योग के मूल सिद्धांत
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स्वामी रामदेव जी महाराज
आजादी के 70 वर्षों के बाद भारत को एक ऐसे प्रधानमंत्री मिले हैं जो आध्यात्मिक विकास एवं आर्थिक विकास को एक साथ लेकर देश को परम वैभवशाली वैश्विक महाशक्ति बनाने में लगे हैं। माननीय प्रधानमंत्री श्री मोदी जी में भारत का गौरवशाली अतीत, सामर्थ्यमय वर्तमान एवं स्वर्णिम भविष्य का दिव्य दर्शन होता है। प्रधानमंत्री बनने के बाद श्री मोदी जी ने यू.एन. में अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस का प्रस्ताव रखा और 177 देशों के समर्थन से 21 जून अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित हुआ। आज दुनियां के लगभग सभी दो सौ देश योग कर रहे हैं। पूरे विश्व में योग एवं भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति को गौरव मिल रहा है। पूरे विश्व में सभी आयु एवं सभी वर्गों के लोगों में योग को लेकर काफी उत्सुकता है। अत: योग के विभिन्न पहलुओं के सन्दर्भ में हम संक्षेप में प्रकाश डालने का विनम्र प्रयास कर रहे हैं।
1) योग कोई मजहबी परम्परा या अभ्यास नहीं है, अपितु योग एक वैज्ञानिक, सार्वभौमिक व पंथनिरपेक्ष जीवन पद्धति है। रोगियों के लिए योग एक सम्पूर्ण चिकित्सा (पद्धति) तथा योगियों के लिए एक साधना पद्धति, मुक्ति का मार्ग और जीवन में पूर्णता प्राप्त करने का साधन है।
2) योग पर अनुसंधान व अनुभव करके हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि योग से हमें पांच मुख्य लाभ होते हैं-
क) एक-एक सेल से लेकर पूरे सिस्टम का संतुलन, शरीर के सभी कैमिकल्स, सॉल्ट्स व हार्मोन्स से लेकर सम्पूर्ण शारीरिक संतुलन योग से होता है। 'समत्वं योग उच्यते।
ख) डिजर्नेट हुए सेल्स को हम योग से रिजर्नेट कर लेते हैं।
ग) मनुष्य में निहित ज्ञान शक्ति एवं सामर्थ्य एक से पांच प्रतिशत ही जागृत अवस्था में होता है। अन्य शक्तियां प्रसुप्त अवस्था में होती हैं। योग से हमारी सुप्त ज्ञान शक्ति एवं अन्य अपरिमित दिव्य शक्तियों का जागरण होता है। योग नर से नारायण, जीव से ब्रह्म, मानव से महामानव बनाने वाली आध्यात्मिक विद्या या आध्यात्मिक विज्ञान है।
घ) योग से हमारे अज्ञान, अशुभ, अविद्या का धीरे-धीरे क्षय तथा विवेक, शुभ व समस्त दिव्यताओं का निरन्तर उदय या विकास होता है।
ड) प्रत्येक मनुष्य के शरीर में कोई भी रोग तथा चित्त में कोई विकार पैदा हो सकता है। परन्तु योग से हमारे शरीर व चित्तगत समस्त विकारों के बीज नष्ट हो जाते हैं और योगी निर्बीज हो जाता है। योग से व्याधि की समाप्ति तथा समाधि एवं दिव्य जीवन की प्राप्ति होती है। दिव्यज्ञान, दिव्य प्रेम, करुणा, वात्सल्य, दिव्यशक्ति, सामर्थ्य एवं दिव्य विभूतियों से युक्त होता है योगी।
3) योगी के जीवन में अर्थात् जो आत्माएँ योग, प्राणायाम व ध्यानादि का नियमित श्रद्धा पूर्वक अभ्यास करते हैं तथा योग युक्त दिव्य आचरण करते हैं, उनके जीवन में 10 बड़े सत्यों का समावेश हो जाता है। इन्हें ही योग में यम नियम कहते हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ये पाँच यम हैं तथा शौच (शुचिता), सन्तोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान ये पांच नियम हैं। अत: योगी कभी भी हिंसा, झूठ, बेईमानी, अब्रह्मचर्य, असंयम, लालच में नहीं पड़ता तथा उसके जीवन में अशुचिता (अपवित्रता), असंतोष, अकर्मण्यता, आत्मविमुखता व नास्तिकता नहीं होती है। योगी अष्टांग योग का पालन करता है अथवा अष्टांग योग का अपने जीवन में आचरण करता है।
अहिंसासत्यअस्तेयब्रह्मचर्यअपरिग्रहा: यमा:।
शौचसन्तोषतप:स्वाध्यायईश्वरप्रणिधानानि नियमा:।
(योग दर्शन)
4) लगभग 700 करोड़ की विश्व की कुल आबादी में से यदि एक प्रतिशत जनसंख्या भी योगी बन जायेगी, तो यह दुनियां बहुत सुन्दर समृद्धिमय व शान्तिमय हो जायेगी, क्योंकि एक योगी की आत्मा में हजारों लाखों व्यक्तियों से अधिक सामर्थ्य व दिव्यता होती है।
5) योग न करने वाले या योगी जीवन न जीने वाले लोग सात चीजों के लिए अधिकांशत: संघर्ष करते दिखते हैं- सत्ता, सम्पत्ति, सम्मान, भौतिक इन्द्रिय सुख व भौतिक सम्बन्ध बाह्य समृद्धि एवं सफलता, इन्हीं की प्राप्ति को सामान्य लोग अपने जीवन का अन्तिम लक्ष्य समझ लेते हैं। योगी आत्माओं के जीवन में भी ये सत्य होते हैं। लेकिन इनको योगी ईश्वर का अनुग्रह, माता-पिता व गुरुजनों व समाज के आर्शीवाद से प्राप्त होने वाले कर्त्तव्य के रूप में स्वीकार करता है। ये योगी के जीवन के बाय-प्रोडक्ट बन जाते हैं। योगी के जीवन का मुख्य या अन्तिम ध्येय तो योग-कर्मयोग, योग यज्ञ, साधना-सेवा, पुरुषार्थ-परमार्थ, अभ्युदय व नि:श्रेयस ही होता है।
6) स्वास्थ्य, सुन्दरता, शक्ति, शान्ति, समृद्धि, शाश्वत स्थाई सुख व सफलता-ये सात विश्व के सभी इंसानों की मूलभूत कामनाएं या इच्छाएं हैं। इन सात विवेकपूर्ण कामनाओं की भी प्राप्ति होती है योग से। और योगी अन्तत: अकाम, पूर्णकाम, आप्तकाम, निष्काम, या ब्रह्मकाम होकर जीवन मुक्त हो कर भगवान का दिव्य यंत्र या दिव्य प्रतिनिधि होकर जीता है।
7) योगी उच्च आध्यात्मिक दिव्य जीवन जीता हुआ भी सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य, विवेकपूर्ण एवं न्यायपूर्ण व्यहार या आचरण करता है। ये योगी के बाह्य आचरण के पांच सत्य हैं।
8) योग से मनुष्य की उत्पादकता, सृजनात्मकता, सकारात्मकता, एवं सभी प्रकार की दिव्यता बढ़ती है। योग मनुष्य के बाह्य व आन्तरिक विकास का एक सर्वांगीण साधन या माध्यम है।
9) योगी वसुधैव कुटुम्बकम्, सह-अस्तित्व एवं एकत्व के तीन उच्च आध्यात्मिक आदर्शों को अपने जीवन में जीता है। विश्व का सबसे घातक या विध्वंसकारी विचार है कि केवल मैं और मेरा मजहब, विचार, सिद्धान्त एवं मान्यताएं ही केवल सत्य हैं, मैं और मेरा मजहब ही सर्वश्रेष्ठ है ऐसा योगी नहीं सोचता, अपितु सम्पूर्ण विश्व ही भगवान् की रचना मानता है। सभी सर्वश्रेष्ठ हैं, सभी जीव एक ही ईश्वर की सन्तानें हैं, अत: हम सब एक ही हैं। ज्ञान, कौशल, राष्ट्र, विभिन्न परम्पराएं, सम्पन्नता एवं ताकत के आधार पर परस्पर ऊँच-नीच का भाव योगी नहीं रखता। योगी भगवान को सर्वोच्च शक्ति के रूप में स्वीकार करता तथा अनुभव करता है और वह भगवान के विधान, वेदानुकूल, आत्मानुकूल या यूनिवर्सल लॉ के अनुरूप आचरण करता है।
10) योग जीवन प्रबन्धन, तनाव प्रबन्धन, व्यक्तित्व विकास एवं आदर्श दिव्य जीवन निर्माण की एक बहुत बड़ी वैज्ञानिक कला है। मनुष्य के भीतर के असीम ज्ञान, शक्ति, सामर्थ्य, सत्य, प्रेम, करुणा, व दिव्य ऐश्वर्य के जागरण का साधन या माध्यम है योग। योगमात्र एक व्यायाम, प्राणायाम या ध्यान मात्र ही नहीं है, ये भी योग की विधाएं हैं। वास्तव में तो एक-एक श्वास एवं पूरा जीवन ही योग है।
11) यौगिक क्रियाओं व आसनों से हमारे शरीर का हार्डवेयर, प्राणायाम, ध्यान, समाधि, तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्राणिधान से हमारा सॉफ्टवेयर अर्थात् आत्मा की सम्पूर्ण दिव्यता की जागृति व अनुभूति होती है।
12) श्रेष्ठ प्रारब्ध, दिव्य व श्रेष्ठ वातावरण, श्रेष्ठ प्रशिक्षक, श्रेष्ठ प्रशिक्षण तथा अखण्ड प्रचंड पुरुषार्थ-ये पाँच साधन हैं जीवन को श्रेष्ठतम व दिव्य बनाने के। इन पांचों में भी पुरुषार्थ तत्त्व सबसे ऊँचा है। योग से मनुष्य का समस्त प्रकार का पुरुषार्थ पूरी तरह से जागृत हो जाता है। पूरा जीवन पुरुषार्थ ही तो है तथा पुरुषार्थ चतुष्ट्य को ही भारतीय संस्कृति में धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष नाम से कहा जाता है।
13) स्वस्थ शरीर, तीव्र मेधा, सत्य में अखण्ड निष्ठा, उत्साह, पुरुषार्थ, पराक्रम व कृतज्ञता-ये सात भगवान् की दिव्य विभूतियां हैं या दैवी सम्पदाएं हैं। योग से इन सातों दैवी सम्पदाओं का विकास होता है।
14) योग न करने वाले लोग सामान्यत: निम्न चेतना में जीते हैं। योगी सदा उच्च, दिव्य या भागवत चेतना में जीता हुआ देवत्व, ऋषित्व व भगवत्ता में जीता है। योगी ऋषि सत्ता व भागवत सत्ता का मूर्त्तरूप, प्रतिरूप या प्रतिनिधि हो जाता है।
15) योगी भीतर से पूर्ण शान्त, सहज व बाहर से पूर्ण क्रियाशील, पूर्ण पुरुषार्थमय जीवन जीते हुए भगवान् के दिव्य ज्ञान, दिव्य शक्तियों व दिव्य ऐश्वर्य से युक्त होकर, भगवान् का यंत्र बनकर दिव्य योगमय, पूर्ण सुखमय, शान्तिमय, पूर्ण समृद्धिमय व पूर्ण स्वाधीनता के साथ जीवन को जीता है। योगी के जीवन में न तो बाह्य दरिद्रता होती है न ही आन्तरिक कृपणता व दरिद्रता। योगी का सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सामर्थ्य, विभूति व समृद्धि समष्टि की सेवा के लिए होती है। योगी न तो साधनहीन दु:खी दरिद्र होता है, नहीं साधन सम्पन्न दु:खी दरिद्र अपितु योगी साधन सम्पन्न सुखी प्रसन्न रहता है तथा सबको सभी प्रकार की दरिद्रता, अज्ञान, अभाव एवं अन्याय से मुक्त देखना चाहता है।
16) सुखी, दु:खी, पुण्यशील व अपुण्यशीलों के प्रति सदा क्रमश: मैत्री, करुणा, मुदिता व उपेक्षा का भाव रखता हुआ योगी सदा प्रसन्नचित्त व आनन्दित रहता है। वह एक क्षण के लिए भी अशुभ में नहीं जीता। वृत्तिसारूप्य होकर योगी वेगों व विकारों में बहता या बहकता नहीं है। रोंग एक्शन, रियेक्शन व इन-एक्शन से योगी दूर रहकर डिवाइन एक्शन में रहता है अथवा अपने आत्मस्वरूप में, अपनी पूर्णता में सदातृप्त अपिपास होकर जीवन मुक्त जीवन को जीता है।
17) योगी व्यक्ति किसी भी मजहबी व अन्य विकार के भौतिक उन्माद से रहित होकर स्वयं एक पूर्ण आध्यात्मिक जीवन जीता है तथा समष्टि में आध्यात्मिकता की प्रतिष्ठा हेतु पूर्ण पुरुषार्थ करता है। आध्यात्मिक जीवन, आध्यात्मिक परिवार, समाज, राष्ट्र व आध्यात्मिक विश्व का निर्माण ही योगी के जीवन का एक मात्र बाह्य ध्येय रहता है। व्यष्टि से समष्टि की मुक्ति अर्थात् अपने व जगत् के समस्त दु:खों को दूरकर वह सदा सर्वत्र सुख व समृद्धि देखना चाहता है।
18) योगी सत्य, प्रेम व करुणामय जीवन जीते हुए स्वयं से लेकर समष्टि तक सर्वत्र अज्ञान, अभाव व अन्याय से मुक्त संसार देखना चाहता है। अहम् से वयम् की यात्रा होती है योगी की। मैं भी सत्य, धर्म, न्याय, पुरुषार्थ, परमार्थ, साधना सेवा, योग व कर्म योग के मार्ग पर चलूँ तथा अपने सम्पूर्ण सामर्थ्य से सबको भी चलाऊं, क्योंकि यही एक मात्र मानव मात्र के कल्याण का मार्ग है। मैं स्वयं चरित्रवान, महान, स्वस्थ, सुखी, समृद्ध बनूँ तथा सबको भी बनाऊँ। योगी 'संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम’ की ईश्वरीय आज्ञा का पालन करता है।
19) हठ, दुराग्रह, स्वार्थ व अविद्या से रहित होकर संसार की सभी विवेकशील आत्माओं को विश्व की समग्र व स्थाई समृद्धि व विकास तथा विश्व में स्थाई शान्ति के लिए अष्टाङ्गयोग, हठयोग, ज्ञानयोग, कर्मयाग, एवं भक्तियोग आदि योग की वैज्ञानिक, सार्वभौमिक व पंथ निरपेक्ष परम्परा को स्वीकार करना चाहिए तथा इसे पूर्ण गौरव दिान करना चाहिए। यही एक मात्र विश्व के कल्याण का मार्ग है।
20) तस्माद् योगी भव अर्जुन (गीता)। योगेश्वर भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, हे अर्जुन! संसार में योगी होना सबसे बड़ी सफलता या उपलब्धि है। अत: हम सब वर्ग, समूह, जाति, मजहबों एवं अलग-अलग परम्पराओं व राष्ट्र की राजनैतिक सीमाओं में रहते हुए यदि योगी हो जाते हैं, तो हमारे जीवन में व इस जगत् में कोई भी दु:ख, दरिद्रता व कोई भी समस्या नहीं रहेगी।
21) रोग मुक्त, तनावमुक्त, व्यवसन मुक्त, बुरे अभ्यासों से मुक्त, स्वस्थ, सुखी, समृद्ध व पूर्ण शान्तिमय जीवन जीने का मार्ग है योग। 24 घंटा में प्रात: या सांयकाल 1 घंटा योग को जो सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं उनके जीवन की सभी प्राथमिकताएं भी स्वत: ही पूरी हो जाती हैं। सभी को एक सुनिश्चित समयावधि का जीवन मिला है। इसमें हमें 100 वर्ष की प्राथमिकताएं तय कर लेनी चाहिए और उन्हें फिर पूरे वेग, उत्साह, पराक्रम व पुरुषार्थ से पूरा करना चाहिए। प्रात:काल की सर्वोच्च प्राथमिकता योग तथा दिनभर की प्राथमिकताएं अपने दायित्वों के आधार पर तय करनी चाहिए। क्योंकि प्रात: योग करने वाले व्यक्ति को दिनभर समता एवं कुशलता पूर्वक अपने कर्त्तव्य के निर्वहन की पूरी ऊर्जा प्राप्त हो जाती है। इसीलिए कहते हैं:-
समत्वं योग उच्यते, योग: कर्मसु कौशलम। -(गीता)
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