ्रांस से बहुत बड़ा था तथा बहुत शक्तिशाली था। इंग्लैंड के पास तब तक कोई संगठित सेना नहीं थी। इसीलिये बिस्मार्क ने कहा था कि इंग्लैंड के सैनिकों को तो हमारी जर्मन पुलिस ही गिरफ्तार करके ले आयेगी। 
तुर्कों से छलपूर्ण दोस्ती की ईसाइयों ने
इंग्लैंड और फ्रांस कांप गये और उन्होंने रूस से संधि की तथा वहाँ अपने अनुकूल राजनैतिक परिवर्तन घटित होने में विशेष रूचि ली। साथ ही उन्होंने तुर्की से भी संधि का प्रयास किया। तब तक तुर्की एक शक्तिशाली राज्य था और इसीलिये उसने इंग्लैंड और फ्रांस की चालों को भांप लिया तथा कूटनैतिक वार्ता करता रहा और जर्मनी से भी मैत्री रखे रहा। युद्ध में मुख्यत: भारतीय सैनिकों की सहायता से धुरी राष्ट्रों के विरूद्ध कथित मित्र राष्ट्रों को सफलता मिली और उन्होंने तुर्की को अनेक छोटे-छोटे नेशन स्टेट में बांट दिया तथा जर्मनी को भी खंडित करने का प्रयास करने लगे। अंतत: द्वितीय महायुद्ध में पुन: जीतकर वे जर्मनी को बांटने में सफल ही हो गये। स्पष्ट रूप से यह अपने सभी संभावित प्रतिस्पर्धियों को खंडित और कमजोर करने की इंग्लैंड, फ्रांस और संयुक्त राज्य अमेरिका के शासकों की रणनीति थी। यद्यपि इन तीनों ही नेशन-स्टेट में शासकों के प्रतिस्पर्धी और विरोधी शक्तिशाली समूह सक्रिय थे। परंतु युद्ध के परिवेश में उन सबको दबाना और अपनी-अपनी राष्ट्रीयता की बात करते हुये ऐसा करना सुगम हो गया। ईसाई शासक आपस में भीषण युद्ध और छल कपट करते रहे।
रूसी कम्युनिस्टों को इंग्लैंड फ्रांस ने सत्ता में बिठाया
कथित मित्रराष्ट्रों के गुट ने स्वयं यूरोप में अनेक नेशन स्टेट खड़े किये। 2 करोड़ 20 लाख सैनिकों की इन दोनों युद्धों में मृत्यु हुई और नवोदित नेशन स्टेट जर्मनी, पुराने आस्ट्रिया-हंगरी राज्य और तुर्की का राज्य (जिसका नाम बिगाडक़र कथित मित्रराष्ट्र उस राज्य के शासक उस्मान-वंश को अपने यहाँ के एक शासक ऑटो से सादृश्य दिखाने के लिये ऑटोमन राज्य कहने लगे। नाम बिगाडऩा भी इनकी सुपरिचित रणनीति रही है।) अनेक नेशन स्टेट्स में बांट दिया। साथ ही स्वयं रूस में गृहयुद्ध भडक़ाकर वहाँ ईसाई शासक जार को उखाड़ फेंकने में लेनिन और स्तालिन की सहायता की गई और विश्व का पहला कम्युनिस्ट राज्य इंग्लैंड, फ्रांस और संयुक्त राज्य अमेरिका के सहयोग से खड़ा हुआ। संयुक्त राज्य अमेरिका ने संपूर्ण विश्व में अमेरिकीकरण की नीति अपनाई और लेनिन तथा स्तालिन ने सम्पूर्ण विश्व में सोवियत प्रभाव फैलाने तथा लेनिनीकरण और स्तालिनीकरण की नीति अपनाई। इस प्रकार इनकी मैत्री प्रतिस्पर्धा में बदल गई। पूंजीवादी साम्राज्यवाद के समानान्तर लेनिन और स्तालिन ने कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद को बढ़ाया। 
मुहम्मद साहब के वंश का अरब में प्रभुत्व समाप्त कर दिया
तुर्की के पराभव और विखंडन के लिये यूगोस्लाविया, अल्बानिया, बोस्निया, बल्गारिया, मकदूनिया, यवन राज्य (ग्रीस), सर्बिया, रोमानिया, इटली, स्लोवेनिया तथा क्रोशिया राज्यों को बाल्कन राज्य कहकर तुर्की के विरूद्ध खड़ा किया गया और अनेक नये राष्ट्र राज्य इनके खंडन-विखंडन से खड़े किये गये। 
दूसरी ओर स्वयं तुर्की को विखंडित कर एक छोटे से वहाबी जागीरदार को सऊदी अरब नामक एक नये नेशन स्टेट का स्वामी बना दिया गया और कुरैश अरबों का अरब से स्वामित्व समाप्त कर दिया गया। इस प्रकार इस्लाम के प्रवर्तक पैगंबर मुहम्मद साहब के वंश का प्रभुत्व ही अरब क्षेत्र में समाप्त कर दिया। जिन तुर्कों से पहले दोस्ती की थी, उनको ही समूल नष्ट करने की चालें इंग्लैंड और फ्रांस ने चलीं। कुवैत, बहरीन, कतर, संयुक्त अरब अमीरात, यमन, ओमान, सीरिया, लेबनान आदि अनेक नये नेशन स्टेट बना दिये गये। पोलैंड, चेकोस्लाविया, यूगोस्लाविया, लिथुवानिया, लाटबिया, हंगरी, आर्मिनिया, यूक्रेन आदि अनेक नये नेशन स्टेट्स का पूर्वी यूरोप में गठन किया गया। इसी क्रम में भारत राष्ट्र के वीर सैनिकों की शक्ति दोनों महायुद्धों में अपने पक्ष में काम में लाने के बाद भविष्य में उसकी शक्ति से आशंकित होकर भारत राष्ट्र का भी विखंडन सुनिश्चित किया गया। 
भारत राष्ट्र के उत्तरी हिस्से के पांच राज्य तुर्कमेनिस्तान, कजाकिस्तान, ताजकिस्तान, अजरबेजान, किर्गिजिस्तान को 20वीं शताब्दी ईस्वी के पूर्वाद्र्ध में ही अपने लिये अगम्य पाकर इंग्लैंड ने लेनिन और स्तालिन के हवाले कर दिया था। शेष बचे भारत में से अफगानिस्तान को भी 1922 ईस्वी में ही एक अलग रियासत बना दिया। बाकी हिस्से को और विखंडित करने के लिये योजना बनाई गई तथा पूर्व और पश्चिम दोनों हिस्सों के खाद्यान्न, मेवे तथा खनिज आदि बहुमूल्य सम्पदाओं वाले हिस्सों को अलग करने की रणनीति बनी और इसके लिये योजना पूर्वक हिन्दू-मुस्लिम टकराहटों को पराकाष्ठा तक ले जाया गया और पूर्वी तथा पश्चिमी पाकिस्तान बना दिये गये। यह मूल रूप से इंग्लैंड, फ्रांस और संयुक्त राज्य अमेरिका की योजना के अनुसार हुआ और गांधी जी, नेहरूजी तथा जिन्ना का चतुराई भरा उपयोग किया गया। योजना के मूल स्वरूप को ढँकने के लिये इसे मुस्लिम अलगाववाद के रूप में प्रस्तुत किया गया। जबकि वास्तविक मुस्लिम बहुलता वाले इलाके - उत्तर प्रदेश तथा अन्य हिस्सों को यथावत रहने दिया गया। पूर्व तथा पश्चिम में जिन इलाकों को मजहबी राज्य बनाया गया, वहाँ 15 अगस्त 1947 ईस्वी तक बहुत बड़ी संख्या में मंदिर, तीर्थस्थल संस्कृत और हिन्दू धर्म के बड़े केन्द्र तथा हिन्दू जनसंख्या विद्यमान थी। जिससे स्पष्ट है कि मुस्लिम मजहबी उन्माद का केवल आवरण था और मूल रणनीति कथित मित्र राष्ट्रों की थी। इस प्रकार ये नेशन स्टेट बने हैं।  

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