वृक्कवस्ति, अस्थिसंधि व त्वचा रोग का आयुर्वेदिक उपचारक-पलाश
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आचार्य बालकृष्ण
पलाश प्राचीनकाल से ही एक दिव्य औषधि रूप में काम आता रहा है। वैदिक काल में पलाश का प्रमुख उपयोग यज्ञकर्मार्थ समिधा के लिए किया जाता था। कौशिकसूत्र में मेधाजनन कर्मार्थ एवं पलाश कल्क का प्रयोग जलोदर के लिए वर्णित है, जबकि बृहत्त्रयी में पलाश का प्रमेह, प्लीहोदर, विदारिका, अपतानक अर्श, अतिसार, रक्तपित्त, कुष्ठ, रक्तगुल्म में प्रयोग मिलता है। चरक ने वात श्लेष्महर गण तथा सुश्रुत ने रोध्रादि, मुष्कादि, अम्बष्ठादि व न्यग्रोधादि गणों में इसका प्रयोग वर्णित किया है। यह भारत के मैदानी क्षेत्रों तथा गुजरात आदि के पर्णपाती वनों में लगभग 1200 मी. तक की ऊँचाई पर, उष्णकटिबंधीय हिमालय में 800 मी. तक की ऊँचाई तक एवं दक्षिण की ओर श्रीलंका, दक्षिण पूर्वी एशिया एवं मलेशिया में पाया जाता है।
वैज्ञानिक नाम : Butea monosperma (lam.) Taub. (ब्यूटिया मोनोस्पर्मा) Synb utea frondosa Roxb. कुलनाम : Fabaceae (फेबेसी); अंग्रेजी नाम : The Forest flame (द फॉरेस्ट फ्लेम); संस्कृत : पलाश, किंशुक, पर्ण, रक्तपुष्पक, क्षारश्रेष्ठ, वाततोय, ब्रह्मवृक्ष; हिन्दी : ढाक, पलाश, परास, टेसु; उर्दू : पलाश पापरा (Palas-papra); उडिय़ा : पोलासो (Polaso); कन्नड़ : मोदुगु (modugu), मुथुगा (muthuga); गुजराती : खाखडा (Khakda); तमिल : पलासु (Palasu); तेलुगु : मोडूगा (moduga); बंगाली : पलाश गाछ (Palash gach); नेपाली : पलासी (Palasi); मराठी : पलस (Palas); मलयालम : किमशुकम (Kimshukam), पलासी (Palasi)। अंग्रेजी : बास्टर्ड टीक (Bastard teak), बंगाल कीनो (Bengal kino), ब्यूटिया गम (butea gum); फारसी : पलाह (Palah).
पलाश टेढ़ा-मेढ़ा, 12-15 मी ऊँचा, मध्यम आकार का पर्णपाती वृक्ष होता है। इसके काण्ड धूसर अथवा भूरे वर्ण, मुलायम रोमश होते हैं, काण्डत्वक् खुरदरी, नीलाभ-धूसर अथवा हल्के भूरे वर्ण की होती है, नवीन काण्ड-त्वक् रोमश अथवा मृदु रोमश, गोंदयुक्त, असमान्य शल्कों में निकलती हुई होती है। इसके पत्र बृहत्, एकांतर, त्रि-पत्रकयुक्त (बीच का पत्र बड़ा तथा किनारे के दोनों पत्र छोटे होते हैं), हरे रंग के, खुरदरे तथा स्पष्ट शिरायुक्त होते हैं। भारतवर्ष में इसके पत्रों का प्रयोग दोना तथा पत्तल बनाने के लिए किया जाता है। इसके पुष्प सुंदर, बृहत्, चमकीले नारंगी-रक्त वर्ण के, कदाचित् पीत वर्ण के, कठोर, 15 सेमी लम्बे असीमाक्ष में पर्णरहित शाखाओं पर लगे होते हैं। इसकी फली बड़ी तथा अग्र की तरफ एक बीज युक्त, भूरे वर्ण की, चपटी, 12.5-20 सेमी लम्बी, 2.5-5 सेमी चौड़ी, स्पष्ट वृंतयुक्त, जालिकास्वरूपी सिरायुक्त, मुलायम तथा घनरोमश होती है। प्रत्येक फली में एक, वृक्काकार, 3.3-3.8 सेमी लम्बा, 2.2-2.5 सेमी चौड़ा, रक्ताभ-भूरे वर्ण का तथा चमकीला व चपटा बीज होता है। ग्रीष्म ऋतु में इसकी त्वचा को क्षत करने पर एक रस निकलता है, जो रक्तवर्णी होता है तथा सूखने पर कृष्णाभ-रक्त वर्ण युक्त, भंगुर तथा चमकदार हो जाता है। इसका पुष्पकाल फरवरी से मई तक तथा फलकाल मई से जून तक होता है।
रासायनिक संघटन:
इसके बीज में α-एमायरिन, β-सिटोस्टेरॉल, ग्लुकोसाईड, सुक्रोस, अवाष्पशील तैल, पॉमिटिक अम्ल, स्टेयरिक अम्ल, लिगनोसेरिक, ओलिक, लिनोलिक अम्ल तथा पेलासोजिन, प्रोटीन, फाईबर, कैल्शियम, फॉस्फोरस, ब्युट्रिन, आईसोब्युट्रिन, कारियोप्सिन, आईसोकोरियोप्सिन एवं सलफ्युरेन पाया जाता है।
पौधे में कौमेरानोन ग्लुकोसाईड़-पेलासिट्रिन, मोनोस्र्पमोसाईड आइसोमोनोस्पर्मोसाईड, ब्युट्रिन, आइसोब्यूट्रिन, कोरियाप्सिन, आइसोकोरियोप्सिन तथा सल्फ्युरिन पाया जाता है।
जबकि पलाश के पुष्प में ब्यूटीन, ब्युटेन एवं ब्युटिन पाया जाता है। त्वक् एवं गोंद में किनोटेनिक एवं गेलिक अम्ल मिलता है।
औषधीय प्रयोग:
नेत्र रोग:
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पलाश की ताजी, स्वच्छ जड़ों का अर्क निकालकर एक-एक बूंद आंखों में डालते रहने से फूली, मोतियाबिंद, रतौंधी इत्यादि सब प्रकार के नेत्र रोग नष्ट होते हैं।
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नासा रोग:
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नकसीर-रात्रि भर 100 मिली शीतल जल में भीगे हुए 5-7 पलाश पुष्पों को छानकर थोड़ी मिश्री मिलाकर सुबह पीने से नकसीर बंद हो जाती है।
कण्ठ रोग:
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गलगंड-पलाश की जड़ को घिसकर कान के नीचे लेप करने से गलगंड में लाभ मिलता है।
उदर रोग:
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मंदाग्नि-पलाश की ताजी मूल का अर्क निकालकर अर्क की 4-5 बूंदें पान के पत्ते में रखकर खाने से भूख बढ़ती है।
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अफारा-पलाश की छाल और शुंठी का काढ़ा बनाकर 30-40 मिली मात्रा में दिन में दो बार पिलाने से अफारा तथा उदरशूल का शमन होता है।
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पलाश के पत्तों का क्वाथ बनाकर 30-40 मिली मात्रा में पिलाने से अफारा और उदरशूल दूर होता है।
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उदरकृमि-एक चम्मच पलाश बीज चूर्ण को दिन में दो बार खाने से पेट के सब कीड़े मरकर बाहर आ जाते हैं।
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पलाश के बीज, निसोत्, किरमानी अजवायन, कबीला तथा वायविडंग को समभाग मिलाकर 3 ग्राम की मात्रा में गुड़ के साथ देने से सब प्रकार के कृमि नष्ट हो जाते हैं।
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प्रमेह-पलाश की कोंपलों को छाया में सुखाकर कूट-छानकर गुड़ मिलाकर, 9 ग्राम की मात्रा में प्रात:-काल सेवन करने से प्रमेह में लाभ होता है।
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पलाश की जड़ों का रस निकाल कर उस रस में 3 दिन तक गेहूं के दानों को भिगो दें। तत्पश्चात् इन दानों को पीसकर हलवा बनाकर खाने से प्रमेह, शीघ्रपतन और कामशक्ति की कमजोरी दूर होती है।
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1 चम्मच पलाश बीज क्वाथ में 1 चम्मच बकरी का दूध मिलाकर खाना खाने के पश्चात् दिन में तीन बार सेवन करने से अतिसार में लाभ होता है। पथ्य में बकरी का उबला हुआ शीतल दुग्ध और चावल ही लेने चाहिए।
गुदा रोग:
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रक्तार्श-1-2 ग्राम पलाश के पञ्चाङ्ग की राख को गुनगुने घी के साथ पिलाने से खूनी बवासीर में लाभ होता है। इसका कुछ दिन लगातार सेवन करने से मस्से सूख जाते हैं।
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अर्श-पलाश के पत्रों में घी की छौंक लगाकर दही की मलाई के साथ सेवन करने से बवासीर में लाभ होता है।
वृक्क वस्ति रोग:
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मूत्रकृच्छ्र-पलाश के फूलों को उबाल व पीसकर सुखोष्ण करें। इसे पेडू पर बांधने से मूत्रकृच्छ्र, शोथ का शमन होता है।
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20 ग्राम पलाश के पुष्पों को रात भर 200 मिली ठंडे पानी में भिगोकर सुबह थोड़ी मिश्री मिलाकर पिलाने से गुर्दे की वेदना तथा मूत्र के साथ रक्त का आना बंद हो जाता है।
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पलाश की सूखी हुई कोपलें, ढाक का गोंद, ढाक की छाल और ढाक के फूलों को मिलाकर चूर्ण बना लें। इस चूर्ण में समभाग मिश्री मिलाकर, 2 से 4 ग्राम चूर्ण को प्रतिदिन दूध के साथ सायंकाल लेने से मूत्रकृच्छ्र (मूत्र त्याग में कठिनता) में लाभ होता है।
प्रजननसंस्थान रोग:
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अंडकोष शोथ-पलाश के फूलों की पुल्टिस बनाकर नाभि के नीचे बांधने से मूत्राशय के रोग मिटते हैं और अंडकोष शोथ का शमन होता है।
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पलाश की छाल को पीस लें, इसे 4 ग्राम की मात्रा में जल के साथ दिन में दो बार लेने से अंडवृद्धि में लाभ होता है।
अस्थिसंधि रोग:
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सन्धिवात-पलाश के बीजों को महीन पीसकर मधु के साथ मिलाकर वेदना स्थान पर लेप करने से संधिवात में लाभ होता है।
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बंदगांठ-ढाक के पत्तों की पुल्टिस बांधने से बंदगांठ में लाभ होता है।
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3 से 5 ग्राम पलाश मूल छाल चूर्ण को दूध के साथ पीने से बंदगांठ में लाभ होता है।
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पित्तशोथ-पलाश की गोंद को पानी में गलाकर नियमित लेप करने से कष्ट साध्य पित्तशोथ में लाभ होता है।
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कटिशूल-पलाश पुष्प का क्वाथ बनाकर कमर में बफारा देने से तथा क्वाथ का परिषेचन करने से कटिशूल का शमन होता है।
शाखा रोग:
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श्लीपद-100 मिली मूल स्वरस में समभाग सफेद सरसों का तेल मिलाकर दो चम्मच सुबह-शाम पीने से श्लीपद रोग में लाभ होता है।
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पलाश एवं कुसुम्भ के फूल तथा शैवाल को मिलाकर क्वाथ बनाकर शीतल होने पर 10-20 मिली क्वाथ में मिश्री मिलाकर पिलाने से पित्त प्रमेह में लाभ होता है।
त्वचा रोग:
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घाव-घावों पर पलाश के गोंद का चूर्ण बुरकने से लाभ होता है।
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कुष्ठ-पलाश बीज तैल को लगाने में कुष्ठ में लाभ होता है।
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दाद-ढाक के बीजों को नींबू के रस के साथ पीसकर लगाने से दाद और खुजली में लाभ होता है।
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नारू-पलाश के बीज, कुचला के बीज, रस कपूर, सादा कपूर और गुग्गुलु इन सब औषधियों को समभाग लेकर बारीक पीसकर पानी के साथ खरल कर लें, फिर एक पीपल के पत्ते पर उनका लेप करके उस पीपल के पत्ते को नारू के फोले के ऊपर बांध देना चाहिए। इस पट्टी को तीन दिन तक बांधने से लाभ होता है।
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त्वग्रोग-पलाश वृक्ष के मूल से प्राप्त रस (3 लीटर) में तुषोदक तथा 12-12 ग्राम मन:शिला, कुटज त्वक्, कूठ, वचा, चक्रमर्द, करमज, भूर्ज ग्रन्थि तथा कनेरमूल की त्वचा मिलाकर व पकाकर गाढ़ा करके लेप करने से त्वक रोगों का शमन होता है।
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कुष्ठ-दूध में उबाले हुए पलाश बीज, गंधक तथा चित्रक को शुष्क कर, सूक्ष्म चूर्ण बनाकर इसे 2 ग्राम की मात्रा में प्रतिदिन, 1 मास तक जल के साथ लेने से मण्डल कुष्ठ में अतिशय लाभ होता है।
मानस रोग:
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मिर्गी-पलाश की जड़ों को पीसकर 4-5 बूंद नाक में टपकाने से मिर्गी का दौरा बंद हो जाता है।
सर्वशरीर रोग:
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शीत ज्वर-ज्वर में यदि ठंडी का आभास हो तो पलाश, तुलसी, अर्जक तथा सहिजन के पत्रों के कल्क का लेप करना चाहिए।
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रक्तपित्त-चार गुने पलाश स्वरस से पकाए हुए घृत को 15 से 25 ग्राम की मात्रा में मधु के साथ सेवन करने से रक्तपित्त में लाभ होता है।
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पलाश पत्र वृंतों के स्वरस एवं कल्क से विधिवत् घृतपाक कर मात्रानुसार, मधु मिलाकर सेवन करने से रक्तपित्त में लाभ होता है।
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शोथ-शीतल जल में पिसे हुए पलाश बीज कल्क का लेप करने से समुद्रफेन घर्षणजन्य शोथ का शमन होता है।
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सूजन-इसके फूलों की पुल्टिस बनाकर बांधने से सूजन बिखर जाती है।
रसायन वाजीकरण:
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रसायन-छाया शुष्क 1 चम्मच पञ्चाङ्ग चूर्ण में मधु एवं घृत (मधु एवं घृत विषम मात्रा में) मिलाकर प्रात: और सायंकाल सेवन करने से मनुष्य निरोगी और दीर्घायु होता है।
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वाजीकरण-5-6 बूंद पलाश मूल अर्क को दिन में दो बार सेवन करने से अनैच्छिक वीर्यस्राव रुकता है और कामशक्ति प्रबल होती है।
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रसायन-एक मास तक समभाग पलाश बीज, विडङ्ग बीज तथा आँवला के चूर्ण में 2-4 ग्राम के अनुपात में घी तथा मधु मिलाकर सेवन करने से रसायन गुणों की प्राप्ति होती है।
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समभाग घी, आँवला चूर्ण, शर्करा तथा पलाश बीज चूर्ण (2-4 ग्राम) को रात को सोने से पहले खाने से बल एवं बुद्धि की वृद्धि होती है। वस्तुत: पलाश स्वास्थ्य वर्धक बनौषधि है, साथ ही इसके पुष्प प्रदूषण रहित रंग बनाने में भी प्रयुक्त होते हैं। हम सब मिलकर इसी प्रकार भारत के कोने-कोने में फैली विविध बनौषधियों को महत्व दिलायें और राष्ट्र को स्वस्थ, समर्थ व प्रदूषण मुक्त बनायें।
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