दैनिक जीवन में किये जाने वाले पारम्परिक 12 दंड और 8 बैठक
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भारतवर्ष के मनीषियों द्वारा प्रदत्त 'दण्ड और बैठक’ शरीर को स्वस्थ, सुन्दर व आकर्षक बनाने की सुनियोजित पारम्परिक व्यायाम पद्धति है। दण्ड से सम्पूर्ण शरीर एवं मन प्रभावित होकर पुष्ट और सन्तुलित बनता है एवं बैठकों से व्यक्तित्व में सुदृढ़ता आती है। विशेषकर पैर सम्बन्धी सभी विकार और रोग ठीक होते हैं। इसीलिए रोजमर्रा की दिनचर्या में सम्मिलित ये व्यायाम व्यक्ति को स्फूर्ति, ताजगी और निरोगता प्रदान करने वाले कहे गये हैं। लेख के माध्यम से आइये समझें इनकी क्रियाविधि-
पारम्परिक 12 दण्डासन:
दण्डासन विधि-1: साधारण दण्ड
विधि: पैरों के पंजों और हथेलियों के सहारे नितम्बों को ऊपर उठाकर दृष्टि सामने रखना दण्ड स्थिति है। फिर कोहनियाँ मोड़कर श्वास लेते हुए हथेलियों व पैर के पंजों पर नीचे दण्ड के समान सीधा हो जाएँ, तत्पश्चात् सर्प की भाँति सिर व छाती को उठायें, फिर श्वास छोड़कर नितम्बों को ऊपर उठाते हुए प्रारम्भिक अवस्था में वापिस आयें। इसे साधारण दण्ड भी कहते हैं।
दण्डासन विधि-2: राममूर्तिदण्ड
विधि: दण्डस्थिति (पर्वतासन) से श्वास भरते हुए कोहनियाँ इस प्रकार मोड़ें कि वे पसलियों से लगी रहें, छाती को धीरे-धीरे नीचे की तरफ लायें, फिर सर्प की भाँति सिर व छाती को ऊपर उठायें। तत्पश्चात् पंजों और हथेलियों के सहारे श्वास छोड़ते हुए ठीक पूर्व की भाँति ही दण्डस्थिति में वापिस आ जायें, यह एक आवृत्ति हुई। इसे राममूर्ति दण्ड कहते हैं।
दण्डासन विधि-3: वक्षविकासकदण्ड
विधि: इसे वक्ष विकास दण्ड भी कहते हैं। दण्डस्थिति में हथेलियों को अन्दर की ओर मोड़कर अर्थात् कन्धों के नीचे अंगुलियाँ एक दूसरे के सामने रखते हुए कमर झुकाकर शरीर को सीधा करें, दृष्टि सामने रखकर श्वास छोड़ते हुए कोहनियों को बाहर की ओर मोड़ते हुये नीचे तथा श्वास लेते हुए कोहनियों को सीधा करते हुए ऊपर उठें।
दण्डासन विधि-4: हनुमान दण्ड
विधि: दण्डस्थिति में श्वास छोड़ते हुए एक पैर के पंजे को उसी हाथ के बगल में बाहर रखकर हथेलियों पर शरीर का भार देते हुए नीचे जायें, आगे से अपने सिर व छाती को भुजंगासन की तरह उठायें (नितम्ब अधिक से अधिक नीचे ही रहें; परन्तु जमीन को न छुयें)। फिर पंजे को श्वास लेते हुए प्रारम्भिक दण्डस्थिति में वापिस ले जायें। ठीक यही क्रिया दूसरी तरफ से करें, बारी-बारी से बिना रुके इस क्रिया को वेगात्मक रूप से करते रहें। इसमें हनुमान दण्ड की स्थिति बनती है।
दण्डासन विधि-5: वृश्चिकदण्ड (क)
विधि: दण्डस्थिति में आकर श्वास लेते हुए एक पैर को बिना घुटना मोड़े आकाश की ओर उठाकर, कोहनियाँ मोड़कर छाती को नीचे लायें (शरीर का पूरा भार दोनों हथेलियों और दूसरे पैर के पंजे पर स्थिर रहेगा) फिर उठे हुए पैर को वापस जमीन पर लाने के बाद दृष्टि सामने की ओर रखते हुए सिर व छाती को भुजंगासन की तरह उठायें, फिर श्वास छोड़कर नितम्ब ऊपर उठाते हुए प्रारम्भिक दण्डस्थिति में वापिस आयें। दूसरे पैर से भी ठीक इसी प्रकार वेगात्मक रूप से क्रिया दोहरायें।
दण्डासन विधि-6: वृश्चिकदण्ड (ख)
विधि: दण्डस्थिति में होकर श्वास भरते हुए, एक पैर को बिना घुटना मोड़े आकाश की ओर सीधा करके आगे से कोहनियों को मोड़कर, वक्षस्थल को अधिक से अधिक नीचे ले जायें, फिर ऊपर उठे हुये पैर के पंजे को घुटना मोड़ते हुये विपरीत कमर की तरफ जमीन पर रखें, फिर मुड़े हुए पैर को वापिस ले जाकर हथेलियों पर भुजंगासन लगायें, फिर श्वास छोड़ते हुए प्रारम्भिक दण्डस्थिति की ओर वापस लौटें।
दण्डासन विधि-7: पार्श्वदण्ड
विधि: दण्डस्थिति में श्वास भरते हुए एक पैर को उदर के नीचे से कलाइयों के पास से विपरीत ओर सीधा करके फैलायें, आगे से दोनों कोहनियों को मोड़कर वक्ष को नीचे लायें, फिर इसी स्थिति में हथेलियों पर सिर व छाती को भुजघौासन की तरह ऊपर उठायें। फिर श्वास छोड़कर मुड़े हुए पैर को वापिस लायें, प्रारम्भिक दण्ड स्थिति में आकर पुन: दूसरे पैर से अभ्यास करें।
दण्डासन विधि-8: चक्रदण्ड
विधि: दोनों हथेलियों को जमीन पर रखकर दोनों हाथों के बीच में एक पैर के घुटने को मोड़कर उसके पंजे पर बैठें तथा दूसरे पैर को बराबर में सीधा करके फैलाकर रखें, फिर श्वास लेकर फैले हुए पैर को सामने से लाकर (दोनों हाथों को बारी-बारी से उठाते हुए) चक्र की भाँति घुमाकर, उछलते हुए दोनों पैरों को पीछे एक साथ रखकर हथेलियों व पंजों पर दण्ड के समान शरीर सीधा, फिर हथेलियों पर भुजंगासन, तत्पश्चात् श्वास छोड़ते हुए उछलकर दूसरे पैर पर प्रारम्भिक दण्डस्थिति के समान बैठकर क्रिया दोहरायें।
दण्डासन विधि-9: पलटदण्ड
विधि: दण्डासन में स्थित होकर पहले एक बार श्वासों के साथ साधारण दण्ड लगायें, फिर श्वास लेते हुए दोनों पैरों को एक साथ वेगात्मक रूप से उछालकर हाथों के बीच से उठाकर निकालते हुए अधिक से अधिक आगे की ओर लायें, (पेट व वक्ष का हिस्सा ऊपर की ओर खिंचा हुआ रहेगा)। तत्पश्चात् श्वास छोड़ते हुए बिना रुके दोनों पैरों को हाथों के मध्य से उठाकर निकालते हुए पूर्व की स्थिति में लाकर, हथेलियों व पंजों पर दण्ड के समान सीधा होकर सामने से ऊपर उठते हुए भुजंगासन लगायें, फिर वापिस दण्ड स्थिति में आये।
दण्डासन विधि-10: शेरदण्ड
विधि: दोनों हथेलियों को जमीन पर रखकर पंजों के बल बैठें, घुटने कोहनियों के बाहर की ओर हों, दृष्टि सामने रखकर दोनों पैरों को श्वास भरकर एक साथ उछालते हुए आसमान की ओर ले जाकर सीधा करें, दोनों हथेलियों पर पूरे शरीर के भार का सन्तुलन बनाते हुए; पुन: धीरे-धीरे कोहनियाँ मोड़ते हुए पैरों को नीचे लाकर हथेलियों पर भुजघौासन बनायें, फिर श्वास छोड़ते हुए दोनों पैर को उछालकर प्रारम्भिक स्थिति में वापिस आये।
दण्डासन विधि-11: सर्पदण्ड
विधि:दण्ड स्थिति से कोहनियाँ मोड़कर हथेलियों व पंजों पर शरीर को दण्डवत् सीधा करने के पश्चात् सर्प की भाँति तीन बार, श्वास लेते-छोड़ते हुए कोहनियों को इस प्रकार सीधा करें व मोड़ें कि सिर्फ वक्ष:स्थल ही ऊपर-नीचे हो सके (नितम्ब नीचे रहेंगे) फिर दण्डस्थिति में वापिस आयें।
दण्डासन विधि-12: मिश्रदण्ड
विधि: पंजों व हथेलियों के सहारे बैठकर (ध्यान रहे कोहनियाँ घुटने के अन्दर रहे) फिर श्वास लेते हुए पैरों को उछलकर पीछे ले जाकर गत्यात्मक रूप में कोहनियों के सहारे छाती को नीचे करने के बाद भुजंगासन की भाँति थोड़ा ऊपर लायें, तत्पश्चात् श्वास छोड़कर उछलते हुए दोनों पैरों को प्रारम्भिक स्थिति में आगे लाकर बैठें। इसी को बिना रुके वेगात्मक रूप से लगातार करना मिश्रदण्ड है।
पारम्परिक 8 बैठक:
बैठक-1: साधारण अर्द्धबैठक
विधि: दोनों हथेलियों को कमर पर रखकर पैरों में कन्धों जितना फासला करके खड़े होकर, श्वास छोड़ते हुए पैरों को घुटनों से मोड़कर आधी बैठक (जैसे की कुर्सी पर बैठते हैं) लगाना, फिर श्वास लेते हुए वापस आना 'साधारण अर्द्ध बैठक’ कहलाता है।
बैठक-2: साधारण पूर्ण बैठक
विधि: सीधा खड़ा होकर श्वास छोड़ते हुए मुखियाँ कसकर बन्द करके, हाथों को जमीन के समानान्तर करते हुए नीचे बैठना (कमर व गर्दन सीधी रखने का प्रयास करें), फिर श्वास छोड़ते हुए हाथों को प्रारम्भिक स्थिति में वापिस लाकर खड़े होना 'साधारण पूर्ण बैठक’ कहलाता है। इस क्रिया को श्वास का क्रम ध्यान में रखते हुए वेगात्मक रूप से करना चाहिए।
बैठक-3: राममूर्ति बैठक
विधि: सीधा खड़े होकर श्वास छोड़ते हुए (अंगूठा अन्दर, मुठीयाँ बन्द) हाथों को जमीन के समान्तर फैलाना (श्वास रुका हुआ), धीरे-धीरे पंजों के बल नीचे जाना तत्पश्चात् श्वास भरते हुए धीरे-धीरे हाथों को वापस लाते हुए सीधे खड़े हो जाना 'राममूर्ति बैठक’ कहलाता है। इस क्रिया को भी वेगात्मक रूप से करना चाहिए।
बैठक-4: पहलवान बैठक (1)
विधि: सीधे खड़े होकर श्वास छोड़ते हुए सामने की ओर 2-3 फीट दूर तक उछलकर, मुठीयाँ बन्द हाथों को जमीन के समानान्तर करते हुए बैठना, फिर श्वास भरते हुए प्रारम्भिक स्थिति में उछलकर वापिस आकर खड़ा होना 'पहलवान बैठक (1)’ कहलाता है। इस क्रिया का बारम्बार वेगात्मक रूप से अभ्यास करना चाहिए।
बैठक-5: पहलवान बैठक (2)
विधि: श्वास भरकर हाथों को हिलाते हुए पैरों को घुटनों से मोड़कर पंजों पर एक ही स्थान पर वेगात्मक रूप से तीन बार उछलने का अभ्यास करना चाहिए। फिर श्वास लेते हुए प्रारम्भिक स्थिति में वापिस खड़े हो जाना चाहिए। इस प्रकार की जाने वाली क्रिया 'पहलवान बैठक (2)’ कहलाती है।
बैठक-6: हनुमान् बैठक (1)
विधि: दोनों पैरों में अधिक से अधिक अन्तर करके खड़े होकर दोनों हाथ सामने जमीन के समानान्तर फैलायें, फिर श्वास छोड़ते हुए एक ओर घुटना मोड़कर उसी पैर के पञ्जे पर कमर सीधी रखते हुए बैठें (नितम्ब एड़ी से लग जायेंगे), फिर श्वास लेते हुए मध्य में आयें। दूसरी ओर से भी इस क्रिया को वेगात्मक रूप से करें। इस प्रकार की क्रिया 'हनुमान् बैठक-(1)’ कहलाती है।
बैठक-7: हनुमान् बैठक (2)
विधि: पैरों में अधिक से अधिक फासला रखते हुए दोनों हथेलियों को कमर पर रखकर सीधे खड़े हो जायें, तत्पश्चात् एक तरफ के पञ्जे की ओर शरीर को घुमाकर श्वास छोड़ते हुए उस ओर का घुटना मोड़कर पञ्जे पर बैठे (कमर को अधिक से अधिक सीधा रखने का प्रयास करें तथा पीछे वाले पैर का घुटना सीधा व पमजा खड़ा रहेगा), फिर श्वास लेते हुए वापिस आयें, इसी प्रकार दूसरी तरफ से करें। उपर्युक्त विधि से की जाने वाली क्रिया 'हनुमान् बैठक (2) कहलाती है।
बैठक-8: हनुमान् बैठक (3)
विधि: दोनों पैरों में यथासम्भव अधिक से अधिक फासला रखकर खड़े हो जायें, फिर दोनों हाथों के अंगूठे बाहर कर, मुठीया बन्द करके बगल से हाथों को लाकर अंगूठों को कन्धों पर रखें, तत्पश्चात् श्वास छोड़ते हुए एक ओर का घुटना मोड़कर पञ्जे पर कमर को सीधा रखते हुए बैठें (जैसे कि कुल्हें से एड़ी लग जाये), श्वास भरते हुए मध्य में आयें, इस क्रिया को वेगात्मक रूप से बार-बार दोनों तरफ से करें।
उपर्युक्त विधि से की जाने वाली क्रिया 'हनुमान् बैठक (3)’ कहलाती है।
कभी हर भारतवासी इन दण्ड बैठकों के नित्य अभ्यासी रूप में जाना जाता था, पर समय के प्रवाह में ये प्रयोग जीवन से दूर होते गये। जरूरत है राष्ट्र को दीनता मुक्त करने के लिए नागरिकों को सुदृढ़ बनाना। अत: दण्ड-बैठकों को नित्य जीवन में स्थान देना ही होगा।
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