स्वप्नदोष किशोर-युवाओं का मानस भ्रम या रोग

स्वप्नदोष किशोर-युवाओं का मानस भ्रम या रोग

डॉ. नागेन्द्र नीरज, निदेशक-योगग्राम

  स्वप्रदोष को लेकर विश्व भर में असंख्य लोग गुमराह हैं। जीवन जीने की ऋषि प्रणीत विरासत से अनजान होने के कारण यह भ्रम अधिक बढ़ा। तथाकथित चिकित्सक इसका लाभ उठाते हैं और तथाकथित रोगी कंगाली-बदहाली के दिन गिनता है। स्वप्रदोष को आयुर्वेद में स्वप्र प्रमेह; एलोपैथी में नाइट पॉल्यूसन, वेट ड्रीम्स, नेकटारनल एमिसन, नाइट डिस्चार्ज, नाइट फॉल; यूनानी में बदख्वाब या एहकलाम कहते हैं। यह इतनी बड़ी बीमारी नहीं है जितना कि इसके सम्बन्ध में बढ़ा-चढ़ा कर कहा जाता है।
धातु-दौर्बल्य, शीघ्र-स्खलन, शुक्र-तारल्य, शीघ्र-पतन आदि एक-दूसरे से जुड़े हुए मन:स्नायविक दुर्बलता के रोग हैं। आयुर्वेद के अनुसार भोजन पचकर रस प्रदान करता है, जो अवचूषित एवं सात्म्यीकृत होकर रक्त, रक्तसे माँस, माँस से मेद, मेद से अस्थि, अस्थि से मज्जा तथा मज्जा से वीर्य का निर्माण होता है। वीर्य या रस ही ओज बन जाता है। मानव में पौरुष, पराक्रम, उत्साह, साहस, शूरत्व, बल, धैर्य, कार्य एवं चिन्तन की क्षमता सभी कुछ इसी ओज पर निर्भर है। वीर्य एक महत्वपूर्ण तथा अत्यन्त पराक्रमी धातु है। वीर्य शुक्राणु ही नहीं है। वीर्य जीवन का आधार है। वीर्य धातु का सबल एवं सशक्त होना ही इसकी सुरक्षा है। चटपटे, उत्तेजक आहार, माँस, मदिरा, विकृत, कामुक विचार, चिन्ता, तनाव तथा असंयमित जीवन से पाचन संस्थान दूषित होता है। पाचन संस्थान दूषित होने से सप्त धातु विकृत एवं दूषित होते हैं। तब गोनोरिया, सिफलिस, सुजाक आदि रतिज (वी.डी.) रोगों के कारण शुक्र तथा वीर्य में विकृति आ जाती है। वे अधिक तरल हो जाते हैं। परिणामत: उत्तेजना तथा बिना उत्तेजना के ही वीर्य पतला होने से स्खलित होने लगता है।
प्रजनन विशेषज्ञ डॉ. टी.सी. आनन्द के अनुसार वाहनों से निकलने वाले धुएँ में मौजूद सीसे के जहरीले प्रभाव से भी शुक्राणु संक्रमित एवं प्रदूषित होते हैं।
जॉन हॉपकिन्स विश्वविद्यालय (अमेरिका) द्वारा कुछ पुरुषों पर किये गये अध्ययन से ज्ञात हुआ कि पुरुष सेक्स हार्मोन टेस्टोस्टेरॉन की सक्रियता एवं स्राव से पुरुषों में गणितज्ञ एवं इंजीनियर बनने की क्षमता बढ़ जाती है।
यूनिवर्सिटी ऑफ मेरी लैण्ड मेडिकल सिस्टम के मेडिसिन विभाग के प्रो. डॉ. थॉमस डोन्नर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि टेस्टोस्टेरॉन पुरुषों में कामेच्छा को तीव्र तो करता ही है साथ ही उनकी माँसपेशियों तथा हड्डियों को सुदृढ़ एवं शक्तिशाली बनाता है। टेस्टोस्टेरॉन बौद्धिक क्रियाशीलता यानि बुद्धि-लब्धांक को भी बढ़ाता है। जबकि इसका अपना विज्ञान है।
युवावस्था में कामेच्छा नैसर्गिक एवं स्वाभाविक है। जरूरत है उचित शिक्षण द्वारा काम ऊर्जा को सृजनात्मक कार्यों- लेखन, चित्रकला, बागवानी, कुटीर उद्योग आदि में रूपान्तरित करने की प्रेरणा एवं प्रशिक्षण देने की। फिर भी जब अचेतन में दमित वासनाएँ प्रतिबंधित नहीं होती, मन अपनी मनमानी करता है, यही स्वप्रदोष है। स्वप्रदोष प्राय: पुरुषों का रोग है। कभी-कभी युवतियों में भी इसके लक्षण दिखते हैं परन्तु अत्यन्त कम।
जिस प्रकार युवावस्था में यौन ग्रंथियों के सक्रिय होने से दाढ़ी, मूँछें, काँख तथा गुप्तांगों में बाल आना, स्वर में परिवर्तन, वीर्य निर्माण तथा स्वप्रदोष ऐसी ही स्थितियाँ हैं। स्वप्रदोष एक प्राकृतिक प्रक्रिया होने के कारण ही इसका रोग के रूप में आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथों में कहीं भी उल्लेख नहीं है।
पर 'अति सर्वत्र वर्जयेत् इसे ध्यान में रखना चाहिए। महीने में स्वप्रदोष अनेक बार होने लगे, तो तुरन्त सावधान हो जाना चाहिए। बार-बार स्वप्रदोष होना मनोदैहिक लैंगिक स्नायविक रोग मानकर इसका शारीरिक, मानसिक, आत्मिक एवं स्नायविक उपचार करना आवश्यक है।
बार-बार स्वप्रदोष का कारण:
कब्ज़, गुदाकृमि, मंदाग्रि, अपचन, सुजाक, मधुमेह, गुर्दे तथा वृषण में गाँठ तथा अन्य रोग, प्रमेह, पथरी, जलोदर, प्लीहोदर, उपदंश, बवासीर, अजीर्ण, मानसिक तनाव, विषाद, शोक, रात को देर तक जगना, दिन में काफी देर तक सोये रहना, श्रम विहीन बैठे-बैठाले जीवन यापन, बार-बार मूत्रेन्द्रिय का स्पर्श करना, निरन्तर गन्दे एवं कामोत्तेजक चिन्तन में लीन रहना, अश्लील उपन्यास, पत्र-पत्रिकाएँ, कविताएँ एवं साहित्य पढ़ना तथा सुनना, विभिन्न चैनलों पर प्रसारित होने वाले कामोत्तेजक दृश्यों, गीतों तथा संवादों को देखना एवं सुनना, कामुक वस्त्रों एवं अन्य सामग्री का प्रचलन, गर्भ निरोधक साधनों का विज्ञापन आदि कारणों से दिमाग में स्थित सेक्स का केन्द्र निरन्तर उत्तेजित होते रहने से स्वप्रदोष की पुनरावृत्ति बार-बार होती है। चाय, कॉफी, चीनी, तले-भुने आहार, माँस, मदिरा, मछली, मैदा, लहसुन, प्याज, हलवा, मावा तथा गरिष्ठ एवं उत्तेजक आहार, अति आहार, गर्म-मिर्च, मसाले, पान मसाला, सुपारी, धूम्रपान, नशीली-उत्तेजक मादक औषधियाँ आदि स्नायविक दुर्बलता पैदा करती हैं चूंकि इसका सीधा संबंध मनुष्य की सोच चिंतन से है। यदि विचार साधे न गये तो स्वप्रदोष स्थायी होने लगता है। वीर्य अधिक निर्बल एवं पानी की तरह पतला हो जाता है। आदर्शवादी, सकारात्मक सोच वीर्य जैसी जीवनी शक्ति को पोषित करता है पर जैसे ही अचिन्त्य व अश्लील चिंतन शुरू होता है, वैसे ही आंतरिक मंथन नकारात्मक दिशा में होता है, स्वप्रदोष प्रारम्भ होता है।
स्वप्रदोष काल:
विख्यात यौन विज्ञानी अल्फ्रेड किन्स का मानना है कि प्राय: हर व्यक्ति सेक्स के सपने देखकर स्वप्रदोष का शिकार होता है। जो व्यक्ति जितना शिक्षित, बुद्धिवादी, समझदार तथा ऊँची कल्पना शक्ति वाला होता है उसे उतने ही ज्यादा स्वप्रदोष होते हैं। पुरुषों में 20 वर्ष की आयु में तथा स्त्रियों में 35 वर्ष की आयु में सेक्स एवं अश्लीलता से जुड़े ज्यादा सपने आते हैं।
प्राय: 15 से 25 वर्ष की उम्र तक स्वप्रदोष के लक्षण ज्यादा उग्र होते हैं। वैसे बीमारी के रूप में स्वप्रदोष कभी भी हो सकता है। रात्रि के अंतिम पहर, साढ़े तीन से छ: बजे के मध्य जिसे ब्रह्म मुहूर्त कहा गया है, स्वप्रदोष की शिकायत ज्यादा होती है। इस काल में सोये रहने से मन का अर्धचेतन एवं अचेतन हिस्सा ज्यादा सक्रिय रहता है। परिणामत: स्वप्रदोष इसी काल में ज्यादा होते हैं। इसीलिए ब्रह्मचर्य पालन तथा स्वप्रदोष से बचने के लिए ब्रह्म मुहूर्त में उठना अनिवार्य है।
वायुदोष की वृद्धि होने से वीर्य पतला हो जाता है तथा थोड़ी सी उत्तेजना से ही बार-बार निकल जाता है। कई लोगों में रात्रि को 2-3 बार स्वप्रदोष होने लगता है। जो स्वास्थ्य को नष्ट करने वाला लक्षण है। इसमें शुक्र धारण करने वाले प्रजनन अंग अत्यधिक दुर्बल हो जाते हैं। जिन्हें शक्तिशाली बनाने से ही स्वप्रदोष से मुक्त हुआ जा सकता है।
प्रभाव:
बार-बार स्वप्रदोष होने पर शरीर क्षीणकाय तथा पित्त वर्ण दिखने लगता है। आलस्य, सुस्ती, सिर दर्द, पाण्डुता, सारे शरीर में दर्द, ओज रहित, कान्तिहीन, मुरझाया चेहरा, तीव्र हृदय की धड़कन, दृष्टि तथा स्मरण शक्ति का ह्रास, एकाग्रता की कमी, कुंठा, उदासी, चिड़चिड़ापन, निराशा, निरुत्साह, असमय एवं अकारण बाल सफेद होना, जनन तंत्र की दुर्बलता, अधिक ताप की अनुभूति, जननयंत्र संचालक स्नायविक (एरेक्शन तथा एमिसन) केन्द्र में अस्वाभाविक उत्तेजना से स्नायविक दुर्बलता तथा नर्वस ब्रेक डाऊन के लक्षण दिखते हैं।
लिम्बिक सिस्टम भी समझें:
कामेच्छा का मूल केन्द्र दिमाग के बीचों बीच वाले क्षेत्र 'लिम्बिक सिस्टममें होता है। इसे सेक्स आर्गेन ब्रेन भी कहते हैं। लिम्बिक सिस्टम द्वारा ही काम-केलि-क्रीड़ा (स्द्गष्ह्वड्डद्य स्नह्वठ्ठष्ह्लद्बशठ्ठ) नियंत्रित होती है। स्वप्रावस्था में समागम की स्थिति में रीढ़ के माध्यम से उत्तेजनात्मक पैरासिम्पैथेटिक आवेग ज्ञानेन्द्रिय तथा जननेन्द्रिय में उद्दीपन परिवर्तन लाते हैं। परिणामत: गुप्तांग उत्तेजित हो उठते हैं। सेक्स हार्मोन टेस्टोस्टेरॉन आदि का स्राव बढ़ जाता है। काल्पनिक संभोग जैसी स्थिति होने से सिम्पैथेटिक आवेग का तीव्र उद्दीपन तथा सुषुम्ना की रिफ्लेक्स क्रिया के कारण शुक्र-स्खलन प्रारम्भ हो जाता है।
20 वर्ष की आयु में रूमानी मधुर सपने ज्यादा आते हैं। किन्स ने यह भी पता लगाया कि 83 प्रतिशत किशोर तथा युवा स्वप्रदोष के शिकार होते हैं। इससे अचेतन मन में दफनाए गए दमित सेक्स सम्बन्धी भ्रान्तिपूर्ण विचार, चिन्ता तथा सोचने-समझने से कमजोरी, कुंठा, थकान तथा अन्य लक्षण दिखते हैं। जागने पर चेतन में ग्लानि पैदा होती है कि कुछ गलती हो गयी जिसके कारण मन में गाँठें एवं कुंठा बन जाती है। इस प्रकार की कुंठाएँ शारीरिक एवं मानसिक रोग को जन्म देती हैं।
माना जाता है कि वीर्य खोने से चेहरे का लावण्य, ओज, सौन्दर्य, तेजस्विता, कान्ति तथा प्रतिभा कम हो जाती है। शरीर रुग्ण हो जाता है। शक्ति क्षीण हो जाती है। आँखें धंस जाती हैं। उनके नीचे काले धब्बे बन जाते हैं।
स्वस्थ वीर्य के लक्षण:
स्वस्थ अण्डकोष हमेशा 2 से 3 अरब शुक्राणु उत्पादन के दौर से गुजर रहे होते हैं। 70 से 80 दिनों में वे परिपक्व हो जाते हैं। अण्डकोष में थोड़ी सी भी विकृति या खराबी होने पर अरबों की संख्या में शुक्राणु प्रदूषित हो जाते हैं।
आयुर्वेदज्ञ सुश्रुत के अनुसार स्वस्थ एवं शुद्ध वीर्य स्फटिक के समान श्वेत वर्ण का, क्षारीय प्रतिक्रिया वाला, द्रव, स्निग्ध, मधु की गन्ध वाला होता है। चरक के अनुसार मात्रा में अधिक शुक्र, अधिक सघन, गाढ़ा, लेसदार, स्निग्ध, दुर्गन्ध रहित, भारी तथा श्वेत रंग का वीर्य स्वस्थ वीर्य कहलाता है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार शुक्र में ७० से ८० प्रतिशत पानी, शेष फॉस्फोरस, प्रोटीन, फॉस्फेट, शुक्राणु, शुक्र कण, एल्ब्युमिन यानि अण्डे की सफेदी वाला तत्व, लीकर सेमिनस, कुछ हार्मोन, स्वर्ण अंश आदि रहते हैं।
स्वप्रदोष के उपाय:
स्वप्रदोष के रोगियों को प्राय: कब्ज़ की शिकायत रहती है। उपचार में सर्वप्रथम रोगी को आधा घण्टे के लिए पेड़ू तथा सिर पर मिट्टी की पट्टी रखें।
जब भी नहायें उसके पूर्व नल से या लोटे से पेड़ू तथा रीढ़ के नीचे वाले हिस्से पर 5-10 लोटे ठण्डा पानी डालें। तत्पश्चात् स्नान करें। इससे रीढ़ के स्नायु उद्दीप्त होते हैं, प्रतिवर्त्त प्रभाव से अण्डकोष की शुक्राणु-उत्पादक कोशिकायें शक्तिशाली होती हैं, उनकी कार्य क्षमता बढ़ जाती है और स्वप्रदोष से राहत मिलती है।
रात्रि को सोने से पूर्व मूत्र-त्याग करें। दोनों पैर, हाथ, पेट तथा पीठ के पीछे खूब ठण्डे पानी से धो-पोंछकर सोयें। पेट तथा पीठ के बल लेटें। यथासंभव बायीं करवट सोयें। रात्रि को सोने से पूर्व 5-10 मिनट खुले सकारात्मक विचारों के साथ टहलें, तत्पश्चात् मंगल मैत्री भावना करते हुए सो जायें। सोने के पूर्व चिन्ता, तनाव, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि संवेगों को एक तरफ रखकर सोयें।
यौगिक उपाय:
स्वप्रदोष को दूर करने में उड्डियान बन्ध, मूल बन्ध, अश्विनी मुद्रा, नौलि क्रिया, जानुशीर्षासन, पश्चिमोत्तानासन, सिद्धासन, वज्रासन, सुप्त वज्रासन, पद्मासन, योग मुद्रा, मेरुदण्ड, स्नायु शक्ति विकासक, विपरीतकरणी, सर्वांगासन, हलासन, मयूरासन, शीर्षासन तथा शवासन सकारात्मक चमत्कारिक प्रभाव डालते हैं। रीढ़ को सीधा रखते हुए बैठें। साँस निकालते हुए पेट को पीठ से लगाने का प्रयास करें। आन्तरिक बल द्वारा गुदा तथा मूत्रेन्द्रिय को खींचें। यह क्रिया सुबह-शाम ३ से ५ मिनट खाली पेट करें। प्राणायाम तथा ध्यान का अभ्यास किसी योग्य योग चिकित्सक के निर्देशन में करें।
ब्रह्ममुहूर्त में जागरण:
इच्छा शक्ति को जाग्रत कर प्रात:काल ५ बजे, ब्रह्म मुहूर्त में उठकर टहलने से स्वप्रदोष में अद्भुत लाभ मिलता है। मन को उत्तेजित करने वाले अश्लील, उत्तेजक, साहित्य, फिल्म, टी.वी. तथा ऐसी चर्चा आदि से बचें। जब भी मन में दुर्विचार उठें उस समय पढ़ने-लिखने, पेन्टिंग, बागवानी, खेल आदि सृजनात्मक कार्यों में लग जायें। 'खाली मन शैतान का घरहोता है, अत: कुछ-न-कुछ करते रहना ही इसका हल है।
बदलें आहार पद्धति:
स्वप्रदोष के रोगी को गरम तथा उत्तेजक आहार का सेवन पूर्णतया बन्द कर देना चाहिए। इसमें फास्टफूड, चटपटा, तला-भुना, चटोरापन आदि आता है। सुपाच्य एवं प्राकृतिक आहार का प्रयोग करें। स्वप्रदोष काफी विकृति स्थिति में पहुँच गया हो, तो वैसी स्थिति में एक दिन मौसमानुसार फल, फलों का रस, सब्जियों का रस तथा जलोपवास पर रखें। पुन: इसी क्रम में आठ दिन पश्चात् सामान्य आहार पर आयें। योगासन या टहलने के 20 मिनट बाद सामान्य आहार में बादाम 7, अंजीर 5, मुनक्का 15 तथा मौसमानुसार फल 300 ग्राम तथा एक गिलास दूध में डेढ़ चम्मच शहद मिलाकर लें। पालक के रस में गूँधे मोटे आटे की रोटी, सब्जी, सलाद तथा दही लें। मध्याह्न काल में मौसमानुसार फल या फलों का रस तथा अपराह्न काल में मौसमानुसार सब्जी का रस या सूप लें। सब्जियों में गाजर, पालक, टमाटर, चुकन्दर, लौकी, पुदीना, धनिया (15-15 ग्राम) का रस का सूप लें। सांयकालीन भोजन ६-७ बजे तक कर लें। रोटी, सब्जी, सलाद, सूप, चटनी आदि लें। खाकर तुरन्त सोने से स्वप्रदोष होने की शिकायत ज्यादा बढ़ जाती है। स्वप्रदोष के रोगी साने के पूर्व दूध नहीं लें। सायंकालीन भोजन हल्का ही लें। पतंजलि निर्मित जौ का दलिया कारगर साबित हुआ है।
कुछ आवश्यक खनिज:
वैज्ञानिक शोधों के अनुसार जस्ता, स्वर्ण, विटामिन-ई, सी, बी तथा ए के अभाव में शुक्राणुओं की संख्या एवं गतिशीलता में कमी आ जाती है। वीर्य पतला हो जाता है तथा स्वप्रदोष की शिकायत होती है।
डॉ. कर्टिश हंट ने अपने प्रयोगों से यह सिद्ध किया है कि जस्ते का सीधा सम्बन्ध वीर्य से है। एक प्रयोग के दौरान देखा गया कि रोज की खुराक में १० मिग्रा. जस्ते को घटाकर एक मिग्रा. करने से शुक्राणुओं की मात्रा एक तिहाई रह गयी क्योंकि वीर्य की मात्रा घटने से फर्टिलिटी कम हो जाती है। डॉक्टर हंट के अनुसार प्रतिदिन १०-१५ मिग्रा. जस्ता वाला आहार अवश्य लें। जस्ते का श्रेष्ठतम स्रोत सूर्यमुखी तथा कद्दू का बीज है। इसके अतिरिक्त सभी प्रकार के अंकुरित अनाज, ताजे फल एवं ताजी हरी सब्जियों में जस्ता मिलता है।
विभिन्न शोधों एवं प्रयोगों में पाया गया है कि शुक्राणुओं तथा वीर्य की सुरक्षा के लिए विटामिन-सी, विटामिन-इ, एण्टी ऑक्सीडेज एन्जाइम चमत्कारिक आहार है। तले-भुने फास्ट फूड, माँसाहार, अंडा, वसा वाले आहार, शराब तथा धूम्रपान के ज्यादा प्रयोग से फ्री-रेडिकल्स ज्यादा बनते हैं। फ्री-रेडिकल्स कोशिकाओं में जंग पैदा करते हैं जो फुर्तीले शुक्राणुओं को आपस में चिपका कर नष्ट कर देते हैं, शुक्राणुओं के डी.एन.ए. को भी परिवर्तित कर देते हैं।
तो क्यों न हम ऋषि प्रणीत परम्पराओं एवं आयुर्वेद सम्मत आहार लें और ऐसे रोगों से बचकर जीवन को स्वस्थ, संकल्पशील बनायें।

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