शाश्वत प्रज्ञा

परम पूज्य योग-ऋषि श्रद्धेय स्वामी जी महाराज की शाश्वत प्रज्ञा से नि:सृत शाश्वत सत्य ...

शाश्वत प्रज्ञा

योग प्रज्ञा

योग - योग जीवन का प्रयोजन, उपयोगिता, उपलब्धि, साधन-साधना-साध्य, सिद्धान्त, कत्र्तव्य, मंतव्य, गंतव्य, लक्ष्य, संकल्प, सिद्धि, कर्म धर्म, मर्म, ज्ञान, ध्यान, भक्ति, शक्ति, सम्पत्ति, धन, यौवन, गीता, दर्शनोपनिषद् एवं वेदों, पुराणों का सार व विस्तार है। योग में सब ऋद्धि-सिद्धि, अष्टसिद्धि नवनिधि दशमविद्या, अभ्युदय नि:श्रेयस, निवृत्ति मूलक प्रवृति, विनय, वीरता, संस्कृति-समृद्धि-विरासत विकास, शान्ति-क्रान्ति, प्रार्थना-पुरुषार्थ, पुरुषार्थ-परमार्थ, जीवन का निर्माण व निर्वाण, आत्ममंगल, लोकमंगल, आत्महित, सर्वहित, भौतिक व पारमार्थिक सब सत्य योग में ही सन्निधि हैं। योग केन्द्र में है, परिधि में ब्रह्मांड, योग मूल प्रकृति संस्कृति है। योग सनातन धर्म, मूल्य आदर्शों का आत्म तत्त्व है तथा कर्मयोग शरीर योग, मूलधर्म मुख्य धर्म तथा संसार के समस्त व्यवहार गौणधर्म हैं। योग शाश्वत, सनातन सत्य है तथा योग मूलक आहार, विचार, वाणी, व्यवहार व आचरण से क्षणिक किन्तु अपरिहार्य सत्य हैं। योग परम सत्य है- संसार व्यवहारिक सत्य है।
योगधर्म में वेदधर्म सनातनधर्म एवं सेवाधर्म, मानवधर्म, राष्ट्रधर्म तथा युगधर्म सम्मिलित है। योग को करना भी है, जीना भी है। योग जीवन का अनादि, अनन्त देवी सम्पदा है। अतीत, वर्तमान एवं भविष्य का आधार एवं नींव है। योग अपरा व परा विद्या का मूल है।
योग तत्त्व को जीने वाला रामत्व, कृष्णत्व, शिवत्व एवं हनुमत् तत्त्व को आचरण में जीता है। योग में सीता, लक्ष्मी, दुर्गा, भवानी, भगवती की दिव्य शक्ति है। योग में ऋषि-ऋषिकाओं का ऋषित्व, समस्त देवताओं का देवत्व है। वीर-वीरांगनाओं का वीरत्व, शौर्य है। योग में भगवान् बुद्ध की करुणा, बुद्धत्व, भगवान् महावीर का तप, त्याग, अहिंसा, गुरुनानक देव जी की समता, सेवा, सुमरिन व गुरु गोविन्द सिंह जी की वीरता, शौर्य, पराक्रम व स्वाभिमान युक्त आत्मानुशासन है।
योग मूलक शिक्षा, चिकित्सा, विद्यायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, मीडिया, व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र एवं वैश्विक व्यवस्था संसार की समस्त समस्याओं का समाधान है। योग मूलक जीवन पद्धति का अनुसरण जब सारा संसार करेगा तो कहीं भी अनीति, अनाचार, पाप, अधर्म, अशुभ का लेश मात्र भी शेष नहीं रहेगा। योगी प्रमाही व दरिद्र हो ही नहीं सकता। उसके जीवन में भौतिक व पारमार्थिक समृद्धि सम्पन्नता व प्रसन्नता दोनों ही होंगी। योगी व्यक्ति किसी के साथ अन्याय कर ही नहीं सकता। योगी व्यवहारिक प्राकृतिक न्याय व पारमार्थिक न्याय, भगवान की न्याय व्यवस्था व कर्म फल व्यवस्था में विश्वास करता है इसलिए वह किसी का भी, किसी भी प्रकार का अहित व बुरा कर ही नहीं सकता। योगमूलक शासन, योगमूलक अर्थ व्यवस्था से ही संसार का सर्वागीय विकास संभव है। योग से विश्व में पूर्ण शान्ति व समृद्धि आयेगी।
 

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