वनौषधियों में स्वास्थ्य

मुख व त्वचा रोग निवारक आयुर्वेदिक घटक जैतून

वनौषधियों में स्वास्थ्य

भारतीय आयुर्वेद में औषधि वह है जो रोगी में आरोग्य का विश्वास पैदा करे और रोग से निजात दिलाये। चूँकि शरीर का सीधा संबंध प्रकृति से है, अत: रोग भी प्रकृतिगत असंतुलन से ही पैदा होते हैं। ऐसे में औषधि प्रकृतिस्थ तत्वों से युक्त होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त  यदि दवा के नाम पर किन्हीं रासायनिक तत्वों का प्रयोग शरीर पर करते हैं, तो तत्काल न सही, कभी न कभी तो वह शरीर के साथ विद्रोही तेवर दिखायेगा ही। अक्षय आरोग्य के लिए आवश्यक है कि शारीरिक व मानसिक रोगों में प्रकृति के बीच से ही औषधि की खोज करें।
औषधि के नाम पर परमात्मा के इस शरीर रूपी मंदिर के साथ हो रहे अत्याचार को समाप्त करने के लिए ही वनौषधियों पर पतंजलि आयुर्वेद द्वारा गहन अनुसंधान के पश्चात् रोग की प्रकृति के अनुसार उनके अनुपान का निर्धारण किया गया है। उन्हीं निष्कर्षों के अनुरूप 'वनौषधियों में स्वास्थ्य शृंखला प्रस्तुत है। इन प्रयोगों को 'आयुर्वेद जड़ी-बूटी रहस्यपुस्तक में विस्तार से पढ़ सकते हैं, जिसे अपनाकर हर कोई अक्षुण्ण आरोग्य का स्वामी बन सकता है। इस अंक में प्रस्तुत है वनौषधि 'जैतून’...
जैतून मूलत: भूमध्य सागरीय क्षेत्रों, एशिया एवं सीरिया के साथ-साथ भारत के उत्तर-पश्चिमी हिमालय, जम्मू-कश्मीर, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक एवं तमिलनाडू में पाया जाने वाला पौधा है। इन वृक्षों के फलों से निकाला जाने वाला तैल उत्तम, स्वच्छ, सुनहरे रंग का तथा हल्की गंध युक्त होता है।
जैतून छोटा, बहुशाखित, लगभग 15 मी. ऊँचा सदाहरित वृक्ष होता है। इसकी शाखाएँ तनु तथा छाल धूसर-श्वेत वर्णी व लगभग चिकनी होती हैं। इसके पत्र सरल, विपरीत, अमरुद पत्र जैसे, 5-6.3 सेमी. लम्बे, विभिन्न चौड़ाई के, तीक्ष्णाग्र, आधार पर क्रमश: संकुचित, दोनों पृष्ठ चिकने, ऊर्ध्व पृष्ठ पाण्डुर चमकीले हरित वर्ण के तथा अध:पृष्ठ चमकीले श्वेत वर्ण के होते हैं। इसके पुष्प सुगन्धित, छोटे, हरिताभ-श्वेत या पाण्डुर-हरित वर्ण के चिकने होते हैं। जबकि फल अण्डाकार, गोलाकार, 1.3-2.5 सेमी. लम्बे, प्रथमतया हरित वर्ण के एवं पक्वावस्था में बैंगनी-नील कृष्ण वर्ण के होते है। कच्चे फलों का प्रयोग अचार एवं साग बनाने के लिए किया जाता है।  इसका पुष्पकाल एवं फलकाल अक्टूबर से अप्रैल तक होता है।

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रासायनिक संघटन
  • इसके पत्र में ओलिएनोलिक अम्ल, ओलियोरोपिन, ओलियास्टेरॉल, केम्पफेरॉल, क्वर्सेटिन, ऐस्कुलेटिन तथा ऐस्कुलिन पाया जाता है।
  • इसके बीज में अवाष्पशील तैल पाया जाता है।
  • जबकि पुष्प में अरसोलिक अम्ल पाया जाता है।
  • इसके फल में तैल (जैतुन), ऑलीक अम्ल एवं मैसलिनिक अम्ल मिलता है।
औषधीय प्रयोग, मात्रा एवं विधि शिरो रोग
  • सिर की गंज- इसके कच्चे फलों को जलाकर उसकी राख में शहद मिलाकर सिर में लगाने से गंज तथा फुन्सियों में लाभ होता है।
कर्ण रोग
  • 1-2 बूंद पत्र स्वरस को कान में डालने से कान की वेदना मिटती है।
  • 5 मिली. जैतून पत्र स्वरस को गुनगुना करके उसमें शहद मिलाकर 1-2 बूंद कान में डालने से कर्ण रोगों में लाभ होता है।
मुख रोग
  • दाँतों के रोग- इसके कच्चे फलों को पानी में पकाकर काढ़ा बना लें। इस काढ़े से गरारा करने पर दाँतों तथा मसूड़ों के रोग मिटते हैं तथा इससे मुुँह के छाले भी मिटते हैं।
  • सौंदर्यवर्धनार्थ- जैतून के तैल को चेहरे पर लगाने से रंग निखरता है तथा सुंदरता बढ़ती है।
वक्ष रोग
  • सर्दी/ खाँसी- जैतून के तैल को छाती पर मलने से सर्दी, खाँसी तथा अन्य कफज विकार मिटते हैं।
उदर रोग
  • अतिसार- जैतून के पत्तों को पीसकर इसे जौ के आटे में मिलायें व इसमें कुछ पानी डालकर नाभि पर लेप करने से पुराने अतिसार बंद हो जाते हैं।
वृक्कवस्ति रोग
  • जैतून के पत्रों का क्वाथ बनाकर 5 से 10 मिली. मात्रा में पीने से मधुमेह, मूत्र त्याग में कठिनता तथा पथरी में लाभ होता है। 
अस्थिसंधि रोग
  • आमवात- जैतून की मूल को पीसकर लगाने से आमवात में लाभ होता है।
  • जैतून बीज तैल को लगाने से आमवात, वातरक्त तथा जोड़ों के दर्द में अत्यन्त लाभ होता है।
त्वचा  रोग
  • व्रण- जैतून के बीजतैल को घाव पर लगाने से घाव जल्दी भरता है।
  • त्वचा विकार- जैतून के कच्चे फलों को पीसकर लगाने से चेचक और दूसरे फोड़े-फुन्सियों के निशान मिटते हैं।
  • जैतून के कच्चे फलों को पीसकर घावों पर या पुराने जख्मों पर इसका लेप करने से घाव जल्दी भर जाते हैं।
  • अगर शरीर का कोई भी भाग अग्नि से जल जाये तो कच्चे जैतून के फलों को लगाने से छाला नहीं पड़ता।
  • घाव- जैतून के पत्तों के चूर्ण में शहद मिलाकर घावों पर लगाने से घाव जल्दी भरते हैं।
  • जैतून के पत्तों को पीसकर लेप करने से पित्ती, खुजली और दाद में अत्यन्त लाभ होता है।
  • दाद- जैतून के वृक्ष से प्राप्त गोंद को दाद पर लगाने से दाद ठीक होता है।
  • व्रण रोपणार्थ- जैतून के पत्र चूर्ण में शहद मिलाकर लगाने से व्रण का रोपण होता है।
  • त्वचा विकार-जैतून के पत्तों को पीसकर लगाने से शीतपित्त, खुजली, दाद आदि त्वचा विकारों में लाभ होता है।
सर्वशरीरगत रोग
  • अत्यधिक पसीना निकलना- जंगली जैतून के पत्तों को सुखाकर व पीसकर शरीर पर मलने से पसीना कम निकलता है तथा पसीने के कारण होने वाली दुर्गन्ध भी मिटती है।
विशेष
  • जैतून का सेवन अधिक मात्रा में करने पर सिरदर्द या अनिद्रा रोग हो सकता है। इसका पका हुआ फल आँखों के लिये हानिकारक है।
  • जैतून के फल का मुरब्बा मृदु विरेचक होता है। इसको गर्म पानी के साथ खिलाने से खूब अतिसार रहता है, परन्तु इसका अचार विबन्ध कारक होता है।

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