यज्ञ जीवन से आत्मनिर्भर भारत
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संस्कृति, मनुष्य समाज की जड़ होती है, जैसे- पेड़ की जड़। पेड़ अपनी जड़ को छोड़ देता है, तो सूख जाता है, नष्ट हो जाता है, अपने अस्तित्व को खो देता है। वैसे ही मनुष्य समाज जब अपने मूल को जड़ को भूल जाता है अर्थात् अपनी संस्कृति को भूल जाता है तो अपने अस्तित्व को खो देता है। वह जीवन में अनेक प्रकार के दु:ख-कष्ट-अज्ञानता-दरिद्रता-अभावादि से ग्रस्त हो जाता है।
इसीलिए कहा गया है-
यही हमारी संस्कृति, यही हमारी पहचान।
आओं करें मिल यज्ञ सब, हो ऋषि-राष्ट्र सम्मान।।
परन्तु प्रश्न उठता है कि यज्ञ को अपनाने से कैसे हम रोग निवारण, पवित्र आचरण, स्वस्थ राष्ट्र व आत्मनिर्भर राष्ट्र बना सकते हैं?
अत: वैदिक श्रुति कहती है - यज्ञो वितन्तसाय्य: (ऋ. 8.68.11) अर्थात् यज्ञ (अग्निहोत्र) सर्वत्र सुख फैलाता है, हमारे इस शरीर रूपी पिण्ड से लेकर बाह्य पिण्ड (प्रकृति) का संतुलन करने का कार्य करता है और भी जो इस अग्निहोत्र का विधान करता है, उनके लिए अथर्ववेद (6.99.1) कहता है- होतृषदनं हरितं हिरण्ययम्। अर्थात् यज्ञकर्ता (यज्ञमान) का घर अत्यन्त मनोहर, धन-धान्य से परिपूर्ण व रमणीय हो जाता है और राष्ट्र के योगक्षेम हेतु ‘आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो...’ (यजु० 22.22) वेद की ऋचाओं से प्रार्थना भी की गई है।
प्राचीन भारत की यदि बात करें, तो भगवान् श्रीराम, भगवान् श्रीकृष्ण से लेकर राजा-महाराजाओं, ग्रामवासियों व अरण्यवासि-ऋषियों की कुटियों तक नित्य व नैमित्तिक यज्ञों का प्रचलन देखने को मिलता है।
महर्षि मनु भी कहते हैं- अग्निहोत्रं च जुहुयादाद्यन्ते द्युनिशो: सदा (4.25)। कि प्रतिदिन सुबह-शाम अग्निहोत्र करें। इस कारण हमारे पूर्वज हवन सम्पन्न कर ही अन्नप्राशन व अपने कर्तव्य कर्म को किया करते थे। इसीलिए बिना हवन-यज्ञ किये भोजन ग्रहण को योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता (3.13) में पाप-रोगादि का केवल मात्र भक्षण कहा है -
यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:।
भुञ्जन्ते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।
इस कारण हम शारीरिक व मानसिक रूप से इन आधिदैविक-आधिभौतिक-आध्यात्मिक संतापों से कहीं न कहीं पीडि़त रहते हैं। जिसका कारण है- मूल में भूल। जो मैंने पूर्व में ही कह दिया है।
पंच-महाभूतों से निर्मित इस जगत् का जीव मात्र प्रयोग ले रहा है। सभी लोग एक ही वायु से श्वास लेते, एक ही सूर्य से ऊर्जा लेते, एक ही जल मण्डल का पान करते, एक ही भूमि पर विचरण करते हैं तथा एक ही आकाश मण्डल के नीचे बसते हैं। हम साथ समान है एक है, चाहे हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई आदि जो भी पंथ हैं, जिसने हमें पंचभूतों से निर्मित जगत् प्रदान किये। मनुष्य का जीवन इन्हीं पंच भूतात्मक प्रकृति के संतुलन में चलता है।
आज भारत देश ही नहीं, अपितु पूरी दुनियां में निरंकुश भोगवाद के कारण प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुन दोहन से पर्यावरण प्रदूषित हो चुका है और प्रदूषण ऐसा जहर है, जो कालान्तर में अपने ही जनक को भस्मासुर की तरह भस्म कर देता है।
आज हमने वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण से लेकर आण्विक प्रदूषणों को जन्म दिया है। जिस कारण धरती का तापमान तेजी से बढ़ रहा है। ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, सुनामी के कारण समुद्र तटीय शहरों पर संकट मंडरा रहा है, कई पेड़-पौधों व पशु-पक्षियों की प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं, फलों की उपज में कमी, कहीं बाढ़, कहीं सूखा तो कहीं अतिधूप, भूगर्भ जल स्तर में कमी, कैंसर-हृदय रोग-डायबिटीज-कोरोना आदि भंयकर रोगों का खौफनाक हमला। अत: यज्ञीय संस्कृति से जुड़े, मूल में रहें, तभी हम पूर्णतया निरोगी व सुखी रह पायेंगे।
वेद, उपवेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता आदि सभी श्रौत ग्रंथों व स्मार्त ग्रंथों में सबसे अधिक किसी विषय की चर्चा है, तो वह यज्ञ की, उनके विभिन्न प्रकार व लाभों की।
अत: हम कह सकते हैं कि यज्ञ केवल कर्मकाण्ड या पूजा पद्धति ही नहीं अपितु रोगी के लिए एक चिकित्सा पद्धति तथा साधक के लिए एक साधना पद्धति है, साथ ही सम्पूर्ण सृष्टि का आधार यही है। इसी पर एक पद्य भी स्मरण आता है-
निरापद, सार्वभौमिक, वैज्ञानिक, भारतीय-संस्कृति का भाल है।
समस्याओं का समाधान संस्कृति का प्रतीक ‘यज्ञ’ एक मशाल है।।
महर्षि दयानंद सरस्वती ने पुरुषार्थ चतुष्ट्य की सिद्धि हेतु अपने अंतिम ग्रंथ, सत्यार्थ प्रकाश (च.समु.) में अग्निहोत्र की वैज्ञानिकता बताते हुए कहते हैं कि -
अग्निहोत्र से वायु एवं वृष्टि जल की शुद्धि होकर वृष्टि द्वारा संसार को सुख प्राप्त होना अर्थात् शुद्ध वायु का श्वास, स्पर्श, खानपान से आरोग्य, बुद्धि, बल, पराक्रम बढ़ के धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष का अनुष्ठान पूरा होना। इन्हीं बातों को शास्त्रों में देखें तो शतपथ ब्राह्मण में- मुखं वा एतद् यज्ञानां यदग्नि होत्रम्। यजुर्वेद (18.9) के अनुसार अग्निहोत्र सभी यज्ञों (सात्विक कर्मों) का मुख है। कृषिश्च वृष्टिश्च मे यज्ञेन कल्पेताम्।
साथ ही ऋग्वेद (2.9.1) में ‘सहस्रंभर: शुचि जिह्वोऽग्नि:’ की पवित्र ज्वाला वाली यज्ञाग्नि सहस्रों लाभ पहुँचाने वाली है, जिससे वृष्टि व कृषि भी होती है। और भी भगवद् गीता (3.10) में भी कहा है - ‘एष वोऽस्त्विष्टकामधुक्’अर्थात् यह यज्ञ इच्छित कामनाओं का देने वाला है।
यदि हम शारीरिक व मानसिक व्याधियों से छुटने या बचे रहने के लिए यज्ञ (होम) करते हैं, तो नि:संदेह हम सभी प्रकार के आधि-व्याधियों से हमेशा अछूता रहेगे।
आयुर्वेद के चरक-सुश्रुत ग्रंथो में इसी यज्ञ को रोग-निवारक के कारण ‘दैवीय चिकित्सा पद्धति’कहा है। जिसमें रोगानुसार भिन्न-भिन्न औषधियों को आहुत की जाती है अथवा धूनी (धूम्र) दी जाती है। जिसके सूक्ष्म औषधीय वायु (आरोग्य कारक वायु) का सेवन से या विस्तरण से तीनों प्रकार के दु:खों (आधिदैविक- आधिभौतिक-आध्यात्मिक) से हम बचे रह सकते हैं।
इसी विषय पर चरक संहिता (सूत्र. मात्राशि. के सूत्र 20-25) में पूरा प्रकरण चला है। जिसमें यज्ञहोम से उत्पन्न आरोग्यवर्धक वायु में रहने या श्वास लेने से शिरोवेदना, साइनस, माइग्रेन, खाँसी, टी.बी, कुष्ठ विषम-ज्वर, विषैली वायु आदि सभी में विशेष लाभ मिलता है। और यदि जहरीली हवाओं व दवाओं का प्रयोग इसी प्रकार चलता रहा, तो आने वाले कुछ वर्षों में और प्रकृति का भयंकर ह्नास होगा व नई पीढ़ी तथा राष्ट्र संस्कार, देशप्रेम आदि प्रति बहुत ही कमजोर पड़ पायेगा।
अत: आईये इस दैवीय विधा-भारतीय जीवन शैली को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाकर स्वयं तो आत्मनिर्भर बनें एवं अपने परिवार, समाज और राष्ट्र को भी आत्मनिर्भर व सशक्त बनायेंगे।
हो संकल्प देव ‘यज्ञ’ का, रहे न दु:ख से मारा।
हो समृद्ध तन-मन-धन से, ऐसा हो भारत हमारा।।
द्रव्य यज्ञ, योग यज्ञ एवं ज्ञान यज्ञ कात्रिवेणी संगम यज्ञमहोत्सव |
अपने गांव या शहर में ‘यज्ञ महोत्सव’के आयोजन हेतु सम्पर्क करें-मो. 9068565306ई-मेल- yajyavijyaanam@patanjaliyogpeeth.org.in |
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