मुख, कंठ, वक्ष व उदर रोग निवारक आयुर्वेदिक घटक
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जामुन के सदाहरित वृक्ष जंगलों और सड़कों के किनारे सर्वत्र पाए जाते हैं। चरक संहिता के मूत्रसंग्रहणीय, पुरीषविरजनीय तथा छर्दिनिग्रहण महाकषाय में एवं सुश्रुत संहिता के न्यग्रोधादि गण में जामुन का वर्णन प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त चरक एवं सुश्रुत में कषाय वर्ग में जम्बू का उल्लेख मिलता है। वातजनन द्रव्यों में जामुन श्रेष्ठ है। सुश्रुत में जम्बूद्वय का उल्लेख है किन्तु डल्हण ने राजजम्बू, काकजम्बू, भूमिजम्बु का उल्लेख किया है। जम्बू का आसव बनाकर एवं पुष्पों का अंजन के रूप में प्रयोग बताया गया है। जामुन की पाँच प्रजातियाँ पायी जाती हैं।
बाह्यस्वरूप
1. जामुन (Syzygium cumini (Linn.) Skeels.)
जामुन का वृक्ष बृहत् लगभग 15-30 मी. ऊँचा, मोटा, शाखा-प्रशाखाओं से युक्त, अरोमिल, सदाहरित होता है। इसकी छाल चिकनी तथा हल्के भूरे अथवा धूसर वर्ण की व गहरे धब्बों से युक्त, 2.5 सेमी तक मोटी होती है। इसके पत्र सरल, विपरीत, अण्डाकार, 7.5-15 सेमी लम्बे, 2-7 सेमी चौड़े, चर्मिल, चिकने एवं चमकीले हरे वर्ण के होते हैं। इसके पुष्प अनेक, हरिताभ-श्वेत वर्ण के, मधुर गंधि, वृंतहीन, 0.8-1.3 सेमी व्यास के तथा 4-10 सेमी लम्बे गुच्छों में होते हैं। इसके फल गोलाकार, अण्डाकार, 2.5 सेमी लम्बे, अपक्वावस्था में हरित तथा पक्वावस्था में गहरे बैंगनी-कृष्ण वर्ण के, गुलाबी वर्ण की मज्जायुक्त तथा चिकने होते हैं। बीज एकल, 1-2 सेमी लम्बे होते हैं। इसका पुष्पकाल मार्च से मई तथा फलकाल मई से जुलाई तक होता है।
2. श्वेत जामुन (Syzygium jambos (Linn.) Alston)
इसका लगभग 6 मी. ऊँचा मध्यमाकार का वृक्ष होता है। इसके पत्र सरल, विपरीत, भालाकार, नुकीले तथा आधार पर संकीर्ण होते हुए छोटे पर्णवृंत में परिवर्तित होते हैं। इसके पुष्प बृहत्, हरिताभ-श्वेत वर्ण, सुंदर, 7.5-10 सेमी व्यास के तथा छोटे होते हैं। इसके फल हल्के पीतवर्णी से गुलाबी-सफेद वर्ण के लगभग 2.5-5 सेमी चौड़े होते हैं। इसके बीज 1-2, धूसर वर्ण के तथा गूदेदार फलभित्ति से घिरे हुए होते हैं।
3. काठ जामुन (Syzygium operculatum (Roxb.) Gamble.)
इसका लगभग 18 मी ऊँचा वृक्ष होता है। इसकी काण्डत्वक् पाण्डुर-भूरे से धूसर-भूरे वर्ण की, चिकनी, अनियमित, काष्ठीय परतदार तथा प्रशाखाएँ-लगभग गोलाकार अथवा चतुष्कोणीय होती हैं। इसके पत्र सरल, विपरीत, 11.5-25 सेमी लम्बे एवं 7-11.5 सेमी चौड़े होते हैं। इसके पुष्प पाण्डुर-पीत अथवा श्वेत वर्ण के, 7.5 मिमी, वृंतहीन होते हैं। इसके फल 7.5-10 मिमी लम्बे, गोलाकार अथवा अण्डाकार मांसल तथा पक्वावस्था में बैंगनी वर्ण के, झुर्रीदार होते हैं। बीज 1 अथवा 2, गोलाकार अथवा अण्डाकार होते हैं।
4. भूमि जम्बु (Syzygium zeylanicum (Linn.) DC.)
भूमि जम्बु का छोटा अथवा मध्यमाकार, सुंदर वृक्ष होता है। इसकी काण्डत्वक् पाण्डुर-भूरे वर्ण की होती है तथा नवीन शाखाएँ चतुष्कोणीय अथवा गोलाकार, बैंगनी-भूरे वर्ण की तथा चमकीली होती है। इसके पत्र सरल, विपरीत, सुगन्धित, चर्मिल, 3.8-10 सेमी लम्बे एवं 1-3.8 सेमी चौड़े होते हैं। इसके पुष्प छोटे, श्वेत वर्ण के होते हैं। इसके फल मटर के आकार के, गोलाकार, 6 मिमी व्यास के, श्वेत वर्ण के होते हैं। बीज 1 अथवा 2, गोलाकार अथवा अण्डाकार होते हैं।
5. क्षुद्र-जम्बु (Eugenia heyeana Wall.)
इसका छोटा वृक्ष अथवा क्षुप होता है। इसके पत्र 7.5-12.5 सेमी लम्बे एवं 1.8-2.5 सेमी व्यास के, पारभासी-बिन्दुकित होते हैं। इसके पुष्प छोटे, श्वेत वर्ण के होते हैं। इसके फल 1-2 सेमी अथवा अधिक लम्बे, प्यालिकाकार तथा मांसल, सरस फल तथा बीज संख्या में एक से दो होते हैं।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
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जामुन पित्तशामक, त्वग्दोषहर, दाह-प्रशमन, छर्दि निग्रहण तथा स्तम्भक है। इसका फल अग्निवर्धक, पाचन, यकृत् को उत्तेजित करने वाला, वातवर्धक, तथा अधिक मात्रा में खा लेने से यह विष्टम्भ जनक है। जम्बुफल की गिरी पाचन क्रिया को सुधारती है। इससे रक्तगत तथा मूत्रगत शर्करा कम होती है और मूत्र का प्रमाण भी कम होता है।
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काठ जम्बु की काण्ड त्वक् तिक्त, शीतकारक, गुरु, बलकारक, स्तम्भक तथा वाजीकर होती है। भूमि जम्बु कृमिघ्न, आमवातरोधी तथा उत्तेजक होती है। इसके फल सुगन्धित तथा मधुर होते हैं। पत्र तथा मूल में कृमिघ्न गुण होता है। श्वेत जम्बु की काण्ड त्वक् कषाय, कटु, मधुर, रक्तस्राव रोधक, शोधक; अतिसार तथा कृमिनाशक होती है। फल मधुर, कषाय, अम्ल, दीपन तथा पोषक होते हैं।
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क्षुद्र जम्बु तिक्त, कषाय, मधुर, शीत, रूक्ष, कफपित्तशामक, ग्राही, हृद्य, वृष्य तथा पुष्टिकारक होती है।
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इसका फल दाह शामक होता है।
औषधीय प्रयोग विधि
नेत्र रोग
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बच्चों के जब दाँत निकलते हों, उस समय होने वाले नेत्राभिष्यंद में जामुन के 15-20 कोमल पत्तों को 400 मिली पानी में पकाकर चतुर्थांश शेष क्वाथ से नेत्र धोना लाभकारी है।
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मोतियाबिन्द- जामुन की गुठली के चूर्ण को शहद में घोंटकर तीन-तीन ग्राम की गोलियाँ बनाकर प्रतिदिन 1-2 गोली सुबह-शाम खाने से और इन्हीं गोलियों को शहद में घिसकर अंजन करने से मोतियाबिन्द में लाभ मिलता है।
कर्ण रोग
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कर्णपूय-स्राव-जामुन की गुठली को शहद में घोंटकर कान में डालने से कान का बहना बन्द हो जाता है।
मुख रोग
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जामुन के पत्तों की राख को दाँत और मसूड़ों पर मलने से दाँत और मसूड़े मजबूत होते हैं।
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जामुन के पके हुए फलों के रस को मुख में भरकर, अच्छी तरह हिलाकर कुल्ला करने से पायरिया ठीक होता है।
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मुँह के छाले-जामुन के नरम और ताजा 15-20 पत्तों को पीसकर प्राप्त स्वरस से कुल्ला करने से मुँह के छालों में लाभ होता है।
उदर रोग
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अतिसार-जामुन के ताजे कोमल पत्तों के 5-10 मिली रस को 100 मिली बकरी के दूध के साथ पिलाने से अतिसार व आमयुक्त अतिसार में लाभ होता है।
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संग्रहणी-बच्चे को अगर संग्रहणी हो जाये तो जामुन छाल के रस के बराबर बकरी का दूध मिलाकर पिलाने से आराम हो जाता है।
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रक्त अतिसार-2-5 ग्राम जामुन छाल चूर्ण में 2 चम्मच मधु मिलाकर 250 मिली दूध के साथ पिलाने से अतिसार के साथ आने वाला रक्त रुक जाता है।
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प्रवाहिका-10 ग्राम जामुन छाल को 500 मिली पानी में पकाकर चतुर्थांश शेष क्वाथ बनाकर पीने से पेचिश और पुराने अतिसार में लाभ होता है। इस क्वाथ की 20-30 मिली मात्रा दिन में 3 बार देनी चाहिए।
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अफारा-जामुन का सिरका 10-15 मिली की मात्रा में सेवन करना पौष्टिक, संकोचक तथा पेट के अफारे को दूर करता है।
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छर्दि-आम तथा जामुन दोनों के समभाग कोमल पत्रों को 20 ग्राम की मात्रा में लेकर 400 मिली पानी में पकाएं, चतुर्थांश शेष क्वाथ को ठंडा कर पिलाने से पित्तज छर्दि बन्द हो जाती है।
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अतिसार-जामुन की गुठली मलरोधक है। इसमें समभाग आम की गुठली और काली हरड़ मिलाकर भूनकर खाने से पुराने से पुराने अतिसार बन्द हो जाते हैं।
गुदा रोग
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अर्श-जामुन की कोमल कोपलों के 20 मिली रस में थोड़ी-सी शक्कर मिलाकर दिन में तीन बार पीने से बवासीर से बहने वाला खून बन्द हो जाता है।
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10 ग्राम जामुन के पत्तों को 250 मिली गाय के दूध में घोंटकर सात दिन तक सुबह, दोपहर तथा शाम को पीने से बवासीर से गिरने वाला खून बन्द हो जाता है।
यकृत्प्लीहा रोग
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यकृत्विकार-जामुन फल के अन्दर लोहे का अंश पाया जाता है, जो सौम्य होने से कोई अनिष्ट पैदा नहीं करता, इसलिये जामुन का 10 मिली सिरका नित्य लेने से तिल्ली और यकृत् की वृद्धि में बहुत लाभ होता है।
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कामला-जामुन के 10-15 मिली रस में 2 चम्मच मधु मिलाकर सेवन करने से, पीलिया, खून की कमी तथा रक्त विकार में लाभ होता है।
वृक्कवस्ति रोग
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पथरी-पके हुए जामुनफल खाने से पथरी गल कर निकल जाती है।
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जामुन के 10 मिली रस में 250 मिग्रा सेंधानमक मिलाकर दिन में 2-3 बार कुछ दिनों तक निरन्तर पीने से मूत्राशयगत पथरी नष्ट होती है।
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जामुन के 10-15 ग्राम कोमल पत्तों को पीसकर कल्क बनाकर इसमें 2-3 नग काली मिर्च का चूर्ण बुरककर सुबह-शाम सेवन करने से अश्मरी के टुकड़े-टुकड़े होकर मूत्र द्वारा बाहर निकल जाते हैं। अश्मरी का यह एक उत्तम उपचार है।
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मधुमेह-जामुन की 100 ग्राम जड़ को साफ कर, 250 मिली पानी में पीसकर 20 ग्राम मिश्री डालकर प्रात: सायं भोजन से पहले पीने से मधुमेह में लाभ होता है।
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जामुन की गुठली का चूर्ण 1 भाग, शुण्ठी चूर्ण 1 भाग और गुड़मार बूटी 2 भाग, इन तीनों चीजों को मिलाकर कपड़छन करके मिश्रण को घृतकुमारी के रस में तर कर बेर जैसी गोलियाँ बना लें। दिन में तीन बार 1-1 गोली मधु के साथ लेने से मधुमेह एवं प्रमेह रोग में अत्यन्त लाभ होता है।
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300-500 मिग्रा जामुन के सूखे बीज चूर्ण को दिन में तीन बार लेने से मधुमेह में लाभ होता है।
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250 ग्राम जामुन के पके हुए फलों को 500 मिली उबलते हुए जल में डालकर कुछ समय के लिये उबलने दें, थोडी देर बाद ठंडा होने पर फलों को मसलकर कपड़े से छान लें, प्रतिदिन तीन बार पीने से मधुमेह व धातुक्षीणता में लाभ होता है।
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बड़े आकार के जामुन के फलों को धूप में सुखा कर चूर्ण कर लें। 10 से 20 ग्राम की मात्रा में इस चूर्ण का दिन में तीन बार सेवन 15 दिन तक करने से मधुमेह में लाभ होता है।
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जामुन की छाल की राख मधुमेह की उत्तम औषधि है। 625 मिलीग्राम से 2 ग्राम तक की मात्रा में दिन में 3 बार सेवन करने से पेशाब में शक्कर आना बन्द हो जाता है।
प्रजननसंस्थान रोग
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उपदंश-उपदंश एवं फिरंग आदि त्वचा विकारों में इसके पत्तों से पकाया हुआ तैल लगाते हैं।
अस्थिसंधि रोग
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संधिशूल-जामुन की मूल को उबालकर, पीसकर सन्धियों पर रगडऩे से जोड़ों के दर्द में लाभ मिलता है।
त्वचा रोग
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व्रण-जामुन छाल को महीन पीसकर घाव पर छिड़कने से शीघ्र घाव भर जाता है।
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जामुन के 5-6 पत्तों को पीसकर लगाने में दुष्ट घावों में से पीब बाहर निकल जाती है एवं घाव स्वच्छ हो जाते हैं।
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अग्निदग्ध-जामुन के 8-10 पत्तों को पीसकर लेप करने से अग्निदग्ध का श्वेत दाग मिट जाता है।
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तंग जूतों से पाँव में जख्म हो जाये तो जामुन की गुठली को पानी में पीसकर लगाने से अच्छा हो जाता है।
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व्रण-जामुन काण्ड त्वक् क्वाथ से घाव को धोने से घाव का शोधन तथा रोपण होता है।
सर्वशरीर रोग
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रक्तपित्त-5-10 मिली जामुन पत्र स्वरस का दिन में तीन बार भोजन से पहले नियमित सेवन करने से रक्त पित्त में लाभ होता है।
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जामुन की एक चम्मच छाल को रात में 1 गिलास पानी में भिगोकर रखें, सुबह उसे मसलकर छान लें। इसमें मधु मिलाकर पिलाने से रक्तपित्त मेें लाभ होता है।
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रक्तस्राव-जामुन की गुठली के 2-5 ग्राम चूर्ण में बराबर शक्कर मिलाकर खाने से पेट से खून का बहना बन्द हो जाता है।
विशेष: जामुन का फल खाने से दिल की धड़कन सामान्य होती है, रक्त विकार दूर होते हैं और फोड़े फुन्सियों का निकलना बन्द हो जाता है। यह पित्तातिसार को नष्ट करता है, आवाज को साफ करता है। थकावट, दमा, खांसी, मुखग्लानि व गले की बीमारियों को नष्ट करता है। इसके शरबत से वमन, जी मिचलाना, खूनी अतिसार और बवासीर में लाभ होता है।
दोष : जामुन का पका हुआ फल अधिक खाने से पेट और फेफड़ों को नुकसान पहुँचता है। यह देर से पचता है, कफ बढ़ाता है और फेफड़ों में वायु भरता है। इसके अधिक सेवन से बुखार भी आने लगता है। इसमें नमक मिलाकर खाना चाहिए।
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