ऋषियों के उत्तराधिकारी स्वामी जी
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आचार्य बालकृष्ण
परम श्रद्धेय श्री स्वामी जी की योजना कोई 50 या 100 वर्षों की योजना नहीं अपितु यह तो हजारों वर्षों की योजना है क्योंकि ये कोई मानवीय कार्य नहीं यह तो ईश्वरीय कार्य है और ईश्वरीय कार्य कभी काल से परिच्छिन्न नहीं होते। ऋषियों की परम्परा के निर्वहन के लिये स्वामी जी एक शृंखला तैयार कर रहे हैं।
भारत अनादिकाल से ही ऋषियों का देश रहा है। अरबों वर्षों पुरानी एकत्व सहअस्तित्व व विश्व बन्धुत्व की वैदिकी परम्परा ही हमारी मूल संस्कृति व पहचान है। इसी वैदिक संस्कृति की पुन: प्रतिष्ठा के लिये समस्त ब्रह्माण्ड की कर्तृ, नियन्तृ व संहर्तृ शक्ति ने माँ भारती को एक ऐसा दिव्य पुत्र दिया है जिसमें महर्षि मनु, भृगु, जैमिनी, गौतम, कण्व, पतंजलि, पाणिनि आदि ऋषियों की छवि साक्षात् दिखाई देती है। परम श्रद्धेय श्री स्वामी जी को देख कर ऐसा लगता है मानों सभी ऋषि-ऋषिकाओं और वीर-वीरांगनाओं का समावेश एक ही शरीर में हो गया है।
विदेशी आततायियों ने हमारी वैदिक ऋषि संस्कृति को नष्ट करने के पूरे प्रयास किये परन्तु जो सभ्यता अनादि है, उसका कभी अन्त नहीं हो सकता। अत: आज भी हमारे मूल में हमारे रक्त में वैदिक संस्कृति है और उसी ऋषि परम्परा की पुन: प्रतिष्ठा की जिम्मेदारी ऋषिपुत्र श्रद्धेय श्री स्वामी जी ने ली है। वो निरन्तर अबाध गति से निर्भय परन्तु सजग होकर इस पुनीत कार्य को कर रहे हैं जो कि एक उत्तराधिकारी का कर्तव्य है। जिस प्रकार परम श्रद्धेय श्री स्वामी जी सभी ऋषि-ऋषिकाओं व वीर-वीरांगनाओं की विरासत को रक्षित व संवर्धित करते हुए दिखाई देते हैं उससे यह सिद्ध हो जाता है कि ऋषियों के उत्तराधिकारी परम वन्दनीय मनीषी क्रान्तद्रष्टा युगपुरुष व ऋषियों की संस्कृति के सूर्य संन्यास परम्परा के आदर्श श्रद्धेय श्री स्वामी जी ही हैं।
भारत वर्ष की भौतिक व आध्यात्मिक उन्नति अर्थात् अभ्युदय व निश्श्रेयस को समानान्तर रूप से आगे बढ़ाने वाले ऋषि पुत्र श्रद्धेय श्री स्वामी जी महाराज सभी के लिये मार्गदर्शक व आदर्श हैं।
''इन्द्रं वर्धन्तो अप्तुर: कृण्वन्तो विश्वमार्यम्। अपघ्नन्तो अराव्ण:।।" की वैदिक प्रतिज्ञा को हृदय में लिये हुए शौर्य, पराक्रम व देवत्व की प्रतिमूर्ति श्रद्धेय श्री स्वामी जी न केवल भारतवर्ष के लिये अपितु समस्त विश्व के लिये प्रेरणा स्रोत हैं। वे स्वयं भी 'वसुधैव कुटुम्बकम्’ की उदात्त भावना से युक्त आत्म-कल्याण से राष्ट्र-कल्याण और फिर विश्व-कल्याण के लिये अहर्निश प्रयत्नशील रहते हुए हमें भी प्रेरित करते हैं।
पतंजलि योगपीठ ऋषियों की विरासत
पतंजलि योगपीठ एक बहुआयामी संस्था है जिसका मूल ध्येय ऋषि संस्कृति की पुन: प्रतिष्ठा है। पतंजलि योगपीठ के प्रत्येक कार्य के पीछे एकत्व, सह-अस्तित्व व विश्व बन्धुत्व की अनादि वैदिक परम्परा को पुन: प्रतिष्ठित करने की भावना रहती है। भारत को ऋषि-राष्ट्र व जगद्गुरु बनाने के लिये पतंजलि योगपीठ सदैव प्रयत्नशील रहता है। यहाँ जीवन के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखते हुए कई प्रकल्पों के माध्यम से सेवा कार्य संचालित किये जा रहे हैं। योग व आयुर्वेद के माध्यम से स्वस्थ भारत, स्वदेशी के माध्यम से समृद्ध भारत व शिक्षा के माध्यम से संस्कारी भारत का निर्माण पतंजलि योगपीठ के द्वारा किया जा रहा है। अर्थ से परमार्थ व सामर्थ्य से सेवा की भावना से युक्त होकर पतंजलि योगपीठ अनेक लोक-कल्याण के कार्यों को करता है।
हमारे पूर्वज ऋषि-ऋषिकाएँ जिस प्रकार जीवन को समग्रता से जीते थे, वैसी ही छवि पतंजलि योगपीठ में देखने को मिलती है। देश को भ्रष्टाचार, रोग, नशा, प्रदूषण व अकर्मण्यता से मुक्त बनाने के लिये निरन्तर प्रयत्नशील यह संस्था कोई साम्राज्य नहीं अपितु त्याग, तपस्या, उद्यम और ज्ञान कर्म उपासना का एक अद्वितीय संगम ''ऋषियों की विरासत’’ है।
एक सच्चा संन्यासी
आज देश में ढ़ोंगी, पाखण्डी, अत्याचारी बलात्कारी तथाकथित साधुओं की भरमार है, ये संन्यासी नहीं अपितु संन्यासी के रूप में राक्षसों से भी गये गुजरे हैं जो कि हमारी पवित्रतम और आदर्श संन्यास परम्परा को कलंकित कर रहें हैं। संन्यासी का उद्देश्य तो लोक कल्याण होता है न कि लोगों को पाखण्ड के जाल में फँसाकर भोग करना।
एक सच्चा संन्यासी पुत्रैषणा, लोकैषणा और वित्तैषणा को त्याग कर समस्त ब्रह्माण्ड को अभयदान देता है। एक सच्चे संन्यासी की प्रार्थना रहती है-
''इन्द्र आशाभ्यस्परि सर्वाभ्यो अभयं करत्। जेता शत्रून् विचर्षणि:।।‘’ हे इन्द्र! मुझे सर्वथा अभय कर दे ताकि मैं सभी को अभयदान दे सकूँ।
गीता के 18वें अध्याय 'मोक्षसंन्यास योग’ में कहा है ''काम्यानां कर्मणां न्यासं सन्यासं कवयो विदु:। अर्थात् निष्काम भाव से, लोकोपकार व जनकल्याण की भावना से समस्त कर्मों को करना ही संन्यास है और वह व्यक्ति जो इसी प्रकार अपने सभी कर्म ईश्वर आराधना में अर्पित करता है, वही सच्चा संन्यासी है।
वर्तमान युग में जहाँ एक ओर ढोंगी, पाखण्डी और पृथ्वी पर भार बने हुए तथाकथित संन्यासी जो कि हमारी ऋषि संस्कृति और वैदिकी परम्परा की नींव संन्यास परम्परा पर कुठाराघात कर रहें हैं, उसे कलंकित कर रहें हैं, वहीं दूसरी ओर परमपिता परमेश्वर, देवताओं व ऋषियों के आशीर्वाद दिव्य पुरुष युगद्रष्टा योगऋषि श्रद्धेय श्री स्वामी जी ऋषिपुत्र होने का कर्तव्य निभा रहें हैं। श्रद्धेय श्री स्वामी जी समस्त भारत के ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में एक आदर्श संन्यासी, तप, त्याग तथा संयम की प्रतिमूर्ति हैं। स्वामी जी वो दिव्य महापुरुष हैं जिन्होंने 'तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा:’ के वैदिक उद्घोष को अपने जीवन में चरितार्थ किया हुआ है। आज सर्वसुविधा सम्पन्न होते हुए भी वो झोंपड़ी में रहते हैं जमीन पर सोते हैं एक सामान्य व्यक्ति की भाँति जीवन जीते हुए वो सदा जीवन उच्च विचार का आदर्श प्रस्तुत करते हैं। वे जीवन में नितान्त आवश्यक वस्तुओं का ही प्रयोग करते हैं। विचक्षण जन आज स्वामी जी को एक सच्चे संन्यासी व संन्यास परम्परा के आदर्श के रूप में देखते हैं।
आगामी हजारों वर्षों की योजना
परम श्रद्धेय श्री स्वामी जी की योजना कोई 50 या 100 वर्षों की योजना नहीं अपितु यह तो हजारों वर्षों की योजना है क्योंकि ये कोई मानवीय कार्य नहीं यह तो ईश्वरीय कार्य है और ईश्वरीय कार्य कभी काल से परिच्छिन्न नहीं होते। ऋषियों की परम्परा के निर्वहन के लिये स्वामी जी एक शृंखला तैयार कर रहे हैं। विश्व में सबसे महान् और आवश्यक कार्य है मानव निर्माण का, जिसका आधार सम्यक् शिक्षा व्यवस्था है। यदि हमारी शिक्षा व्यवस्था वैसी ही हो जाये जैसी कि वैदिक काल में थी तो हमारा देश पुन: ऋषियों का देश बन जायेगा। कोई भी व्यक्ति गरीब, लाचार, असहाय, व अकर्मण्य नहीं रहेगा। हर तरफ खुशहाली होगी, सत्य का राज्य होगा जिसके लिये श्रद्धेय श्री स्वामी जी निरन्तर कार्यरत हैं। हमारे वेदों में उद्घोष किया है 'सा विद्या या विमुक्तये’ अर्थात् सच्ची विद्या वह है जो हमें हमारी आन्तरिक व बाह्य समस्त पराधीनताओं से मुक्त कराकर परम आनन्द को प्राप्त कराये। परम श्रद्धेय श्री स्वामी जी की योजना से भारत वर्ष शीघ्र ही विश्व में महाशक्ति बनेगा व जगद्गुरु पद को प्राप्त करेगा।
हमारा दायित्व
स्वामी जी एक संकल्पसिद्ध योगी हैं और जब एक संकल्पसिद्ध योगी ने संकल्प ले ही लिया तो उसे पूरा तो होना ही है। ऋषि-ऋषिकाओं की सन्तान होने के नाते हम अपने आपको पहचानें, अपने सामर्थ्य को पहचानें और तन, मन, धन व आत्मा से इस संकल्प को पूरा करने में अपना सहयोग दें। योग आयुर्वेद व स्वदेशी का व्रत लें, गोरक्षा करें और राष्ट्रोन्नति के समस्त कार्यों में अपना प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग अवश्य करें और यदि सहयोग न भी कर पाये तो समर्थन तो अवश्य ही करें।
ताकि भविष्य में आपको ग्लानि न हो कि मैं भी इस पुनीत कार्य में भागीदार बन सकता था परन्तु ......।
ये भागवत विधान है कि जब-जब पाप अधर्म अन्याय अत्याचार बढ़ता है तब उसे समाप्त करने वाले महापुरुष का भी जन्म होता है। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने भी कहा है-
''यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।"
अत: आप सभी ऋषिपुत्र व पुत्रियों से मेरा आह्वान है कि ऋषियों का भारत बनाने में व ऋषि संस्कृति को पुन: प्रतिष्ठापित करने में सर्वात्मना अपना सहयोग दें व पुण्यभागी बनें।
।। ओऽम् ।।
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