विधि के मूल मंत्र: संसार और भारत में
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प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
इंग्लैंड का कोई लिखित संविधान नहीं है परंतु फिर भी प्रोटेस्टेंट ईसाइयत नामक पंथ के नियम और रीति-रिवाज इंग्लैंड के अलिखित संविधान के मूल आधार हैं। यद्यपि इंग्लैंड में विधियां संहिताबद्ध नहीं हैं और भलीभांति क्रमबद्ध भी नहीं हैं तथापि इंग्लैंड की संवैधानिक विधि के स्रोत भली-भांति परिभाषित हैं। संवैधाानिक निरूढ़ियाँ (कन्वेन्शंस) ही ब्रिटिश संविधान का स्रोत हैं। ये संवैधानिक 'कन्वेन्शंस’ वस्तुत: प्रौटेस्टेंट ईसाइयत से प्रेरित रीतियों और रिवाजों तथा रस्मों एवं प्रौटेस्टेंट ईसाई चर्चों के मध्य हुये विविध समझौतों से निगमित हैं। इस प्रकार बहुमत का 'रिलीजन’ ही ब्रिटिश संविधान का आधार है। इंग्लैंड 'सेक्युलर राज्य’ नहीं है। इसी प्रकार संयुक्त राज्य अमेरिका भी सेक्युलर राज्य नहीं है। वह ख्रीस्त पंथ के प्रति निष्ठावान राज्य है जो विगत लगभग 75 वर्षों से अन्य पंथों के प्रति भी एक सीमा तक उदार है। संयुक्त राज्य अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट सहित सभी कोर्ट के जज जब तक शासन के अनुसार 'गुड बिहेवियर’ करते हैं, तभी तक वे पदों पर रह सकते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के शत्रुओं की सहायता करने वाला कोई भी व्यक्ति राष्ट्रद्रोह का अपराधी है और मृत्युदंड का पात्र है।
वस्तुत: संविधान की मूल सार्थकता इसमें है कि शासन का संचालन कतिपय मान्य नियमों के अनुसार हो। अनेक लिखित विधियों के आधाार पर ही शासन यंत्र का संचालन हुआ करता है। इंग्लैंड में एक समूह के रूप में सर्वाधिक अधिकार प्राप्त है इंग्लैंड का चर्च जो प्रोटेस्टेंट ख्रीस्त पंथ का चर्च है। चर्च के संबंध में इंग्लैंड के सम्राट का भी परमाधिकार सीमित है। वे चर्च की आंतरिक व्यवस्थाओं में कोई परिवर्तन नहीं कर सकते। ब्रिटिश समाज के शेष अधिकार संसदीय लोकतंत्र में मान्य परंपराओं के अनुसार हैं।
संयुक्त राज्य अमेरिका में भारत की ही तरह लिखित संविधान है। संयुक्त राज्य की कांग्रेस में समस्त विधायी शक्तियाँ निहित हैं। कांग्रेस के दो भाग हैं - सीनेट और प्रतिनिधि सभा। प्रतिनिधि सभा में राज्य के मतदाताओं द्वारा हर दो साल बाद प्रतिनिधि चुने जाते हैं। सीनेट में हर राज्य से दो-दो सीनेटर चुन कर आते हैं। राष्ट्रपति की कार्यकारी शक्तियाँ सर्वोच्च हैं। ख्रीस्त पंथ के सामान्य आधारों पर ही संयुक्त राज्य अमेरिका का संविधान आश्रित है। इस प्रकार वह एक 'रेलिजस’ नेशन स्टेट है, सेक्युलर राज्य नहीं है।
अफ़गानिस्तान का संविधान इस्लाम मजहब को परम पवित्र मानकर कुरान में प्रतिपादित अल्लाह पर सम्पूर्ण आस्था रखता है और कुरान के ही अनुसार शासन करने की प्रतिज्ञा करता है परंतु साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा पारित कानूनों के भी सम्मान की बात करता है।
बांग्लादेश का संविधान अल्लाह का नाम लेकर बिस्मिल्लाह अर्थात् आरंभ करता है और समाजवादी समाज की स्थापना की बात करता है। जाहिर है कि बांग्लादेश नेशन स्टेट में कुरान के अनुसार शासन ही समाजवादी शासन है। यह यूरोप में प्रचलित और प्रसिद्ध समाजवाद के सभी सिद्धांतों से नितांत विपरीत एक अनोखा समाजवाद है, जहाँ मजहब के प्रति ईमान लाने को ही समाजवाद कह दिया गया है। यह इनका नितांत निजी और मनमाने तौर पर परिकल्पित समाजवाद है। जो मजहब का ही दूसरा नाम है अर्थात् पालन मजहब का करना है और उसे कहना समाजवाद है।
पाकिस्तान का संविधान घोषणा करता है कि यह समस्त संसार कुरान में प्रतिपादित अल्लाह का ही है और पाकिस्तान पवित्र कुरान के अनुसार ही आचरण करेगा। पाकिस्तान की वर्तमान सीमाओं में भी और भविष्य में जो भी क्षेत्र पाकिस्तान के कब्जे में आते जायेंगे, उन सबमें भी इस्लाम मजहब का ही शासन होगा, यह पाकिस्तान का संविधान विधिक पदावली में घोषणा करता है। इस प्रकार पाकिस्तानी शासन का लक्ष्य है विश्वभर में ऐसे इस्लाम का प्रचार करना जो शासकों के अनुसार सच्चा इस्लाम है।
सऊदी अरब के संविधान के अनुसार कुरान और पैगम्बर मुहम्मद साहब का सुन्ना (मुहम्मद साहब द्वारा चलाई गई परंपरायें) ही सऊदी अरब का संविधान है। यही बात अन्य मुस्लिम नेशन स्टेट्स पर लागू होती है। सभी में कुरान तथा उसमें प्रतिपादित अल्लाह के आदेशों के पालन की घोषणा की गई है।
मूल बात यह है कि विश्व के सभी महत्वपूर्ण समाजों में विधि का मूल स्रोत सबके अपने धर्मशास्त्र या शास्त्र या 'होली बुक’ अथवा 'पाक किताब’ हैं। साथ ही मुख्य समाज या बहुसंख्यक समाज की अपनी प्रथायें, परम्परायें और रीति-रिवाज विधि का मूल स्रोत हैं। कहीं भी बहुसंख्यक समाज के द्वारा मान्य शास्त्रों, परम्पराओं तथा रीतियों एवं प्रथाओं से भिन्न किसी शासनकर्ता समूह की इच्छाओं को विधि का स्रोत नहीं माना गया है। यदि शासक अपने या अपने समूह के मनोभावों और लालसाओं से प्रेरित होकर मुख्य समाज के शास्त्रों, मान्यताओं और परम्पराओं का विरोधी कोई कानून बनाने का प्रयास करते हैं तो उसे अवैध और अमान्य ही कहा तथा माना जाता है। यह विधि के स्रोतों के विषय में सर्वमान्य तथा सार्वभौम नियम है। केवल कम्युनिस्ट शासनों में शासक दल के लोगों की इच्छाएं ही विधि का स्रोत मान ली जाती हैं और इसीलिये कम्युनिस्ट शासन जनगण के व्यापक दमन पर ही निर्भर करता है। क्योंकि ऐसे दमन के बिना कोई भी समाज अपनी परम्पराओं और अपने शास्त्रों तथा अपने रीति-रिवाजों का दमन और हनन सहन नहीं करता। सम्पूर्ण विश्व में जीवन का प्रयोजन सबके अपने-अपने शास्त्रों से ही निर्धारित माना जाता है और अपनी आस्था तथा मान्यतायें और परम्परायें ही विश्वभर में ऐसे आदर्श माने जाते हैं जिनके लिये जीना और जीवन समर्पित कर देना सर्वोच्च लक्ष्य और सराहनीय कार्य माना जाता है। धर्म या मजहब या रिलीजन के लिये प्राण तक दे देने को लोग सहर्ष तैयार रहते हैं। यही सार्वभौम मानवीय प्रवृत्ति है। अत: शासकों की अपनी इच्छायें और लालसायें विधि का स्रोत कहीं भी मान्य नहीं हैं। कम्युनिस्टों ने इन्हें मान्य कराने का प्रयास किया परंतु इसके लिये व्यापक हिंसा और हत्यायें तो करनी ही पड़ी, व्यापक झूठे प्रोपेगंडा का भी सहारा लेना पड़ा और लोगों के मन-मस्तिष्क को प्रभावित एवं रूपान्तरित करने के लिये बहुत बड़े स्तर पर कार्य किये गये। गुप्तचरी, उत्पीड़न और दमन के विराट आयोजन के बाद भी सोवियत संघ में कम्युनिस्ट शासन उखाड़ फेका गया क्योंकि वह जनगण के द्वारा मान्य शास्त्रों, आस्थाओं और परम्पराओं तथा मान्यताओं का विरोधी था और उनका दमन कर रहा था। अत: विधि के स्रोत जनगण की आस्थायें, मान्यतायें और परम्परायें तथा शास्त्र और सर्वमान्य लोगों का आचरण एवं प्रतिमान ही होते हैं।
भारत में विधि के स्रोतों पर विचार करने का कार्य अत्यन्त प्राचीन समय से होता रहा है। उपलब्ध प्राचीन ग्रन्थों में महाभारत, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, मार्कण्डेय पुराण, मत्स्य पुराण, शुक्रनीति एवं शुक्र नीतिसार, कामन्दक नीतिसार, मनु स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, बृहस्पति स्मृति, विष्णु धर्मसूत्र आदि में विधि के स्रोतों की विवेचना है। विवेचना का यह क्रम 16वीं शताब्दी ईस्वी में राजा प्रतापरुद्रदेव, श्री गोविन्दानन्द, श्री नारायण भट्ट, श्री रघुनन्दन और नन्द पंडित की रचनाओं में पाया जाता है तथा 17वीं शताब्दी ईस्वी की रचनाओं - निर्णयसिन्धु, व्यवहारमयूख, नीतिमयूख, राजधर्म कौस्तुभ आदि और 18वीं शताब्दी ईस्वी की रचनाओं - धर्मसिन्धु एवं राजनीति प्रकाश तथा याज्ञवल्क्य स्मृति की मिताक्षरा टीका पर बालम्भट्टी टीका में यह विवेचना जारी रही।
स्वयं राजा शब्द समाज से शासक के संबंध के आधार को स्पष्ट कर देता है। 'राजृ दीप्तौÓ धातु से राजा शब्द की उत्पत्ति है जिसका अर्थ है कि जो अपने समाज में शोभित और प्रकाशित हो, वही राजा है। इसे ही 'राजा प्रकृति रंजनात’ भी कहा गया है। महाभारत का शांतिपर्व कहता है -
'लोकरंजनमेवात्रा राज्ञां धर्म: सनातन:।‘ (शांति पर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व 57/11)
मार्कण्डेय पुराण में कहा है -
राज्ञां शरीरग्रहणं न भोगाय महीपते। क्लेशाय महते पृथ्वीस्वधर्मपारिपालने।। (130/33-34)
(अर्थात् राजा का शरीर भोग के लिये नहीं है। यह तो पृथ्वी के प्रति स्वधर्म का पालन अर्थात् राजधर्म का पालन करने के लिये महान कष्ट सहन करने के लिये ही मिला है।)
वस्तुत: धर्मशास्त्रों में विधि का स्रोत शास्त्र एवं परम्परायें तथा श्रेष्ठ लोगों का आचरण ही कहा गया है। राजा के द्वारा जो विधान बनाने का निर्देश है वह उन शास्त्रों और परम्पराओं के पालन संबंधी विधान बनाने का ही है। धर्मशास्त्र और लोक व्यवहार तथा श्रेष्ठ जनों के चरित्र एवं राजशासन इन चार के आधार पर ही राजकार्य चलता था। न्यायनुशासन राजा का सबसे पवित्र कर्तव्य है। न्याय वही है जो धर्मशास्त्र में वर्णित है तथा परम्पराओं से अनुमोदित है। न्यायालय को धर्मशास्त्रों में इसीलिये धर्मासन या धर्मस्थान अथवा धर्माधिकरण कहा जाता रहा है। कालिदास ने भी शकुन्तलम् धर्मासन शब्द का प्रयोग किया है और कविवर भवभूति ने भी। इससे पता चलता है कि हजारों वर्षों तक इसी शब्द का प्रयोग होता रहा है। राजा की अर्थात् शासन की उपयोगिता समाज में मान्य धर्म के पालन को सुनिश्चित कराने में ही है। इसके लिये धर्म का उल्लंघन करने वालों को कठोर दंड देने की व्यवस्था धर्मशास्त्रों में है और उस दंड को सुनिश्चित करना अर्थात् धर्मशास्त्र की आज्ञा को व्यवहार में लागू करना राजा का कार्य है। विवाद का अर्थ ही है जहाँ किसी विषय पर 'विÓ अर्थात् विविध प्रकार के वाद या पक्ष या मत उपस्थित हों। उस विवाद का धर्मानुकूल निपटारा करना ही न्यायिक निर्णय है।
यदि शासकों का कोई वर्ग या समूह या पंथ अपनी वैचारिक अवधारणाओं और योजनाओं तथा मानसिक तरंगों एवं लालसाओं को ही विधि का स्रोत मान बैठता है तो ऐसा शासन न तो लोकतांत्रिक कहा जा सकता और ना ही धर्ममय। अपनी विदेश प्रेरित या विधर्म प्रेरित आस्थाओं और मान्यताओं को समाज पर आरोपित करना वैचारिक एकाधिकारवाद (डिक्टेटरशिप) है। अपने मन से या किसी विदेशी प्रेरणा से रचित विधि की कोई भी पुस्तक लोकतांत्रिक शासन का प्रतिनिधि विधान या विधि स्रोत नहीं हो सकता।
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