आयुर्वेदानुसार 'ग्रीष्म  ऋतुचर्या’

आयुर्वेदानुसार 'ग्रीष्म  ऋतुचर्या’

भारतवर्ष में ग्रीष्म ऋतु ज्येष्ठ और आषाढ़ मास तक प्रचंड अवस्था में होती है। यह आदान काल (Summer solstice) का मध्य समय होता है जिसमें सूर्य अपनी प्रचंड किरणों से पृथ्वी एवं मनुष्य के स्नेह (जल) का शोषण करता है। धरती पर छोटे जल स्रोत सूखने लगते है, पेड़- पौधों में प्राकृतिक जल की अनुपलब्धता के कारण सूखापन आने लगता है। मनुष्यों में अत्यधिक दुर्बलता का अनुभव होने लगता है एवं बेचैनी महसूस होती रहती है, क्योंकि बाहरी तापमान अधिक होता है। आयुर्वेद की अवधारणानुसार हमारे भोजन का हमारे समग्र स्वास्थ पर सीधा प्रभाव पड़ता है। ऋतुओं को शरीर में वात दोष, पित्त दोष व कफ दोष देने की विशेषता हैं। गर्मी का मौसम गर्म, उज्जवल और तेज होता है इसलिए पित्त दोष वाली प्रकृति वाले व्यक्तियों को शीतलता प्रदान करने वाले भोज्य पदार्थों का सेवन करना चाहिये जिससे उनकी पाचन शक्ति सामान्य रह सकें। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी दैनिक दिनचर्या एवं जरूरत अनुसार भोजन ग्रहण करना चाहिये। यह स्वास्थ्य के लिए उत्तम होता है। आहार सेवन का नियत समय होने से मनुष्य को किसी प्रकार के रोग नहीं होते है। भोजन सदैव भूख लगने पर ही करना चाहिये, जब पहले से किए गए भोजन का अंश जीर्ण या पच गया हो एवं पेट में किसी भी प्रकार का भारीपन या दर्द नहीं होना चाहिये। समय पर भोजन न करने से पित्त प्रकुपित हो जाता है एवं नियत समय के पश्चात भोजन करने से वात प्रकुपित हो जाता है, जिससे शरीर में कमजोरी, थकावट, दर्द, वर्ण में विकार उत्पन्न हो जाते हैं। आहार की मात्रा जोकि शरीर को पूर्ण रूप से संतुलित भोजन प्रदान कर सकें, उतनी ग्रहण करनी चाहिये। हर मुनष्य में इसकी आवश्यकताएँ अलग-अलग होती है। विशेषज्ञों के अनुसार संतुलित भोजन जिसे हम Balanced diet भी कहते हैं, उनके विभिन्न घटक जैसे कार्बोहाईड्रेट, प्रोटीन, वसा, खनिज एवं लवण की मात्रा भी जीवन कालानुसार विभाजित की गई है। पुरुष, स्त्री, बालक, वृद्ध व्यक्ति, गर्भावस्था के दौरान इनकी मात्रा अलग-अलग हैं। इसके अलावा प्रत्येक वर्ग की शारीरिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए भी इन घटकों की मात्रा कम या ज्यादा की जाती है। ग्रीष्म ऋतु में साधारणतय: पथ्य आहार में स्निग्ध द्रव्य अर्थात् घृत, तैल आदि से बने भोजन का सेवन उचित मात्रा में करना चाहिये, जिससे हृदय रोग, मोटापा और अन्य विकार कम होते हैं क्योंकि जठराग्नि की तीव्रता आहार को सुगमता से पचा देती है एवं सही पाचन से सही उर्जा शरीर को बलशाली एवं स्वस्थ रखती है। स्निग्ध पदार्थों का सेवन त्रिदोष का भी नाश करता है। सदैव ताजा एवं गर्म पका भोजन ही ग्रहण करना चाहिये, ग्रीष्म ऋतु में अधिक समय तक रखा हुआ खाना, विभिन्न जीवाणुओं का भी भोजन बन जाता है जोकि विभिन्न बीमारियों के भी जनक होते है। फ्रिज में भी काफी समय तक रखा हुआ भोजन भी हितकर नही है।
  • वात प्रकृति वाले व्यक्तियों के लिए सूखे मेवे जैसे- खजूर, अंजीर, किशमिश, खुबानी, सेब, अनार, तरबूज, नाशपाती अपथ्य फलों की श्रेणी में आते हैं। इसके अलावा विभिन्न शीत गुण वाली सूखी सब्जी भी अपथ्य है जैसे- करेला, ब्रोकली, कच्ची बंदगोभी, फूलगोभी, मक्का, बैंगन, मशरूम, कच्ची प्याज, आलू, काली मिर्च, मूली, बाजरा, कूटू, साबूदाना, अरहर, सोयाबीन, लोबिया, ठंडा दही, बकरी का दूध, चॉकलेट, कैफीनयुक्त विभिन्न पेय इत्यादि। इसी प्रकार पित्त प्रकृति के लोगों के लिए सभी प्रकार के खट्टे फल जैसे- विभिन्न बैरी (क्चद्गह्म्ह्म्द्बद्गह्य)  चैरी, हरे अंगूर, नींबू, संतरा, खट्टा पाइनएप्पल, प्लम, इमली, सब्जियाँ जैसे- चुकंदर, मक्का, बैंगन, लहसुन, प्याज, लाल मिर्च, मूली, कच्चा पालक, टमाटर, शलजम इत्यादि अनाज जैसे- कूटू, मक्का, भूरे चावल, मूसली, ओट्स, उड़द दाल, अरहर दाल, नमक युक्त मक्खन, छाछ, पनीर इत्यादि अपथ्य भोज्य में शामिल किए गए हैं। इनके अलावा कुछ और भी अपथ्य भोज्य सामग्री है जिसका विवरण यहाँ नहीं किया जा रहा है क्योंकि भारतवर्ष की भौगोलिक एवं जलवायु विविधता के कारण यह संख्या असीमित हो जाती है। उचित मात्रा में, उचित प्रकार से पथ्य आहार को ग्रहण करने के अलावा अपनी दैनिक दिनचर्या का भी ध्यान रखना हितकर होता है।
  • मध्य दोपहर में वन या बगीचे में शीतल वृक्षों की छाया में बैठकर सुशीतल फल जैसे- तरबूजा, खरबूजा, आम इत्यादि का सेवन करना चाहिये। मौसमी फलों का ही सेवन करना चाहिये, तले-भुने पदार्थों का त्याग करें। दुर्बलता एवं बेचैनी को कम करने के लिए स्निग्ध एवं मीठे आहारों का सेवन करना चाहिये किन्तु दुर्बलता के लिए हल्के सुपाच्य और तरल पदार्थों का सेवन ही श्रेयस्कर है। मधुर रसयुक्त शीतल द्रव्य जैसे- शरबत, जूस, चीनी मिलाकर पानी में घुला सत्तू, कच्चे आम का पन्ना, तैल आदि से बनें भोज्य पदार्थ हितकारी होते है। घी, दूध और शालि चावल का भात या चावल को खाने से ऋतु संबंधी विकार उत्पन्न नहीं होते हैं। ग्रीष्म ऋतु में दिन के समय शीतल गृह में या आजकल की तरह वातानुकूलित कक्ष एवं रात्री में चंद्रमा की किरणों में खुले स्थान जैसे कक्ष की छत पर सोना चाहिये। शहरों की अपेक्षा यह गाँवों में आज भी प्रचलित है। सोने से पहले शरीर पर सुगंधित पदार्थों से लेप करना चाहिये। लेप करने के लिए नारियल तेल अथवा मिश्रित तेल जोकि नारियल का तेल, चमेली का तेल, पिपरमिन्ट इत्यादि से बनाया हो, उसका उपयोग कर सकते है। आयुर्वेदानुसार संम्पूर्ण शरीर की सुगंधित तेल से मालिश (अभ्यांग) द्वारा नाड़ी संचार में तीव्रता आती है एवं रक्त संचालन तेज गति से होता है, जो त्वचा के पोषण में सहायक होता है एवं शरीर में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में सहायक होता है। चंदन का तेल, कपूर मिश्रित, देशी गुलाब का तेल, बादाम का तेल अभ्यांग में अत्यधिक प्रचलित है।
  • इस प्रकार प्रत्येक ऋतु अनुसार पथ्य एवं नियत आहार सेवन करने से व्यक्ति रोग ग्रसित नहीं होता है और यदि हो जाए तो स्थिति के अनुसार परहेज करने पर स्वत: स्वस्थ हो जाता है। यदि व्यक्ति रोगी है और औषधि का सेवन भी कर रहा है किन्तु पथ्य व अपथ्य का ध्यान नहीं रखता है तो वह जल्दी स्वस्थ नहीं हो पाता है। उचित मात्रा, देश, ऋतु आदि का विचार करके पथ्य आहार का सेवन हितकारी होता है क्योंकि शरीर अन्नमय है।

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नोट: सुझाए गए भोजन की मात्रा ज्यादा व कम की जा सकती है एवं आवश्यकतानुसार बदलाव भी किया जा सकता है, जो कि पूर्णरूप से व्यक्ति पर निर्भर रहेगा। 

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