'वन्दे’ शब्द के संदर्भ में राष्ट्रगीत

'वन्दे’ शब्द के संदर्भ में राष्ट्रगीत

आचार्य आनन्द प्रकाश, तेलंगाना

'वन्दे मातरम्’ की समीक्षा
देश में जिस 'वन्दे मातरम्’ ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की हुंकार जगाई, उसी 'वन्दे मातरम्’ गीत के प्रति विरोधाभास करोड़ों देशवासियों के लिए आश्चर्य सा लगता है। फिर भी कुछ समुदाय इसके विरोध में इसलिए हैं, क्योंकि उनके अनुसार इससे उनकी धार्मिक मान्यताओं पर ठेस पहुँचती है। वे निराकार ईश्वर, खुदा के अतिरिक्त किसी जड़ वस्तु की, भूमि की उपासना भक्ति एवं इबादत नहीं करते। कुछ नास्तिक निरीश्वरवादी किसी ईश्वर को नहीं मानते, न भक्ति, उपासना, इबादत करते हैं। इसी कारण वर्तमान में विवाद का विषय बने रहे 'वन्दे’ शब्द की इस लेख में भाव शाब्दिक समीक्षा प्रस्तुत है:-
संस्कृत में 'वन्दे’ शब्द क्रियापद है, जो 'वदि अभिवादनस्तुत्यो:’ (अभिवादन- प्रणाम करना एवं स्तुति-गुणगान करना) धातु से लट् लकार (वर्तमान काल) में उत्तम पुरुष के एक वचन में बनता है। वन्द्+शप्+लट्-वन्द्+अ+इट्- वन्दे। इस धातुरूप के इसके धात्वर्थ के अनुसार दो अर्थ हैं-
प्रथम- मैं वन्दना (अभिवादन, प्रणाम, भक्ति, उपासना) करता हूँ, यह अर्थ चेतन माता-पिता, आचार्य, गुरु आदि को अभिवादन, नमस्ते करने के लिए एवं परमेश्वर की भक्ति, उपासना, इबादत करने के लिए प्रयुक्त होता हैं। जबकि दूसरा मैं स्तुति, गुणगान, प्रशंसा, नामवरी, बड़ाई करता हूँ। यह अर्थ चेतन एवं जड़, निर्जीव पदार्थों, वस्तुओं के प्रति होता है, क्योंकि जड़ वस्तुओं की उपासना, भक्ति, इबादत का तो औचित्य नहीं है, किन्तु प्रशंसा, गुणगान, नामवरी तो चेतन के साथ-साथ जड़ वस्तुओं की भी हो सकती है। जैसे:- प्रत्येक दुकानदार अपनी बेचने की वस्तुओं की प्रशंसा, गुणगान, बड़ाई करता है। फल विक्रेता कहता है- ये फल ताजे हैं, मीठे हैं आदि। शाक विके्रता कहता है - ये तरकारी ताजी है, बहुत अच्छी है, सस्ती है आदि। मूंगफली विक्रेता जोर-जोर से बोलता है- जाड़े का मेवा मूंगफली, करारी-भुनी मूंगफली आदि। टी.वी, रेडियो और अखबारों में दिन-रात लोग व कम्पनियाँ अपने उत्पादों की जोर-शोर से वन्दना, प्रशंसा, स्तुति, गुणगान, बड़ाई करते हैं, जिससे उनका माल अधिक बिकता है। अर्थात् प्रत्येक माल विक्रेता अपनी वस्तुओं की वन्दना, स्तुति, प्रशंसा, बड़ाई, नामवरी करता है। यदि यह वन्दना, प्रशंसा, बड़ाई, गुणगान न करें तो उसका माल धरा रह जायेगा।
यदि कोई विक्रेता कहे कि मैं इन वस्तुओं की स्तुति, प्रशंसा, गुणगान नहीं करूँगा, तुम्हे वस्तु लेनी है तो लो नहीं तो आगे बढ़ो, तो दुकान नहीं चल सकती है। मैंने प्रत्येक दुकानदार को अपने माल की वन्दना, प्रशंसा, स्तुति, बड़ाई करते देखा है, चाहे वह हिन्दू हो, मुसलमान हो, ईसाई हो, सिख हो, नास्तिक हो, स्त्री हो या पुरुष हो।
संस्कृत के भारतीय राष्ट्रगीत में भी मातृभूमि की स्तुति, प्रशंसा ही की गयी है:-
वन्दे मातरम्,
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्, शस्यश्यामलां मातरम्।।
शुभ्रज्योत्स्ना पुलकितयामिनीम्, फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्, सुखदां वरदां मातरम्। वन्दे मातरम्.....।।
अर्थात् मैं (पृथिवीपुत्र) अपनी मातृभूमि (जन्मभूमि) की वन्दना, गुणगान, प्रशंसा, नामवरी करता हूँ, जो सुन्दर मीठे जल वाली, मीठे रसीले फल-फूल वाली, ठंडी सुगन्धित वायु वाली, हरीभरी फसलों से सजी हुई, चमकीले प्रकाश वाली, शान्तिप्रद रात्रियों वाली व फूलते-फलते वृक्षों से सुशोभित है, यहाँ के वासी हँसते-खेलते मधुरभाषी हैं। यह मेरी मातृभूमि सुख देने वाली और वरदान देने वाली (लक्ष्य को पाने की शक्ति देने वाली) है। ऐसी अद्भुत मातृभूमि की मैं वन्दना, प्रशंसा, गुणगान, नामवरी करता हूं।
इस गीत में गुणगान, प्रशंसा करने वाले ही शब्द हैं। उपासना, इबादत करने को नहीं कहा गया। जिस देश की मिट्टी में हम पले-बढ़े हैं, उसकी प्रशंसा करना, गुणगान करना तो हमारा स्वाभाविक धर्म है, अन्यथा कृतघ्नता, एहसान फरामोशी का पाप लगेगा। वास्तव में मैं यह व्याख्या अपनी मनमानी खींचातानी से नहीं कर रहा हू, अपितु हजारों लाखों वर्षों से उक्त दोनों अर्थों में यह धातु है, जिससे 'वन्दना’ (अभिवादन-प्रणाम और स्तुति-प्रशंसा) शब्द बनता है। इसका जो अर्थ हजारों वर्ष पूर्व था, वही अब है और ये ही दोनों अर्थ वर्षों के बाद भी रहेंगे। 'वन्दे मातरम्’ पर आपत्ति का कारण मैं समझता हूँ कि वे 'वन्दे’ शब्द का एकमात्र अर्थ अभिवादन करना, प्रणाम करना, इबादत करना ही समझते हैं, जो कि इस शब्द के प्रति घोर अन्याय है और ५० प्रतिशत झूठ है। इस 'वन्दे’ शब्द का अर्थ 'अभिवादन’ भी है, किन्तु 'अभिवादन’ ही नहीं, अपितु 'स्तुति करना’ (प्रशंसा करना, गुणगान करना) भी है। अत: दूसरा अर्थ ही इस गीत में लेना अभीष्ट है।
अत: मेरा मानना है कि सभी लोग अपने देश की प्रशंसा करने वाले गीत को मातृभूमि की स्तुति, प्रशंसा, गुणगान, नामवरी करने वाला मानकर नि:संकोच प्रसन्नता से गा सकते हैं।
अन्य क्षेत्रिय भाषाओं में तो एक शब्द के अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं, जैसे-मराठी भाषा में 'ताई’ का अर्थ दीदी (बड़ी बहन)। किन्तु हिन्दी भाषा में 'ताई’ का अर्थ ताऊ की पत्नी, माँ की जेठानी होता है। अत: यदि आप उत्तर प्रदेश में 'दीदी’ को 'ताई’ कहकर बुलाएंगे तो नाराज होगी, थप्पड़ देगी या गाली देगी, किन्तु यदि महाराष्ट्र में दीदी को 'ताई’ कहकर बुलाएंगे तो वह प्रसन्नता से उत्तर देगी। किन्तु संस्कृत भाषा में ऐसी भ्रान्ति नहीं होती। स्थिति के अनुसार उसका अर्थ स्पष्ट हो जाता है।
यदि आप इस राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकृत 'वन्दे मातरम्’ के पद समूह को देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि इस गीत में भारत का नाम नहीं है, अत: इसे पाकिस्तान, चीन, जापान, अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया आदि के सभी देश गा सकते हैं। अर्थात् यह किसी एक देश (भारत) का ही गीत नहीं, अपितु पृथ्वी-वासी प्रत्येक देश वाले इसको गाने योग्य है। मेरे मान्य प्रधानमंत्री श्री मोदी जी से निवेदन है कि इस 'वन्दे मातरम्’ गीत को संयुक्तराष्ट्र संघ में विश्व राष्ट्र गीत की मान्यता दिलाने के लिए प्रयत्न करें, क्योंकि हम सब पृथिवी वासीयों का एक कुटुम्ब है (वसुधैव कुटुम्बकम्)। यदि कभी हमें मंगल ग्रह वासियों या बृहस्पति ग्रह वासियों के साथ मिलने का अवसर मिले, तो हम गर्व से कह सकें कि हम ऐसी पृथिवी (ग्रह) के वासी हैं, जैसा इस गीत में बताया गया है।
इस गीत के शीर्षक  के 'मातरम्’ शब्द पर भी विवाद है कि हम भूमि को 'मातरम्’ क्यों कहें? सो इसका अर्थ समझें कि यह शब्द वाचकलुप्तोपमालंकार में है, अर्थात् माता के समान सुख देने वाली, जीवन देने वाली भूमि 'मातृभूमि’।
इसी सादृश्य से बहुत से शब्द बोले जाते हैं जैसे- 'नरशार्दूल:’, रामसिंह, रणसिंह,धर्मसिंह, गोविन्द सिंह आदि। सिख बन्धुओं के नाम अधिकतर 'सिंह’ पर होते हैं। इन सबका अर्थ है- सिंह, शेर के समान पराक्रमी, उत्साही। न कि बड़े-बड़े दाँतों और पंजों वाला जानवर।
आशा है कि सभी मत के लोग, सभी देशों के मनुष्य इस 'वन्दे मातरम्’ गीत को खुशी-खुशी गाकर स्वयं भी प्रफुल्लित होंगे और सुनने वाले भी।

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