वसुधैव कुटुम्बकम का अर्थ और अनर्थ

वसुधैव कुटुम्बकम का अर्थ और अनर्थ

प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

इन दिनों 'वसुधैव कुटुम्बकम’ नामक सूक्ति का अतिशय और अतिरंजित प्रयोग चल रहा है। परन्तु उस प्रयोग के पीछे प्राय: न तो भाव का ध्यान रहता है और न ही अर्थ का। इससे अनर्थ की ही संभावना रहती है। अत: सर्वप्रथम इस सूक्ति का वास्तविक और प्रामाणिक संदर्भ एवं अर्थ जानना आवश्यक है।
यह ठीक है कि भारत की संसद में सभागार के प्रवेश द्वार में ही यह सूक्ति अंकित है और इस प्रकार इसे संविधान निर्माताओं और आरंभिक सांसदों की सर्वसम्मत दृष्टि मानना चाहिये। परंतु इसके अर्थ का धयान नहीं रखने पर यह एक वैचारिक अराजकता को जन्म दे सकता है।
मूल सन्दर्भ
सर्वप्रथम तो इसका मूल संदर्भ जानना आवश्यक है। महोपनिषद का यह श्लोकांश सन्यस्त और वीतराग सिद्ध पुरूष के लिये ही है। जिसे जीवन में न तो किसी से राग है और न ही द्वेष। सभी से प्रेम है क्योंकि सर्वत्र एक ही परमसत्ता दिखती है। संन्यास लेते समय पूर्णत: निर्भय रहने और सबको अभय देने की प्रतिज्ञा की जाती है जिसका अर्थ है कि किसी भी मनुष्य और किसी भी प्राणी को तनिक सी भी क्षति मेरे द्वारा पहुँचेगी, इसकी कोई संभावना नहीं है। अत: मैं सबको अभय देता हूँ। साथ ही मुझे किसी का भी भय नहीं है। मैं निर्भय होकर स्वधर्म का पालन करूंगा और संन्यासी का जीवन जीऊँगा, जब तक प्रारब्ध है और ऐसा जीवन जीते हुये कब किस प्रकार किस कारण से मेरी मृत्यु हो जाये, इसकी मुझे कोई चिंता नहीं है और कोई भय नहीं है। कोई प्रारब्धवश मुझे मार डाले या किसी प्राकृतिक विपदा से मृत्यु हो जाये या कोई विषधर डस ले या किसी अन्य प्रकार से आघात अथवा दुर्घटना हो जाये, कोई चिंता नहीं है। ऐसा सबको अभय देता हुआ और सब प्रकार से निर्भय संन्यासी यह घोषणा करता है।
राजपुरु षों का सत्य यह नहीं है
कहीं भी राजपुरूषों के द्वारा ऐसी किसी घोषणा का कोई प्रावधान नहीं है। क्यो नहीं है? राजपुरूष के लिये भी तो अभय सर्वोपरि गुण कहा गया है। तो फ़िर राजपुरुष को ऐसी घोषणा का अधिकार क्यों नहीं है? राजपुरुष ही नहीं, किसी गृहस्थ को भी ऐसी घोषणा का अधिकार नहीं है।

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राजपुरुष को यह अधिकार इसलिए नहीं है कि वह सबको अभय नहीं दे सकता। उसे चोरों, डाकुओं, वंचकों और दुष्टों को भय देना है। यह भय देना उसका धर्म है। यह राजधर्म का अनिवार्य अंग है। जिस शासक से दुष्ट और अपराधी भयभीत नहीं रहे, वह अयोग्य शासक है। अत: राजपुरुष के लिये 'वसुधैव कुटुंबकम’ सूक्ति नहीं है।
गृहस्थ के लिये भी यह नहीं है
इसी प्रकार गृहस्थ के लिये भी यह सूक्ति नहीं है। क्योंकि गृहस्थ का कर्तव्य है सब प्रकार से प्रयास करके और पुरुषार्थ करके अपने कुटुम्ब का पालन पोषण। यह वह अन्य कुटुम्बों के लिये नहीं कर सकता। उनके प्रति उसके सीमित सामाजिक दायित्व हैं। अत: 'वसुधैव कुटुम्बकम’ सूक्ति गृहस्थों के लिये भी नहीं है।
उच्च उद्घोष
तब संसद के सभागार में यह सूक्ति क्यों लगी है? क्या संविधान निर्माताओं और संसद के मूल स्वामियों ने इसे सन्यासियों की संसद माना था? स्पष्ट रूप से नहीं। वे सब राजनैतिक लोग थे। वे राजनीति कर रहे थे। अत: संसद के सभागार में लगा हुआ 'वसुधैव कुटुम्बकम का उद्घोष ऋजु यानी सहज सरल उद्घोष नहीं है। वह एक राजनैतिक उद्घोष है। उसका उद्देश्य अंग्रेज ईसाइयों को उनके बड़बोलेपन के समकक्ष अपना एक उच्च उद्घोष रखना था।
इंग्लैण्ड का सत्य जानें
इंग्लैंड के शासकों ने कभी भी यह नहीं कहा कि वे भारत को गुलाम बनाने आये हैं। उन्होंने सदा यह कहा कि हम भारत में सुशासन लाने और भारतीय संस्कृति की रक्षा करने के लिये यहाँ हैं और तब तक रहेंगे जब तक भारतीय लोग चाहते हैं। एक दिन भी यह कहने का साहस वे नहीं जुटा पाये कि भारतीयों के न चाहने पर भी हम यहाँ रहेंगे।  जबकि उनके मन में तो यही था परंतु यह वे कभी कह नहीं सके। सदा यही कहते रहे कि हम तो भारत के भले के लिये और यहाँ की प्रजा के कल्याण के लिये रह रहे हैं। उसे सुशासन और ज्ञान देने के लिये रह रहे हैं। स्पष्टत: वे राजनैतिक वाक्य थे।
हम किसी को कमतर नहीं मानें
अत: संसद के सभागार में भी यह राजनैतिक वाक्य के रूप में लिखा गया उद्घोष है - 'वसुधैव कुटुम्बकम’। वहाँ इसका अर्थ यह है कि यदि आप हमें कुटुम्ब मानते हैं तो हम आपको नीचा या अपवित्र या असंस्कृत या अपने से हीन समाज या समूह नहीं कहेंगे। हम सचमुच आपको कुटुम्ब ही मानेंगे। बराबरी से व्यवहार करेंगे। उचित व्यवहार करेंगे। आप भिन्न हैं इसलिये व्यवहार में कोई अन्याय या असभ्यता नहीं करेंगे। संसद के सभागार में 'वसुधैव कुटुम्बकम’ का यही अर्थ है।
वन अर्थ, वन फैमिली भविष्य की आकांशा है
जी 20 के शिखर सम्मेलन के लिये, जो नई दिल्ली में होने जा रहा है 'वन अर्थ, वन फ़ैमिली’ का उद्घोष किया गया है। वस्तुत: 19 देशों और 20वीं यूरोपीय यूनियन को मिलाकर जी 20 समूह बना है। ये मिलकर विश्व की जनसंख्या का दो तिहाई अंश हो जाते हैं तथा विश्व व्यापार का तीन चौथाई एवं वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का 85 प्रतिशत अंश है। अत: यदि इन देशों की सरकारों के मध्य नीतिगत न्यायपूर्ण व्यवहार का निर्णय होता है तो यह सचमुच समस्त विश्व के लिये ही कल्याणकारी होगा। परंतु यह इतना सरल भी नहीं है। क्योंकि अभी तक पश्चिमी यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकारों ने व्यापार विनिमय की सभी शर्तें अपने पक्ष में रखी हैं। यहाँ तक कि विश्व व्यापार संगठन और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक - कहीं भी नीतिगत न्याय नहीं है। सभी जगह यूरोप एवं अमेरिका के पक्ष में तथा विश्व के अन्य क्षेत्रों के प्रति भेदभावपूर्ण नीतियाँ एवं नियम बने हैं। यह काम शाब्दिक स्तर पर बड़ी ही परिष्कृत पदावली का प्रयोग करके ही हो पाता है।
न्यायपूर्ण विश्व व्यवहार के लिए
सौभाग्यवश इस समय भारत का नेतृत्व श्री नरेन्द्र मोदी कर रहे हैं जो व्यापार और वाणिज्य तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार के प्रति अत्यंत सजग राष्ट्र नेता हैं। उन्हें इस बात का सजग स्मरण रहता है कि वे 140 करोड़ लोगों के राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। वे इसका बल जानते हैं और निर्भय होकर न्याय का आग्रह करना भी जानते हैं। इसलिये इस सम्मेलन के लिये 'सम्पूर्ण पृथ्वी ही एक कुटुम्ब है’ यह उद्घोष भारत के हित का ध्यान रखकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर न्यायपूर्ण व्यवहार का आग्रह करने वाला सिद्ध हो सकता है। जबकि यदि सजग नेतृत्व न हो तो यही उद्घोष कातर समर्पण का आधार बन जाता है। सोवियत ब्लाक के प्रति जवाहरलाल नेहरू का कातर समर्पण विश्वशांति एवं पंचशील जैसे सुंदर उद्घोषों की आड़ में हुआ था। अत: इस नारे में स्वयं में कोई स्पष्ट अर्थ अन्तर्राष्ट्रीय संदर्भ में नहीं है। इसमें अर्थ संबंधित राष्ट्रीय नायकों को भरना है। सौभाग्यवश इस समय हमारे पास एक समर्थ राष्ट्रीय नायक है।
विज्ञान आगे बढ़ गया, राजनीति पीछे ठिठकी है
वस्तुत: यह सम्पूर्ण पृथ्वी एक है यह बात विज्ञान के नवीन निष्कर्षों से निगमित है। न्यूटन के समय से विज्ञान बहुत अधिक आगे बढ़ चुका है। न्यूटन के समय यूरोपीय वैज्ञानिकों के निष्कर्ष थे कि यह विश्व एक यांत्रिक व्यवस्था जैसा है। उससे प्रेरणा लेकर मूर्खतापूर्ण ढंग से यूरोप के लोगों ने यह मान लिया था कि वे इस यांत्रिक व्यवस्था का संचालन और नियंत्रण करने के नियम जान सकते हैं। इस क्रम में उन्होंने भूमि, जल और पर्यावरण का अंतहीन शोषण किया है और कुछ ही समय में विनाश का आमंत्रण करते दिखे। हजारों वर्षों में संचित और संग्रहीत खनिज पदार्थों का विशाल भंडार सौ-डेढ़ सौ वर्षों में ही लगभग आधा समाप्त कर दिया गया दिखने लगा। उस पर से 'लिमिट्स टू ग्रोथ’ नामक प्रसिद्ध रोम रिपोर्ट आई। उसके बाद पर्यावरण की रक्षा की चिंता जताई जाने लगी। परंतु उस विषय में निर्णायक कदम आज तक नहीं उठाये जा सके हैं। उदाहरण के लिये खाद्य पदार्थों के उत्पादन पर आग्रह के चलते सरकारें लगातार रासायनिक उर्वरकों के उपयोग पर बल देती चली गई हैं। रसायनिक उर्वरकों के उत्पादन पर बहुराष्ट्रीय निगमों का नियंत्रण है और व्यापार में बहुत अधिक असंतुलन है। एक ओर जहाँ रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग सीमित करना होगा वहीं उनके व्यापार को भी न्यायपूर्ण बनाना होगा।
इकतरफा लाभ कमाया बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने
विकसित देशों के बड़े बहुराष्ट्रीय व्यापारिक प्रतिष्ठानों ने हरित क्रांति को बढ़ावा दिया और कृषि रसायनों एवं आधुनिक कृषि मशीनों का बाजार कई गुना बढ़ा दिया गया। इससे उन विदेशी कंपनियों का धंधा भारत में तेजी से फ़ूला-फ़ला जो कृषि रसायन, कृषि संयंत्र, कृषि यंत्र तथा आधुनिक कृषि तकनीकि की बिक्री का व्यवसाय कर रही थीं। इस व्यापार को संतुलित किस प्रकार किया जायेगा, यह चुनौती अपनी जगह है। अनुचित और विषमतापूर्ण नीतियों के कारण हमारे सुरक्षित विदेशी मुद्रा भंडार की बड़ी रकम रासायनिक उर्वरकों के आयात में पहले खर्च की गई। इसके लिये पहले तो मूल द्रव्यों (फ़ंडामेंटल मेटेरियल) को कच्चा माल (रॉ-मेटेरियल) कहा गया और फ़िर इनके आधार पर तथा इनके संशोधन-परिशोधन से तैयार माल को बहुत महत्व देकर उसका दाम मूल द्रव्य से कई गुना अधिक बढ़ाया गया। इससे भारत का मूल द्रव्य बहुत सस्ते में विदेशों को भेजा गया और वहाँ से तैयार माल ऊँची दरों में लाया गया और इस क्रम में भारतीय राजकोष का बहुत बड़ा अंश लुटा दिया गया। इस प्रकार 1858 से 1947 तक इंग्लैंड ने जो भी लूट भारत की की थी, उससे कई गुना अधिक माल और धन भारत का 75 वर्षों में लुटा दिया गया है। क्या जी 20 सम्मेलन में इस व्यापारिक असंतुलन को संतुलित करने पर कोई विचार किया जायेगा? क्योंकि तभी तो 'वसुधैव कुटुम्बकम’ नाम सार्थक होगा।
अभी तक जो स्थिति है उसमें 6 एजेंडा ही मुख्य हैं -
·     हरित विकास, जलवायुगत वित्तव्यवहार और जलवायुगत जीवन की दशा पर विचार।
·     2030 तक टिकाऊ विकास के स्वरूप एवं कार्यक्रमों के निर्धारण के लक्ष्य पर विचार।
·     प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और डिजीटल सार्वजनिक संरचना।
·     बहुआयामी संस्थाओं का आगामी समय के लिये विकास।
·     वृद्धिदर को समेकित रूप से तीव्र करने पर विचार और
·     स्त्रीशक्ति के नेतृत्व में विकास पर विचार।

न्यायपूर्ण और संतुलित विकास हो

स्पष्ट है कि इसमें सूत्र रूप में भले ही विकास की नीतियों को न्यायपूर्ण और संतुलित बनाने का विचार निहित है परंतु उस विचार की स्पष्ट घोषणा नहीं है। टिकाऊ विकास के स्वरूप और कार्यक्रमों के निर्धारण के समय इस पक्ष पर विचार किया जा सकता है। सत्य तो यह है कि आकर्षक नारे के रूप में सम्पूर्ण पृथ्वी को एक कुटुम्ब के रूप में घोषित करना अलग बात है, अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियों का कोई भी व्यवहार अभी तक उसके अनुरूप नहीं रहा है। समस्त अन्तर्राष्ट्रीय संस्थायें भी यूरोप और अमेरिका के पक्ष में तथा विश्व के अन्य देशों के विरोध में अनेक प्रावधानों वाली हैं। गांधीजी के समय से ऊँची घोषणाओं का उपयोग अपनी हीनता को ढंकने और स्वयं को समकक्ष दिखाने की चेष्टा के रूप में होता रहा है। इसका उपयोग करके विगत 75 वर्षों में अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियों के भारतीय एजेंटों ने भारत की हीनता को ही गौरव की वस्तु की तरह प्रचारित किया है। परन्तु मोदी जी के आने के बाद से स्थिति बदली है और हम आशा करते हैं कि अब इस वसुधा को कुटुम्ब मानने का आग्रह अर्थात न्यायसंगत नीतियों का आग्रह वस्तुत: किया जायेगा। 

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