नेत्र, प्रजनन संस्थान व त्वचा रोग निवारक आयुर्वेदिक घटक दारुहल्दी

नेत्र, प्रजनन संस्थान व त्वचा रोग निवारक आयुर्वेदिक घटक दारुहल्दी

    दारुहल्दी विश्व में नेपाल, भूटान एवं श्रीलंका में 2 से 3 हजार मीटर की ऊँचाई पर तथा इसके अतिरिक्त शीतोष्णकटिबंधीय एवं उपोष्णकटिबंधीय एशिया, यूरोप एवं अमेरिका में पाई जाती है। भारत में शीतोष्णकटिबंधीय हिमालय में 2 से 3 हजार मी. की ऊँचाई पर एवं नीलगिरी के पहाड़ी क्षेत्रों में पाई जाती है। दारुहल्दी का प्रयोग प्राचीनकाल से चिकित्सा के लिए किया जा रहा है। वैदिक साहित्य में खालित्य की चिकित्सा में हल्दी के साथ दारुहल्दी का प्रयोग मिलता है। बृहत्त्रयी में कर्णरोग, नेत्ररोग, व्रणशोधन आदि के लिए दारुहल्दी का प्रयोग मिलता है। चरक संहिता के अर्शघ्न, कण्डुघ्न, लेखनीय गणों में तथा सुश्रुत संहिता के हल्दीदि, मुस्तादि और लाक्षादि गणों में इसकी गणना की गई है।

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दारुहल्दी की तीन प्रजातियों Berberis aristata DC., Berberis lycium Royle, का प्रयोग चिकित्सा के लिए किया जाता है। उनमें से मुख्यत: Berberis aristata DC. (दारुहल्दी) का प्रयोग चिकित्सा के लिए किया जाता है।
बाह्यस्वरूप    
  • दारुहल्दी Berberis aristata DC. Tree turmeric
दारुहल्दी का 2-6 मी. ऊँचा, स्थूल, सीधा, चिकना, बहुवर्षायु, काँटेदार, विस्तृत, पर्णपाती, झाड़ीदार क्षुप होता है। इसका काण्ड श्वेताभ अथवा पाण्डुर-पीताभ वर्ण का होता है। इसके तने की छाल पाण्डुर भूरे वर्ण की एवं कदाचित् गहरे खाँचयुक्त तथा खुरदरी होती है। काँटे छोटे, शीर्ष की ओर एकल, आधार पर 2-3 भागों में विभाजित होते हैं। इसके पत्र सरल, 3.8-10 सेमी. लम्बे एवं 1.5-3.3 सेमी. व्यास के, चर्मवत्, सूक्ष्म शिरायुक्त, तीक्ष्ण काँटों से युक्त, नीचे वाले पृष्ठ पर हल्के हरे रंग के होते हैं। पुष्प बृहत् चमकीले पीत वर्ण के होते हैं। इसके फल 7-10 मिमी. लम्बे, मांसल, अण्डाकार, नीले, बैंगनी अथवा रक्त वर्ण के चमकीले होतेे हैं। इसकी मूल पीताभ-बादामीवर्णी, नलिकाकार, ग्रंथियुक्त तथा लम्बी होती है। एक वर्ष पुरानी मूल पीताभ-भूरे वर्ण की होती है। इसकी मूल को पानी में उबालने के बाद भी इसका पीलापन बना रहता है। इसका पुष्पकाल एवं फलकाल अगस्त से फरवरी तक होता है।
  • Berberis lycium Royle (Boxthorn Barberry)
 इसका सीधा, कठोर, सदाहरित, काँटेदार 1.8-2.4 मी. ऊँचा क्षुप होता है। इसका काण्ड पाण्डुर-पीताभ-अरोमश अथवा सूक्ष्म रोमश होता है। इसके तने की छाल खुरदरी एवं कदाचित् गहरे, खातयुक्त, श्वेत वर्ण की होती है। इसके पत्र लगभग वृंतहीन, 3.8-6.2 सेमी. लम्बे, 0.8-1.2 सेमी. चौड़े, भालाकार तथा दंतुर होते हैं। पत्रों का ऊपर वाला पृष्ठ चमकीले हरित वर्ण का, नीचे वाला पृष्ठ पाण्डुर एवं चमकीला, विरल सिरायुक्त होता है। इसके फल काले, नीले अथवा गहरे-नीलाभ वर्ण के सरस होते हैं। इसका पुष्पकाल मार्च से अप्रैल तथा फलकाल मई से जुलाई तक होता है।
  •  Berberis asiatica Roxb. ex DC.
  इसका सीधा, स्थूल शाखित, छोटा काँटेदार क्षुप होता है। इसका काण्ड 1.2-3.5 मी. ऊँचा होता है। इसके तने की छाल खुरदरी, खांचयुक्त एवं कदाचित् कागीय होती है। इसके पत्र 2.5-7.5 सेमी. लम्बे एवं 1.3-3.8 सेमी. चौड़े तथा अत्यधिक स्थूल-चर्मिल होते हैं। पत्रों का नीचे वाला पृष्ठ गहरे हरित वर्ण का तथा ऊपर वाला पृष्ठ चमकीला होता है। पुष्प कदाचित् छोटे 2.8 मिमी. व्यास के होते हैं। इसके फल 7-10 मिमी. लम्बे, अण्डाकार, रक्तवर्णी अथवा कृष्ण नील वर्णी, चमकीले, सरस होते हैं। इसका पुष्पकाल मार्च से अप्रैल तथा फलकाल मई से जून तक होता है।
द्यरसांजन (रसौत): दारुहल्दी (Berberis)
aristata DC.) के मूलभाग तथा उससे संलग्न काण्ड के निम्न भाग से रसक्रिया विधि द्वारा प्राप्त कृष्णाभ भूरे वर्ण का मृदु सार भाग जल तथा मद्य में आसानी से घुलने वाला होता है।
 
  • निर्माण विधि: वर्षा ऋतु के अंत में मूल एवं निचले काण्ड भाग को सोलह गुना जल में चतुर्थांश अवशिष्ट क्वाथ बना कर, क्वाथ में समभाग बकरी या गाय का दूध मिला कर, कम आँच में पकाते हुए गाढ़ा करके प्राप्त घन द्रव्य को रसांजन या रसौत कहते हैं। इसे धूप में सुखा कर संग्रह करते हैं।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
  • दारुहल्दी रस तिक्त, कषाय, कटु, उष्ण, लघु, रुक्ष, कफपित्तशामक, स्तन्य विशोधक तथा दोषपाचक  होती है।
  • यह व्रण, प्रमेह, कर्णरोग, मुखरोग, नेत्ररोग, शूल, कण्डू, विसर्प, त्वचा रोग, विष तथा कफाभिष्यंद नाशक होती है।
  • इसका क्वाथ तीक्ष्ण, कटु, रसायन, छेदन, उष्ण, चक्षुष्य, कफशामक, वृष्य, विष, रक्तपित्त, आमातिसार, छर्दि, हिक्का तथा श्वास, स्तन्यदोष तथा आढ्यवातशामक होता है।
  • यह सूक्ष्म जीवाणुनाशक, उच्चरक्तदाबरोधी, हृद्य, आर्तववर्धक तथा पित्तस्रावक होती है।
  • इसके सरस फल विरेचक तथा स्कर्वी रोधी (्रठ्ठह्लद्ब-ह्यष्शह्म्ड्ढह्वह्लद्बष्) होते हैं।
  • इसकी जड़ की छाल त्वचा विकार, अतिसार, कामला तथा नेत्ररोग शामक होती है।
  • यह अल्परक्तशर्कराकारक, ज्वर नाशक, अल्परक्तदाबकारक, शोथहर एवं केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र अवसादक क्रियाशीलता प्रदर्शित करता है।
  • इसकी छाल का सार परखनलीय एवं जैविकीय परीक्षण में अतिसाररोधी क्रियाशीलता प्रदर्शित करता है।
  • इसका एल्कोहॉलिक एवं जलीय सार बकरियों में व्रणरोपण क्रियाशीलता प्रदर्शित करता है।
  • इसके फलों का अपरिष्कृत सार पेरॉसिटामॉल एवं कार्बन टेट्राक्लोराइड प्रेरित यकृत् विषाक्तता में यकृत् रक्षात्मक क्रियाशीलता प्रदर्शित करता है।
  • इसका जलीय एल्कोहॉलिक सार सूक्ष्म जीवाणुरोधी क्रियाशीलता प्रदर्शित करता है।
  • इसके तने का मेथेनॉलिक सार एम.सी.एफ. 7 स्तन कैंसर कोशिका रेखा के प्रति शक्तिशाली कोशिकाविषी क्रियाशीलता प्रदर्शित करता है।
  • यह डिम्बग्रन्थि- उच्छेदित चूहों में अस्थिसुषिरावरोधी प्रभाव प्रदर्शित करता है।
Berberis asiatica Roxb. ex DC.
  • इसकी काण्ड आमवातरोधी होती है।
  • इसकी मूल कैंसर रोधी होती है।
  • इसका पञ्चांग आंत्रजन्य पूय शामक, कटु तथा आमाशयरसवर्धक होता है।
  • इसकी मूल अर्बुदरोधी (Antitumor) क्रियाशीलता प्रदर्शित करती है।
  • यह नवोत्पादित गाँठ में गाँठवृद्धिरोधक (Antineoplastic) क्रियाशीलता प्रदर्शित करता है।
  • इसके शुष्क वायवीय भागों का मेथेनॉलिक सार यकृत् रक्षात्मक एवं अनॉक्सीकारक प्रभाव प्रदर्शित करता है।
Berberis lycium Royle-
  • यह जीवाणुनाशक, शोथहर, कटु, आमाशयरसवर्धक तथा गाँठरोधी होती है।
  • इसमें उपस्थित क्षाराभ बर्बेरिन जीवाणुरोधी एवं शोथरोधी क्रियाशीलता प्रदर्शिता करता है।
  • मूल ज्वरघ्न क्रियाशीलता प्रदर्शिता करता है।
  • इसके मूल का मेथेनॉल सार चूहों में प्रभावी व्रणरोपण क्रियाशीलता प्रदर्शित करता है।
  • इसके मूल का ऐथेनॉल एवं जलीय अपरिष्कृत सार सूक्ष्मजीवाणुरोधी क्रियाशीलता प्रदर्शित करता है।
  • रसांजन (रसौत): कटु, तिक्त तथा उष्ण, लघु, तीक्ष्ण, कफवातशामक, व्रणरोपण, रसायन, छेदन, चक्षुष्य, वृष्य, वण्र्य तथा व्रण्य होता है।
  • यह श्लेष्मरोग, विष प्रभाव, नेत्रविकार, रक्तपित्त, छर्दि, हिक्का, श्वास तथा मुखरोगनाशक होता है।

औषधीय प्रयोग

नेत्र रोग
  • 50 ग्राम दारुहल्दी कल्क का 16 गुना जल में अष्टमांश शेष क्वाथ बनाकर, शहद मिला कर नेत्रों का सिंचन करने से नेत्ररोगों का शमन होता है।
  • दारुहल्दी तथा पुण्डेरिया की त्वचा के क्वाथ को वस्त्र से अच्छी तरह छानकर आँखों में बूँद-बूँद कर डालने से नेत्र रोगों में लाभ होता है।
  • रसांजन को नेत्रों में लगाने से नेत्ररोगों में लाभ होता है।
  • इसकी जड़ की छाल से प्राप्त सत् को नेत्रों में लगाने से नेत्ररोगों में लाभ होता है।
  • मधु और रसौत से निर्मित अञ्जन का प्रयोग करने से सिराहर्ष नामक नेत्र रोगों में लाभ होता है।
  • अर्जुन- रसौत तथा मधु से निर्मित अञ्जन का प्रयोग करने से अर्जुन रोग में लाभ होता है।
  • अंजननामिका- 1 भाग रसांजन तथा 3 भाग त्रिकटु को मिलाकर 250 मिग्रा की गोलियाँ बना कर, जल में घिसकर अंजन करने से खुजली, पाक आदि लक्षण युक्त अंजननामिका रोग का शमन होता है।
  • रतौंधी- रसांजन, दारुहल्दी, हल्दी, चमेली और नीम की पत्तियों को गोमय रस (गोबर का पानी) में पीसकर वर्ति (बाती) बनाकर जल में घिसकर अंजन करने से रतौंधी में लाभ होता है।
  • अभिष्यंदादि रोग- समभाग हरीतकी, सेंधानमक, गैरिक तथा रसांजन का लेप बनाकर पलकों पर लेप करने से अभिष्यंद आदि नेत्ररोगों में लाभ होता है।
कर्ण रोग
  • कर्णस्राव- रसौत को स्त्रीदुग्ध के साथ घिसकर उसमें मधु मिलाकर 1-2 बूंद कान में डालने से करने से बहुत पुराने स्रावयुक्त पूतिकर्ण में भी लाभ होता है।
नासा रोग
  • प्रतिश्याय (जुकाम)-
  • दारुहल्दी की छाल के कल्क की वर्ति बना कर यथा विधि धूम्रपान करने से प्रतिश्याय का शमन होता है।
  • रसौत, अतिविषा, नागरमोथा तथा देवदारु के कल्क से विधिवत् सिद्ध तैल का (1-2 बूंद) नस्य लेने से प्रतिश्याय में लाभ होता है।
मुख रोग
  • दारुहल्दी क्वाथ से रसांजन बना कर मधु के साथ खाने तथा लेप के रूप में प्रयोग करने से मुख रोग, रक्त विकार तथा नाड़ी व्रण का शमन होत है।
  • मुखपाक- चमेली पत्र, त्रिफला, जवासा, दारुहल्दी, गुडूची तथा द्राक्षा इन औषधियों से निर्मित क्वाथ (10-30 मिली) में शहद मिलाकर पीने से मुखपाक में लाभ होता है।
उदर रोग
दाव्र्यादि क्वाथ (10-30 मिली) में 6 माशा मधु मिलाकर पान करने से समस्त उदर रोगों में लाभ होता है।
यकृत् व प्लीहा रोग
  • कामला- 5 ग्राम दार्वीघृत (1-5 लीटर गोमूत्र, दारुहल्दी तथा कालीयक कल्क से सिद्ध 750 ग्राम भैंस का घृत (घी) का सेवन करने से कामला में लाभ होता है।
  • प्रात:काल दारुहल्दी स्वरस (5-10 मिली) या क्वाथ (10-30 मिली) में मधु मिलाकर सेवन करने से पाण्डु तथा कामला रोग का शमन होता है।
  • यकृत् व प्लीहा वृद्धि- दारुहल्दी की मूल की छाल से निर्मित फाण्ट (10-30 मिली) को पीने से यकृत् तथा प्लीहा वृद्धि का उपशमन होता है।
वृक्कवस्ति रोग
  • प्रमेह- 10-30 मिली दारुहल्दी क्वाथ को मधु के साथ नियमित सेवन करने से प्रमेह रोग में लाभ होता है।
  • पिष्टमेह- हल्दी और दारुहल्दी का क्वाथ बनाकर (10-30 मिली) मात्रा में पीने से पिष्टमेह में लाभ होता है।
  • मूत्रकृ च्छ्र- दारुहल्दी के चूर्ण को मधु के साथ सेवन करके अनुपान रूप में आँवले का रस पीने से पैत्तिक मूत्रकृ च्छ्र में शीघ्र लाभ होता है।
प्रजननसंस्थान रोग
  • वृद्धि- दारुहल्दी के कल्क (2-4 ग्राम) को गोमूत्र के साथ सेवन करने से कफज वृद्धि रोग का शमन होता है।
  • उपदंश- रसौत, शिरीष त्वचा तथा हरीतकी के सूक्ष्म चूर्ण (1-4 ग्राम) में मधु मिलाकर उपदंश जनित व्रण पर लेप लगाने से व्रण का शीघ्र रोपण होता है।
  • असृग्दर- दाव्र्यादि क्वाथ (10-30 मिली) में मधु मिलाकर अथवा रसांजन एवं चौलाई की जड़ के कल्क में मधु मिला कर चावल के धोवन के साथ पीने से सर्वदोषोत्पन्न असृग्दर का शमन होता है।
  • प्रदर रोग- दारुहल्दी, रसांजन, नागरमोथा, वासा, चिरायता, भल्लातक तथा काला तिल से निर्मित क्वाथ (10-30 मिली) में मधु मिलाकर पीने से प्रदर रोग में लाभ होता है।
  • रसौत एवं चौलाई की जड़ से निर्मित कल्क में मधु मिलाकर चावल के धोवन के साथ पीने से सभी दोषों से उत्पन्न प्रदर में लाभ होता है।
प्रदर रोग तथा सभी उदर रोग-
  • दारुहल्दी, रसांजन, नागरमोथा, भल्लातक, बिल्वमज्जा, वासा पत्र और चिरायता, इन द्रव्यों से निर्मित क्वाथ में 1 चम्मच मधु मिलाकर पीने से गर्भाशयिक अन्त:शोथ जन्य प्रदर तथा सभी उदररोगों में लाभ होता है।
  • पूयमेह-  दारुहल्दी के तने की छाल के क्वाथ में हल्दी मिलाकर लगाने से पूयमेह में लाभ होता है।
  • रक्तप्रदर- रसौत को बकरी के दूध के साथ सेवन करने से रक्तप्रदर में लाभ होता है।
  • रक्तार्श- रसौत को रातभर पानी में भिगोकर, छानकर घनीभूत करके, उसमें चतुर्थांश छाया में सुखाए हुए नीम के पत्तों का सूक्ष्म चूर्ण मिलाकर 250 मिग्रा. की गोलियां बना कर सेवन करने से अर्श में लाभ होता है।
त्वचा रोग
  • कुष्ठ- दारुहल्दी की छाल के कल्क से सिद्ध तैल को लगाने से व्रण का शोधन तथा रोपण होता है।
  • दारुहल्दी के कल्क (2-4 ग्राम) को गोमूत्र के अनुपान के साथ सेवन करने से कुष्ठ में लाभ होता है।
  • दारुहल्दी के क्वाथ से निर्मित रसाञ्जन तथा इससे सिद्ध तेल तथा घृत का लेप, उद्वर्तन तथा अवचूर्णन की तरह प्रयोग करने से कुष्ठ में अत्यन्त लाभ होता है।
  • समभाग दारुहल्दी, खैर तथा नीम की छाल के क्वाथ (10-30 मिली.) को नियमित रूप से पीने से सभी प्रकार के कुष्ठ में लाभ होता है।
  • रसौत से सिद्ध तेल तथा घृत का प्रयोग स्नान, पान, लेप, प्रघर्षण तथा अवचूर्णन आदि के लिए करने से कुष्ठ का शमन होता है।
  • 10-12 ग्राम रसौत को 1 मास तक 15-20 मिली. गोमूत्र में घोल कर पीने से तथा शरीर पर लेप करने से कुष्ठ में शीघ्र लाभ होता है।
  • नाड़ीव्रण- रसौत, हल्दी, दारुहल्दी, मंजीठ, नीम के पत्ते, निशोथ, तेजोवती और दन्ती से निर्मित कल्क का लेप करने से नाडीव्रण का शोधन होकर शीघ्र रोपण होता हैै।
  • रोमसंजननार्थ- हाथी दाँत की भस्म तथा शुद्ध रसांजन का लेप करने से रोमसंजनन होता है।
  • विसर्प- दारुहल्दी की छाल, वायविडंग तथा कम्पिल्लक के क्वाथ तथा कल्क से सिद्ध तेल का प्रयोग दाह एवं दाह युक्त विसर्पजन्य के रोपण के लिए हितकर होता है।
  • सिध्म- दारुहल्दी, मूलीबीज, हरताल, देवदारु तथा पान के पत्ते को समभाग लेकर चौथाई भाग शंखचूर्ण मिलाकर, जल में पीसकर लेप करने से सिध्म रोग का शमन होने लगता है।
  • व्रण- दारुहल्दी की मूल छाल को पीसकर लगाने से व्रण का रोपण होता है।
  • शोथ (सूजन)- दारुहल्दी की मूल कल्क में अ$फीम तथा सैंधव लवण मिलाकर लेप करने से शोथ का शमन होता है।
सर्वशरीर रोग
  • मोटापा- मोटापे में रसांजन का प्रयोग करना श्रेष्ठ है।
  • अरणी की छाल के क्वाथ के साथ 1-2 ग्राम रसांजन को दीर्घकाल तक सेवन करने से मोटापे का शमन होता है।
  • विषम ज्वर- दारुहल्दी की मूल की छाल से निर्मित फाण्ट (10-20 मिली.) का सेवन करने से विषम ज्वर में लाभ होता है।
बाल रोग
  • 10 मिली. कूष्माण्ड फ स्वरस में दारुहल्दी (पुष्य नक्षत्र में संगृहीत) की छाल को महीन घिस कर दोनों आँखों में अंजन करने से ग्रहोपद्रव शान्त होते हैं।
  • ग्रहबाधा (अहिपूतना)- पित्त तथा कफ दोष नाशक द्रव्यों से सिद्ध 15-25 मिली. जल में 2 ग्राम मधु तथा 1 ग्राम शुद्ध रसौत मिलाकर धात्री को पिलाने से तथा लेप बना कर शिशु के गुदा प्रदेश एवं व्रण पर लेप करने से शीघ्र रोग का निवारण होता है।
  • शिशु को गुदपाक हो तो रसौत को जल या दूध में पीसकर गुदा में लेप करने से शीघ्र लाभ होता है।
विष चिकित्सा
  • हल्दी एवं दारुहल्दी का विविध प्रयोग सर्पविष में श्रेष्ठ है।
  • दारुहल्दी आदि द्रव्यों से निर्मित गौराद्य घृत का प्रयोग लूताविष तथा अन्य कीटविष जन्य व्रणों की चिकित्सा में किया जाता है।
विषाक्तता
  • जलीय सुरा सत् (50%) (Aq.alcoholic (50%) extract) dh 200 mg/kg की 200 mg/kg शरीर भार मात्रा का अन्त: प्रयोग चूहों में मारक होता है।
  • बर्बेरिन सल्फेट (Berberinsulphate) की 24.3 mg/kg शरीर भार मात्रा का अन्त: प्रयोग चूहों में मारक होता है।

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