अंतर की उत्कट चाह है तीव्र इच्छा
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आचार्य प्रद्युम्रजी महाराज
मनुष्य अच्छा-बुरा, धार्मिक-अधार्मिक, विद्वान्-मूर्ख, निर्धन-सधन, निर्बल-सबल, ज्ञानी-अज्ञानी, आदि इच्छा का ही प्रकट रूप है। मूलत: इच्छा रूपी बीज ही बाह्य परिस्थितियों से विकसित होता हुआ विशाल वृक्ष का रूप धारण कर लेता है। वैज्ञानिक तथ्य है कि बीज में जितनी अधिक शक्ति होती है, उतना ही वह नीचे गहराई में और ऊपर आकाश में अपनी विशालता को प्रकट करता है। जीवन के सन्दर्भ में भी इस इच्छा रूपी बीज की यही स्थिति है।
मानव जीवन में आने वाली समस्याएँ चाहे किसी भी स्तर की हों- आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक या मनोवैज्ञानिक, एकमात्र तीव्र इच्छा (Burning Desire) में ही उनका समाधान छिपा हुआ है। मनुष्य मात्र का यह स्वभाव है कि जब तक किसी काम को न करने से उसका काम चलता रहता है अथवा उसके स्थान पर किसी दूसरे सरल विकल्प (Alternative) के द्वारा सन्तोष प्राप्त करने की सम्भावना दिखाई देती रहती है, तब तक वह अपनी उस इच्छा का स्थगन किये रहता है। पर जब काम नहीं चलता, तो उसके लिए मन में तीव्र इच्छा उपस्थित होती है जो स्वाभाविक है। उस अवस्था में स्थगन के लिए कोई अवकाश नहीं रहता, न ही उसके स्थान में किसी अन्य विकल्प की ढूँढ-तलाश होती है। कम या ज्यादा रूप में प्रतिदिन ही यह विषय हम सबके अनुभव में आता रहता है।
पैर में काँटा लगने पर सब तरफ से अपने मन को हटाकर उसे निकालना ही होता है। जाने या अनजाने में हमारे शरीर का कोई भी अङ्ग मल-मूत्र से छू जाने पर कोई स्थगन की बात नहीं सोचता। आँख में कुछ कष्टदायक चीज धूल या मच्छर आदि गिर जाने पर उसे निकालने पर ही शान्ति आती है। उदर में पीड़ा बढ़ जाने पर चाहे रात्रि के 12 ही क्यों न बज रहे हों, तत्काल किसी भी उपाय से डॉक्टर के पास पहुँच ही जाते हैं। एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिलेगा जो यह सोचकर सन्तुष्ट हो जाए कि प्रात: काल देखेंगे। हाँ! अवश्य ही यह विचार तब आता है, जब पीड़ा कम हो और उसे प्रात:काल तक सहन किया जा सके ।
मान लीजिए कोई व्यक्ति कहीं जा रहा है। अमूल्य आभूषणों से भरा थैला उसके पास है। मार्ग में किसी कुएँ पर उसे प्यास लगी, वह पानी पीता है। कुछ देर विश्राम करने के बाद प्रमाद वश उस थैले को वहीं छोड़कर पाँच मील दूर निकल जाता है। अकस्मात् उसे ध्यान आता है कि ओहो! थैला तो वहीं कुएँ पर छोड़ आया। कल्पना की जा सकती है- उस व्यक्ति में अपना थैला प्राप्त करने के लिए कितना अधिक उत्कट संवेग पैदा होता है, ऐसी ही आन्तरिक उत्कट चाह का नाम है 'तीव्र इच्छा’। इसी का दूसरा नाम है अभीप्सा (Aspiration) जैसे कोई व्यक्ति प्यास से मर रहा हो, उस समय सब ओर से उसका मन हटकर एक मात्र जल पर केन्द्रित हो जाता है अथवा कोई व्यक्ति ओलम्पिक में किसी प्रतियोगिता में भाग ले रहा हो एवं उस समय उसके मन-प्राण-इन्द्रियों की समस्त ऊर्जा एक क्षण के लिए भी अपने लक्ष्य से इधर उधर विचलित नहीं होती, इस स्थिति का नाम है 'तीव्र इच्छा’।
घुटन जैसी व्याकुलता चाहिए:
इस विषय में प्रतिदिन हमारे अनुभव में आने वाला एक मां का उदाहरण है, माता कुछ काम कर रही है, छोटा बच्चा उसके पास है, बार-बार रुदन मचा कर माँ को उसके कार्य में विघ्न पहुँचा रहा है। माँ उसको शान्त करने के लिए उसके हाथ में एक खिलौना दे देती है। बच्चा कुछ देर के लिए चुप हो जाता है, पर कुछ समय बाद फिर पूर्ववत् रोना प्रारम्भ कर देता है। पहले, बालक को आँखों का विषय खिलौना (अक्षिलावण्य) दिया था। अब माँ उसके हाथ में दूसरी इन्द्रिय का विषय झुनझुना दे देती है। इस बार भी कुछ देर शान्त रह कर उसका फिर वही रुदन। माँ तीसरी बार इन्द्रिय का विषय एक पात्र में थोड़ा मधु उसके सामने रख कर चाटने के लिए प्रेरित करती है। बच्चा कुछ समय के लिए फिर शान्त हो जाता है, पर इन अनित्य साधनों से कहाँ उसकी तृप्ति होने वाली है? वह तो बार-बार माँ का अमृतरूप स्तन्यपान करने के लिए रुदन मचा पर वह माँ के द्वारा प्रस्तुत किये गए प्रलोभनों के फेर में पड़कर अपनी उस दिव्य इच्छा को भूल जाता था। लेकिन सभी प्रायोगों के बावजूद बच्चे की वह आन्तरिक प्यास अति प्रचण्ड हो उठी और किसी भी उपाय से, किसी भी साधन से जब वह बूझ न सकी, उसे उसी क्षण जब बच्चे ने पूर्ण रूप से अस्वीकार कर दिया, तो माँ ने अन्त में उसे गोद में उठा लिया और एक मात्र उसकी अन्तिम इच्छा को पूरा किया। इससे स्पष्ट है, यदि व्यक्ति अपने लक्ष्य को भूलकर किसी अन्य तरीके से सन्तुष्ट हो जाता अथवा कुछ समय के लिए स्थगन को स्वीकार कर लेता है, तो समझना चाहिए अभी तीव्र इच्छा जागृत नहीं हुई है।
मान लीजिए हमसे कोई शक्तिशाली हमारा पूज्य व्यक्ति हमको किसी जलकुण्ड में दबा लेता है, हमारा श्वास घुटने लगता है। हम बाहर निकलना चाहते हैं, पर वह हमसे शक्तिशाली है। उस समय हम उस व्यक्ति के साथ पूज्यता की मर्यादाओं को भी तोड़कर किसी भी उपाय से बाहर निकलना चाहते हैं बेशक उसके हाथ को अपने दाँत से काटना पड़े- वह भी कर सकते हैं, पर किसी भी तरह एक क्षण का विलम्ब सहन नहीं करते। यह है तीव्र इच्छा का वास्तविक स्वरूप।
भय, प्रलोभन से मुक्त तीव्र इच्छा:
श्री महाराज हमें समझाते हैं कि जो कुछ भी प्राप्त करना चाहते हो, तीव्र इच्छा के रूप में उस विषय की आग तुम्हारे अन्दर निरन्तर जलती रहनी चाहिए। वे कहते हैं- यह आग किसी अज्ञात कारण से भी जल सकती है और जलाई भी जा सकती है। उनका कहना है कि जो कुछ तुम चाहोगे उसमें भय, बाधा, प्रलोभन तो अवश्य आयेंगे, पर यदि तीव्र इच्छा होगी तो अन्त में तुम्हारी विजय होगी। मात्र इसी एक महान् साधन के द्वारा लक्ष्य पर एकाग्रता तथा अन्य सबकी उपेक्षा हो पाएगी। इसलिए इसे जितना बढ़ाया जा सके, उतना ही थोड़ा है।
परमात्मा के लिए तीव्र इच्छा:
श्री महाराज एक बार हम लोगों से कहने लगे- अरे! तुम कभी मेरे पास आकर रोये, बिलखे, तड़पे? भगवान् केवल कोरी बातें बनाने से या ऊँचे-ऊँचे प्रवचन सुनने मात्र से नहीं मिलेगा। उसके लिए एक सच्ची तड़प चाहिए। ऐसी तड़प जो किसी भी भय, बाधा या प्रलोभन से न दबाई जा सके। जब तक भगवान् के लिए अपने हृदय में दीपक की अकम्पित लौ जैसी तीव्र इच्छा की आग नहीं जलाओगे, तब तक कुछ भी सिद्ध होने वाला नहीं है।
महाराज श्रीअरविन्द के द्वारा वैयक्तिक प्रयत्न के रूप में निर्दिष्ट तीव्र इच्छा (अभीप्सा), अस्वीकार (त्याग) व समर्पण से युक्त त्रिविध अभ्यास की चर्चा करते हुए कहते हैं कि भगवान् अर्थात् आध्यात्मिक जीवन के लिए तीव्र इच्छा उत्पन्न होने पर, प्रकृति के द्वारा उपस्थित की गई बाधाओं का अस्वीकार सहज ही हो जाता है और जब ये दोनों बातें पूर्ण हो जाती हैं, तो उस परम सत्ता के प्रति अपने आपको समर्पण करने में कुछ कठिनाई नहीं होती। इस प्रकार साधना के अन्तिम स्तर 'समर्पण’ तक पहुँचाने वाली तीव्र विद्या इच्छा ही है।
समर्पण तक ही साधक के व्यक्तिगत प्रयत्न का उपयोग रहता है। आगे तो भगवान् स्वयं व्यक्ति की आत्मा में उतरकर सब कुछ अपने हाथ में ले लेते हैं। इसलिए कहते हैं- तीव्र इच्छा और कृपा, जब ये दो शक्तियाँ मिलती हैं तो वह महान् और दुरूह कार्य भी सिद्ध हो जाता है जो हमारे प्रयास का विषय बना हुआ है। 'तीव्र इच्छा’ व उसके साथ 'आसुरी प्रवृत्ति का परिवर्जन’ व 'पूर्ण समर्पण’ इस वैयक्तिक प्रयत्न रूप त्रिक के अनुपात में ही कृपा का उत्तर मिलता है, यही जीवन पुरूषार्थ का अंतिम सत्य है। आइये हम अपनी सद्-इच्छाओं को तीव्र करें, दिव्य अनुदान का हक पायें।
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