हेमन्त और शिशिर ऋतु में लाभदायक पंचकर्म एवं विशिष्ट उपकर्म
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डॉ. केतन महाजन, विभागाध्यक्ष-पंचकर्म विभाग,
पतंजलि आयुर्वेद हॉस्पिटल
ऋतु को समय का पर्यायवाची माना गया है और चर्या का अर्थ है नियमानुसार पथ्य। विभिन्न ऋतुओं में पथ्य का नियमानुसार पालन करना ऋतुचर्या कहलाता है। हमारे शरीर पर खानपान के अलावा ऋतुओं और जलवायु का भी प्रभाव पड़ता है। एक ऋतु में कोई एक दोष बढ़ता है, तो कोई शान्त होता है और दूसरी ऋतु में कोई दूसरा दोष बढ़ता है तथा अन्य शान्त होता है। इस प्रकार मनुष्य के स्वास्थ्य के साथ ऋतुओं का गहरा सम्बन्ध है। अत: आयुर्वेद में प्रत्येक ऋतु में दोषों में होने वाली वृद्धि, प्रकोप या शान्ति के अनुसार अलग-अलग प्रकार के आहार-विहार का उल्लेख किया गया है।
आयुर्वेद में 6 ऋतुओं का वर्णन मिलता है। शिशिर, वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद और हेमन्त।
मासैद्र्विसंख्यैर्माघाद्यै: क्रमात् षडृतव: स्मृता:।
शिशिरोऽयं वसन्तश्च ग्रीष्मो वर्षाशरद्धिमा:।।
अ.हृ. ३/१
सर्दी की ऋतु (मध्य नवम्बर से मध्य मार्च) में हेमन्त और शिशिर दोनों ऋतुओं का समावेश होता है। इस अंक में हम हेमन्त और शिशिर ऋतु में लाभकारी पंचकर्म एवं विशिष्ट उपकर्मों का उल्लेख करेंगे।
हेमन्त और शिशिर ऋतु में शारीरिक बल अधिक रहता है तथा जठराग्नि प्रदीप्त होती है। इन ऋतुओं में विशेष रूप से मधुर, अम्ल और लवण रस युक्त आहार के सेवन का उल्लेख मिलता है।
स्वस्थ मनुष्य को अपने स्वास्थ्य की रक्षा के लिए हेमन्त और शिशिर ऋतु में अभ्यंग (मालिश), मूर्धतैल, अवगाह स्वेद, उद्वर्तन, मर्दन और धूम्रपान आदि क्रियाओं को करना चाहिए। रोगी के रोग के अनुसार इन क्रियाओं का उपयोग किया जाता है।
अभ्यंग (मालिश)
तेल आदि पदार्थों को संपूर्ण शरीर पर विशिष्ट रूप से मलने की प्रक्रिया को अभ्यंग कहा जाता है। मनुष्य की प्रकृति के अनुसार एवं रोग को ध्यान में रखते हुए अभ्यंग के लिए विशेष औषधियों से साधित तेल का उपयोग किया जाता है।
लाभ: अभ्यंग बुढ़ापा, श्रम और वात विकारों को नष्ट करता है। यह दृष्टि को स्वच्छ करता है, शरीर को पुष्ट करता है, अच्छी नींद लाता है, त्वचा के सौंदर्य को बनाये रखता है और मांसपेशियों को दृढ़ एवं सुडौल बनाता है।
अभ्यङ्गमाचरेन्नित्यं स जराश्रमवातहा।
दृष्टिप्रसादपुष्ट्यायु: स्वप्रसुत्वक्त्वदाढ्र्यकृत्।।
अ.हृ. २/८
पादाभ्यंग
पैर के तलवों में तेल मालिश करने से खुरदरापन, जकड़ाहत, रूखापन, थकावट और सूनापन शीघ्र ही शान्त हो जाता है। पैर सुकुमार हो जाते हैं। पैरों में बल और दृढ़ता आती है। नेत्र दृष्टि स्वच्छ हो जाती है। पैर फटते नहीं है, उनमें पीड़ा नहीं होती और शिरा एवं स्नायु संकोच नहीं होता। पादाभ्यंग करने से गृध्रसी आदि रोगों के होने की संभावना नहीं रहती।
अभ्यंग का निषेध
कफज विकारों से पीडि़त, वमन व विरेचन के तुरंत बाद तथा अजीर्ण रोग में अभ्यंग नहीं करना चाहिए।
वज्र्योऽभ्यङ्ग: कफग्रस्त- कृतसंशुद्ध्यजीर्णिभि:।।
अ.हृ. २/९
मूर्धतैल
तेल आदि द्रव्यों को शिर प्रदेश पर विभिन्न प्रकार से उपयोग में लाना मूर्धतैल के अंतर्गत आता है। इसके चार प्रकार हैं-
शिरोअभ्यंग- सिर पर तेल मलना।
शिर:सेक- सिर को तेल से सींचना।
शिरोपिचु- रुई को तेल में भिगोकर सिर पर रखना।
शिरोबस्ति- सिर पर तेल को धारण करना।
लाभ
शिर:प्रदेश में रूक्षता, खुजली तथा मलिनता आदि में अभ्यंग का प्रयोग करना चाहिए।
शिर में छोटी छोटी फुंसियां, सिर में पीड़ा, दाह, पाक तथा व्रण में शिर:सेक का प्रयोग करना चाहिए।
बालों का झडऩा तथा टूटना, सिर की त्वचा का फटना, आँखों में जड़ता होने पर शिरोपिचु का प्रयोग करना चाहिए।
सिर में शून्यता, अर्दित (मुँह का लकवा), अनिद्रा व शिरोरोगों में शिरोबस्ति का प्रयोग करना चाहिए।
अवगाह स्वेद
वातनाशक द्रव्यों के क्वाथ, दूध, तेल या गरम जल से भरे हुए टब में बैठाकर स्वेदन कराना अवगाह स्वेद कहलाता है।
लाभ: उदरशूल, गृध्रसी, वातव्याधि, संधिवात जैसी बीमारियों में अवगाह स्वेद लाभदायक है।
उद्वर्तन
औषधियों के चूर्ण से शरीर पर प्रतिलोम गति से घर्षण करना उद्वर्तन कहलाता है। उद्वर्तन कफ का नाश करता है, मेदधातु को पिघलाकर सुखाता है, अंगों को मजबूत करता है तथा त्वचा में कांति लाता है। उद्वर्तन से शरीर की दुर्गन्ध, भारीपन, आलस्य तथा खुजली दूर होती है।
मर्दन
इसे अंगमर्दन भी कहते हैं। शरीर पर तेल को हाथों से दबाव देते हुए अनुलोम गति में लगाना मर्दन कहलाता है।
मर्दन का उपयोग त्वचागत वात, मांसगत वात, स्नायुगत वात, संधिगत वात और अस्थिगत वात में विशेष लाभदायक है।
धूम्रपान
मुख से औषधियों के धुंए को अंदर खींचना और फिर मुख से ही उस धुंए को बाहर छोडऩा धूमपान कहलाता है।
इसके उपयोग से छाती, कंठ और शिर: में लघुता आती है और ऊध्र्व जत्रु में जमे हुए कफ का नाश होता है।
विभिन्न प्रकार के तेल का उपयोग
स्वस्थ व्यक्ति के लिए- बला या क्षीरबला तेल
संधिवात- पीड़ांतक तेल, महानारायण तेल
आमवात- सैंधवादि तेल
कटिशूल/ गृध्रसी- सहचरादितेल
ग्रीवाशूल- प्रसारिणी तेल
त्वकविकार- कायाकल्प तेल
श्वित्र- सोमराजी तेल
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