ईश्वर की सेवा कर्म योग

ईश्वर की सेवा कर्म योग

श्रद्धेय गुरुदेव आचार्य प्रद्युम्न जी महाराज

 म इस संसार में आए हैं कुछ काम करने के लिए। काम तो हमें करना ही है। कोई भी बिना काम के जी नहीं सकता। जैसा कि गीता में कहा है-
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषत:। गीता १८.११
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। गीता ३.५
लेकिन काम किसके लिए? क्या यह केवल हमारे लिए है? केवल अपने लिए? हम जीवन भर काम करते हैं और मर जाते हैं, फिर से जन्म लेते हैं ताकि दूसरे 'मैंके लिए काम कर सकें। तो फिर, यह इस 'मैंया उस 'मैंके लिए नहीं हो सकता। तो इस सारे काम का प्रयोजन क्या है? इस सारी सक्रिय सृष्टि का प्रयोजन क्या है? ये ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर देना आसान नहीं है।
मनुष्य का इस धरती पर आगमन का प्रयोजन यह है कि वह अपने अन्तरतम में स्थित भगवान् को प्रकट करे। जिन ईश्वरीय विभूतियों का शास्त्र में वर्णन मिलता है, उन्हें एक छोटे से छोटे अणु से लेकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की जटिल संरचना में देखा जा सकता है। दो तरह की सृष्टि हमारे समक्ष है- एक ब्रह्माण्डीय सृष्टि और दूसरी जैव सृष्टि। ब्रह्माण्डीय सृष्टि में जो व्यवस्था, ऋत-नियम (Universallaws) देखने को मिलते हैं वे देश व काल से अबाधित होकर अनन्त काल से चलते चले आ रहे हैं और इसी प्रकार अनन्त काल तक चलते रहेंगे। भगवती श्रुति ने इस तथ्य या सत्य को शतश: सहस्रश: स्थानों में स्वीकार किया है। जैसे-
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।
दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्व:।।
सूर्य-चन्द्रमा, द्युलोक, अन्तरिक्षलोक, पृथिवीलोक तथा अन्य लोक-लोकान्तर धाता ने यह सब पहले जैसे ही बनाया।
अस्य हि स्वयशस्तरं सवितु: कच्चन प्रियम्। न मिनन्ति स्वराज्यम्।।
ऋग्. ०५.८२.२
परमेश्वर के नियम जो इस सृष्टि में कार्य कर रहे हैं उनको कोई भी तोड़ नहीं सकता क्योंकि वह परमेश्वर का स्वराज उनके अपने यश से फैला हुआ है। वह सभी के द्वारा प्रीति करने योग्य है।
परि विश्वा भुवनान्यायमृतस्य तन्तुं विततं दृशे कम्। अथर्व. २.१.५
अर्थात् आनन्दकारक ऋत के व्यापक धागे को देखने के लिए मैंने सब भुवनों में भ्रमण किया।
ऋत के तन्तु का यह ताना-बाना सर्वत्र फैला हुआ है। विविध जीव-जन्तुओं के शरीरों की संरचना, भू:, भुव:, स्व:, मह:, जन:, तप:, सत्यम् इन सप्त लोकों का निर्माण, पञ्चभूतों के माध्यम से उन विविध शरीरों में चल रहे वृद्धि और ह्रास के नियम, सूर्य का अपनी धुरी पर घूमना और पृथिवी का सूर्य के चारों तरफ परिभ्रमण जिससे दिन-रात व ऋतुचक्र का प्रवर्तन, चन्द्रमा का पृथिवी के चारों ओर घूमना, इन सभी ग्रहों की निश्चित सुव्यवस्थित गति का होना, सूर्य किरणों से सम्बद्ध प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के द्वारा पृथिवी पर दिखाई देने वाली वृक्ष-औषधि-वनस्पतियों की हरी पत्तियों से आक्सीजन का निर्माण और उसके ऊपर पशु-पक्षी-मनुष्यादि के जीवन का टिकाव, पशु-पक्षी-मनुष्यादि की साँसों के ऊपर पेड़-पौधों की जीवन प्रणाली, गायों (पशुओं) का भोजन खेतों से प्राप्त हरा चारा और खेतों का भोजन पशुओं से प्राप्त गोबर, भूमि की ऊपरी सतह पर हजारों उपयोगी जीवाणुओं का होना जिससे कृषि या वनस्पति का सम्भव हो पाना, एकदम खारे समुद्र से वाष्पीकरण की क्रिया के तहत शुद्ध जल का आकाश में पहुँचना और वहाँ से उस अमृत रूप जल का वर्षा के रूप में पुन: प्राप्त होना, जिसके कारण जंगलों का सम्भव हो पाना, पहाड़ों पर बर्फ का गिरना, उससे बारहों महीने नदियों का बहना, शरीरों में अत्यन्त आश्चर्यजनक क्रियाओं का सतत चलते रहना, हृदय का धड़कना, किडनी का शोधन कार्य, लीवर का अपना महत्त्वपूर्ण योगदान, पैंक्रियाज से इन्स्यूलिन का प्राप्त होना, छोटी-बड़ी आँतों से आहार द्रव्य में से रसों का निश्च्योतन, मस्तिष्क की जटिल संरचना, रीढ़ की हड्डियों का विचित्र जोड़ और उसके अन्दर से सूक्ष्म तन्तुओं के जाल का सारे शरीर में पहुँचना, शरीर के विभिन्न स्थानों में रक्त का सतत निर्माण, स्प्लीन के रूप में रक्त का सुरक्षित स्टोर, शरीर में उत्पन्न होने वाले मलों का बाहर नि:सरण, फेफड़ों के माध्यम से आक्सीजन का और कार्बन डाई ऑक्साइड का परस्पर आदान-प्रदान (Exchange) एक अत्यन्त छोटे कोशिका (Cell) में विचित्र आश्चर्यचकित कर देने वाली व्यवस्था, आँख की, कान की अद्भुत संरचना, हाथ-पैर और उनकी अंगुलियों की विचित्र रचना, जितना भी इस दिशा में विचार करते जाते हैं, आश्चर्य एक से एक आगे बढ़ते चले जाते हैं उनकी कोई सीमा नहीं आती। यह सब ब्रह्माण्डीय सृष्टि का चित्रण है।
दूसरी है जैवी-सृष्टि। जितना भी जीव जगत् है वह सब इस सृष्टि के अन्तर्गत आता है-उद्भिज्ज (जो धरती का भेदन करके बाहर आते हैं- वृक्ष-औषधि-वनस्पति-लता इत्यादि) स्वेदज (जो मलादि से उत्पन्न होते रहते हैं, तरह-तरह के बैक्टीरिया, कृषि में जो जीवाणु रोग का रूप लिए हुए दिखाई देते हैं) अण्डज (पक्षी आदि जो अण्डे से उत्पन्न होते हैं, पहले माता के उदर में अण्डा बनता है और फिर अण्डे में जो तरल द्रव्य होता है उससे इनके विविध शरीरों की रचना होती है) जरायुज (माता के उदर में जरायु एक प्रकार की झिल्ली होती है जो गर्भ की सुरक्षा के लिए ईश्वरीय व्यवस्था के तहत गर्भ के शरीर से चिपकी रहती है, गर्भ की नाभि से एक रस्सी जैसी माता के शरीर से सम्बद्ध रहती है जिसके माध्यम से माता के द्वारा जो आहार ग्रहण किया जाता है उसका अंश गर्भ तक पहुँचता है। इस झिल्ली युक्त गर्भ को ढकने वाली एक और झिल्ली होती है जिसमें पानी भरा रहता है, गर्भ उसमें तैरता रहता है) ये चार प्रकार की जैवी सृष्टि है किन्तु ध्यान रहे, जैसा कि हमने ऊपर वर्णन किया, इन सब जीवों के चाहे वह जरायुज कोटि का है अथवा अण्डज या स्वेदज या उद्भिज्ज कोटि का, जहाँ तक इनके शरीरों की रचना का सम्बन्ध है वह ईश्वरीय सृष्टि का ही हिस्सा है। जैवी सृष्टि में हम जीवों के ज्ञान व कर्म मात्र को ही ग्रहण कर आगे उसकी चर्चा कर रहे हैं।
जैवी सृष्टि को ज्ञान व कर्म के आधार पर विभाजित करके देखें तो नीचे से ऊपर तक बहुत सारे स्तर होंगे। इन उपर्युक्त चारों विभागों के एक-एक के फिर लाखों-लाखों विभाग हैं। जैसे उद्भिज्ज श्रेणी की अलग-अलग प्रजातियाँ देखें तो उनकी संख्या लाखों हो जाती हैं। इसी प्रकार स्वेदज, अण्डज और जरायुज श्रेणी की प्रजातियों की भी यही स्थिति है। अर्थात् एक स्वेदज कोटि में लाखों प्रकार के जीव हैं। अण्डज कोटि में भी लाखों प्रकार के जीव मिलेंगे और जरायुज के भी इसी तरह लाखों प्रकार हैं। उन सब प्रजातियों की एक-एक प्रजाति के ज्ञान व कर्म का अध्ययन किया जाए तो वह अलग-अलग ही मिलेगा। ज्ञान का काम है पहचानना। पहले हम उद्भिज्ज कोटि के जीवों को लेते हैं। उनकी सब प्रजातियाँ अपने-अपने आहार को पहचानती हैं। किस आहार से उन्हें पोषण मिलता है इसे वे अच्छी तरह जानती हैं, बेशक वह जानना मनुष्य जैसा नहीं है, पर पहचानना तो है। जैसे एक पौधा पानी की कमी से सूखने लगता है तो वह जल को कितने अच्छे से पहचानता है। पानी प्राप्त करते ही उसमें एकदम जीवन आ जाता है। आजकल के परीक्षणों ने तो यहाँ तक सिद्ध कर दिया कि प्रेम, करुणा, दया, सद्भाव, सौमनस्य व भक्तिपूर्ण भजन-कीर्तन के वातावरण में कुछ पौधों को रखा गया, उनका विकास उन पौधों की अपेक्षा अधिक हुआ, जिनको वैसा वातावरण नहीं मिल पाया। कुछ वृक्ष दूसरे प्राणियों के रक्त पर जीवित रहते हैं। जैसे विद्युत दूर से ही किसी को खींच लेती है वैसे ही वे वृक्ष निकट से गुजरने वाले किसी भी प्राणी को खींचकर उसका खून पी जाते हैं। दूसरे जीवों के सापेक्ष जो उनकी उपयोगिता है वह उनका कर्म है।
इसी प्रकार स्वेदज कोटि के जीवों की प्रजातियों का अध्ययन किया जा सकता है, वहाँ भी उन प्रजातियों के ज्ञान व कर्म के अनेक स्तर हैं। जैसे गेहूँ में दवा न डाली जाए तो उनमें जो कीट पड़ जाते हैं वे चावल या चने के कीटों से भिन्न प्रकार के होते हैं। कुछ धान्यों में जैसे सरसों और ग्वार में कीट पड़ते ही नहीं। अलग-अलग फसल में जो रोग लगता है उनमें जो कीटाणु या कीड़े होते हैं वे सब- सब जगह या सब काल में नहीं होते, कोई एक फसल में होता है तो कोई दूसरी में।
अण्डज कोटि के जीवों में ज्ञान व कर्म की भिन्नता बड़ी सहजता से देखी जा सकती है। मधुमक्खी का ज्ञान अपने क्षेत्र में कितना विलक्षण है। वे कितने बड़े अनुशासन में रहती हैं। वहाँ एक जो रानी मक्खी होती है वही अण्डे देती है, अन्य सब मक्खियाँ उसकी सेवा में जुटी रहती हैं, जैसा रानी मक्खी उन्हें संकेत देती है वैसा ही सबको करना होता है। बैया पक्षी का ज्ञान अपना घोंसला तैयार करने में कितना अद्भुत है। गिद्ध पक्षी की दृष्टि इतनी तीव्र होती है कि पचासों मील दूर तक का देख लेती है। चींटी भी एक अण्डज प्राणी है, उसकी घ्राणशक्ति कितनी बेजोड़ है। कुक्कुट में त्यागभाव कितना प्रकर्षता में होता है कि अपने से निर्बल बच्चे जब दाना चुगते हैं तो एक बड़ा मुर्गा होता है वह उनके बीच में जाकर उन्हें भयभीत या त्रस्त नहीं करता, उन्हें चुगने देता है। सर्पिणी अपने अण्डों को ही खा जाती है। एक-दो या तीन जो उसकी निगाह से बच जाते हैं वे ही वयस्क बनते हैं। कोयल अपने अण्डों की सुरक्षा और अपने बच्चों का लालन-पालन कौए से करा लेती है। कच्छपी सैकड़ों मील दूर अण्डे देकर आ जाती है और जब वे तैयार हो जाते हैं तो उसी स्थान पर पहुँच जाती है, भूलती नहीं।
अब आते हैं जरायुज पर, जरायुज प्राणियों के भी भिन्न-भिन्न लाखों स्तर हैं जिनका ज्ञान व कर्म भिन्न-भिन्न प्रकार का है। गाय तेजी से दौड़ती आ रही हैं, कहीं रास्ते में कोई छोटा बच्चा खेल रहा है, उसको बचाकर अपना पैर रखेगी। कभी भी वह बच्चे को घायल नहीं कर सकती, किन्तु भैंस यदि भाग कर आ रही हैं और ऐसी ही परिस्थिति मिल जाए तो निश्चित रूप से उसका पैर बच्चे के ऊपर ही रखा जाएगा। गाय का दूध मस्तक तक पहुँचता है अर्थात् ज्ञान वृद्धि में सहायक होता है जबकि भैंस का घी, दूध कन्धों तक ही रह जाता है। गाय प्रसव के समय अपने बच्चे की रक्षा करने में पूरी शक्ति लगा देती है। कुत्ता प्राय: अपने स्वामी का भक्त होता है और अपनी जाति से द्वेष करता है। घोड़ा सवारी के लिए तैयार किया जाता है जब कि बैल खेत जोतने के लिए या गाड़ी से भार ढ़ोने के लिए। इस प्रकार सभी जरायुज प्राणियों की अलग-अलग प्रजातियों के ज्ञान व उनके कर्मों में भिन्नता देखने को मिलती है। उस भिन्नता के चलते ही तो कोई केवल शाकाहारी है तो दूसरे केवल मांसाहारी, तो कुछ उभयाहारी हैं।
अब हम अपने इस अध्ययन की सुविधा के लिए जरायुज प्राणियों को दो वर्गों में बाँट लेते हैं एक मनुष्य और दूसरे मनुष्य से इतर जरायुज प्राणी गो, अश्व, अजा, अवि, मृग इत्यादि ग्राम्य व आरण्य पशु। इसी को यदि व्यापक करके देखें तो सम्पूर्ण सृष्टि ही दो भागों में बँट जाती है। एक मनुष्य और दूसरा मनुष्येतर जितना भी जीव जगत् है- उद्भिज्ज, स्वेदज, अण्डज और जरायुज। जैसा कि हमने देखा मनुष्येतर सम्पूर्ण सृष्टि के एक-एक घटक के ज्ञान व कर्म की भिन्नता नहीं है। वहाँ तो सम्पूर्ण प्रजाति का ज्ञान व कर्म दूसरी प्रजाति के ज्ञान व कर्म से भिन्न होता है। जैसे जो एक गाय का ज्ञान व कर्म है वही दूसरी गाय का भी होगा, वही तीसरी गाय का। हाँ! गाय की भी अवान्तर बहुत सारी प्रजातियाँ हैं जैसे-गीर, हरियाणवी, शाहीवाल, काँकरेज, थारपारकर, रैड सिन्धी, पहाड़ी इत्यादि सैकड़ों प्रजातियाँ हैं। उनके ज्ञान-कर्म की भिन्नता तो होगी ही। कोई प्रजाति अधिक दूध देती है कोई कम।
हम यह कह सकते हैं कि मनुष्येतर जितनी भी सृष्टि है वह अपने आप में पूर्ण है, उसे जैसा होना चाहिए वैसी है, उसमें कुछ फेर-बदल नहीं किया जा सकता और न ही उसकी आवश्यकता है। एक मनुष्य ही है जहाँ शास्त्र व गुरुजनों के द्वारा प्रशिक्षण, साधना, स्वयं की अभीप्सा, विचार, प्रयत्न-पुरुषार्थ आदि के द्वारा भिन्न पथ का अनुसरण किया जा सकता है। मनुष्य जन्म से कैसा होता है, यदि उसके स्वरूप का अध्ययन किया जाए तो संस्कार रूप में तो बहुत कुछ होता है किन्तु प्रकटत: तो कुछ भी नहीं होता, जैसा भी उसे संस्कार-शिक्षा मिलती है, जैसा भी उसको वातावरण अर्थात् माता-पिता, समाज का परिवेश मिलता है, जैसे साथी मिलते हैं, जैसा संग मिलता है उसके अनुसार ही उसका जीवन, उसकी प्रवृत्तियाँ, उसके कर्म, उसकी इच्छाएँ निर्मित होती जाती हैं। भारत में एक समय वंश परम्परा से जो ऋषियों की शृंखला चल रही थी, उसका कारण पूर्ववर्तियों की दृष्टि, ज्ञान व कर्म का सहजरूप से उत्तरवर्तियों को प्राप्त होना ही है। मनुष्य आरम्भ में तो देखकर, सुनकर ही सीखता है और बाद में जब उसका मस्तिष्क विकसित हो जाता है तो अपने विचार व अपनी भूलों से भी सीखता रहता है।
मनुष्य जैवी सृष्टि की श्रेष्ठतम रचना है। विधाता ने इसको अपने ही स्वरूप (रूशस्रद्गद्य) के रूप में रचा है। क्कशह्लद्गठ्ठह्लद्बड्डद्यद्य4 यदि देखा जाए तो जो इसके रचयिता में हैं वह सब इसमें हैं। किन्तु वट वृक्ष के बीज में विशाल वट वृक्ष रहते हुए भी जैसे उसकी सम्पूर्ण अभिव्यक्ति के लिए धूप, खाद, पानी, भूमि, अनुकूल वातावरण आदि सब चाहिए, बाह्य शक्तियाँ उसे हानि न पहुँचाएँ। उसकी रक्षा का प्रबन्ध भी चाहिए, अन्यथा उसकी शैशव अवस्था में कोई भी बकरी आकर उसे खा जाएगी, वह पुन:-पुन: बढऩा चाहेगा किन्तु पूर्ववत् कोई न कोई उसे अपना आहार बनाता रहेगा या कोई अज्ञानी जो उसके महत्त्व को नहीं जानता, खेल-खेल में यों ही उसे क्षतिग्रस्त करता रहेगा या खरपतवार अथवा कोई शक्तिशाली दूसरा पौधा उसे नहीं बढऩे देगा।
बीज के विकास के लिए अपेक्षित साधनों में से कहीं कोई कमी रह जाती है तो बीज वृक्ष नहीं बन सकता। जैसे कि वातावरण के अभाव में भी कोई बीज विकसित नहीं हो सकता। इसके कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हैं-नारियल, सेव, काजू कितना भी प्रयास करें यहाँ हरिद्वार में नहीं होंगे। बीज के अनुरूप उपयुक्त भूमि न हो तो भी बीज कुछ नहीं कर पाता, अन्य सब कुछ है पर सूर्य की धूप नहीं पहुँचती, बन्द कमरे के भीतर पौधे का विकास कभी नहीं हो सकता। खाद-पानी, नुलाई-गुड़ाई तथा सभी पौधों का अलग-अलग निश्चित दूरी पर होना भी उतना ही आवश्यक है जितनी कि अन्य चीजें। ये सम्पूर्ण नियम एक मनुष्य के विकास पर भी वैसे के वैसे लागू होते हैं।
जैसा कि हमने ऊपर इस बात की ओर अपने पाठकों का ध्यान दिलाया कि जैसे नाना प्रकार के रत्न धातु से जडि़त भूमि, विविध प्रकार के वट वृक्ष आदि के बीजों में अतिसूक्ष्म रचना, असंख्य हरित, श्वेत, पीत, कृष्ण, चित्र रूपों से युक्त पत्र, पुष्प, फल, मूल निर्माण, मिष्ट, क्षार, कटुक, कषाय, तिक्त, अम्लादि विविध रस, सुगन्धादियुक्त पत्र, पुष्प, फल, अन्न, कन्द  मूलादि रचना, अनेकानेक करोड़ों भूगोल, सूर्य-चन्द्रादि लोक निर्माण धारण, भ्रामण, नियमों में रखना आदि ईश्वरीय सृष्टि है वैसे ही मानव शरीर की जो संरचना है पञ्चभूतों का जो एक संघटन है जिसके भीतर हाड़ों का जोड़, नाडिय़ों का बन्धन, मांस का लेपन, चमड़ी का ढक्कन, प्लीहा, यकृत्, फेफड़ा, पंखा कला का स्थापन, रुधिर शोधन, रुधिर का सम्पूर्ण शरीर में बहना, विद्युत् का स्थापन, आँख की अतीव सूक्ष्म शिरा का तारवत् ग्रन्थन, इन्द्रियों के मार्गों का प्रकाशन, जीव के जागरित, स्वप्र, सुषुप्ति अवस्था के भोगने के लिए स्थान विशेषों का निर्माण रस-रक्त-मांस-मेद-अस्थि-मज्जा-शुक्र  व ओज के रूप में सभी धातुओं का विभागकरण, कला, कौशल, स्थापनादि अद्भुत सृष्टि भी ईश्वरीय सृष्टि है (सत्यार्थ प्रकाश, अष्टम समुल्लास, महर्षि दयानन्द भी ऐसा ही देखते हैं कि मनुष्यादि प्राणियों के शरीरों की संरचना ईश्वरीय सृष्टि है।)।
किन्तु इस शरीर की रचना के बाद जो कुछ जानना, मानना या करना आरम्भ करते हैं। ज्ञान के अभाव में अपने आप को सम्पूर्ण से अलग एक सत्ता समझकर वस्तु-व्यक्ति-परिस्थिति, सामथ्र्य या पद-पदार्थ के द्वारा सुखी होना चाहते हैं, अपने आपको ही सबसे अधिक महत्त्व देते हैं, सुख भोग के द्वारा ही अपनी धन्यता का अनुभव करते हैं अर्थात् सत्ता-सम्पत्ति-सम्मान-इन्द्रियसुखों के आधार पर ही जीवन की सफलता और असफलता का अनुभव करते हैं। किन्तु यह सब पाकर भी जब अतृप्ति ही बनी रहती है तो जिज्ञासा करते हैं, अपनी खोज करते हैं, 'जीवन का सत्य क्या हैइसे जानना चाहते हैं। उस प्रभु पर विश्वास करते हैं, उसका चिन्तन करते हैं। अपने में उसकी सोयी हुई स्मृति जगाते हैं। यह सब जैवी सृष्टि का कार्य आरम्भ हो जाता है। जानना, न जानना या अन्यथा जानना, इसी प्रकार मानना, न मानना या अन्यथा मानना और करना, न करना और अन्यथा करना (कर्तुम्, अकर्तुम्, अन्यथा कर्तुम्) इन सब रूपों में जीव कार्य चालू हो जाता है। या तो स्वयं को ठीक-ठीक ज्ञान हो जाए कि किस कार्य के करने से अपनी या दूसरों की लाभ-हानि होती है या किसी प्रामाणिक ज्ञान को पूर्ण रूप से स्वीकार कर लें कि ऐसा करेंगे तो ऐसा होगा। ये दो ही उपाय हैं जिनके द्वारा जीव अपने को सुखी रख सकता है और दु:खों से बचा सकता है। दूसरे के द्वारा सुझाए गए सत्य ज्ञान को मान न सके और अपना ज्ञान हो नहीं तो सुख-भोग की रुचि को लेकर जीव वह सब करता रहता है जिसका परिणाम दु:ख के सिवा कुछ नहीं होता। जो अपनी भूलों पर विचार करने में समर्थ हो पाता है वह तो भूल सुधार करके फिर अपने को सुखी करने के पथ पर आगे बढ़ जाता है किन्तु जो यह नहीं कर पाता, वह अनन्त काल तक दु:ख के बाद दु:ख ही भोगता चला जाता है। यह है जीवन की सामान्य स्थिति।
अब प्रश्न यह उठता है जब ईश्वर ने मनुष्य को अपना ही प्रतिरूप बनाया और ईश्वर है पूर्ण शुद्ध, पूर्ण मुक्त, पूर्ण आनन्द, हर तरह से पूर्ण। जिसमें थोड़ी सी भी अशुद्धि नहीं, थोड़ा सा भी बन्धन नहीं, किञ्चित् भी दु:ख नहीं, जिसमें कहीं भी न्यूनता नहीं। जिसमें घृणा का नाम भी नहीं, जो पूर्ण प्रेम है, जिसमें किञ्चित् भी मोह-आसक्ति नहीं, जो सदा निर्मोह व अनासक्त है। ऐसा जब ईश्वर है तो सिद्धान्तत: मनुष्य को भी ऐसा ही होना चाहिए क्योंकि मनुष्य ईश्वर का प्रतिरूप ही है। मनुष्य के जीवन को जब देखते हैं तो सब कुछ विपरीत ही दिखाई देता है। उसका शरीर व इन्द्रियाँ अशुद्ध हैं ही, किन्तु जिस मन-बुद्धि की उत्कृष्टता के कारण मनुष्य को मनुष्य कहा जाता है वे भी अशुद्ध हैं। यह मनुष्य सदा ही मोह-आसक्ति के बन्धन में बँधा हुआ, प्रेम के स्थान में घृणा, आनन्द के स्थान में दु:ख ही दु:ख, सभी प्रकार के अभावों व अपूर्णताओं से आक्रान्त रहता है। और भी ईश्वर परम स्वाधीन व परम उदार है तो यह सदा ही पराधीन व स्वार्थ से घिरा दिखाई देता है। ईश्वर सदा-सर्वदा ईश है, यम है, पूर्ण नियन्त्रक है, जबकि यह तो सदा अनीश ही दिखाई देता है, ईश्वर सदा निर्भय है, यह तो सदा भयभीत रहता है।
ईश्वर पूर्ण न्यायनिष्ठ है, तो यह सदा पक्षपात में डूबा रहता है। ईश्वर को कभी तुच्छ मनोरञ्जनों की आवश्यकता नहीं है, जबकि इसके मनोरञ्जनों को देखकर तो शर्म भी शर्मा जाए। ईश्वर की कभी किसी से कोई स्पद्र्धा नहीं, इसका तो स्पद्र्धा के सिवा कोई अस्तित्व ही नहीं। ईश्वर दया का सागर है, इसमें तो इतनी क्रूरता है। ईश्वर कितनाा निरभिमान व आग्रहरहित है, इसका तो अभिमान व आग्रहों से अतिरिक्त कोई जीवन ही नहीं। ईश्वर को कोई कितनी भी गाली दे, उसको बुरा-भला कहे, कभी प्रतिशोध का भाव आता ही नहीं, इसका तो प्रतिशोध अंगरक्षक ही बना रहता है। ईश्वर त्रिकाल में भी कभी भोगों की इच्छा नहीं करता, इसकी तो सुखभोग के सिवा कोई और चाहत ही नहीं। ईश्वर तो सदा-सर्वदा-सर्वत्र निर्लिप्त व असंग रहता है, यह तो सर्वत्रलिप्त ही दिखाई देता है। ईश्वर का किसी भी वस्तु-व्यक्ति-पदार्थ या परिस्थिति के साथ कभी तादात्म्य नहीं होता, जबकि यह तो वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति के साथ तादात्म्य में ही जीता है। ईश्वर को जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय रूप अपना कार्य करने में कभी भी आलस्य नहीं आता, इसे तो आलस्य घेरे ही रहता है। दोनों में इतना विभेद है, फिर भी मनुष्य ईश्वर का प्रतिरूप है, सो कैसे?
मनुष्य को जो ईश्वर का प्रतिरूप बताया गया, बल्कि शास्त्रकारों ने तो प्रतिरूप भी क्या यहाँ तक कह दिया है कि तुम वही हो =तत् त्वमसि (छान्दो.)।
मैं प्रकट ज्ञानरूप हूँ-प्रज्ञानं ब्रह्म (एतरेय उप.), मैं ब्रह्मरूप हूँ-अहं ब्रह्मास्मि (बृहदा.)। एक जगह याजुषी श्रुति में कहा गया-तदपश्यत् तदभवत् तदासीत्। (यजु. ३२) अर्थात् किसी मनुष्य के आत्मा ने उसको (तत् को) देखा, जाना या अनुभव किया और वह देखने वाला वही हो गया (तद् अभवत्) क्योंकि वह पहले से ही वही था (तद् आसीत्) तदपश्यत् में 'तत्यह शब्द द्वितीया एक वचन है और अगले दोनों वाक्यों में तत् प्रथमा एकवचन है। मनुष्य को ये सभी उपदेश उसके गुह्य स्वरूप को लेकर ही दिए गए हैं। जैसा कि भारत संहिताकार ने भी कहा है-गुह्यं ब्रह्म तदहं ब्रवीमि न हि मानुषाच्छ्रेष्ठतरं हि किञ्चित् अर्थात् इस रचित सृष्टि में मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। इस मनुष्य को  मैं गुह्य ब्रह्म कहता हूँ। अत: यहाँ यह समझना चाहिए कि मनुष्य का प्रतीयमान रूप तो जो है वह अनीश, पराधीन, दु:खी, स्वार्थी, सुख का भोगी, अभाव ही जिसकी नियति, अनुदार, राग-द्वेष-भय-प्रलोभन-काम-क्रोध-मोह-ईष्र्या-द्वेष-अहंकार आदि दोषों या विकारों से ग्रस्त, मैं और मेरा ही जिसका जीवन, स्पर्धा व प्रतिशोध ही जिसका स्वभाव, मोह-आसक्ति व तुच्छ मनोरञ्जन ही जिसका आधार, बाह्य परिस्थितियों से परिचालित, सदा अशुद्ध, अपवित्र, अपने संस्कार व कर्मों के बन्धन में बंधा हुआ, अज्ञान में ही सदा रचा-पचा इत्यादि ही है। किन्तु अपने अन्तरतम में तो वह साक्षाद् ब्रह्म ही है। पर हमने तो ज्ञानियों से सुना है कि जड़-चेतन जगत् है, उनके भी अन्तर में तो एक ही ब्रह्म का वास है जैसा कि विविध श्रुतियों में कहा है, 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ 'ओंकार एव इदं सर्वम्’ 'ईशावास्यमिदं सर्वम्’ 'स ओत: प्रोतश्च विभू: प्रजासु’ 'स पर्यगात्’ 'पुरुष एवेदं सर्वम्’ 'हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्इत्यादि शतश: श्रुतियाँ उसके सर्वव्यापकत्व का संदेश दे रही हैं। फिर मनुष्य को ही अलग से गुह्य ब्रह्म कहने में क्या तात्पर्य है? यह सत्य है ब्रह्म अखण्ड रूप से सर्वत्र समान रूप से विद्यमान है, किन्तु मनुष्येतर अन्य जड़-चेतन जगत् में उसकी सर्वथा आंशिक अभिव्यक्ति है- कहीं सिंहादि प्राणी में पराक्रम व वेग के रूप में, हाथी आदि में बल के रूप में, गौ में पञ्चामृत (दुग्ध-दही-घी-गोमूत्र व गोबर) की सर्वातिशायी उपयोगिता के रूप में, पीपल में पवित्र वृक्ष के रूप में या नित्य आक्सीजन रूप जीवन प्रदान के रूप में, श्रीमद्भगवद्गीता के दसवें अध्याय में विभूति वर्णन प्रसंग में उसकी विविध रूपों में अभिव्यक्ति को ही दर्शाया है और अन्त में कह दिया है-
यद् यद् विभूतिमत् सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव। तत्तदेवावगच्छ त्वं मत्तेजोंऽशसम्भवम्। जहाँ भी कुछ शुभ, ऐश्वर्य सम्पन्न, ऊर्जा से भरा हुआ है, उस सबको मेरे ही अंश से उत्पन्न जान। लेकिन मनुष्य में ईश्वर की पूर्ण अभिव्यक्ति सम्भव है- सच्चिदानन्द के रूप में, पूर्ण प्रेम व भ्रान्तिरहित विवेक के रूप में, परम उदारता के रूप में, पूर्ण निर्भयता के रूप में अपने मन-बुद्धि-इन्द्रियों पर पूर्ण स्वामित्व के रूप में, परम स्वाधीनता के रूप में, असङ्गता या निर्लोभता के रूप में, सर्वभूतात्मभाव के रूप में, परम शान्ति व मुक्ति के रूप में। अन्य योनियों में ईश्वर की ऐसी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती, इस बात को ध्यान में रखते हुए कह दिया है कि मनुष्य गुह्य ब्रह्म है।
मनुष्य में जब सच्चिदानन्द की अभिव्यक्ति होती है तो वह मनुष्य अपने आप को अखण्ड अविनाशी रूप में अनुभव करने लगता है, इससे उसका जीवन निर्भय हो जाता है तथा दु:ख का सर्वथा अभाव हो जाता है, उसका हर क्षण रसमय व्यतीत होता है। उसके जीवन से संयोग की दासता और वियोग का भय चला जाता है। उसका जीवन किसी भी प्रकार के खिंचाव-तनाव से ऊपर उठकर पूर्ण सहज हो जाता है। वह सब तरफ से अकाम, अचाह व नि:स्पृह हो कर अपने में ही पूर्ण संतुष्ट हो जाता है। संसार में रहते हुए भी उसका जीवन पद्मपत्रवत् निर्लेप हो जाता है। पुराने संस्कार व कर्म के बन्धन से मुक्त होकर जीवन जीता है। उसके पास जो विद्या-बल-सामथ्र्य-योग्यता आदि होती है उसको ईश्वर के नाते बिना भेदभाव के यथा योग्य सब में बाँटता रहता है। उसके जीवन से समस्त अभावों का अभाव हो जाता है।
इस सम्पूर्ण विवेचन से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि सच्चिदानन्द स्वरूप ईश्वर की चरम अभिव्यक्ति ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। अब प्रश्न यह है कि जीवन में उस ईश्वर की अभिव्यक्ति का उपाय क्या है? शास्त्रकारों, अनुभवी सन्तों, महात्माओं, जीवन के खोजियों या अन्वेषकों, गुरुओं व महान् आचार्यों ने जिन उपायों को मनुष्य के सामने रखा है वे अनेक नामों से पुकारे जाते हैं। जैसे कि समर्पणयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, उपासनायोग, कर्तव्यपथ, विचारपथ, प्रेमपथ, वर्तमानक्षण में ही जीने का अभ्यास, प्रथम व मध्यम पुरुष से उदासीन होकर उत्तम पुरुष में स्थिति, रसमय जीवन की माँग, प्रार्थना व ध्यान प्रभु के लिए व्याकुलता, तीव्र अभीप्सा लक्ष्य की प्राप्ति में अनन्य निष्ठा, अपने प्रभु में पूर्ण श्रद्धा-विश्वास व अनन्य प्रेम, सुखभोग की रुचि का त्याग, अहंकार की माँगें जो विविध कामनाओं के रूप में उदय होती हैं उनका पूर्ण विसर्जन, दु:खमय या क्लेशमय जीवन में पूर्ण असन्तोष, अज्ञानमय जीवन में घोर-नरक व कष्ट का अनुभव, पराधीनता में चरमपीड़ा की अनुभूति, विविधभयों से आक्रान्त जीवन की व्यथा का अनुभव, भूतकाल में हुई भूलों की वेदना और उस समस्त अशुभ से मुक्ति पाने की तीव्र चाह। ये सब उपाय बनते हैं ईश्वर की चरम व परम अभिव्यक्ति के। इन सब का सार यदि निकाला जाए तो दो बातें सामने आती हैं- चिन्मय अविनाशी, निर्भय, स्वाधीन रसरूप जीवन की प्यास तथा आहंकारिक जीवन की तुच्छता का अनुभव यदि ये दो बातें हो जाती हैं, और लक्ष्य प्राप्ति के बिना जो रह नहीं सकते तो भागवत जीवन की माँग ही उन साधकों को पथ का दर्शन करायेगी और वह माँग ही उन को पथ पर आगे बढने की आवश्यक शक्ति, सामथ्र्य व योग्यता भी प्रदान करेगी। तथा उन की वह तीव्र माँग ही उन्हें असत्य जीवन से या आहंकारिक जीवन से उपराम होने के लिए अपेक्षित बल भी प्रदान करेगी। इसलिए महापुरुष सबसे पहले अपने भीतर इस माँग को ही जगाते है। वेदों में इस माँग को अग्नि कहा है। यह अभीप्सा की अग्नि मनुष्य मात्र अपने हृदय में जला सकता है। इस माँग के अनुभव करने में कोई भी मनुष्य पराधीन नहीं है। मनुष्येतर किसी भी प्राणी में इस माँग की अग्नि नहीं जल सकती। उन सभी योनियों को जैसा कि इसी निबन्ध में हमने दर्शाया विवेक का प्रकाश उपलब्ध नहीं है। इसलिए वे सब की सब योनियाँ भोग भोगती हैं और अनजाने में दूसरे प्राणियों के भोगों मे सहयोगी या असहयोगी बनती हैं। अपने भोगों में जो बाधक बनते हैं उनके साथ संघर्ष करती हैं। उस संघर्ष में जो जितने शक्तिशाली होते हैं वे दूसरों पर राज करते हैं, अर्थात् कमजोर शक्तिशालियों के आहार बनते रहते हैं। इस प्रकार सतत संघर्ष के द्वारा जीवित रहते हुए अपनी जाति को, अपने वंश को आगे बढ़ाते रहते हैं।
पूर्ण रसमय अविनाशी चिन्मय जीवन की माँग रूपी आग मनुष्य अपनी हृदय वेदी पर जला सकता है, मनुष्य को यह अधिकार प्राप्त है, इस बात को हमने असकृद् दोहराया है। कोई पूछ सकता है यह चिन्मय जीवन क्या है? चिन्मय जीवन है जड़ता से मुक्त जीवन। जैसे मनुष्येतर जितनी भी योनियाँ हैं या पार्थिव जगत् है, पर्वत-नदियाँ, पेड़-पौधे हैं, अथाह जल का सागर है, सूर्य-चाँद-सितारे हैं। वे सभी एक दूसरे का उपकार कर रहे हैं। उन सब को यदि अस्तित्व से हटा दिया जाए तो जीवन की यह अविच्छिन्न धारा जो बह रही है, तत्काल समाप्त हो जाएगी। अत: सृष्टि में परस्पर उपकार्य-उपकारकता तो सतत चल रही है। किन्तु मनुष्य के अलावा किसी में भी यह भावना नहीं होती कि मेरा यह कर्तव्य है, मेरा जीवन कितना इस सम्पूर्ण अस्तित्व से उपकृत हो रहा है मैं भी अपनी पूरी शक्ति लगाकर इस सृष्टि यज्ञ में अपने को समिधा बना दूँ। भावना पूर्वक मनुष्य ही उदार हो सकता है। मैं भगवान् के लिए अपने जीवन को अर्पित कर दूँ, यह भाव केवल मनुष्य में पैदा होता है। सतत यह अनुभव करना ही चिन्मय जीवन है।
विचार के द्वारा, भावना के द्वारा और अपने कर्मों के द्वारा भगवान् की उस प्यास को मनुष्य अपने भीतर जगा सकता हैं और उसे साक्षात् अग्निकुण्ड में बदल सकता है। जैसा कि भगवती श्रुति ने मनुष्य को अपना संदेश सुनाया-
समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्। आस्मिन् हव्या जुहोतन।।
सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन। अग्नये जातवेदसे।।
तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्धयामसि। बृहच्छोचा यविष्ठ्य।।
घृत, समिधा व हव्य द्रव्य के द्वारा अग्नि बढ़ता है, इन साधनों से हम नित्य अग्नि की परिचर्या करें, उसको उद्बुद्ध करें, उसको नियमित रूप से शनै:-शनै: बढ़ाएँ। एक साथ सब कुछ गड्ड-मड्ड कर देने से भी अग्नि बढऩे की बजाय बुझ ही जाता है। अर्थात् यह भी मिल जाए, वह भी मिल जाए ऐसे जल्दबाज व्यक्ति निराश होकर मार्ग ही छोड़ बैठता है। अग्नि जैसे-जैसे प्रज्वलित होता जाए वैसे-वैसे उसमें निरन्तर आहुतियों का क्रम यदि सतत चलता रहे तो अग्नि के बुझने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। अन्यत्र भी कहा है- 'अग्निरायुष्मान् स समिद्भिरायुष्मान्। अग्नि समिधाओं से ही लम्बी उम्र वाला है। अत: अपने भाव, विचार संकल्प को बार-बार यदि साधक दोहराता रहे तो अग्नि कैसे बुझ सकता है? नहीं बुझ सकता। जिसका परिणाम होगा अमृतत्व की हमारे लिए दिव्य वर्षा। भौतिक यज्ञ से जैसे वर्षा होती है वैसे इस आध्यात्मिक यज्ञ से भी ज्ञान, भक्ति, प्रेम व अमृतत्व के रूप में दिव्य जल प्राप्त होता है। ये इन उपर्युक्त मन्त्रों का सन्देश है।
ईश्वर को अपने जीवन में अभिव्यक्त करने के लिए हमने कई सारे साधन गिनाए। उनमें एक सशक्त साधन है 'कर्म। यदि उचित मनोभाव व उचित दृष्टि के साथ सचेतन होकर इस साधन का उपयोग किया जाए तो तीव्रता के साथ हमारा आन्तरिक विकास, आध्यात्मिक विकास हो सकता है। जैसे-जैसे हम बच्चे से बड़े होते हैं वैसे-वैसे समय के साथ-साथ हम अपने को अधिकाधिक सचेतन बनाते जाते हैं। किन्तु हम यह सोचते हैं कि यह हमारे निजी लाभ के लिए है। हम अपनी बुद्धि को उसी दिशा में लगाते हैं, अपनी चेतना का उपयोग व्यक्तिगत लाभ के लिए करते हैं। लेकिन अक्सर पाते हैं कि हमारा सारा हिसाब-किताब व्यर्थ ही गया।
यदि हम ईश्वर को अपने जीवन में अभिव्यक्त करना चाहते हैं तो इस अहंकेन्द्रित या वैयक्तिक दृष्टिकोण को बदलना ही होगा। व्यक्तिगत लाभ के विचार को एक कल्पना समझना होगा। हमें अपनी चेतना में यह बिठाना पड़ेगा कि जो हम करते हैं वह ईश्वर का काम है। असल में तो हम अपनी इच्छा से कुछ नहीं करते, हम तो मात्र परिस्थितियों के दबाव व बहाव द्वारा उसे करने को उकसाए जाते हैं। अर्थात् हम भगवान् की 'इच्छाद्वारा चलाए जाते हैं, उसी के अनुसार काम करने के लिए बने हैं। प्रेरणा-प्रोत्साहन वहीं से आते हैं। यद्यपि हम सोचते हैं कि यह हमारी निपुणता और सामथ्र्य से हुआ है। यह हमारी अपनी मनपसन्द सोच है, साधक को इससे बचना होगा। सच पूछो तो, अक्सर हम देखते हैं कि जब हम कोई काम करने का बीड़ा उठाते हैं, कोई बहुत श्रमवाला भी, तो हमें अप्रत्याशित रूप से, उसे सम्पन्न करने की शक्ति भी मिलती हैं। कहाँ से आती है आखिर यह शक्ति? हमारे में से तो नहीं। ''हमारी शक्ति हमारी अपनी नहीं है लेकिन जो खेल खेला जाना है, जो काम हमें करना है, उसके लिए हमें वह दी गई है। हमारे ऊपर, भीतर, चारों ओर वह सर्वशक्ति व्यापी हुई है और अपने काम के लिए हमें उसी पर निर्भर करना है।यह भगवान् का काम है और हमें आवश्यक शक्ति भगवान् से ही मिलती है।
अत: इस वास्तविक सत्य को स्वीकार करके हमें ईश्वर के प्रति अपना विनम्र समर्पण कर देना चाहिए, सब कर्म उन्हीं के हैं, हमारे नहीं। श्रीअरविन्द आश्रम 'कर्म के द्वारा भगवान् की प्राप्तिइसका एक सुन्दर उदाहरण है। श्रीअरविन्द और श्रीमाँ दोनों ने ही साधक को कर्म किस भाव के साथ करना चाहिए-इसे एक उच्चतम आदर्श के रूप में प्रतिष्ठापित किया, दोनों ने ही स्वयं का अपना उदाहरण भी दिया। श्रीमाँ की 'प्रार्थना व ध्यानपुस्तक में से एक प्रार्थना को हम प्रस्तुत कर रहे हैं, जिससे निष्काम कर्म के व्यावहारिक व सैद्धान्तिक स्वरूप के विषय में आवश्यक, पूर्ण व पर्याप्त प्रकाश हमें मिल जाता हैं । वे लिखती हैं-
''हे नाथ! मेरी एक ही अभीप्सा है; तुझे अधिक अच्छी तरह जानूँ, नित्य प्रति अधिक अच्छी तरह तेरी सेवा कर सकूँ। बाह्म परिस्थितियों का क्या महत्त्व! मुझे ये दिन-प्रतिदिन अधिक व्यर्थ और भ्रान्तिपूर्ण प्रतीत हो रही हैं और मैं इस बात में कम से कम रुचि लेने लगी हूँ कि बाह्य रूप में हमारे साथ क्या घटेगा। किन्तु मुझे अधिकाधिक और तीव्र रूप में, केवल एक ही तथ्य रुचिकर लगने लगा है और यही मुझे महत्त्वपूर्ण भी प्रतीत होता है; वह है तुझे अधिक अच्छी तरह जानना जिससे कि तेरा कार्य अधिक अच्छी तरह कर सकूँ। सब बाह्म घटनाएँ इसी लक्ष्य, केवल इसी लक्ष्य पर केन्द्रित हों और यह हमारी उस वृत्ति पर निर्भर करता है जो हम इनके प्रति बना लेते हैं। यह है तुझे सदा सब वस्तुओं में खोजना, प्रत्येक परिस्थिति में तुझे अधिक अच्छी तरह अभिव्यक्त करने की इच्छा करना। इसी वृत्ति में परमशान्ति, पूर्ण आत्मप्रसाद और सच्चा सन्तोष प्राप्त होगा। इसमें जीवन खिल उठेगा, महान् हो जाएगा, इतने गौरवमय ढंग से, इतनी विशाल लहरों के रूप में विस्तृत हो उठेगा कि कोई भी तूफान उसे उद्विग्न नहीं कर सकेगा........।
(प्रार्थना और ध्यान 12 मार्च 1914)
निस्सन्देह हम यह आशा नहीं कर सकते कि इतने उन्नत विचार यकायक सभी के अन्दर एकदम से आ जायेंगे और उनकी दृढबद्ध धारणाओं और आदतों को बदल देंगे। लेकिन कोई भी साधक या साधिका यदि इस मानसिक आदत को बदलने का निश्चय कर ले और इस नए विचार को अपने अन्दर पनपने दे तो धीरे-धीरे यह पक्का होता जाएगा। जैसा कि श्रीअरविन्द ने कहा है- 'सबसे पहले व्यक्ति को अपनी इच्छा को ईश्वर की इच्छा के साथ एक कर देना चाहिए। यह समझना चाहिए कि वह साधक या साधिका तो मात्र यन्त्र हैं, इसके पीछे ईश्वर की इच्छा है, केवल वही परिणाम ला सकती है- ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। (गीता-१8.61)
बाद में जब वह साधक अपने अन्दर ईश्वर की शक्ति को पूरी तरह कार्यरत देखता है तो व्यक्तिगत इच्छा का स्थान भागवत इच्छाशक्ति ले लेती है।
यह सच है कि साधक जो भी करे वह ईश्वर का कार्य हो, उस का अपना नहीं, क्योंकि वह विशिष्ट काम पहले से ही उस के द्वारा निर्धारित है, एक अर्थ में उसी के लिए वह चुना गया है। ऐसा समझना चाहिए कि हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग काम सौंपा गया है और वह काम वही कर सकता या कर सकती है, दूसरा नहीं। सबके लिए सारे काम प्रत्येक के अपने-अपने कर्म-प्रवाह (प्रारब्ध) के अनुसार ऊपर से ही चुन कर दिए जाते हैं। कभी भी किसी साधक/साधिका को यह नहीं सोचना चाहिए कि ईश्वर के काम का मतलब है कोई विशेष काम जिसका हमारे सामान्य जीवन के कर्मों से कोई सम्बन्ध नहीं है। न ही कोई यह सोचे कि ईश्वर के विशेष काम का उचित यन्त्र बनने के लिए उसे इन साधारण क्रियाकलापों को छोडऩा होगा और इन सबसे बढ़कर कुछ और विशिष्ट काम होगा। ऐसा बिलकुल नहीं है। यदि कोई थोड़ी भी गहराई से सोचे तो जो भी काम वह कर सकता है वह ईश्वर का काम हो सकता है और वह होता भी है।
कोई कह सकता है कि हमें तो परिवार के भरण-पोषण के लिए रात-दिन काम में जुटे रहना पड़ता है तो उसे कैसे ईश्वर का काम समझा जाए? लेकिन किसी का परिवार भी तो ईश्वर का ही है। यहाँ जो कुछ भी है उसका अन्तिम मालिक तो ईश्वर ही है ईशा वास्यमिदम् सर्वम् (यजु.०१) 'इन्द्रो दिव इन्द्र ईशे पृथिव्या:’ (ऋग्.10.89.10) अर्थात् इन्द्र ही द्युलोक और पृथिवी लोक का शासन (नियमन) करता है। 'नेन्द्रादृते पवते धाम किञ्चन’ (ऋग्.9.69.9) इन्द्र के अतिरिक्त कोई स्थान या लोक पवित्र नहीं होता (गति नहीं करता) 'अहं भुवं वसुन: पूव्र्यस्पतिरहं धनानि सञ्जयामि शश्वत:। (ऋग्10.48.1) हे स्तोताओं! मैं सनातन हूँ-अहं पूव्र्य:। मैं सम्पूर्ण धनों का स्वामी हूँ-अहं वसुन: पति: भुवम्। इस प्रकार शतश: सहस्रश: मन्त्रों के द्वारा ईश्वर के स्वामित्व को दर्शाया गया है। अत: परिवार को भी ईश्वर का मानने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं है, वह वंश-परम्परा चलाने के लिए एक व्यवस्था है, जिससे ज्ञान के विकास की प्रक्रिया पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती रहे; ईश्वर को अभिव्यक्त करने के लिए अन्य-अन्य आत्माओं को मौका मिल सके, अत: तुम्हें उनकी देखभाल का जिम्मा सौंपा गया है। इस प्रकार अन्तत: हुआ न यह भी ईश्वर का काम? यदि कोई इस मनोभाव को अपना ले तो वे थकाने वाले सब विचार कि तुम परिवार के साथ लोह-शृंखला में बंध गए हो और उनका पेट भरने के लिए इतनी जी-तोड़ मेहनत करनी पड़ती है आदि-आदि, एक झटके में सब गायब हो जाएँगे। तुम समझने और अनुभव करने लगोगे कि तुम सब कुछ ईश्वर की सेवा के रूप में कर रहे हो।
अथवा जैसे कोई एक वैज्ञानिक या खोजी है। वह सोचता है कि जिस खोज में वह लगा है वह खोज उसकी है। लेकिन एक सजग वैज्ञानिक कभी ऐसा नहीं कह सकता, वह यही कहेगा कि दिमाग में विचार अचानक ही कौंधा। जहाँ वह विचार आया वह मस्तिष्क रूपी यन्त्र भी ईश्वर का ही बनाया हुआ हैं। ठीक ऐसा ही तो होता है। ज्ञान-विकास की प्रक्रिया के रहस्यों का अनावरण करते समय एक नई खोज का समय उपस्थित हो जाता है, अत: वैज्ञानिक के दिमाग के माध्यम से एक प्रेरणा सुझायी गई और कोई छिपा हुआ सत्य सामने आ गया। वैज्ञानिक ईश्वर का काम करने के लिए मात्र एक निमित था।
या जैसे कोई अपने को व्यापारी समझता है। सैकड़ों लोग उसके अधीन काम करते हैं। वह सोचता है कि वही उनका स्वामी है, प्रतिपालक है। लेकिन सत्य तो यह है कि वे सब सेवक या श्रमिक ईश्वर के ही बच्चे हैं और ईश्वर ने उनका भरण-पोषण करने के लिए तुम्हें चुन लिया है, तुम तो केवल देखभाल के लिए नियुक्त किए गए हो।
यदि कोई एक राष्ट्रीय नेता है तो वह सोचता है कि देश की जनता के लिए वह बहुत बड़ा बलिदान कर रहा है, अपनी समय शक्ति व ऊर्जा लगा रहा है। लेकिन यहाँ भी सच यही है कि यह काम भी ईश्वर का ही है। ईश्वर को धरती के अलग-अलग स्थानों की यह व्यवस्था चलानी है, उसके लिए उन-उन स्थानों का, देशों का नेतृत्व करने के लिए उन-उन विशिष्ट लोगों को चुन लिया गया है।
अगर कोई किसान है, जमीन की जुताई करता है, बीज बोता है और जब अनाज पक जाता है तो वह सोचता है कि फसल उगाने वाला मैं हूँ। लेकिन वास्तव में अपने बच्चों के लिए फसल तैयार करने वाले तो ईश्वर हैं, किसान के रूप में तुम तो केवल उनकी सहायता के लिए रखे गए हो।
तुम जो कुछ भी हो, एक कामकाजी आदमी, एक क्लर्क, एक इंजीनियर, एक डाक्टर, एक कारीगर, एक संन्यासी, एक अध्यापक, एक सैनिक, हजारों-हजारों लोग अलग-अलग क्षेत्र में अपना-अपना काम करते हुए दिखाई देते हैं। सदा याद रखना चाहिए कि काम का चुनाव ऊपर से ही हुआ है, ये सब ईश्वर के ही काम हैं।
ईश्वर के लिए कोई काम छोटा या बड़ा नहीं है। उनके लिए सब कार्य बराबर महत्त्वपूर्ण हैं। किसी का काम लोक व्यवहार में कितना भी छोटा समझा जाए, किन्तु उस-उस काम के करने वाले को अपना काम नगण्य नहीं समझना चाहिए, क्योंकि ईश्वर की नजरों में उसका विशेष महत्त्व है। काम चाहे कितना ही बड़ा या कौशल पूर्ण हो, उसके लिए साधक को कभी भी गर्व नहीं करना चाहिए, क्योंकि ईश्वर की नजरों में इसका भी वही महत्त्व है जो औरों के काम का है। कठिनाई तब आती है जब व्यक्ति किसी काम को अपने 'मैंÓ के साथ जोड़ देता है। यदि लोग काम को अपना काम कहना बन्द कर दें तो बहुत सी मुसीबतें खतम हो जायेंगी। यह स्वर्णाक्षरों में लिखनेे लायक बात है।
पैसा कमाने के बारे में लोग सोचते हैं कि यदि हम आध्यात्मिक जीवन अपनाना चाहते हैं तो पैसे के साथ हमारा कोई सरोकार नहीं। लेकिन ईश्वर की ओर से इस घटना को देखें तो ऐसा सोचने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि तुम भगवान् के लिए कमाते हो। साधक के लिए यही उचित दृष्टि है कि वह मात्र इतना ही सोचे कि वह अपने लिए नहीं कमा रहा, जो कमा रहा है वह सब भगवान् का है। अत: उसे सारा हिसाब-किताब रखते हुए कभी भी लापरवाही के साथ खर्च नहीं करना चाहिए। हर एक साधक/साधिका अपने आपको ईश्वर का विश्वस्त खजांची समझे। किसी साधक के गीत की सुन्दर पंक्ति है-'हे ईश्वर! मुझे अपना खजांची बना लो, मैं बे-ईमानी नहीं करूँगा।पैसा कमाएँ और उचित कामों में खर्च करें। यदि पैसा बहुत है तो अच्छे-अच्छे मकान और बगीचे बनाएँ, लेकिन कभी यह न समझें, न सोचें कि वे इनके अमीर मालिक हैं, क्योंकि सारी धरती ईश्वर की सम्पत्ति है, धरती पर सब ऐश्वर्य उन्हीं का है। साधक की बड़ाई इतनी ही है कि सम्पत्ति का सदुपयोग किया और उससे धरती के सौन्दर्य को बढ़ाया। यदि कोई ईश्वर का पुत्र-पुत्री सामथ्र्यवान् है तो साम्राज्य भी स्थापित करे तो वह भी ईश्वर के नाम से होना चाहिए। कहीं भी किसी भी स्तर पर, किसी भी निमित्त से अहं की गन्ध तक न आए।
जैसे राजा रणजीत सिंह ने अपने गुरु नानक के नाम से साम्राज्य स्थापित किया और स्वयं को उसको रखवाला मानते रहे। मराठा नेता शिवा ने भी वही किया। वे अपने समर्थगुरु रामदास के नाम से लड़े और जीते। यही है साधक की समुचित स्थिति। इस विषय में श्रीअरविन्द ने कितना सुन्दर कहा-'काम और उससे मिलने वाली निजी लाभ हानि के साथ अहंभरी आसक्ति से मुक्ति तथा एक शान्त परितोष होना चाहिए, पर इसके साथ होना चाहिए काम में तथा भगवान् के कार्य हेतु अपनी क्षमताओं के उपयोग में अतीव आनन्द।
असल में तो यह ठीक और गलत दृष्टि की बात है। किसी घटना को कैसे देख रहे हैं, उसके बारे में क्या सोच रहे हैं। उचित दृष्टि के अभाव में अज्ञानवश हम ऐसा सोचते हैं कि यह हमारा अपना जीवन है, अपना परिवार, अपना घर, अपना काम, सब कुछ अपना है। इसके बजाय यदि हम दूसरी तरह से सोचें तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि कुछ भी हमारा नहीं है। क्योंकि ईश्वर ने यह सृष्टि रची है, हम सबको बनाया है और ऐसी व्यवस्था की है कि जिंदा रहने के लिए हमें खाना है और काम करने के लिए जिंदा रहना है और उसके लिए उसने इतने सारे विविध काम हमारे सामने रखे हैं। काम तो हमारे बिना भी चलता रहेगा। केवल दर्प के कारण ही हम ऐसा सोचते हैं कि काम हमारा है और हमारे बिना होगा नहीं। 'अपनेपनका यह भाव हमारे अन्दर हमारे माता-पिता और परिवेश ने बचपन से ही डाला हुआ है। यदि हमें शुरू से ही यह सिखाया गया होता कि यह अहंभाव गलत है तो हम अलग ढंग से, अलग भाव लेकर बड़े होते। बाल्यकाल में जिन्हें सौभाग्य से अच्छी माँ, अच्छे पिता तथा अच्छे गुरु मिल जाते है तो उनकी दृष्टि, उनका भाव, उनकी सोच, उनका स्वभाव अलग ही होता है। इसीलिए शतपथकार ने कहा है- 'मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद।
किन्तु एक कहावत है It is never too late to mend जीवन को स्वस्थ करने के लिए कभी भी देर नहीं होती । हम अपना मनोभाव अभी भी ठीक कर सकते हैं। उसके लिए विवेक करने की (to discriminate) एक नयी आदत डालनी होगी और साथ में ईश्वर का सतत स्मरण। यदि हम सदा इस तरह करते रहें तो परिवर्तन के लिए ईश्वर की शक्ति और पथप्रदर्शन हमारे अन्दर काम करने लगेंगे। जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता के अन्त में कहा गया है-
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात् परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।। 18.62
अर्थात् हे भारत (गीता में जहाँ भी अर्जुन को सम्बोधित किया गया है वे हम ही हैं) तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परमशान्ति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा।
यहाँ परमेश्वर की शरण में जाने का तात्पर्य यह है कि लज्जा, भय, मान, बड़ाई और आसक्ति को त्यागकर और शरीर व संसार में अहंता, ममता से रहित होकर केवल एक परमात्मा को ही परम आश्रय, परम गति और सर्वस्व समझना तथा अनन्यभाव से अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेमपूर्वक निरन्तर भगवान् के नाम, गुण, प्रभाव और स्वरूप का चिन्तन करते रहना एवं भगवान् का भजन, स्मरण रखते हुए ही उनके आज्ञानुसार अर्थात् आन्तरिक प्रेरणाओं के अनुसार कत्र्तव्य कर्मों का नि:स्वार्थभाव से केवल परमेश्वर के लिए आचरण करना यही है सब प्रकार से परमात्मा के शरण होना।
इस प्रकार ईश्वर की शरण ग्रहण करने पर हमारी ऐसी मन: स्थिति बन जाएगी कि वह यन्त्री है और हम उसके यन्त्र, वह बाँसुरीवादक है हम हैं उसकी बाँसुरी, वह खिलाड़ी है हम हैं उसकी गेंद, वह हमारा सारथी है और हम हैं योद्धा, इस प्रकार हम अहंप्रेरित उद्देश्यों से, अहंजनित कामना और स्वत्वाधिकार से मुक्त हो जाएँगे।  
भारतवर्ष के अनेक आश्रमों में पहले से ही यह परम्परा चली आ रही है, अब भी चल रही है कि वहाँ सभी स्त्री-पुरुषों को कुछ न कुछ उनकी योग्यता अनुसार काम करना होता है बिना किसी वेतन के; और वहाँ वे बड़े ही खुश रहते हैं। मनुष्य को कोई भी कार्य नहीं थकाता। उसमें जो सफलता-असफलता, लाभ-हानि आदि के दूसरे भाव जुड़ जाते हैं, उससे थकावट आती है।
काम की महिमा पर प्रकाश डालने वाला श्रीअरविन्द आश्रम का एक संस्मरण है कि योगानन्द नाम के एक अज्ञात व्यक्ति एक बार पाण्डिचेरी आए। वे लड़कपन से अपने गुरु के संरक्षण में तीव्र जप और कठिन साधना कर रहे थे। वे आश्रम में प्रवेश चाहते थे। श्री अरविन्द ने लिखा, 'उनसे कह दो कि हमारा आश्रम अन्य आश्रमों जैसा नहीं है, हमारा लक्ष्य संन्यासी बनना या मोक्ष पाना नहीं है। हमारा सिद्धान्त है-काम के द्वारा सिद्धि पाना, उसकी तैयारी के लिए काम करना है, यही यहाँ का नियम है। वह जैसा अभ्यास कर रहा है, काम उसके लिए उससे बिलकुल भिन्न, उबाऊ और अरुचिकर हो सकता है। यदि वह पिछला सब कुछ छोडऩे को तैयार हो और हमारे नियमों के अनुसार काम करने को तैयार हो, तभी वह यहाँ रह सकता है।योगानन्द ने यह शर्त मान ली और तब से आश्रम में ही जीवन भर रहे।
आश्रम में हो या बाहर काम अपने आप में साधना का प्रभावशाली अंग है। पर हाँ! इस विषय में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है- काम यदि उचित मनोभाव के साथ नहीं किया जाएगा तो साधना की दृष्टि से कुछ लाभ नहीं होने वाला है। केवल काम करने मात्र से यदि साधना होती तो काम तो सारा संसार कर ही रहा है, सब साधक हो जाते, किन्तु ऐसा तो देखने में नहीं आता। यदि साधक में पूरी सच्चाई (Sincerity) हो और वह ईश्वर को सतत याद रख सके, उनकी ओर खुल सके तो धीरे-धीरे ईश्वर का काम समझ कर काम करते हुए उसकी चेतना में एक उच्चतर चेतना अवतरित होगी, जो साधक की सम्पूर्ण सत्ता को बदल देगी। साधक की यदि इस सिद्धान्त में पूरी निष्ठा हो कि 'भगवान् के लिए कामइस साधना प्रणाली से तुझे विशेष लाभ प्राप्त होंगे जो किसी अन्य प्रकार से प्राप्त नहीं हो सकते तो ही उसे लाभ हो पाएगा। चेतना का रूपान्तरण ही तो आध्यात्मिक लाभ है। अहंभावमयी चेतना जो अपने और अपने लोगों के सुखों तक सीमित रहती है, वह विस्तृत होती जाती है। चेतना के विस्तृत होते-होते उसका शुद्धिकरण भी होता रहता है। चेतना के शुद्ध होने से स्वत: ही साधक की इच्छाएँ बदल जाती हैं। चेतना के परिवर्तन होने पर जो काम और व्यापार के साथ लोभ, स्पर्धा, ईष्र्या, जलन, दुर्भावना और होड़ लगाने की जो भावनाएँ जुड़ी रहती हैं वे सब शान्त हो जाएँगी। क्योंकि अब निजी लाभ-हानि का प्रश्न नहीं रहेगा, अपनी अच्छी से अच्छी क्षमता के साथ ईश्वर का कार्य कर रहे होंगे तो आपसी झगड़े भी नहीं होंगे। सफलता पाने पर व्यक्ति खुशी से नाचेगा नहीं और असफल होने पर निराश नहीं होगा। दोनों भावों से ही वह अछूता रहेगा। क्योंकि उसे इस बात का सदा अहसास रहेगा कि यह ईश्वर का काम है। और ईश्वर तो अपनी सर्वज्ञता में हमको यथावत् जानते ही हैं कि हमने अपनी तरफ से यथासंभव अच्छे से अच्छा किया है, सफलता और असफलता उनके हाथ में है। हमें तो केवल मिलेगी 'अक्षुब्ध समचित्तता
ईश्वर के लिए जो काम करेगा वह धोखाधड़ी या ठगने या बुरे कामों का सहारा क्यों लेगा, जो कि लोग प्राय: लेते हैं, जब उन्हें उससे लाभ पाने की आशा होती है। क्योंकि उस ईश्वर-सेवक के सामने जैसे ही कोई लालच का अवसर आयेगा तत्काल वह याद करेगा कि ईश्वर तो इसे पसन्द नहीं करेंगे और वह ऐसे प्रलोभनों से बच निकलेगा। इस प्रकार वह भगवान् के लिए काम करने वाला योग साधक सच्चा, स्पष्ट, ईमानदार बना रहेगा, कभी भी गलत काम नहीं करेगा।
उस योग साधक को अपने जीवन का सच्चा उद्देश्य और अर्थ पता चल जायेगा। साधारण जीवन में हम प्राय: यह सोचते हैं कि दिन-पर-दिन बिना रुके यह फलरहित श्रम करते चले जाने का क्या लाभ है? इसका अन्तिम परिणाम या लाभ क्या होगा? इसका फायदा कौन उठायेगा, इसके लिए कौन आभार व्यक्त करेगा? किन्तु ईश्वर के लिए काम करने वाले के मन में सब उथल-पुथल कभी पैदा नहीं होती। उसका अपना एक निश्चित लक्ष्य और वहाँ तक पहुँचने के लिए निश्चित पथ होता है। वह स्पष्ट जान रहा होता है कि जिसके कारण तेरा अस्तित्व है, जिसने तुझे पैदा किया, जिसकी शक्ति से तू देख पाता है, सुन पाता है, चल पाता है, विचार कर पाता है उसी की शक्ति से उसी के लिए सब काम कर रहा है। जैसे कोई गङ्गा जल से गङ्गा पूजन करता है वैसे ही यह योगसाधक भी ईश्वर की दी हुई योग्यता, शक्ति, सामथ्र्य और उसके विवेक से उसी का पूजन करता है।
उस साधक के जीवन से मृत्यु का भय जाता रहेगा। उसका ऐसा विश्वास होता है कि जब तक ईश्वर की इच्छा है तब तक तो कोई शक्ति चाहे इस लोक की हो या उस लोक की उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकती। क्योंकि जब साक्षात् ईश्वर को उनके काम के लिए मेरी आवश्यकता है तो वह कौन होता है जो बीच में आकर हस्तक्षेप करे। अत: मृत्यु को लेकर सामान्यत: मनुष्य में जो कमजोरी, कंपकंपी, झुंझलाहट भरे विचार आते रहते हैं वे सब भाग जायेंगे। अत: साधक मृत्यु के बारे में नहीं, केवल ईश्वर के काम के बारे में सोचेगा। साथ में वृद्धावस्था तथा अशक्त कर देने वाली बीमारियों का भय भी बिदा हो जाएगा। क्योंकि वह हर परिस्थिति, सुख-दु:ख, अनुकूलता-प्रतिकूलता को अपने प्रिय की ओर से भेजी हुई समझेगा।
लेकिन ऐसा मनोभाव आनन-फानन में स्थापित नहीं हो सकता, लगातार प्रयास करने की आवश्यकता होती है। केवल मानसिक संकल्प या किन्हीं अवसरों पर किए गए अव्यवस्थित प्रयासों से काम नहीं चलेगा। तुम भूल न जाओ इसलिए तुम्हें बार-बार अपने को याद कराना होगा, यदि बाधा आ भी जाए तो भी नए सिरे से शुरू करके अपनी गलती सुधारनी होगी। छोटे से छोटे काम को भी ईश्वर को अर्पित करना सीखना होगा। अन्तत: तुम उनकी उपस्थिति व पथप्रदर्शन अनुभव करोगे।
तुम्हारी क्षमता सीमित हो या काम छोटा तो भी तुम्हें इस बात की कोई चिन्ता नहीं करनी। यदि तुम छोटे हो और छोटा-मोटा व्यापार कर रहे हो तो भी कोई बात नहीं। यदि तुम अपने काम में सच्चे हो और भरसक अच्छे से अच्छा करते हो तो उतना ही काफी है। जितना तुम दे सकते हो, ईश्वर उससे ज्यादा नहीं माँगते किन्तु तुम्हारे सामथ्र्य से कम भी नहीं। काम का मूल्य उसके परिणाम या गुण से नहीं आँका जाता, बल्कि यह आँका जाता है समूची चेतना के स्थायी भाव या नियम द्वारा, ऐसी चीज जिसे सूत्रों में व्यक्त नहीं किया जाता लेकिन जिसे जीया जाता है। केवल तभी, आचार-व्यवहार के सभी नियम जिनका आधार पूर्ण निस्स्वार्थता और निरासक्ति है, अपना पूरा मूल्य पाते हैं। किसी लक्ष्य पर पहुँचने के लिए जब हम अपने लिए निर्धारित कर लेते हैं तो संशयरहित होकर निष्ठा से आगे बढऩा होता है। अपने लिए अपने पथ को सर्वोपरि महत्त्व की वस्तु समझनी होती है। अपने को किसी भी प्रकार की हीनभावना या अहंभावना से मुक्त करके श्रद्धा-विश्वासपूर्वक अपने द्वारा स्वीकृत साधन मार्ग पर चलना होता है। जो साधक उस अनन्त को अपना लक्ष्य बनाकर उसकी ओर किसी भी पथ से (वह पथ बहुत सारी चीजों का समुच्चय भी हो सकता है) आगे बढ़ रहे हैं और अपनी प्रगति धीमी या तीव्र जो भी है उससे सन्तुष्ट हैं अर्थात् उन्हें ऐसा लगता है कि दिन-प्रतिदिन हम अपने लक्ष्य के समीप पहुँचते जा रहे हैं, उनके लिए कुछ भी सोचने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि पहले ही वे इतने सशक्त हैं। उन्होंने हमारा काम हल्का कर दिया है। जिधर हम जा रहे हैं उधर ही वे भी एक अन्य पथ से जा रहे हैं और अपनी ही रुचि से जा रहे हैं। अत: उनके लिए तो हृदय से बस साधुवाद निकलते रहना चाहिए। तीन चीज होती हैं-लक्ष्य, मार्ग और उसकी बाधाएँ। जो लोग लक्ष्य को भी जान रहे हैं और जिन्हें मार्ग भी मिल गया और मार्ग में आने वाली बाधाओं को हटाने के उपाय भी ढूँढ लिए- उनसे, हम कुछ नहीं कहना चाहते। वे अपने पथ पर श्रद्धापूर्वक बिना दाएँ-बाएँ देखे निरन्तर बढ़ते रहें। जैसे १६ वर्ष की अल्पायु में ही किसी पूर्व संस्कारवश बालक बेंकट रमन को अपनी आन्तरिक अनुभूति से यह आभास मिल गया कि तू शरीर नहीं है, शरीर के जला दिए जाने पर भी तू तो फिर भी है और उसी अनुभूति में जीवनभर बने रहे। बिना किसी बाह्य उपदेश के वे अपने अनुभूत सत्य में स्थित हो गए। ऐसे लोगों को कोई क्या सिखायेगा और वे क्यों सीखना चाहेंगे? ऐसे लोगों का तो सम्पूर्ण जीवन ही दूसरों के लिए शास्त्र बन जाता है, मार्ग बन जाता है। वे किसी के पीछे नहीं चलते, दूसरे लोग ही उनके पीछे चलते हैं।
ऐसा ही एक उदाहरण केरल के एक सन्त श्री स्वामी रामदास जी का है। वे अपने पिता के द्वारा प्रदत्त 'ॐ’ श्रीराम जयराम जय-जय रामइस राम मन्त्र का सतत अहर्निश जप करते रहे और इस प्रकार उन्हें सिद्धि प्राप्त हो गई। उनका मन पूर्ण शान्त हो गया, भगवत् तत्त्व की अनुभूति हो गई, जिसको वे खोज रहे थे वह मिल गया। अब बताओ मार्गदर्शन के लिए वो किसी गुरु की खोज क्यों करना चाहेंगे?
इसी प्रकार कोई साधक औपनिषद दर्शन का श्रवण-मनन-निदिध्यासन करते हुए आगे बढ़ रहा है और अपनी प्रगति से सन्तुष्ट है वह दूसरे किसी की तरफ क्यों देखेगा? कोई ऐकान्तिक ध्यान व प्रार्थना से अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो रहा है, वह भी क्यों अपने पथ में संशय करेगा? अपनी प्रगति से असन्तुष्ट ही अपने पथ में संशय कर सकता है। कोई व्यक्ति ज्ञान-कर्म-उपासना तीनों का संतुलित उपयोग करता हुआ आगे बढ़ रहा है और अपनी प्रगति से सन्तुष्ट है, वह भी इधर-उधर क्यों देखेगा? कोई व्यक्ति अपने मन को भूत-भविष्यत् से मुक्त करके वर्तमान क्षण में जीता हुआ मन से पार एक शान्त अनन्त चेतना का अनुभव कर रहा है- अब उसे और क्या चाहिए? क्यों किसी गुरु की खोज करेगा? किन्तु जिनमें रसमय जीवन की माँग जागरित हो गई और उसे प्राप्त किए बिना रह नहीं सकते, अर्थात् निराश नहीं हुए हैं, अपने जीवन में ईश्वर को अभिव्यक्त करने का पूर्ण निश्चय है किन्तु अभी मार्ग नहीं मिल रहा या अनेक मार्गों पर चलने के बाद भी सिद्धि प्राप्त नहीं हो पाई, वे 'कर्म के द्वारा भागवत जीवन की उपलब्धि इस पथ पर चलने के लिए सादर आमंत्रित हैं। वे इस पथ को चुनकर इस पर चलना आरम्भ कर दें।
जो अपने जीवन में और जगत् में भगवान् का प्राकट्य चाहते हैं उनकी प्रार्थना व अभीप्सा कैसी होनी चाहिए, अब हम इसे प्रस्तुत करना चाहेंगे-
  • हे प्रभो! आपकी जय हो! हे सर्वविघ्रविनाशक! हे करुणानिधान! हे दया के सागर! हे पतित पावन! पतितोद्धारक! हे मेरे अन्तर्वासिन्! हे मेरे प्राणनाथ! वर दो कि आपके काम में हमारी कोई भी इच्छा, संकल्प, कामना आग्रह बाधक बने।
  • प्रभो! वर दो कि हम सदा आपके आदेश-संदेश-निर्देश को ग्रहण करने के लिए आपकी ओर ही उद्घाटित रहें।
  • वर दो कि हमारी सत्ता के अंग-प्रत्यंग में मन-मस्तिष्क आदि उच्चतम से लेकर क्षुद्रतम एक-एक कोशिका तक में आपकी ही इच्छा क्रियान्वित हो।
  • वर दो कि कोई भी चीज आपकी अभिव्यक्ति में रुकावट बने।
  • हे प्रभो! हम समस्त बाह्य प्रभावों से अलग रहकर केवलमात्र आपके ही प्रभाव के पूर्णरूप से अधीन हो जाना चाहते हैं।
  • वर दो कि हमारी सम्पूर्ण सत्ता आपके लिए एक तीव्र तथा गहरी कृतज्ञता से भरी रहे।
  • वर दो कि हमारा हर क्षण आपकी इच्छा को क्रियान्वित करने में बीते।
  • वर दो कि किसी भी परिस्थिति में, किसी भी विपत्ति-आपत्ति में हम आपकी इच्छा को ही सर्वोपरि स्थान दें।
  • वर दो कि आपके द्वारा प्रदत्त विवेक का अनादर करें। शरीर, मन, बुद्धि, वाणी, योग्यता सामथ्र्य के रूप में जो ऊर्जा हमारे पास है उसे आपकी ही दी हुई समझें और कभी भी कहीं भी उसका दुरुपयोग करें।
  • वर दो जो साधन-सामग्री, अद्भुत वस्तुएँ प्रतिक्षण आपकी देन के रूप में हमें मिलती हैं, उनमें से किसी का भी हम कभी अपव्यय करें। उसे आप द्वारा प्रदत्त उपहार मानते रहें।
  • वर दो कि सदा सब अवस्थाओं में समता को धारण करें। लाभ-हानि, जय-पराजय, मान-अपमान, हर्ष-शोक आदि सभी द्वन्द्वों में किञ्चिद् भी विचलन हो।
  • प्रभो! वर दो कि जैसे मैं एकान्त में तेरे साथ एकत्व में रहता हूँ, कर्म के बीच भी वह एकत्व बना रहे।
  • प्रभो! वर दो कि तुझको मैं उससे भी अधिक चाहूँ, जैसे किसी प्रथम कोटि के अहंकारी व्यक्ति को अहं पसन्द होता है।
  • प्रभो! वर दो कि प्रतिदिन एक नये जन्म के रूप में मेरा धरती पर प्रादुर्भाव हो। प्रतिदिन एक नयी उषा का दर्शन करूँ।
  • प्रभो! वर दो कि मैं जीवन के इस सत्य रूपी पर्वत पर सतत आरोहण करता रहूँ।
  • प्रभो! वर दो हम आपको कभी भूलें। आपकी इच्छा ही हमारे लिए सर्वोपरि स्थान पर रहे।
  • प्रभो! वर दो मैं सच्चे अर्थ में विनम्र, अभिमानरहित होकर जीऊँ।
  • प्रभो! वर दो कि मेरा हृदय सदा-सर्वदा प्रेम से भरा रहे।
  • प्रभो! वर दो मेरी सत्ता का कोई भी अङ्ग आपसे विमुख हो। मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व आपकी ओर उद्घाटित रहे।
  • प्रभो! वर दो कि मैं सत्य का सच्चा अनुगामी बनूँ, कहीं सत्य की स्थापना के नाम पर सत्य का विध्वंसक और भञ्जक बन जाऊँ।
  • प्रभो! वर दो कि मैं असमय में विश्राम करूँ।
  • प्रभो! वर दो कि मैं आपके संरक्षण में सदा अभय रहूँ।
  • प्रभो! वर दो कि मैं सदा माधुर्य से भरा रहूँ। किसी भी व्यक्ति, घटना, परिस्थिति या व्यवहार से गिला-शिकवा हो।  

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