हारमोंस, ग्रंथियों में छिपे स्वस्थ-निरोग लम्बी जिंदगी के रहस्य

हारमोंस, ग्रंथियों में छिपे  स्वस्थ-निरोग लम्बी जिंदगी के रहस्य

डॉ. नागेन्द्र कुमार नीरज, निर्देशक-योगग्राम

  अमेरिका की इडाहो यूनिवर्सिटी के प्राणिशास्त्री 'स्टीव ऑस्टेडने अनुसंधान कर दावा किया है कि 2000 ई. में जन्मा उनका वारिस २१५० तक यानी १५० वर्ष तक जिन्दा रहेगा। डॉ. आस्टेड का मानना है कि कई प्राणियों की उम्र में तिगुनी वृद्धि हुई है, तो मनुष्य की औसत उम्र भी उसी रफ्तार से बढ़ेगी। यद्यपि शिकागो यूनिवर्सिटी के सेन्टर ऑफ एजिंग के अनुसंधानकर्ता 'एस. जय औल्शैस्कीका मानना है कि मनुष्य की औसत आयु बढ़ रही है तथा बढ़ेगी, किन्तु उतनी नहीं जितना ऑस्टेड दावा करते हैं। कैलिफोर्निया स्थित 'बक इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्चके वैज्ञानिक साइमन मैलोव ने ऑस्टेड के आशावादितापूर्ण कथन एवं प्रयोग को महत्वपूर्ण करार दिया। उनका मानना है कि भोजन में कैलोरी कम करके तथा दीर्घ जीवन प्रदान करने वाले पोषक तत्वों को बढ़ा कर जीवन डोर लम्बी खींची जा सकती है।
सी क्रम में 'कनेक्टीकट यूनिवर्सिटीके वैज्ञानिकों ने एक 'फ्रूट फ्लाईके जीन में परिवर्तन कर उसका जीवन ३७ दिन से बढ़ाकर ७० से ११० दिन करने में सफलता पाई है। अगर इसी तरह का कोई जीन मानव में परिवर्तित कर दिया जाये, तो ऑस्टेड के कथन को सत्य होने से कोई भी नहीं रोक पायेगा।
यद्यपि किसी भी प्राणी की स्वाभाविक आयु वयस्क होने में लगे कुल समय का छह गुणा मानी जाती है। इस प्रकार व्यक्ति२५ वर्ष में वयस्क होता है, तो उसकी स्वाभाविक आयु १५० वर्ष होनी ही चाहिए, जो यौगिक क्रियाओं द्वारा संभव भी है।
अंत:श्रावी ग्रंथियों का रहस्य:
इस संकल्पना पूर्ति में शरीर की अंत:स्रावी ग्रंथियों का विशेष महत्व है। कभी-कभी ये ग्रंथियाँ अराजक एवं असंतुलित ढंग से कार्य करने लगती हैं। जिसके दुष्परिणामस्वरूप ही बौनापन, दैत्याकार शरीर, बाल्यावस्था (८-९ वर्ष) में ही गर्भधारण, बुढ़ापा, अस्थि विकृति स्त्रियों को मूँछें आना व पुरुषों में मूँछें नहीं आना, लिंग परिवर्तन, काम-वासना की अत्यधिक उत्तेजना अथवा पूर्ण निष्क्रियता आदि अनेक प्रकार की विचित्रताएँ परिलक्षित होती हैं। जबकि योगाभ्यास से इनमें संतुलित स्राव होने के प्रमाण मिले हैं, तब साधारण से साधारण मानव महामानव बनने में समर्थ होगा। ये रहस्यमयी अंत:स्रावी ग्रंथियाँ निम्र हैं-
पिट्यूटरी ग्रंथि- इससे ६ प्रकार के नियंत्रक तथा कुछ अन्य प्रकार के हार्मोन निकलते हैं, जो जीवन की समस्त क्रियाओं को प्रभावित करते हैं। इसके द्वारा अन्य ग्रंथियाँ भी नियंत्रित होती हैं। इसलिये इसे रानी ग्रंथि भी कहा जाता है। इसमें कुछ हार्मोन का स्राव कम होने से बौनापन, मोटापा तथा अधिक स्राव से दैत्याकार शरीर (जिम्नाटिज्म) एवं एक्रोमिगली हो सकती है। निकलने वाले हार्मोन जीव विकास, शारीरिक जल समतोल, रक्तचाप, पेशाब नियंत्रण, गर्भाशय कुंचन को प्रभावित करते हैं। इसकी स्थिति मस्तिष्क में, हाइपोथेलेमस के पास है।
पिनियल ग्रंथि- योगियों ने इसे तीसरी आँख (आज्ञाचक्र) कहा है। सन् १९५८ में येल मेडिकल स्कूल के बी. लर्नर ने पिनियल से 'मेलेटोनिनहार्मोन को पृथक् कर इसके महत्व को सार्वभौम बनाया। यह हार्मोन भय, क्रोध एवं अन्य भावनात्मक संवेगों को नियंत्रित करता है। युवावस्था के साथ ही यह अपना कार्य पिट्यूटरी ग्लैण्ड को सौंप देता है। मन:चिकित्सक डेनियल ने एक अन्य 'सेरोटेनिनहार्मोन को इससे पृथक् किया, जिसकी संरचना एल.एस.डी. से मिलती है। यह ग्रंथि भूमध्य में स्थित है। केला, खजूर आदि मीठे फलों को खाने से सेरोटेनिन का स्राव बढ़ जाता है, जिससे तनाव, उदासी एवं अनिद्रा की शिकायत दूर होती है।
थायरॉयड ग्रंथि- इससे 'थायरॉक्सिनहार्मोन निकलता है। इसके कम निकलने से बच्चों में जड़ वामनता, प्रौढ़ों में मिक्सोडमा नामक भयंकर रोग होते हैं। शारीरिक व मानसिक विकास रुक जाता है। चिड़चिड़ापन, कब्ज, बाल झड़ना, मोटापा, पेशियों की कमजोरी, शिरोवेदना, आलस्य आदि लक्षण दिखते हैं। आधारभूत चयापचय (Basal Metabolism) कम हो जाता है। ऐसी स्थिति में कृत्रिम थायरॉक्सिन दिया जाता है, जो हानिकारक साबित होता है। जैसे रक्तमें थायरॉक्सिन बढ़ने से चयापचय की क्रिया, ऊतकों द्वारा दहन क्रिया, शरीर का तापक्रम, पसीना निकालने की क्रिया तीव्र हो जाती है।
पैराथायरॉयड ग्रंथि- यह थायरॉयड के पीछे चार पिण्डक के रूप में होता है। इससे पैराथायरॉयड हार्मोन निकलता है। इसकी कमी से कैल्शियम तथा फॉस्फोरस चयापचय अव्यवस्थित हो जाता है, जिससे हड्डियाँ अच्छी तरह विकसित नहीं होतीं।
थायमस ग्रंथि- बच्चों में यह वृषण से सम्बन्धित है। वैज्ञानिकों का खोजी दल इस ग्रंथि से निकलने वाले 'थायमोसिनहार्मोन की चमत्कारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता को देखकर आश्चर्यचकित हैं। स्व. अब्राहम व्हाइट तथा डॉ. गोल्डस्टीन ने १९६६ ई. में थायमोसिन की खोज की। इस समय १५० से भी अधिक खोजी दल इस नैसर्गिक औषधि पर कार्यरत हैं। यह शरीर में टी-लिम्फोसाइट्स नामक एक प्रबल कीटाणुनाशक रसायन बनाती है, जो शरीर की प्रतिरक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ एवं सशक्तबनाती है। प्रयोगों से देखा गया है कि थायमोसिन की कमी से बच्चों में शारीरिक विकास का धीमा पड़ना, शीघ्र ही रोगों के चंगुल में फँसना, कैन्सर, नपुंसकत्व, शीघ्र मृत्यु आदि अनेक घातक रोग हो जाते हैं। २५ से ५५ वर्ष की उम्र के बीच थायमोसिन का निकलना कम होने लगता है। यद्यपि इसकी सक्रियता से व्यक्तिसदा युवा बना रह सकता है।
लैंगरहैन्स द्वीप गंथि- पैंक्रियास में एक द्वीप आकार की संरचना होती है, जिसमें अल्फा, बीटा, डेल्टा और थीटा कोशिकाएँ होती हैं। इनमें पृथक्-पृथक् हार्मोन निकलते हैं। अल्फा व बीटा कोशिकाओं से एक-दूसरे के भिन्न गुण वाले ग्लुकोन तथा इन्सुलिन हार्मोन निकलते हैं। ये शर्करा की चयापचय क्रिया को प्रभावी बनाते हैं।
एड्रीनल ग्रंथि- यह गुर्दे के ऊपरी सिरे पर स्थित होता है। इसके बाहरी भाग कार्टेक्स से 'कार्टिनया एड्रिनो कार्टिकल हार्मोन निकलता है। काॢटन हार्मोन कोलेस्ट्रॉल से बनता है, पर हाइड्रो साइक्लोपेन्टाटेनोफेनानथेरिन मूल पदार्थ से एड्रीनल कार्टेक्स, कार्टिसोल, कार्टिकोस्टेरॉन नामक ग्लूको कोर्टिकॉयड्स हार्मोन पैदा करता है जो कार्बोहाइड्रेट के चयापचय को नियंत्रित एवं नियमित करता है। दूसरा एल्डोस्टेरॉन, डिहाइड्रोएपियनड्रोस्टेरॉन नामक मिनरल्स कॉर्टिकोइड्स हार्मोन निकलता है, जो सोडियम तथा पोटेशियम के चयापचय को सुधारता है। तीसरे ग्रुप में एड्रोजेन्स (१७ कीटोस्टोरोइड्स), एस्ट्रोजेन्स (एस्ट्राडिओल) तथा प्रोजेस्टीन्स (प्रोजेस्टेरॉन) हार्मोन पैदा करता है। तीसरे ग्रुप के तीनों हार्मोन प्रजनन प्रक्रिया में भाग लेते हैं। रक्तके लवणों में संतुलन बनाये रखने, शर्करा के चयापचय, गौण लैंगिक लक्षणों का विकास, पुरुषत्व की वृद्धि, भ्रूणावधि के परिवर्द्धन व विकास आदि कार्यों का सम्पादन इन हार्मोनों द्वारा होता है।
और भी बड़े काम की एड्रीनल ग्रंथि:
इसी ग्रंथि से स्रावित हारमोंस की कमी से एडीसन व्याधि होती है, जिससे भयानक पेशीय क्लान्ति, मानसिक अवसाद, त्वचा का पीलापन, पाचन-संस्थान की गड़बड़ी तथा निम्र रक्तचाप आदि लक्षण दिखते हैं।
एड्रीनल ग्रंथियों के मध्य भाग मेडूला से एड्रीनल (C3H2O3N) नारएड्रीनलिन, कैटेकोलामिन तथा डोपामिन हार्मोन निकलते हैं। एड्रीनल (एपिनेफ्रिन) हार्मोन प्लीहा त्वचा की रक्तवाहिनियों को संकुचित करता है। अस्थि, माँसपेशियों को फैलाता है। दिल की धड़कन को बढ़ाता है। साँस की नलियों को खोलता है। फेफड़ों की माँसपेशियों को शिथिल करता है। यकृत में संचित ग्लाइकोजिन को ग्लूकोज में बदलने के लिये प्रेरित करता है। खून में फैटी एसिड को बढ़ाता है। आमाशय एवं आँत की प्रक्रिया को विक्षुब्ध करता है। नारएड्रीनलिन (नारएपिनेफ्रिन) हार्मोन सूक्ष्म धमनियों एवं शिराओं को संकुचित करता है। रक्तप्रवाह की प्रतिरोध शक्तिकी वृद्धि करता है। रक्तचाप बढ़ाता है। हृदय गति को मंद करता है। डोपामिन धमनियों को फैलाता है, कार्डियेक आउटपुट को बढ़ाता है। गुर्दे में रक्तप्रवाह को तेज करता है। कैटे कोलामिन शरीर के अन्य भाग से भी निकलता है। ये आरेखित पेशियों के संकुचन पर नियन्त्रण रखते हैं। इसका स्राव अधिक होने पर (चिन्ता व क्रोध के समय) उच्च रक्तचाप, तीव्र हृदय गति, मधुमेह, लार, आँसू, पित्त तथा पसीना तीव्र गति से निकलता है। भय, क्रोध, उत्तेजना, आत्महत्या, पागलपन, अनिद्रा जैसे लक्षण भी दिखते हैं। सिम्पेथैकि संस्थान के स्नायुओं से निकलने वाले हार्मोन 'सिंपेथिनतथा एड्रीनलिन हार्मोन की क्रियाओं में काफी समानता है। इसके प्रभाव से रक्तका थक्का बन जाता है। रक्त-वाहिनियाँ सँकरी हो जाती हैं, जिससे मस्तिष्क एवं हृदय सम्बन्धी अनेक विकृतियाँ दिखती हैं।
गोनड्स ग्रंथि- यह जननांग का आधार है। अण्डाणु एवं शुक्राणु के अतिरिक्तगोनड्स पुरुषों में पुरुष हार्मोन जैसे एण्डरोस्टिरोन, एण्ड्रोजन, टेस्टोस्टेरॉन तथा टेस्टोस्टिरोन तथा महिलाओं में इस्ट्रोन, एस्ट्रोजन, पोजेस्टिरोन तथा रिलैक्सिन महिला हार्मोन स्रावित करता है। इन हार्मोन्स के आधार पर ही पुरुष-स्त्री गुणों का विभाजन होता है। पुरुष हार्मोन के कारण ही दाढ़ी, मूँछ, भारी आवाज तथा शरीर का विशेष आकार-प्रकार, स्त्रियों के प्रति आकर्षण, युवा उमंग आदि गौण लैंगिक लक्षण पुरुषों में दिखते हैं। स्त्रियों में स्त्री हार्मोन से स्त्रीमद, रजोचक्र, स्तनों का विकास, रमणी प्रवृत्ति, नारी सुलभ उमंग, कामशक्तिव कमनीयता के गुण दिखते हैं। रिलेक्सिन हार्मोन प्रसव में सहायक होता है। कभी-कभी पुरुषों में स्त्री हार्मोन की अधिकता होने से उनमें स्त्रियोचित गुण तथा महिलाओं में पुरुष हार्मोन की अधिकता से पुरुषोचित गुण दिखते हैं। लिंग परिवर्तन इसी आधार पर होता है। मनोवैज्ञानिक एडलर काम सम्बन्धी शोधों से इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि सुन्दर, आकर्षक, कमनीय व्यक्तित्व होते हुए भी अनेक स्त्रियों में काम व रमणीयता का अभाव होता है, जिसके चलते उनका दाम्पत्य जीवन दु:खी रहता है।
आँतों का म्यूकस मेम्ब्रेन भी कोलेसिस्टोकाइनिन तथा सिक्रिटिन नामक हार्मोन पैदा करता है, जो भोजन की पाचन क्रिया को व्यवस्थित करते हैं।
योगाभ्यास से ग्रंथियों पर नियंत्रण:
वैज्ञानिकों का मत है कि योगाभ्यास के द्वारा इन हार्मोंस ग्रंथियों पर सहज नियंत्रण होता चलता है। अनुसंधानानुसार आसन करते समय प्रत्येक क्रिया के प्रति होश, अंतस् में साक्षी, चेहरे पर मुस्कुराहट होनी चाहिए। योगाभ्यासी कर्म + साक्षी भाव + मुस्कुराहट-अहंकार = कर्मयोग के समीकरण को सदैव स्मरण रखें अर्थात् प्रत्येक क्रिया के प्रति होश बनाकर रखना चाहिए। इस प्रकार से प्रत्येक यौगिक क्रिया संगीतपूर्ण होने लगती है। अंतस् में साक्षी भाव जाग्रत होता है और योगस्थ होने में न केवल सहायता मिलती है, अपितु जीवन रास्ते पर आने लगता है।
वस्तुत: योग का अपना विज्ञान है। शरीर के अंगों को यौगिक आसनों से विशेष प्रभावित होते सहज देखा जा सकता है।
जिस प्रकार मलमूत्र आदि दुर्गन्धित पदार्थ धरती से संयोग कर बीजों के माध्यम से पुष्पों में प्रविष्ट कर सुगन्ध में परिवर्तित हो जाते हैं, उसी प्रकार जीवन में प्रकट होने वाली क्रोध, हिंसा, द्वेष, विक्षिप्तता आदि दुष्प्रवृत्तियाँ योग द्वारा जीवन में क्षमा, अहिंसा, प्रेम, एकाग्रता, सहकारिता के पुष्पों में रूपान्तरित हो, जीवन को सुगन्ध व संगीत से भर देती हैं। योग दुष्प्रवृत्तियों का दमन नहीं, रूपान्तरण करता है। यही नहीं योगाभ्यास हारमोंस ग्रंथियों में संतुलन लाकर दीर्घ जीवन का मार्ग खोलता है। यह १५० वर्षीय जीवन का राज भी इसी में है।
 

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